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- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(पिछले भाग से आगे...)वेद कहता है - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षम् परिषस्वजाते।आपके हृदय में आप और आपका भगवान दोनों बैठे हैं एक जगह, हृदय में। जीवात्मा के पीछे परमात्मा। जीवात्मा अच्छा बुरा कर्म करता है और परमात्मा नोट करता है। भगवान कहते हैं, तुम मान लो मैं तुम्हारे पीछे बैठा हूं। राइट एबाउट टर्न हो जाओ, लैफ्ट एबाउट टर्न हो जाओ, सरेण्डर कर दो, शरणागत हो जाओ, यह मान लो मैं तुम्हारे पास हूं बस, मैं मिल जाऊंगा।जैसे गले में किसी के कण्ठी है, चेन है। बिल्कुल फिट है। वह स्त्री अपना सब श्रृंगार करके कपड़ा- साड़ी सब पहन के और वह ढूंढती है चेन कहां है हमारी? अब चिल्ला रही है नौकरानी पर। तो नौकरानी कहती है सरकार! वह तो आपके गले में है। ओ! मेरे गले में है। वह जानती नहीं, इसलिये परेशान है चेन के लिये। और विश्वास हो गया? हां, हो गया। एक कहावत है न, कांख में छोरा और गांव में ढिंढोरा। जैसे अपनी कांख में छोटे से बच्चे को लिए हुए है स्त्री और वह सबसे पूछती फिर रही है, मेरा बच्चा इधर आया है?तो भगवान तो हृदय में है। तुम बद्रीनारायण जाते हो, तमाम तीर्थों में जाते हो, मंदिरों में जाते हो... क्या बात है वहां? वहां भगवान का मंदिर है। भगवान का मंदिर है? तुमने यह नहीं पढ़ा कि मामूली रामायण पढऩे वाला भी - प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।भगवान सब जगह समान रुप से व्याप्त हैं। बद्रीनारायण वाले भगवान कोई बड़े भगवान हैं? आपके बगल में भी मंदिर होगा मुहल्ले में, वह क्या छोटे भगवान होते हैं? और आपके हृदय में हैं वह क्या कोई और भगवान हैं? वही एक भगवान हैं। उसको मानो। यह मानने का अभ्यास करना होगा और इस भाव को निरन्तर मानना होगा।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। माना जाता है कि शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। समुद्री प्राणी का खोल शंख कितना चमत्कारी हो सकता है। ओड़ीशा में जगन्नाथपुरी शंख-क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख जैसा है।हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है।समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें शंख भी शामिल था। जिनमें सर्वप्रथम पूजित देव गणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। सौभाग्य उदय होने पर ही इसकी प्राप्ति होती है। भगवान शंकर रुद्र शंख को बजाते थे। जबकि उन्होंने त्रिपुराशुर के संहार के समय त्रिपुर शंख बजाया था।शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा रानी के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में भगवान विष्णु ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के बाद सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई। भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। इसलिए अन्य 13 शंखों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। इसलिए यह भी मान्यता है कि जहां शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। शंख से निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।----
- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 3)(पिछले भाग से आगे...)देखो, आजकल परीक्षा होती है, हाईस्कूल, इण्टर वगैरह की। एक लड़का बैठकर पेपर दे रहा है, उसका उत्तर लिख रहा है। उसकी बगल वाला लड़का बहुत अधिक काबिल है, लेकिन नकल करेंगे तो वो पकड़ लेगा और फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसकी यह परीक्षा ही बेकार चली जाए, इस डर से वह नकल नहीं करता। संसार से हम लोग इतना डरते हैं कि अपराध से बचते रहते हैं। अगर संसार का डर न हो तो सब प्रलय हो जाए। एक- दूसरे को खा जायं।हम मन में चोरी-चोरी सोचते हैं -देखा न! यह बड़ा लाट साहब बना हुआ है। देखो तो, एक दूसरे को देख कर के जलते हैं। हम यह पाप क्यों कमाते हैं, इससे कुछ फायदा होगा क्या? वह अरबपति है, हम अगर ईष्र्या करेंगे तो क्या वह अरबपति हमको दे देगा दस-बीस लाख? अरे! हम अपना नुकसान कर रहे हैं। तो सब जगह, सबमें भगवान को देखना, मानना, बस! यही करने से भगवत प्राप्ति हो जाती है।धन्ना, जाट और बड़े-बड़े महापुरुष हमारे यहां अंगूठा छाप हुये, लेकिन उन्होंने केवल विश्वास कर लिया और उन्हें भगवत प्राप्ति हो गई। उन्होंने न कोई जप किया, न तप किया, न व्रत किया, न पूजा किया, न पाठ किया। विश्वास हमारे हृदय में हो कि वह (भगवान) सब जगह हैं, वह हमारे आइडियाज़ नोट कर रहे हैं।इसका अभ्यास करो रोजाना, आदत पड़ जायेगी। जैसे आप लोग अपना कपड़ा पहनते हैं तो हर समय ध्यान रखते हैं, ठीक है न, हां, हां, हां! अभ्यास हो गया उसको। ऐसे ही जैसे अपने आपको हर समय आप रियलाइज करते हैं। मैं हूं, जो मैं कल वहां गया था, वहीं मैं गहरी नींद में सो गया था, वहीं मैं फिर वॉकिंग के लिये गया था। वहीं मैं, वहीं मैं, वहीं मैं, मैं ....यह फीलिंग हर समय आपको है। बस इसी के साथ मैं और मेरा भगवान दोनों एक जगह हैं।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- -विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 2)(पिछले भाग से आगे...)हम अकेले नहीं हैं। मनुष्य का डर तो हम मानते हैं और भगवान का डर नहीं मानते। अगर यहीं पर हजार नोट रुपए की गड्डी या एक लाख रुपए कहीं पड़े हों, हम देख रहे हैं, हां लेकिन सब देख रहे हैं, अगर हम उठायेंगे इसको और रखेंगे पर्स में, तो जिसका होगा वह कहेगा ए, ए, ए, ए! क्या कर रहा है? तब मेरी भद्द हो जायेगी और जब सब चले गये अपने-अपने घर और फिर भी पड़ा है रुपया, तो उठाकर जेब में रख लिया, इसका मतलब क्या?कि हम मनुष्यों से तो डरते हैं, भगवान से नहीं डरते। वह अन्दर बैठा बैठा देख रहा है, नोट कर रहा है, हमारे कर्मों का फल देगा, यह फीलिंग क्यों नहीं होती? सोचो! इसे बार-बार सोचो और अभ्यास करो। अगर यह अभ्यास हो जाए तो भगवत प्राप्ति में कुछ नहीं करना धरना। न कोई कर्म है, न कोई ज्ञान है, न कोई योग है। केवल,अस्तीत्येवोप्लब्धस्य तत्व भाव: प्रसीदति।वेद कहता है केवल तुम मान लो, मैं तुम्हारे हृदय में हूं, मैं सब जगह व्याप्त हूं। यह मान लो, मान लो और हर समय माने रहो। ऐसा नहीं कि आधा घंटा मान लिया और फिर भूल गये।किसी को कष्ट देते हो, गाली देते हो, अपमान करते हो, तो क्यों भूल जाते हो कि उसके हृदय में श्यामसुन्दर हैं, उसको हम दु:खी क्यों करें? यह गलत है, पाप है। तो यह बात केवल अनुभव करें हम। हर समय महसूस करें, भगवान हमारे अंत:करण में बैठे हैं और हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन श्रृंखला(भाग - 1)सभी जिज्ञासु प्रेम रस पिपासु ऐसा प्रश्न करते हैं कि भगवान कब मिलेंगे? कैसे मिलेंगे? बस यही एक प्रश्न भी है क्योंकि संसार में तो कभी सुख मिला नहीं, वहां तो तनाव, अशांति, अतृप्ति, अपूर्णता यही सब मिला। तो भगवान कैसे मिलेंगे यह जिज्ञासा, व्याकुलता सब में रहती है चोरी चोरी। भगवान कहते हैं भई देखो! अगर तुमको हमसे मिलना है तो कुछ करना नहीं है। हैं! करना नहीं है? तो फिर तुम क्यों नहीं मिलते? अरे! मैं तो तुम्हारे हृदय में बैठा हूं। हां, सुनते तो हैं। बस यही तो तुम्हारी गलती है। सुनते हो, मानते नहीं हो।देखो! किसी के हाथ में एक हजार का नोट जब आता है, गरीब आदमी के और वह देखता है, हां, एक हजार का नोट! यह फीलिंग होती है, खुशी होती है और भगवान हमारे हृदय में हैं यह खुशी नहीं हो रही है किसी को, और कहता है कि हां, हमें मालूम है भगवान घट घट में वास करते हैं, हमको मालूम है। यह सुना है, पढ़ा है, माना नहीं। अगर यह मान लें तो भगवत्प्राप्ति तुरन्त हो जाय। तत्काल हो जाय। एक सेकेंड नहीं लगेगा और खुशी में पागल हो जायेंगे।हमारे हृदय में श्यामसुन्दर हैं, इस फीलिंग को बढ़ाना है, अभ्यास करो इसका। कभी भी अपने आपको अकेला न मानो, बस एक सिद्धान्त याद कर लो। हम लोग जो पाप करते हैं, क्यों करते हैं? अकेला मानकर अपने आपको। हम जो सोच रहे हैं, कोई नहीं जानता। हम जो करने जा रहे हैं, कोई नहीं जानता। हम जो झूठ बोलने जा रहे हैं, कोई नहीं जान सकता। यह चालाकी, चार सौ बीस हमने तमाम जिन्दगी में यही तो किया है इक_ा और क्या किया? जितना अधिक छल-कपट, दांव-पेंच हम इक_ा कर लेते हैं, उतना ही संसारी लोग कहते हैं बड़ा एक्सपर्ट है, काबिल है, बहुत बुद्धिमान है। और जो भोला भाला होता है बिना छल कपट के, अरे यह बुद्धू है। हां, यह कोई मनुष्य है।किसी ने झापड़ लगा दिया और हमने सिर झुका दिया। अरे यह तो बहुत बड़ी बात है। सहनशीलता का गुण दिव्य गुण है। लेकिन दूसरा कहता है क्यों रे! तू हट्टा कट्टा और उसने झापड़ लगाया तूने ऐसे सिर नीचे कर लिया। मैं होता तब तो उसको वो झापड़ लगाता कि दांत बाहर आ जाते। यह लो उसको और पट्टी पढ़ा रहा है वह उल्टी। तो यह फीलिंग हमको हर समय हर जगह लाना होगा, अभ्यास करो इसका।(क्रमश:, शेष प्रवचन अगले भाग में)
- सनातन धर्म में हर दिवस का संबंध किसी न किसी देवता से है। भगवान् शंकर सोमवार को सबसे ज्यादा पूजे जाते हैं। वास्तव में ये सारे दिवस भगवान् शंकर से ही प्रकट माने जाते हैं। शिव-महापुराण के अनुसार प्राणियों की आयु का निर्धारण करने के लिए भगवान् शंकर ने काल की कल्पना की। उसी से ही ब्रह्मा से लेकर अत्यन्त छोटे जीवों तक की आयुष्य का अनुमान लगाया जाता है। उस काल को ही व्यवस्थित करने के लिए महाकाल ने सप्तवारों की कल्पना की। सबसे पहले ज्योतिस्वरूप सूर्य के रूप में प्रकट होकर आरोग्य के लिए प्रथमवार की कल्पना की।अपनी सर्वसौभाग्यदात्री शक्ति के लिए द्वितीयवार की कल्पना की। उसके बाद अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमार के लिए अत्यन्त सुन्दर तृतीयवार की कल्पना की। उसके बाद सर्वलोकों की रक्षा का भार वहन करने वाले परम मित्र मुरारी के लिए चतुर्थवार की कल्पना की। देवगुरु के नाम से पंचमवार की कल्पना कर उसका स्वामी यम को बना दिया। असुरगुरु के नाम से छठे वार की कल्पना करके उसका स्वामी ब्रह्मा को बना दिया एवं सप्तमवार की कल्पना कर उसका स्वामी इंद्र को बना दिया। नक्षत्र चक्र में सात मूल ग्रह ही दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए भगवान् ने सूर्य से लेकर शनि तक के लिए सातवारों की कल्पना की। राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण दृष्टिगत न होने से उनके वार की कल्पना नहीं की गई।शिवमहापुराण के अनुसार स्वास्थ्य, संपत्ति, रोग-नाश, पुष्टि, आयु, भोग तथा मृत्यु की हानि के लिए रविवार से लेकर शनिवार तक भगवान् शंकर की आराधना करनी चाहिए। पुराणों के अनुसार सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान् शंकर के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। लगता है कि भगवान् शंकर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।अथवा सोम का अर्थ सौम्य होता है। भगवान् शंकर अत्यन्त शांत समाधिस्थ देवता हैं। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है। अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। अथवा सोम में ओम समाया हुआ है। भगवान शंकर ऊंकार स्वरूप हैं।-------------
- पंचकेदार (पांच केदार) हिन्दुओं के पांच शिव मंदिरों का सामूहिक नाम है। ये तमाम मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित हैं। माना जाता है कि इन मंदिरों का निर्माण समय-समय पर पाण्डवों ने किया था। इनमें शामिल हैं- केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मद्महेश्वर और कल्पेश्वर।1. केदारनाथ मंदिर-समुद्र तल से 3583 मीटर की ऊंचाई पर है। गंगोत्री यात्रा के बाद केदारनाथ यात्रा का विधान है जो गंगोत्री से लगभग 343 किलोमीटर दूरी पर जनपद रुद्रप्रयाग में स्थित है। केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर की ऊंचाई 80 फीट है, जो एक विशाल चबूतरे पर खड़ा है। इस मंदिर के निर्माण में भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। यह भव्य मंदिर पाण्डवों की शिव भक्ति, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनके बाहुबल का जीता जागता प्रमाण है। मंदिर के गर्भ गृह में केदारनाथ का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है, जो अनगढ़ पत्थर का है। पुराणों के अनुसार केदार महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग है।2. भगवान मद्महेश्वर- द्वितीय केदार के रूप में भगवान शिव के मद्महेश्वर रूप की पूजा की जाती है। मद्महेश्वर चौखंभा शिखर की तलहटी में 3289 मीटर की ऊंचाई स्थित मद्महेश्वर मंदिर में भगवान शिव की पूजा नाभि लिंगम् के रूप में की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता के अनुसार यहां का जल इतना पवित्र है कि इसकी कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त मानी जाती हैं।3. तुंगनाथ मंदिर - तृतीय केदार के रूप में प्रसिद्ध तुंगनाथ मंदिर सबसे अधिक समुद्र तल से 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां भगवान शिव की भुजा के रूप में पूजा-अर्चना होती है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से निर्मित यह मंदिर हिमालय के रमणीक स्थलों में सबसे अनुपम है। मन्दिर स्वयं में कई कथाओं को अपने में समेटे हुए है। कथाओं के आधार पर यह माना जाता है कि जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडवों के हाथों काफ़ी बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ, तो इससे भगवान शिव पांडवों से रुष्ट हो गये। भगवान शिव को मनाने व प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने इस मन्दिर का निर्माण कराया।4. रुद्रनाथ मंदिर- यह मंदिर चौथे केदार के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर समुद्र तल से 2286 मीटर की ऊंचाई पर एक गुफ़ा में स्थित है, जिसमें भगवान शिव की मुखाकृति की पूजा होती है। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दमुक गांव से गुजरता है। लेकिन बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं, इसलिए वे गोपेश्वर के निकट सगर गांव होकर ही यहां जाना पसंद करते हैं। भारत में शिव को समर्पित तमाम मंदिरों में उनके लिंग की ही पूजा की जाती है। केवल रुद्रनाथ मंदिर में उनके मुख की पूजा होती है। मंदिर से जुड़ा यही अद्वितीय तथ्य इस मंदिर को सबसे अलग और रोचक बनाता है। यहां पूजे जाने वाले शिव जी के मुख को नीलकंठ महादेव कहते हैं। रुद्रनाथ मंदिर में भगवान शंकर के एकानन यानि मुख की पूजा की जाती है, जबकि संपूर्ण शरीर की पूजा नेपाल की राजधानी काठमांडू के पशुपतिनाथ में की जाती है।5. कल्पेश्वर मंदिर- पांचवे केदार के रूप में कल्पेश्वर को पूजे जाने की परम्परा है। यहां भगवान शिव की जटा की पूजी जाती हैं। मान्यता है कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे घोर तपस्या की थी। जिसके कारण यह क्षेत्र कल्पेश्वर या कल्पनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक किवदंती के अनुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में भगवान की आराधना की अभय का वरदान प्राप्त किया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव की जटा जैसी प्रतीत होने वाली चट्टान की पूजा की जाती है।हर साल सावन के महीने में खासकर इन मंदिरों में भक्तों की भीड़ लगी रहती है।---
- -बने हैं 11 सर्वार्थ सिद्धि, 10 सिद्धि योग, 12 अमृत योग और 3 अमृत सिद्धि योगशिव पुराण के अनुसार शिव पुराण के अनुसार जो भी इस माह में सोमवार का व्रत करता है, भगवान शिव उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। भगवान शिव इस माह में सोमवार का व्रत करने वाले भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इस बार सावन का पहला सोमवार 6 जुलाई को पड़ रहा है। सावन के महीने में शंकर भगवान की पूजा करना और उन्हें जल चढ़ाना बहुत फलदायी माना जाता है।जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी ने बताया कि शास्त्रों के अनुसार भोलेनाथ को ये महीना बहुत प्रिय है और जो भी भक्त सावन के महीने में पूरे विधि-विधान से शंकर भगवान की पूजा करते हैं, उन पर भोलेनाथ की विशेष कृपा होती है। सावन के महीने में पडऩे वाले सोमवार का बहुत महत्व माना जाता है। श्रावण मास की महत्ता के बारे में विस्तार से जाने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी से .....कब है सावन का पहला सोमवार?सावन का पहला सोमवार 6 जुलाई को है और श्रावण मास की शुरूआत भी इसी दिन से हो रही है। इस बार श्रावण मास में कुल पांच सोमवार पड़ेंगे। सावन के महीने में अद्भुत संयोग बन रहा है क्योंकि सावन की शुरूआत का पहला दिन ही सोमवार है, वहीं सावन के अंतिम दिन यानी 3 अगस्त को भी सोमवार का ही दिन है।श्रावण मास के सोमवार का महत्वसावन के महीने में पडऩे वाले सोमवार का बहुत महत्व माना जाता है। मान्यता है कि इस महीने में भगवान शिव की कृपा से विवाह सम्बंधित सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सावन का महीना भगवान शिव और विष्णु का आशीर्वाद लेकर आता है। माना जाता है कि देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए पूरे श्रावण मास में कठोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था।सावन के सोमवार में शिव पूजन का महत्वसोमवार का दिन शिवजी की पूजा के लिए खास माना जाता है। हिंदू मान्यता के अनुसार सावन के सोमवार पर शिवलिंग की पूजा करने पर विशेष फल की प्राप्ति होती है। बेल पत्र से भगवान भोलेनाथ की पूजा करना और उन्हें जल चढ़ाना बहुत फलदायी माना जाता है। कुंवारी लड़कियां मनचाहा वर प्राप्त करने के लिए सावन के सोमवार का व्रत रखती हैं। शिव पुराण के अनुसार जो भी भक्त सावन के महीने में सोमवार का व्रत रखते हैं, भोलेनाथ उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।श्रावण मास में दूर करें दांपत्य जीवन की समस्याएंदांपत्य जीवन की खटास दूर करने के लिए पति-पत्नी को मिलकर पूरे श्रावण मास दूध, दही, घी, शहद और शक्कर अर्थात पंचामृत से भगवान शिव शंकर का अभिषेक करना चाहिए।पार्वती पतये नम: मंत्र का रुद्राक्ष की माला से 108 बार जाप करें और भगवान शिव के मंदिर में शाम के समय गाय के घी का दीपक संयुक्त रूप से जलाएं।कब-कब पड़ेंगे सोमवारइस साल के सावन माह में कुल पांच सोमवार पड़ेंगे। पहला सोमवार जहां शुरुआत के दिन यानि कि 6 जुलाई को ही पड़ रहा है, वहीं दूसरा सोमवार 13 जुलाई को पड़ेगा। इसके बाद, 20 जुलाई, 27 जुलाई और 3 अगस्त के दिन सावन का सोमवार पड़ रहा है। इस महीने में मोनी पंचमी, मंगला गौरी व्रत, एकादशी, प्रदोष व्रत, हरियाली और सोमवती अमावस्या, हरियाली तीज, नागपंचमी और रक्षाबंधन जैसे महत्वपूर्ण त्योहार पड़ेंगे। साथ ही इस बार सावन में 11 सर्वार्थ सिद्धि, 10 सिद्धि योग, 12 अमृत योग और 3 अमृत सिद्धि योग भी बन रहे हैं।श्रावण मास में क्या करें....- श्रावण मास में सुबह के समय जल्दी उठे। इसके बाद अपने स्नान के जल में दो बूंद गंगाजल डालकर स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें।- पूजा की थाली में रोली-मोली, चावल, धूप, दीपक, सफेद चंदन, सफेद जनेऊ, कलावा, पीला फल, सफेद मिष्ठान, गंगा जल तथा पंचामृत आदि रखें।- गाय के घी का दीपक और धूपबत्ती जलाकर वही आसन पर बैठकर शिव चालीसा का पाठ करें और शिवाष्टक भी पढ़ें।- श्रावण सोमवार को मांस, मदिरा आदि चीजों से दूर रहें। अगर आप श्रावण में भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं तो ब्रम्हचर्य का पालन करें। सोमवार को तो विशेष रूप से ब्रम्हचर्य का पालन करें---
- - उपछाया चंद्र ग्रहण होगा- सूतक काल नहीं लगेगा- कहां दिखेगा चंद्र ग्रहण5 जुलाई, रविवार के दिन इस साल का तीसरा चंद्रग्रहण लगने जा रहा है। एक महीने के अंदर ही लगने वाला ये तीसरा ग्रहण है। जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार यह ग्रहण वास्तविक चंद्र ग्रहण ना होकर एक उपछाया चंद्र ग्रहण होगा। उपछाया चंद्र ग्रहण को धार्मिक लिहाज से बहुत ज्यादा मान्यता नहीं दी जाती है। 5 जुलाई को लगने वाला उपछाया चंद्र ग्रहण सुबह 8 बजकर 37 मिनट पर शुरू होगा जो 11 बजकर 22 मिनट पर समाप्त हो जाएगा।कहां दिखेगा चंद्र ग्रहण?ये चंद्र ग्रहण अमेरिका, दक्षिण-पश्चिम यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्से में दिखाई देगा, लेकिन भारत में इसे नहीं देखा जा सकेगा। ग्रहण काल में चंद्रमा कहीं से कटा हुआ होने की बजाय अपने पूरे आकार में नजर आएगा। ग्रहण काल के दौरान चंद्रमा धनु राशि में होंगे.इस चंद्र ग्रहण की खास बातें5 जुलाई को लगने वाला ग्रहण उपछाया चंद्र ग्रहण होगा। शास्त्रों में उपछाया चंद्र ग्रहण को ग्रहण नहीं माना जाता है। इसलिए इस दिन कोई भी कार्य करने पर प्रतिबंध नहीं होगा। हालांकि ज्योतिषविद थोड़ी बहुत सावधानी बरतने की सलाह जरूर देते हैं। यह ग्रहण धनु राशि में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के दौरान, शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को लगेगा। खास बात ये है कि इसी दिन गुरू पूर्णिमा भी है। इस उपछाया चंद्रग्रहण को धनुर्धारी चंद्रग्रहण भी कहा जा रहा है।क्या होता है उपछाया ग्रहण?5 जुलाई को लगने वाला ग्रहण उपछाया चंद्र ग्रहण है। चंद्र ग्रहण के शुरू होने से पहले चंद्रमा धरती की उपछाया में प्रवेश करता है। जब चंद्रमा पृथ्वी की वास्तविक छाया में प्रवेश किए बिना ही बाहर निकल आता है तो उसे उपछाया ग्रहण कहते हैं। चंद्रमा जब धरती की वास्तविक छाया में प्रवेश करता है, तभी उसे पूर्ण रूप से चंद्रग्रहण माना जाता है। उपछाया ग्रहण को वास्तविक चंद्र ग्रहण नहीं माना जाता है। ज्योतिष में भी उपछाया को ग्रहण का दर्जा नहीं दिया गया है।क्या इस चंद्र ग्रहण पर सूतक लगेगा?ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार उपछाया चंद्र ग्रहण को ग्रहण की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसलिए बाकी ग्रहण की तरह इस उपछाया चंद्र ग्रहण में सूतक काल नहीं लगेगा। सूतक काल मान्य ना होने की वजह से मंदिरों के कपाट बंद नहीं किए जाएंगे और ना ही पूजा-पाठ वर्जित होग। इसलिए इस दिन आप सामान्य दिन की तरह ही सभी काम कर सकते हैं।चंद्र ग्रहण का इस राशि पर सबसे ज्यादा असर5 जुलाई को लगने वाला चंद्र ग्रहण धनु राशि में लग रहा है। जिस समय ये ग्रहण लग रहा है उस समय कर्क लग्न उदित होगा। धनु राशि के लोगों को चंद्र ग्रहण के समय बहुत सावधान रहने की जरूरत है। इस राशि के लोगों को अपनी सेहत और दांपत्य जीवन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी।ग्रहण के दौरान रखें इन बातों का ध्यानयह ग्रहण चन्द्रमा का उपछाया ग्रहण है. इसमें चन्द्रमा पर केवल छाया की स्थिति रहेगी. इसमें किसी के लिए कोई भी सूतक के नियम लागू नहीं होंगे। पूर्णिमा की पूजा उपासना भी विधि विधान से की जा सकेगी। उपछाया चंद्र ग्रहण में ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है हालांकि थोड़ी सावधानी जरूर रखनी चाहिए और ग्रहण के नियमों का पालन करना चाहिए।तीन प्रकार से लगते हैं चंद्र ग्रहणचंद्र ग्रहण तीन प्रकार से लगते हैं। इनमें पहला पूर्ण चंद्र ग्रहण, दूसरा आंशिक और तीसरा उपच्छाया चंद्र ग्रहण होता है। खगोल विज्ञान के अनुसार जब सूर्य चंद्रमा और पृथ्वी तीनों एक ही रेखा में हों और सूर्य व चंद्रमा के बीच में पृथ्वी आकर चंद्रमा को पूरी तरह ढक ले तो इसे पूर्ण चंद्र ग्रहण कहते हैं जबकि आंशिक चंद्र ग्रहण में पृथ्वी चंद्रमा को आंशिक रूप में ढकती है।नग्न आंखों से नहीं दिखाई देगा चंद्र ग्रहण5 जुलाई को लगने वाला चंद्र ग्रहण नग्न आंखों से दिखाई नहीं देगा। इसे टेलिस्कोप के माध्यम से ही देखा जा सकेगा। क्योंकि उपच्छाया चंद्र ग्रहण में चंद्रमा के आकार में फर्क नहीं पड़ता है। बस इसके आसपास केवल हल्की धुंधली सी परत नजर आती है। यह चंद्र ग्रहण प्रभावी भी नहीं होता है। लेकिन राशियों पर इसका असर जरूर पड़ता है।
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जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार सूर्यग्रहण के दौरान सभी शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं, लेकिन भगवान का मानसिक जाप और दान-पुण्य करना इस अवधि में शुभ होता है। मान्यता है कि ग्रहण के समय किए गए दान तथा मंत्र जाप शीघ्र सिद्धि प्रदान करते हैं। आप भी सूर्यग्रहण पर अपनी राशि अनुसार दान-पुण्य कर सौभाग्य का वर प्राप्त कर सकते हैं।
-ग्रहण में मोती का दान करने से कई विकट समस्याएं दूर हो जाती हैं। आपके परिवार में सुख-शांति का वातावरण रहेगा और संतान के कॅरिअर से संबंधित समस्याएं भी खत्म हो जाएंगी।-मेष इस राशि वालों को गुड़, लाल वस्त्र, मसूर की दाल और लाल वस्तुओं का दान करना चाहिए।-वृषभ इस राशि वालों के लिए चावल, कपूर, सफेद कपड़ा या दूध का दान करना वृषभ राशि के लिए उत्तम है।-मिथुन इस राशि वालों को हरी पत्तेदार सब्जी, हरी दाल, मूंग की दाल, हरा वस्त्र दान करना चाहिए, पुण्य प्राप्त होगा।-कर्क राशि वाले दही, सफेद कपड़ा, दूध, चांदी, चीनी का दान करें। इन वस्तुओं का दान जीवन में आकस्मिक संकट से बचाता है।-सिंह राशि वाले लोगों के लिए तांबे का सिक्का, तांबे का बर्तन, गेहूं, आटा, स्वर्ण, सेब और कोई भी मीठा फल दान करने से ग्रहण के अशुभ प्रभाव का निवारण होगा।-कन्या राशि वाले सब्जी, गायों को हरा चारा, जरूरतमंद को भोजन, जल, इलायची और शर्बत का दान करें। इससे परिवार के सदस्यों के जीवन की रक्षा होती है।-तुला इस राशि के व्यक्ति मंदिर को पूजन सामग्री, झाड़ू, अगरबत्ती, दीपक, घी, इत्र का दान करें। इनका दान भाग्योदय में सहायक है।-वृश्चिक राशि वाले पीली वस्तुएं, पीली मिठाई, हल्दी, गन्ना, गन्ने का रस, गुड़, चीनी और चंदन का दान करें। इससे कारोबार और रोजगार की बाधाएं दूर होंगी।-धनु इस राशि के लिए चना, बेसन, केसर, स्वर्ण, मिठाई, चांदी और घी का दान धनु राशि के लिए शुभ माना गया है।-मकर राशि को चना, उड़द, पापड़, मटका, तिल, सरसों, कंघा और काजल का दान करना चाहिए, इससे समस्त अनिष्ट का निवारण होता है।-कुंभ राशि वाले लोगों को ईंधन, आटा, मसाले, हनुमान चालीसा, दूध, जरूरतमंद को भोजन कराने से कभी अन्न-धन का संकट नहीं होगा।-मीन राशि के लोग पक्षियों को दाना डालें, चींटियों के बिल पर गुड़ व आटे का मिश्रण चढ़ाएं। साथ ही केला, चने की दाल और जरूरतमंद को वस्त्र दान करें। इससे अध्ययन व कारोबार की बाधाएं दूर होंगी।-- - साल 2020 की सबसे बड़ी खगोलीय घटना कल होने जा रही है। 21 जुलाई 2009 के बाद कल 21 जून को सबसे अधिक समय और अब तक का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण देखने को मिलेगा । ग्रहण के दौरान सूर्य का लगभग 88 प्रतिशत हिस्सा चंद्रमा द्वारा ढंक लिया जाएगा। यह भारत के अलावा उत्तर पूर्व एशिया उत्तरी यूरोप आदि में दिखाई देगा। इस बारे में और अधिक जानकारी दे रहे हैं जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी......क्या होता है सूर्यग्रहण ?सूर्य ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच से गुजरता है। इस छल्लेदार सूर्य ग्रहण को देखने के लिये वैज्ञानिक और आम लोग सालों इंतजार करते हैं। वर्ष 2009 के बाद इस तरह की खगोलीय घटना सामने नहीं आई। 21 जून को साल का पहला सूर्यग्रहण साल 2020 का भारत में दिखाई देने वाला एक मात्र सूर्य ग्रहण। इस ग्रहण का परम ग्रास 99.4 प्रतिशत रहेगा, यानी कुछ स्थानों पर सूर्य पूरी तरह छिप जाएगा। यह ग्रहण करीब 03 घंटे 25 मिनट रहेगा। यह छल्लेदार सूर्य ग्रहण होगा और लखनऊ में आंशिक दिखेगा मगर राजस्थान, उत्तराखंड के कुछ हिस्सों से पूर्ण छल्लेदार दिखाई देगा।ग्रहण का समयग्रहण स्पर्श 10: 14 प्रात:ग्रहण मध्य 11: 53 प्रात:ग्रहण काल 03:25 मिनटग्रहण मोक्ष 01: 38 दोपहरग्रहण सूतक का प्रारम्भ आज रात्रि 10: 14 से प्राम्भ हो जाएगा।सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों । चन्द्र और राहू या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिए। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये और यह तब होगा जब चंद्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों, सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढंक जाता है। उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं। चन्द्र छाया की गति 1800 कि. मीटर से 8000 कि. मीटर प्रति घण्टा होती है। परन्तु यह चन्द्र की स्थिति पर निर्भर करती है। इस कारण सूर्यग्रहण किसी भी स्थान पर साढे सात मिनट से अधिक नहीं हो सकता है।क्या करें क्या न करें-धार्मिक शास्त्रों के अनुसार ग्रहण काल में भगवान की मूर्ति स्पर्श नहीं करनी चाहिए।-सूर्य ग्रहण के समय ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए।-सूतक काल ग्रहण लगने पहले ही शुरू हो जाता है। इस समय खाने पीने की मनाही होती है।- सूतक काल के समय शुभ काम और पूजा पाठ नहीं की जाती है। भगवान की मूर्ति को स्पर्श करने की भी मनाही होती है।-ग्रहण के दौरान बाल और नाखून काटने से बचना चाहिए। इसके अलावा न तो कुछ खाना चाहिए और न ही खाना बनाना चाहिए।- गर्भवती महिलाओं को सूर्य ग्रहण के समय विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसी महिलाओं को सूर्यग्रहण नहीं देखना चाहिए। सूर्यग्रहण देखने से शिशु पर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं। गर्भवती महिलाओं को ग्रहण के समय कैंची, चाकू आदि से कोई वस्तु नहीं काटनी चाहिए।-ग्रहण के दौरान कुछ खास बातों का ध्यान रखना चाहिए ऐसा शास्त्रों का कहना है। इन उपायों को करने से ग्रहण के बुरे प्रभावों से बचा जा सकता है।-ग्रहण समाप्त होने के बाद सूर्योदय के समय पुन: स्नान करके संकल्पपूर्वक इन वस्तुओं का दान कर दें।- शास्त्रों के अनुसार संतान की उत्पत्ति, यज्ञ, सूर्य संक्रांति और सूर्य एवं चंद्रग्रहण में रात में भी स्नान करना चाहिए।- ग्रहण के सूतक एवं ग्रहणकाल में स्नान, दान, जप-पाठ, मंत्र स्रोत पाठ, मंत्र सिद्धि, ध्यान, हवनादि, शुभ कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होता है।- झूठ, कपटादि, बेकार की बातें, मल-मूत्र त्याग, नाखून काटने से भी बचना चाहिए।-वृद्ध, रोगी, बालक एवं गर्भवती स्त्रियों को यथाकूल भोजन या दवाई आदि लेने में कोई दोष नहीं होता है।-गर्भवती महिलाओं को ग्रहण काल में सब्जी काटना, शयन करना, पापड़ सेंकना आदि उत्तेजित कार्यों से परहेज करना चाहिए।-धार्मिक ग्रंथ का पाठ करते हुए प्रसन्नचित रहना चाहिए। इससे भावी संतान स्वस्थ एवं सद्गुणी होती है।- ग्रहण सूतक से पहले ही दूध/दही, अचार, चटनी, मुरब्बा आदि में कुश (एक प्रकार की घास) रख देना उचित होता है। इससे यह दूषित नहीं होते हैं।-सूखे खाद्य-पदार्थों में कुश डालने की आवश्यकता नहीं है।-रोग-शांति के लिए ग्रहणकाल में श्रीमहामृत्युंजय मंत्र का जप करना शुभ होता है।-विशेष प्रयोग चांदी/कांसे की कटोरी में घी भरकर उसमें चांदी का सिक्का( मंत्रपूर्वक) डालकर अपना मुंह देखकर छायापात्र मंत्र पढ़ें तथा ग्रहण समाप्ति पर वस्त्र, फल और दक्षिणा सहित ब्राह्मण को दान करने से रोग से मुक्ति मिलती है ऐसा मान्यताएं कहती हैं।-इससे सामान्य दिनों में किए गए दान की अपेक्षा कई गुना पुण्य प्राप्त होता है। इससे घर में सुख समृद्धि आती है और इष्ट देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है।जानें ग्रहण के बाद किन चीजों के दान से क्या लाभ मिलता है-चांदी का दान देने से मन मजबूत और बुद्धि कुशाग्र होती है। चांदी के आप गहने, सिक्के, मूर्तियां, बर्तन आदि दान कर सकते हैं। इससे घर में वैभव और संपन्नता आती है।-चावल का दान देने से घर में धन-धान्य की कमी नहीं आती है। साथ ही अगर आप ग्रहण के दौरान चावल से हवन करेंगे तो घर से दरिद्रता दूर भागेगी और घर में जल्द मांगलिक कार्य होगा।-दूध और दही दान का भी शास्त्रों में विशेष महत्व बताया है और चंद्रमा का संबंध भी दूध और दही से होता है। ग्रहण के दौरान दूध और दही दान करने से माता लक्ष्मी और भगवान नारायण का आशीर्वाद प्राप्त होता है।-शक्कर दान करने से इष्ट देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है। साथ ही श्रीसूक्त का भी पाठ करना चाहिए। ऐसा करने से ग्रहण का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।-आप सफेद फूल का दान कर सकते हैं। संभव हो सके तो आप मंदिर में जाकर भगवान पर भी सफेद फूल चढ़ा सकते हैं। ऐसी मान्यताएं हैं कि इससे विवाद सुलझता है और लाभ मिलता है।-सम्मान के लिए ग्रहण के बाद आपको सफेद कपड़ों का भी दान कर सकते हैं। सफेद कपड़ों के दान देने से शुभ परिणाम प्राप्त होंगे और घर में फिर से धन की आवक शुरू हो जाती है।
- भारतीय परंपरा में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल सदियों से होता आया है। मिट्टी के कुल्हड़ की सौंधी चाय, मिट्टी के घड़े का मीठा जल और थक्के वाली दही का स्वाद भला कौन भूल सकता है। मिट्टी की हांडी में पकी दाल हर ढाबे की खास पहचान होती है। सिंधुकालीन सभ्यता में भी रोजमर्रा की जिंदगी में मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल के प्रमाण मिले हैं।समय के साथ इसका उपयोग कम होता गया। पर अब इसकी महत्ता को समझते हुए एक बार फिर मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल की उपयोगिता बढ़ रही है। मिट्टी के बर्तनों का उपयोग हमें अपनी धरती से जुड़े रहने को दर्शाता है। वास्तुशास्त्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक माना गया है।वास्तुशास्त्र की बात करें तो मिट्टी के बर्तन सुख, सौभाग्य और बेहतर स्वास्थ्य लाते हैं। घर में मिट्टी के बर्तन रखने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार हर व्यक्ति को मिट्टी या भूमि तत्व के पास ही रहना चाहिए। मिट्टी से बनी वस्तुएं सौभाग्य और समृद्धिकारक होती हैं। मिट्टी के बर्तनों में पकाए अन्न में ईश्वरीय तत्व माना जाता है।भारतीय परंपरा के अनुसार हर घर में एक मिट्टी का घड़ा अवश्य रखा जाता है। माना जाता है कि घड़े का पानी पीने से बुध और चंद्रमा शुभ फल देते हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार घड़े को घर की उत्तर-पूर्व दिशा में रखें। मानसिक रूप से परेशान हैं तो मिट्टी के घड़े से पौधे को पानी दें। वहीं जो लोग मंगल के कोप से प्रभावित हैं, उन्हें भी मिट्टी के बर्तन में ही पानी पीना चाहिए।मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर घर की छत पर पक्षियों के लिए रखने से भी लाभ मिलता है। इसके अलावा मिट्टी से बनी भगवान की मूर्ति को घर में लाने से धन संबंधी परेशानियां दूर हो जाती है। रोजाना तुलसी के पौधे के पास मिट्टी का दीया जलाएं। छत्तीसगढ़ में पोला त्यौहार के अवसर पर मिट्टी के तरह-तरह के खिलौने बाजार में खूब बिकने आते हैं। इन खिलौनों से अपने ड्राइंग रूम को सजाएं। इससे रिश्तों में मधुरता आती है। हर त्यौहार पर घर में मिट्टी के दीये अवश्य जलाएं, माता लक्ष्मी प्रसन्न होंगी।वैज्ञानिक दृष्टिकोण- नहीं खत्म होते हैं माइक्रो न्यूट्रिएंट्समिट्टी के बर्तन में बनी दाल और सब्जी में 100 प्रतिशत माइक्रो न्यूट्रीएंट्स रहते हैं जबकि, प्रेशर कुकर में बनी दाल और सब्जी के 87 प्रतिशत पोषक तत्व एल्युमिनियम के पोषक-तत्वों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं।- गैस -कब्ज की समस्या से राहतमिट्टी के तवे पर बनी रोटी खाने से गैस की समस्या दूर रहती है। दिनभर ऑफिस में बैठने के कारण गैस की परेशानी है तो मिट्टी के तवे पर बनी रोटी खाएं। इससे कब्ज से भी छुटकारा मिलेगा।- बीमारियों से बचावमिट्टी के बर्तन में खाने में मौजूद किसी भी पोषक तत्व को खत्म होने से रोकते है। जिससे हमारे शरीर को पूरे पोषक तत्व मिलते हंै, यह पोषक तत्व शरीर को बीमारियों से बचाने का काम करते हैं। मिट्टी के बरतनों में खाना पकाने से भोजन अधिक पौष्टिक होता है क्योंकि यह आपके भोजन में कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, मैग्नीशियम, सल्फर जैसे मिनरल्स और विटामिन्स को शामिल करता है।भोजन बनता है ज्यादा टेस्टीदूसरे बर्तनों के मुकाबले में मिट्टी के बर्तन में बना भोजन टेस्ट में बहुत स्वादिष्ट होता है। मिट्टी के बर्तन में भोजन को बनने में थोड़ा ज्यादा समय लगता है, लेकिन ऐसा खाना कई तरह की बीमारियों से बचाता है।खाना जल्दी नहीं होता खराबजो खाना मिट्टी के बर्तन में बनाया जाता है, वह जल्दी खराब नहीं होता। इसकी खास वजह ये है कि खाने को बनने में समय लगता है जिस वजह से खाना ज्यादा देर तक ताजा ही रहता है।--------------
- 5 जून को पडऩे वाले उपच्छाया चंद्रग्रहण का विभिन्न राशियों में क्या असर पडऩे वाला है, आइये जानते हैं इस बारे में जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी से।ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी ने कहा कि ग्रहण को वैज्ञानिक केवल एक खगोलीय घटना मानते हैं तो वहीं धार्मिक मान्यताएं भी अपना तर्क देती हैं। ज्योतिषों के अनुसार, ग्रहण से केवल प्रकृति पर फर्क नहीं पड़ता है बल्कि मानव जाति पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। सूर्य और चंद्रग्रहण का अलग-अलग राशियों पर अलग प्रभाव पड़ता है।पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी ने बताया कि साल का दूसरा चंदग्रहण 5 जून की मध्य रात्रि को 11 बजकर 15 मिनट से शुरू होगा और 6 जून को 2 बजकर 34 मिनट तक रहेगा। इस ग्रहण की कुल अवधि 3 घंटे 19 मिनट है। भारत में ग्रहण दृश्य नहीं होगा, इसलिए ग्रहण सूतक नहीं लगेगा, पर चन्द्रमा के संचार से राशियों पर इसका असर जरूर हो सकता है। यह उपच्छाया चंद्रग्रहण ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र के दूसरे चरण और वृश्चिक राशि में लग रहा है। यह उपच्छाया चंद्रग्रहण यूरोप, अफ्रीका , एशिया और ऑस्ट्रेलिया में देखा जाएगा।पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार उपच्छाया चंद्रग्रहण का बारह राशियों पर क्या होगा प्रभाव और जातक क्या करें उपाय -मेष राशि- इस ग्रहण से इस राशि वालों के जीवन में हानियां और परेशानियां बढ़ेंगी, धोखा मिल सकता है। इस राशि के जातक ग्रहण के शुभ प्रभाव के लिए तिल, गुड़ का दान करें । ओम ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायण नम: का 11 माला जाप करें।वृष राशि- इस राशि वाले जातक ग्रहण के प्रभाव से मानभंग यानी अपयश और शारीरिक कष्ट पा सकते हैं तथा अपनों से मतभेद हो सकता है। इस राशि के जातक कंबल व गर्म ऊनी वस्त्र का दान करें । भगवान विष्णु के ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का 5 माला जाप करें।मिथुन राशि- व्यापार में नुकसान और पति-पत्नी को होगा कष्ट। इस राशि के जातक ग्रहण से कष्टों से बचने एवं मनोभिलाषाओं की पूर्ति के लिए ग्रहण के पश्चात चींटियों को पंजीरी और गाय को हरा चारा अवश्य ही खिलाएं, फल और हरी सब्जी का दान करें । भगवान श्री कृष्ण के मंत्र ओम क्लीं कृष्णायै नम: मन्त्र का 11 माला जाप अवश्य ही करें।कर्क राशि- कर्क राशि के जातकों को होगी स्त्री चिन्ता शत्रु होंगे परास्त, करिअर में उन्नति। इस राशि के जातक ग्रहण के शुभ फलों हेतु घी और गुड़ का दान करें, हनुमान चालीसा का पाठ करें, ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का 5 माला जाप करें ।सिंह राशि- इस राशि के जातक निजी जीवन में ज्यादा अच्छा अनुभव करेंगे ,इस राशि के जातक ग्रहण से शुभ फलों को प्राप्त करने के लिए गुड और शहद का दान करें, ओम क्लीं ब्रह्मणे जगदाधारायै नम: मंत्र का 11 माला जाप करें।कन्या राशि- इस राशि के जातकों चिंता बढ़ेगी, महिला पक्ष से कष्ट, कर्जों में बढ़ोतरी। इस राशि के जातक गुड, तिल और अनाज का दान करें । भगवान श्री हरि के मन्त्र ओम विष्णवे नम: मंत्र का 21 माला जाप करें।तुला राशि- इस राशि के जातकों की व्यथा और चिंता में बढ़ोतरी, सिर दर्द से परेशान। इस राशि के जातक ग्रहण से शुभ फलों को प्राप्त करने के लिए गर्म वस्त्र, कम्बल, पुस्तकों का दान करें। ओम हं हनुमतये नम: मंत्र का 11 माला जाप करें।वृश्चिक राशि- इस राशि पर ही ग्रहण पड़ रहा है इसलिए इन्हें विशेष सावधानी रखनी चाहिए आकस्मिक घात,निवेश से नुकसान हो सकता है । इस राशि के जातको3 को सफेद तिल, गुड], दूध और गेंहू का दान करना चाहिए । इस राशि के जातक ओम घृणि: सूर्याय नम: मन्त्र का 21 जाप करें। आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करें।धनु राशि- इस राशि के जातकों के लिए ग्रहण क्षति दे सकता है अच्छी सेहत और कष्टों की निवृत्ति के लिए इस राशि के जातक घी, शहद, तिल, गुड़, का दान करें। धनु राशि के जातक ओम क्लीं कृष्णायै नम: का 11 माला जाप करें।मकर राशि- इस राशि के जातकों के लिए धन लाभ के योग बनेंगे नए कामों की शुरुआत बेहतर साथ ही खर्चों में भी बढ़ोतरी होगी। इस राशि के जातक ऊनी वस्त्र, कंबल, गेहूं, का दान करें। ओम नमो भगवते वासुदेवाय का 21 जाप करें और श्री सूक्त का पाठ करें।कुंभ राशि- इस राशि के जातकों के लिए ग्रहण सुखकारी ,रूके हुए धन की वापसी। इस राशि के जातक शहद, गुड़, तिल का दान करें । ओम ह्रीं नीलकंठाय नम: का 11 माला जाप अवश्य ही करें। साथ ही शिव स्तोत्र का पाठ करें।मीन राशि- इस राशि के जातकों के लिए ग्रहण सुख एवं श्री देने वाला ,परिवार में सुखों की बढ़ोत्तरी होगी । इस राशि के जातक ग्रहण के शुभ फलों को प्राप्त करने के लिए गुड़, घी और चने की दाल का दान करें। ओं नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र का 21 माला जाप करें। विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें।---
- रायपुर। एक वर्ष में तीन से अधिक ग्रहण घातक माने जाते हैं, जबकि इस वर्ष 2020 में कुल 6 ग्रहण का योग बना है। इनमें से 1 चंद्रग्रहण जनवरी 2020 में लग चुका है। इस साल कुल दो सूर्य ग्रहण और 4 चंद्र ग्रहण लगेंगे। इस साल का पहला सूर्य ग्रहण 21 जून को लग रहा है, इसके बाद 14 दिसंबर को लगेगा। वहीं, चंद्रग्रहण 5 जून और 5 जुलाई को लग रहा है। इसके बाद फिर 30 नवंबर 2020 को चंद्रग्रहण लगेगा।जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी ने इन ग्रहण को लेकर विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने बताया कि जून में दो ग्रहण लग रहे हैं। फिर इसके तुरंत बाद 5 जुलाई को भी ग्रहण लग रहा है। इस प्रकार जून और जुलाई में तीन बड़े ग्रहण लग रहे हैं। सबसे पहले चंद्र ग्रहण 5 जून को लग रहा है। फिर इसके बाद सूर्य ग्रहण जून के आखिरी दस दिनों में यानि 21 जून को लगेगा। इसके ठीक बाद 5 जुलाई को फिर चंद्र ग्रहण लग रहा है। जून में लगने वाले दोनों ही ग्रहण भारत में दिखाई देंगे। वहीं, जुलाई में लगने वाला ग्रहण अमेरिका, दक्षिण पश्चिम यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्से में दिखाई देगा। 5 जून को जो चंद्रग्रहण लग रहा है, वे भारत समेत यूरोप के साथ ही साथ अफ्रीका, एशिया और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्से में दिखाई देगा। जबकि इसके बाद 21 जून को लगने वाला सूर्य ग्रहण भारत, दक्षिण पूर्व यूरोप, हिंद महासागर, प्रशांत महासागर, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के प्रमुख हिस्से में नजर आएगा।विश्व में आर्थिक मंदी का असर साल भर बना रहेगाज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार 21 जून को लगने वाला ग्रहण ज्यादा संवेदनशील होगा, जो मिथुन राशि और मृगशिरा नक्षत्र में लग रहा है, इसलिए मिथुन राशि वालों पर इस ग्रहण का सबसे अधिक असर पड़ेगा। इस ग्रहण के दौरान कुल 6 ग्रह वक्री अवस्था में होंगे। मंगल जलीय राशि मीन में स्थित होकर सूर्य, बुध, चंद्रमा और राहु को देखेंगे, जिससे अशुभ स्थिति का सामना करने पड़ेगा। जिस कारण संपूर्ण विश्व में बड़ी उथल पुथल मचेगी। इस दौरान ग्रहों के वक्री होने से प्राकृतिक आपदाओं जैसे अत्याधिक वर्षा, समुद्री चक्रवात, तूफान, महामारी आदि से जन धन की हानि होने का खतरा है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को जून के अंतिम माह और जुलाई में भयंकर वर्षा से जूझना पड़ सकता है। इस साल मंगल जल तत्व की राशि मीन में पांच माह तक रहेंगे, ऐसे में वर्षा काल में असामान्य रूप से अत्याधिक वर्षा और महामारी का भय रहेगा। शनि, मंगल और गुरु इन तीनों ग्रहों के प्रभाव से विश्व में आर्थिक मंदी का असर साल भर बना रहेगा।सूतक काल में रहना चाहिए सावधानज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार ग्रहण लगने से पहले ही सूतक काल शुरू हो जाते हैं। सूतक का अर्थ है, खराब समय या ऐसा समय जब प्रकृति ज्यादा संवेदनशील होती है। ऐसे में किसी अनहोनी के होने की संभावना बढ़ जाती है। सूतक चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों के समय लगता है। ऐसे समय में सावधान रहना चाहिए और ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। वहीं, सूतक काल में हमें कुछ खास बातों का ध्यान रखाना होता है। ग्रहण के सूतक काल में किसी भी तरह का कोई शुभ काम नहीं किया जाता, यहां तक की कई मंदिरों के कपाट भी सूतक के दौरान बंद कर दिये जाते हैं। इस दौरान पूजा-पाठ भी नहीं किये जाते है। ऐसे में पहला ग्रहण 5 जून को चंद्र ग्रहण लग रहा है। उपच्छाया चंद्र ग्रहण होने के कारण सूतक काल का प्रभाव कम रहेगा। लेकिन बहुत से लोग हर तरह के ग्रहण को गंभीरता से लेते हैं। जिस वजह से वो सूतक के नियमों का पालन भी करते हैं।सूतक काल में क्या करें, क्या न करेंज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार सूतक काल ग्रहण लगने पहले ही शुरू हो जाता है। सूतक काल में भूलकर भी तुलसी का पौधा नहीं छूएं । इस समय खाने पीने की मनाही होती है, लेकिन गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्ति, छोटे बच्चों और वृद्ध लोगों पर ये नियम लागू नहीं होते हैं। साथ ही यह जरूर ध्यान रखें कि सूतक काल लगने से पहले ही भोजन में तुलसी के पत्ते जरूर डाल दें, जिससे ग्रहण काल में जरूरत पडऩे पर इसे खाने का इस्तेमाल किया जा सके। सूतक काल के समय ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। इस दौरान मंत्र जाप कर सकते हैं।गर्भवती महिलाओं के लिए सूतक काल विशेष रूप से हानिकारक माना जाता है। जिस कारण सूतक काल के दौरान गर्भवती महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। इसके साथ ही प्रेगनेंट महिलाओं चाकू, ब्लेड, कैंची जैसी चीजों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। सूतक काल में काटने-छांटने का काम भी नहीं करना चाहिए। ग्रहण के समय धार वाली वस्तुओं का प्रयोग करने से गर्भ में पल रहे बच्चे के विकास पर इसका बुरा असर पड़ता है.जानें कब लग रहा हैं ग्रहणज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार 5 जून की रात्रि को 11 बजकर 16 मिनट से 6 जून को 2 बजकर 34 मिनट तक रहेगा, ये उपच्छाया ग्रहण होगा। ये ग्रहण भारत, यूरोप, अफ्रीका, एशिया और ऑस्ट्रेलिया में दिखाई देगा। उपच्छाया चंद्र ग्रहण होने के कारण सूतक काल का प्रभाव कम रहेगा। वहीं, 21 जून की सुबह 9 बजकर 15 मिनट से दोपहर 15 बजकर 4 मिनट तक रहेगा, यह वलयाकार सूर्य ग्रहण रहेगा। दोपहर 12 बजकर 10 मिनट पर इस ग्रहण का सबसे ज्यादा प्रभाव रहेगा। इसे भारत समेतदक्षिण पूर्व यूरोप, हिंद महासागर, प्रशांत महासागर, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के प्रमुख हिस्सों में देखा जा सकेगा। इसके बाद फिर 5 जुलाई चंद्र ग्रहण लग रहा है। 5 जुलाई के सुबह 8 बजकर 38 मिनट से 11 बजकर 21 मिनट तक रहेगा। ये उपच्छाया ग्रहण होगा, जिसके कारण इसका प्रभाव भारत में बहुत कम रहेगा। इस दिन लगने वाला ग्रहण अमेरिका, दक्षिण-पश्चिम यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्से में दिखाई देगा।----
- कुम्भकोणम तमिलनाडु प्रदेश में कावेरी नदी के तट पर मायावरम से 20 मील (लगभग 32 कि.मी.) की दूरी पर स्थित एक प्राचीन नगर है। प्राचीन समय में यह नगर शिक्षा का महान केन्द्र हुआ करता था। यह स्थान दक्षिण भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां पर कुम्भ मेले का आयोजन भी होता है।कुम्भकोणम को संस्कृत में कुम्भघोणम कहा जाता है। दक्षिण भारत की इस पावन भूमि पर प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। एक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा ने अमृत से भरे कुम्भ को इसी स्थल पर रखा था। इस अमृत कुम्भ से कुछ बूंदे बाहर छलक कर गिर गई थीं, जिस कारण यहां की भूमि पवित्र हो गई। इसलिए इस स्थान को कुम्भकोणम के नाम से जाना जाता है।तमिलनाडु के इस प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के समीप अनेक मंदिरों को देखा जा सकता है। यहां पर सौ से भी ज़्यादा मंदिर स्थापित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख मंदिर, जैसे की नदी के तट पर ही महाकालेश्वर तथा अन्य कई देव मंदिर हैं, जिसमें सुन्दरेश्वर शिवलिंग तथा मीनाक्षी जो मां पार्वती हैं, की सुन्दर प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसके समीप ही महामाया का मंदिर है। लोगों की विचारधार अनुसार महामाया के मंदिर में स्थापित मूर्ति स्वयं प्रकट हुई थी।महाधरम सरोवर में कुम्भेश्वर मंदिर के पास ही नागेश्वर मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में भगवान शंकर लिंग रूप में प्रतिष्ठित हैं। यहां के परिक्रमा मार्ग में अन्य मूर्तियाँ भी हैं, जो सभी को आकर्षित करती हैं। यहां सूर्य भगवान का मंदिर भी स्थापित है। किंवदंती है की भगवान सूर्य ने यहां भगवान शिव की आराधना की थी, जिसका एक चमत्कारी पहलू देखने को मिलता है, जिसमें नागेश्वर लिंग पर वर्ष के एक दिन सूर्य की किरणें पड़ती हुई देखी जा सकती हैं। यहां के दर्शनीय स्थलों में प्रमुख हैं- महाधरम सरोवर, कुम्भेश्वर मंदिर, रामस्वामी मन्दिर, शांगपाणि मंदिर और वेदनारायण मंदिरकुम्भकोणम में इन मन्दिरों के अलावा कालहर्सीश्वर, बाणेश्वर, गौतमेश्वर, सोमेश्वर आदि मन्दिर भी स्थापित हैं।
- चमोली। चार धाम यात्रा में से एक बद्रीनाथ मंदिर के द्वार खुल चुके हैं, लेकिन इस बार यहां पर भक्तों का तांता नहीं लगा हुआ है। कोरोना वायरस के बचाव के कारण देश भर में लॉकडाउन है जिसके कारण इस मंदिर के दरवाजे भी भक्तों के लिए बंद हैं।बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित हैं। हर साल छह महीने के लिए ब्रदीनाथ धाम के द्वारा बंद हो जाते हैं। अक्षय तृतीया पर बड़ी धूमधाम से मंदिर के द्वार भगवान के दर्शनों के लिए खोले जाते हैं। इस मंदिर की अपनी परंपरा और पूजा विधान है। इसमें से एक है कि यहां पर पूजा के दौरान शंख नहीं बताया जाता। आम तौर पर पूजा के दौरान शंख की ध्वनि शुभकारी मानी जाती है, लेकिन बद्रीनाथ धाम में ऐसा नहीं होता है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है।इस मंदिर में शंख नहीं बजाने के पीछे ऐसी मान्यता है कि एक समय में हिमालय क्षेत्र में दानवों का बड़ा आतंक था। वो इतना उत्पात मचाते थे कि ऋषि-मुनि न को मंदिर में और न ही आश्रमों में भगवान की पूजा-अर्चना कर पाते थे और । यहां तक कि दानव ऋषि-मुनियों को ही अपना निवाला बना लेते थे। राक्षसों के इस उत्पात को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद माता कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से सारे राक्षसों का विनाश कर दिया। हालांकि आतापी और वातापी नाम के दो राक्षस मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए भाग गए। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया जबकि वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। इसके बाद से ही बद्रीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित हो गया और यह परंपरा आज भी चलती आ रही है।ब्रदीनाथ मंदिर उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन मंदिर है, जिसका निर्माण सातवीं-नौवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। इसे भारत के सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक माना जाता है, क्योंकि यहां हर साल लाखों लोग भगवान बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में भगवान बद्रीनारायण की एक मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में पास ही स्थित नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था। कहा जाता है कि यह मूर्ति अपने आप धरती पर प्रकट हुई थी।
- वट सावित्री व्रत एक ऐसा व्रत जिसमें हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और संतान प्राप्ति की कामना करती हैं। उत्तर भारत में तो यह व्रत काफी लोकप्रिय है। इस व्रत की तिथि को लेकर पौराणिक ग्रंथों में भी भिन्न-भिन्न मत मिलते है। दरअसल इस व्रत को ज्येष्ठ माह की अमावस्या और इसी मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। एक और जहां निर्णयामृत के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को किया जाता है तो वहीं स्कंद पुराण एवं भविष्योत्तर पुराण इसे ज्येषठ पूर्णिमा पर करने का निर्देश देते हैं। वट सावित्री पूर्णिमा व्रत दक्षिण भारत में किया जाता है, वहीं वट सावित्री अमावस्या व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से किया जाता है।आइये जानते हैं क्या है वट सावित्री व्रत की कथा और क्या है इस पर्व का महत्व?वट सावित्री व्रत कथावट सावित्रि व्रत की यह कथा सत्यवान- सावित्री के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था। उनकी कोई भी संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। उसके माता-पिता की भी आंखों की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था। जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी, हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्री को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्री ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही। अंतत: सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढऩे लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी।आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ। इस पर सावित्री ने कहा, जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है। यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा, मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें। यमराज ने तथास्तुÓ कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढऩे लगे। किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही। यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा,सावित्री ने वर मांगा, मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए। यमराज ने तथास्तु कहकर पुन: उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी। सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा, तब सावित्री ने वर मांगा, मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें। सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए। सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता-पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।क्या है वट सावित्री व्रत का महत्वजैसा कि इसकी कथा से ही ज्ञात होता है कि यह पर्व हर परिस्थिति में अपने जीवनसाथी का साथ देने का संदेश देता है। इससे ज्ञात होता है कि पतिव्रता स्त्री में इतनी ताकत होती है कि वह यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस ला सकती है। वहीं सास-ससुर की सेवा और पत्नी धर्म की सीख भी इस पर्व से मिलती है। मान्यता है कि इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और उन्नति और संतान प्राप्ति के लिये यह व्रत रखती हैं।वट सावित्री व्रत पूजा विधिवट सावित्रि व्रत में वट यानि बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान- सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। अत: वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वट सावित्री व्रत के दिन सुहागिन स्त्रियों को प्रात:काल उठकर स्नान करना चाहिये। इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रहमदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियां स्थापित करे। दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे रखे और ब्रहमदेव और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें। तत्पश्चात सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करे और वट वृक्ष को जल दे। वट-वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं और जलाभिषेक करे। वट वृक्ष के तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन बार परिक्रमा करे। इसके बाद स्त्रियों को वट सावित्री व्रत की कथा सुननी चाहिए। कथा सुनने के बाद भीगे हुए चने का बायना निकाले और उस पर कुछ रूपए रखकर अपनी सास को दें। जो स्त्रियाँ अपनी सास से दूर रहती है, वे बायना उन्हें भेज दे और उनका आशीर्वाद लें। पूजा समापन के पश्चात ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि दान करें।2020 में वट सावित्रि व्रत तिथि और मुहूर्तवर्ष 2020 में वट सावित्री व्रत 22 मई (अमावस्या) को रखा जायेगा।वट सावित्री अमावस्या तिथि - 22 मई 2020, शुक्रवारअमावस्या तिथि प्रारम्भ - मई 21, 2020 को रात्रि 09:35 बजे सेअमावस्या तिथि समाप्त - मई 22, 2020 को रात्रि 11:08 बजे तक
- भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के गोंडा-बहराइच जि़लों की सीमा पर स्थित यह जैन और बौद्ध का तीर्थ स्थान है। गोंडा - बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम के पुत्र लव कुश ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती बौद्ध जैन दोनों का तीर्थ स्थान है, तथागत (बुद्ध) श्रावस्ती में रहे थे, यहां के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान बुद्ध के लिए जेतवन विहार बनवाया था, आजकल यहां बौद्ध धर्मशाला, मठ और मंदिर हैं।यह कोसल-जनपद का एक प्रमुख नगर था। यहां का दूसरा प्रसिद्ध नगर अयोध्या था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेत-महेत प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबंध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। बौद्ध धर्म-ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन में काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीज़ें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं। यहां मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएं सुलभ थीं; इसलिए इसे सावत्थी (सब्ब अत्थि) कहा जाता था। श्रावस्ती कोशल का एक प्रमुख नगर था। भगवान बुद्ध के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी थी। इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों, चंपा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोशांबी और वाराणसी में से एक माना जाता था।सावत्थी, संस्कृत श्रावस्ती का पालि और अर्द्धमागधी रूप है। बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहां पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊंची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था।पाणिनि (लगभग 500 ई.पूर्व) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी में साफ़ लिखा है कि स्थानों के नाम वहां रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे। महाभारत के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुये जो कि पृथु की छठीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामाणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चल कर कोसल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।ब्राह्मण साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है।मत्स्य एवं ब्रह्मपुराणों में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है। बाद में चल कर कोसल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी।-----
- ऋग्वेद में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराजित हुआ था।कृष्ण संबंधी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के जि़लाने का श्रेय दिया गया है। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है । ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी।कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का इन्द्र ने वध किया था। ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप,दान, आर्जव,अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शांत हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मïण में भी मिलता है। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।बौद्ध साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत जातक में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।--
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कालमेजुुथु एक हस्तकला है। यह रंगोली और कोलम का ही एक रूप है। कालम (कालमेजुथु) इस कला का एक विचित्र रूप है जो केरल में दिखाई देता है। यह अनिवार्य रूप से एक आनुष्ठानिक कला है जिसका प्रचलन केरल के मंदिरों और पावन उपवनों में जहां फर्श पर काली देवी और भगवान अथवा के चित्र बनाए जाते हैं। कालम के स्वरूप कारकों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है । प्रत्येक मामले में इस कला के नियमों का कठोरता से पालन करते हुए नमूनों, सूक्ष्म ब्यौरों, आयामों और रंग योजना के बारे में निर्णय लिया जाता है। अवसरों के अनुसार इनके नमूने काफी भिन्न-भिन्न होते हैं परंतु कलाकार द्वारा चुने गए नमूने विरले ही होते हैं।
कालमेजुथु के चित्रण प्राकृतिक रंग द्रव्यों और चूर्णों का प्रयोग किया जाता है और सामान्यत: ये पांच रंगों में होते हैं। चित्र केवल हाथों से बनाए जाते हैं और इनमें किसी अन्य का प्रयोग नहीं होता। तस्वीर बनाने का कार्य मध्य से शुरू किया जाता है और फिर एक-एक खण्ड तैयार करते हुए इसे बाहर की ओर ले जाते हैं। चूर्ण को अंगूठे और तजऱ्नी की मदद से चुटकी में भरकर एक पतली धार बनाकर फर्श पर फैला दिया जाता है। बनाए गए चित्रों में सामान्यत: क्रोध अथवा अन्य मनोवेगों की अभिव्यक्ति की जाती है। सभी चूर्ण और रंग द्रव्य पौधों से तैयार किए जाते हैं जैसे कि सफेद रंग के लिए चावल के चूर्ण, काले रंग के लिए जली हुई भूसी, पीले रंग के लिए हल्दी, लाल रंग के लिए नीबू और हल्दी के मिश्रण और हरे रंग के लिए कुछ पेड़ों की पत्तियों को प्रयोग में लाया जाता है। तेल से प्रदीप्त लैम्पों को कुछ खास-खास स्थानों पर रखा जाता है जिससे रंगों में चमक आ जाती है। कालमेजुथु कलाकार सामान्यतया कुछ समुदायों के सदस्य होते है जैसे कि करूप, थय्यपाड़ी नाम्बियार्स, थियाडी नाम्बियार्स और थियाड़ी यूनिस। इन लोगों द्वारा बनाए गए कालमों की अलग-अलग विशेषता है।कालम पूरा होने पर देवता की उपासना की जाती है। उपासना में कई तरह के संगीत वाद्यों (मुखय: रूप से इलाथलम, वीक्घम चेन्दा, कुझाल, कोम्बु और चेन्दा) को बजाते हुए भक्ति गीत गाए जाते हैं। ये भक्ति गीत मंत्रोच्चारण का ही रूप हैं, ये अनुष्ठान स्वयं कलाकारों द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं। इन गीतों की शैली बहुत भिन्न-भिन्न होती है जिसमें लोक गीत से लेकर शास्त्रीय संगीत तब शामिल होते हैं। गीत की शैली इस बात पर निर्भर करती है कि किस देवता की पूजा की जा रही है। कालम को पूर्व-निर्धारित समय पर बनाना शुरू किया है और अनुष्ठान समाप्त होते ही इसे तत्काल मिटा दिया जाता है। - महाभारत के सबसे प्रमुख पात्र होने के बावजूद शकुनि की कहानी को हमेशा नजरअंदाज किया जाता है। शकुनि ने अपनी चालों से कुरु वंशजों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया। वह शकुनि ही था जिसने कौरवों और पांडवों को इस कदर दुश्मन बना दिया कि दोनों ही एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। शकुनि को महाभारत का सबसे रहस्यमय पात्र कहा जाना गलत नहीं है।शकुनि अपनी इकलौती बहन गांधारी से बहुत प्रेम करता था, लेकिन इसके बावजूद उसने ऐसे कृत्य किए, जिससे कुरुवंश खत्म हो गया। चौसर, शकुनि का प्रिय खेल था। वह पासे को जो अंक लाने के लिए कहता हैरानी की बात है वही अंक पासे पर दिखाई देता। इस चौसर के खेल से शकुनि ने द्रौपदी का चीरहरण करवाया, पांडवों से उनका राजपाठ छीनकर वनवास के लिए भेज दिया, भरी सभा में उन्हें अपमानित किया। कथा के अनुसार जन्म के समय जब गांधारी की कुंडली बनवाई गई तो उसमें गांधारी के विवाह से जुड़ी एक परेशान कर देने वाली बात सामने आई। ज्योतिषाचार्यों ने गांधारी के पिता को बताया कि गांधारी की कुंडली में उसके दो विवाह होने के योग हैं। गांधारी की पहले पति की मौत निश्चित है, उसका दूसरा पति ही जीवित रह सकता है। फिर गांधारी का विवाह एक बकरे से कर दिया गया और फिर उसे मार दिया गया। इस तरह से गांधारी की कुंडली में पति की मौत के योग समाप्त हो गए और उसका परिवार उसके दूसरे विवाह और पति की आयु को लेकर निश्चिंत हो गया। जब गांधारी विवाह योग्य हुई तब उसके लिए धृतराष्ट्र का विवाह प्रस्ताव पहुंचाया गया। इस विवाह प्रस्ताव को गांधारी के माता-पिता ने तो स्वीकार कर लिया और जब गांधारी को पता चला कि धृतराष्ट्र दृष्टिहीन हंै तो अपने माता-पिता द्वारा दिए गए वचन की लाज रखने के लिए वह इस विवाह के लिए राजी हो गई। लेकिन शकुनि को यह कदापि स्वीकार नहीं हुआ कि उसकी इकलौती बहन एक दृष्टिहीन की पत्नी बने। कथा के अनुसार विवाह होने के बाद जब धृतराष्ट्र को गांधारी के विधवा होने जैसी बात पता चली तो वह आगबबूला हो उठा। क्रोध के आवेग में आकर धृतराष्ट्र ने गांधार नरेश पर आक्रमण किया और उस परिवार के सभी पुरुष सदस्यों को कारागार में डलवा दिया।युद्ध के बंधकों की हत्या करना धर्म के खिलाफ है, इसलिए धृतराष्ट्र ने उन्हें भूख से तड़पा-तड़पाकर मारने का निश्चय किया। धृतराष्ट्र ने अपने सैनिकों से कहा कि गांधार राज्य के बंधकों को पूरे दिन में मात्र एक मु_ी चावल वितरित किए जाएं। ऐसे हालात में सभी बंधकों ने धृतराष्ट्र के परिवार से बदला लेने का निश्चय किया। उन्होंने सर्वसम्मति से सबसे छोटे पुत्र शकुनि को जीवित रखने का निश्चय किया। मु_ीभर चावल सिर्फ शकुनि को खाने के लिए दिए जाते, जिसकी वजह से धीरे-धीरे सभी बंधक अपना दम तोडऩे लगे।कथा के अनुसार शकुनि के सामने धीरे-धीरे कर उसका पूरा परिवार समाप्त हो गया और उसने यह ठान ली कि वह कुछ भी कर कुरुवंश को समाप्त कर देगा। अपने अंतिम क्षणों में शकुनि के पिता ने उससे कहा कि उसकी मौत के पश्चात उनकी अस्थियों की राख से वह एक पासे का निर्माण करे। यह पासा सिर्फ शकुनि के कहे अनुसार काम करेगा और इसकी सहायता से वह कुरुवंश का विनाश कर पाएगा। ऐसा भी कहा जाता है कि शकुनि के पासे में उसके पिता की रूह वास कर गई थी जिसकी वजह से वह पासा शकुनि की ही बात मानता था।---
- कुल्लू घाटी में महाराजा बहादुर सिंह (15वीं शताब्दी) के दौरान पैगोडा शैली के मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें त्रिपुर सुंदरी मंदिर नग्गर, आदि ब्रह्मा मंदिर खोखण, त्रिजुगी नारायण मंदिर दयार और पराशर ऋषि मंदिर उल्लेखनीय हैं। मनाली के पास ढूंगरी नामक स्थान पर हिडिम्बा माता का मंदिर भी इसी दौरान बनाया गया।हिमाचल प्रदेश में लकड़ी से बने हजारों साल पुराने विभिन्न देवी- देवताओं के बहुत से मंदिर आज भी पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र हैं। इन्हीं में से एक है- हिडिम्बा मंदिर जो हिमाचल का गौरव माना जाता है। लकड़ी से निर्मित यह मंदिर पैगोड़ा शैली में बना है। यह मंदिर धूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। पूरा मंदिर लकड़ी का बना है जिसकी छत भी लकड़ी से ही ढाली गई है। दीवारें भी लकड़ी की ही है जिनपर नक्कशी कर देवी-देवताओं के चित्र उकेरे गए है, जो मंदिर की सुन्दरता को बढ़ा देते हैं। मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति प्रतिस्थापित है।महाभारत के भीम का विवाह हिडिम्ब राक्षस की बहन हिडिम्बा से हुआ था। भीम और हिडिम्बा का पुत्र घटोत्कच महाभारत युद्ध में पांड्वों की और से अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ था। घटोत्कच वही है जिसने महाभारत में कर्ण के घातक बाण के प्रहार से अर्जुन की जान बचाते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।हिडिम्बा राक्षसी थी लेकिन अपने तप और पतिव्रत के बल पर उसे देवी का सम्मान मिला। कुल्लू का राजवंश हिडिम्बा को कुलदेवी मानता है। ऐसा माना जाता है की सन 1553 ई. (15वीं शताब्दी) में इस मंदिर का निर्माण कुल्लू के तत्कालीन महाराजा बहादुर सिह ने करवाया था। समुन्द्र तल से 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुल्लू से मनाली की दूरी 40 किलोमीटर है। मनाली शहर से एक किलोमीटर की दुरी डूंगरी स्थान पर यह हिडिम्बा मंदिर अपने विशिष्ट काष्ठ के अद्भुत शिल्प शोभा के साथ विराजमान है। हिडिम्बा मनाली के ऊझी क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। समूचा क्षेत्र हिडिम्बा की प्रजा माना जाता है। यही कारण है कि समूचा क्षेत्र वर्ष में एक बार हिडिम्बा को कौर (कर) अदा करता रहा है। कुछ वर्ष पूर्व से यह प्रथा समाप्त हो गई है। ज्येष्ठ संक्रांति के दिन ढूंगरी में देवी के यहां बहुत बड़ा मेला लगता है।कहा जाता है कि राजा ने इस मंदिर को बनवाने के बाद मंदिर बनाने वाले कारीगरों के सीधे हाथों को काट दिया ताकि वह कहीं और ऐसा मंदिर न बना सकें। यहां पर होने वाली विशेष पूजा को घोर पूजा के नाम से जाना जाता है। यह पूजा मंदिर में ही आयोजित की जाती है। हर साल 14 मई को मंदिर में देवी जी का जन्मदिन मनाया जाता है जिसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।---
- हरिद्वार, उत्तराखंड राज्य में एक पवित्र नगर और नगर निगम बोर्ड है। हिन्दी में, हरिद्वार का अर्थ हरि (ईश्वर) का द्वार होता है। हरिद्वार का उल्लेख पौराणिक कथाओं में कपिलस्थान, गंगाद्वार और मायापुरी के नाम से भी किया गया है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम हैं-बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री), इसलिए, भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमश: हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हंै। महाभारत के वाणपर्व में धौम्य ऋषि, युधिष्ठिïर को भारत के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते हैं जहां पर गंगाद्वार, यानी, हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। कपिल ऋषि का आश्रम भी यहां स्थित था, जिससे इसे इसका प्राचीन नाम, कपिल या कपिल्स्थान मिला।कहा जाता है की भगवान विष्णु ने एक पत्थर पर अपने पग-चिन्ह छोड़े हैं जो हर की पौडी में एक ऊपरी दीवार पर स्थापित है, जहां हर समय पवित्र गंगाजी इन्हें छूती रहती हैं।हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। 3 हजार 139 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गौमुख (गंगोत्री हिमनद) से 253 किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में गंगा के मैदानी क्षेत्रों में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को गंगाद्वार के नाम सा भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है वह स्थान जहां पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं।हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहां अमृत की कुछ बूंदें भूल से घड़े से छलक गयीं जब खगोलीय पक्षी गरुड़ उस घड़ेे को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरीं, और ये स्थान हैं-उज्जैन, हरिद्वार, नासिक, और इलाहाबाद। आज ये वे स्थान हैं जहां कुम्भ मेला चारों स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर प्रति 3 वर्षों में और 12वें वर्ष इलाहाबाद में महाकुम्भ आयोजित किया जाता है।हरिद्वार में वह स्थान जहां पर अमृत की बूंदें गिरी थी उसे हर-की-पौडी पर ब्रह्मï कुंड माना जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ईश्वर के पवित्र पग। हर-की-पौडी, हरिद्वार के सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहां आते हंंै। यहां स्नान करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है।हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में 28 दिसंबर 1988 को अस्तित्व में आया। बाद में यह नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया। आज, यह अपने धार्मिक महत्व के अलावा राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है।
- रायपुर। अक्षय तृतीया वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता है। वैदिक कलैण्डर के चार सर्वाधिक शुभ दिनों में से यह एक मानी गई है। अक्षय से तात्पर्य है जिसका कभी क्षय न हो अर्थात् जो कभी नष्ट नहीं होता। भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वृन्दावन में ठाकुर जी के चरण दर्शन इसी दिन होते हैं। अक्षय तृतीया को सामान्यत: अखतीज या अक्खा तीज के नाम से भी पुकारा जाता है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। इस दिन गुड्डे-गुडिय़ों की शादी का भी विधान प्रचलित है।स्कन्दपुराण कहता है- न माधवसमो मासो न कृतेन समं युगम् अर्थात वैशाख के समान कोई महीना नहीं है और न ही सत्ययुग के समान कोई युग है.अक्षय तृतीया वैशाख में ही होती है और आदियुग इसी दिन प्रारंभ हुआ था इसलिए यह पुण्यप्रद तिथियों में सबसे महत्वपूर्ण है। इस दिन मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन स्वर्ण के अलावा दक्षिणवर्ती शंख और कौड़ी खरीदने का भी महत्व हैं। अक्षय तृतीया पर यह उपाय आर्थिक परेशानियों से निजात दिलाते हैं।इस साल अक्षय तृतीया के दिन 6 राजयोग का मुहूर्त बन रहे हैं। इस दिन प्रात: काल में शश, रूचक, अमला, पर्वत , शंख और नीचभंग के राजयोग बन रहे हैं , तो वहीं दो और शुभ मुहूर्त में महादीर्घायु और दान योग का भी संयोग बन रहा है। इस साल अक्षय तृतीया पर रोहिणी नक्षत्र का संयोग बनना शुभ रहेगा जिसके कारण यह दिन और भी ज्यादा खास हो जाता है।क्यों है महत्वइसे युगादि तिथि कहा गया है। इसी दिन सत्ययुग (मतांतर से त्रेता युग) की शुरुआत हुई थी। इस दिन प्रदोषकाल में तेजोमूर्ति भगवान परशुराम का अवतरण हुआ था। अक्षय तृतीया का दिन श्री विष्णु के परशुराम,नर-नारायण तथा हयग्रीव के अवतारों से भी जुड़ा हुआ है। इसलिए इस दिन श्रीहरि की एवं उनके इन अवतारों के साथ -साथ श्रीकृष्ण, सूर्य, शिव, गौरी, गंगा, कैलाश, हिमालय, सागर एवं भगीरथ की पूजा का भी विधान है। इस दिन मां गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था।क्या करें.....आज के दिन भगवान विष्णु की उपासना की जाती है और साथ में माता लक्ष्मी की भी पूजा होती है। आज के दिन लोग व्रत रखकर भी भगवान को प्रसन्न करते हैं। माना जाता है कि इस दिन दान-दक्षिणा करने से माता लक्ष्मी का आशीर्वाद सदा बना रहता है।दान करने की विशेष वस्तुएं -1- इस दिन ठंडी चीजें जैसे- जल से भरे घड़े, कुल्हड़, पंखे, छाता, चावल, खरबूजा, ककड़ी, चीनी,सत्तू आदि का दान करना बहुत उत्तम माना जाता है।2-यदि इस शुभ दिन आप अपने भाग्योदय के लिए कुछ खरीदना चाहते हैं तो खरीदें ये चीजें जैसे- सोना, चांदी, मिट्टी के पात्र, रेशमी वस्त्र, साड़ी, चावल, हल्दी, फूल का पौधा और शंख।क्या न करें1. अक्षय तृतीया के दिन बिना स्नान किए तुलसी की पत्तियां ना तोड़ें। भगवान विष्णु को तुलसी बहुत ही प्रिय होती हैं इसलिए ऐसा करने से मां लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं।2. अगर आपने कोई व्रत रखा है तो ध्यान रखें, अक्षय तृतीया के दिन उपवास खत्म ना करें।3. अक्षय तृतीया के दिन उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है। इस दिन आपको पहली बार जनेऊ बिल्कुल नहीं धारण करना चाहिए।4. कुछ जगहों पर अक्षय तृतीया के दिन यात्रा करना भी वर्जित माना जाता है।5. इस दिन आपको नया घर खरीदना तो चाहिए लेकिन किसी भी तरह का निर्माण कार्य नहीं कराना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है।
- महावन नामक स्थान जि़ला मथुरा (उप्र) में मथुरा के समीप, यमुना के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है जिसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहां अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं जो अधिक पुराने नहीं हैं। समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण इसे बृहद्वन भी कहा गया है। इसकों महावन, गोकुल या वृहद्वन भी कहते हैं। गोलोक से यह गोकुल अभिन्न है। ब्रज के चौरासी वनों में महावन मुख्य था।महावन मथुरा-सादाबाद सड़क पर मथुरा से 11 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह एक प्राचीन स्थान है। महावन नाम ही इस बात का द्योतक है कि यहां पर पहले सघन वन था। मुग़ल काल में सन 1634 ई. में सम्राट शाहजहां ने इसी वन में चार शेरों का शिकार किया था। सन 1018 ई. में महमूद गज़ऩवी ने महावन पर आक्रमण कर इसको नष्ट भ्रष्ट किया था। इस दुर्घटना के उपरान्त यह अपने पुराने वैभव को प्राप्त नहीं कर सका।मिनहाज नामक इतिहासकार ने इस स्थान को शाही सेना के ठहरने का स्थान बताया है। सन 1234 ई. में सुल्तान अल्तमश ने कालिन्जर की ओर जो सेना भेजी थी वह यहां ठहरी थी। सन 1526 ई. में बाबर ने भी इस स्थान के महत्व को स्वीकार किया था। अकबर के शासनकाल में यह आगरा सरकार के अन्तर्गत 33 महलों में से एक महल था। सन 1803 ई. में यह अलीगढ़ जि़ले का एक भाग था। सन 1832 इ. में यह फिर मथुरा जि़ले में मिला दिया गया। अंग्रेजी शासन में यहां तहसील थी।सन 1910 ई. में तहसील मथुरा को स्थानांतरित कर दी गई। बौद्धकाल में भी एक महत्व की जगह रही होगी। फ़ाह्यान नामक चीनी यात्री ने जिन मठों का वर्णन लिखा है उनमें से कुछ मठ यहां भी रहे होंगे क्योंकि उसने लिखा है कि यमुना नदी के दोनों ओर बौद्ध मठ बने हुए थे। बहुत से इतिहासकारों द्वारा यह नगर एरियन और प्लिनी द्वारा वर्णित मेथोरा और क्लीसोबोरा है।महावन में प्राचीन दुर्ग की ऊंची भूमि अब भी देखने को मिलती है जिससे ज्ञात होता है कि यह कुछ तो प्राकृतिक और कुछ कृत्रिम था इस दुर्ग के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसको मेवाड़ के राजा कतीरा ने निर्मित किया था। मुग़ल शासक अकबर महान, जहांगीर, शाहजहां आदि शासकों ने भी पुष्टि सम्प्रदाय के गोस्वामियों से प्रभावित होकर इस क्षेत्र में पशु-वध की निषेधाज्ञाएं प्रसारित की थी।महावन को औरंगज़ेब के समय में उसकी धर्मांध नीति का शिकार बनना पड़ा था। इसके बाद 1757 ई. में अफगान अहमदशाह अब्दाली ने जब मथुरा पर आक्रमण किया तो उसने महावन में सेना का शिविर बनाया। वह यहां ठहर कर गोकुल को नष्ट करना चाहता था। किंतु महावन के चार हजार नागा सन्यासियों ने उसकी सेना के 2000 सिपाहियों को मार डाला और स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए। गोकुल पर होने वाले आक्रमण का इस प्रकार निराकरण हुआ और अब्दाली ने अपनी फ़ौज वापस बुला ली। इसके पश्चात महावन के शिविर में हैजा के प्रकोप से अब्दाली के अनेक सिपाही मर गए। इसलिए वह शीघ्र दिल्ली लौट गया किंतु जाते-जाते भी उसनेे मथुरा, वृन्दावन आदि स्थानों पर जो लूट मचाई और रक्तपात किया।