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- अक्षयवट इलाहाबाद में गंगा-यमुना संगम के पास किले के भीतर स्थित एक वृक्ष है।यह सनातन विश्ववृक्ष माना जाता है। इस वृक्ष का पुराणों में वर्णन है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है जिसके एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं।अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री युवान्न च्वांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। असंख्य यात्री इसकी पूजा करने के लिए आते हैं। काशी और गया में भी अक्षयवट हैं, जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है। अक्षयवट को जैन धर्मावलंबी भी पवित्र मानते हैं। उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेव जी ने तप किया था। यह बट का वृक्ष प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी स्थित है।---
- नंदा देवी समूचे गढ़वाल मंडल और कुमाऊं मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। शायद ही किसी पर्वत से देशवासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से उत्तराखंड क्षेत्र के लोगों का है। उत्तराखंड की आराध्य देवी हैं मां नंदा-सुनंदा। समूचे उत्तराखंड में हिमालय पुत्री नंदा की एक बहुत बड़ी मान्यता है।उत्तराखंड में नंदादेवी के अनेक मंदिर है। यहां की अनेक नदियां एवं पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है। नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियां, नदियां तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं। नंदा के सम्मान में कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं। भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रृंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊं और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है। इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं। उत्तराखंड में गढ़वाल के पंवार राजाओं की भांति कुमांऊ के चन्द राजाओं की कुलदेवी भी नंदादेवी ही थीं इसलिये दोनों ही मंडलों के लोग नन्दा देवी के उपासक हैं। आदिशक्ति नंदादेवी का पवित्र धाम उत्तराखंड को माना जाता है। चमोली के घाट ब्लॉक में स्थित कुरड़ गांव को उनका मायका और थराली ब्लाक में स्थित देवराडा को उनकी ससुराल. जिस तरह आम पहाड़ी बेटियां हर वर्ष ससुराल जाती हैं माना जाता है कि उसी संस्कृति का प्रतीक नंदादेवी भी 6 महीने ससुराल औऱ 6 महीने मायके में रहती हैं।नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छह रुपों में एक बताया गया है । भगवती की 6 अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूंडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्मांचल ही है ।कुमाऊं में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं । अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।---
- हरिवंश पुराण में सबसे पहले वैवस्तमनु और यम की उत्पत्ति के बारे में बताया है और साथ ही भगवान् विष्णु के अवतारों के बारे में बताया है। आगे देवताओं का कालनेमि के साथ युद्ध का वर्णन है जिसमें भगवान् विष्णु ने देवताओं को सान्त्वना दी और अपने अवतारों की बात निश्चित कर देवताओं को अपने स्थान पर भेज दिया। इसके बाद नारद और कंस के संवाद हैं।इस पुराण में भगवान् विष्णु का कृष्ण के रूप में जन्म बताया गया है। जिसमें कंस का देवकी के पुत्रों का वध से लेकर कृष्ण के जन्म लेने तक की कथा है। फिर भगवान् कृष्ण की ब्रज-यात्रा के बारे में बताया है जिसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन है। इसमें धेनकासुर वध, गोवर्धन उत्सव का वर्णन किया गया है। आगे कंस की मृत्यु के साथ उग्रसेन के राज्यदान का वर्णन है। आगे बाणसुर प्रसंग में दोनों के विषय में बताया है। भगवान् कृष्ण के द्वारा शंकर की उपासना का वर्णन है। हंस-डिम्भक प्रसंग का वर्णन है। अंत में श्रीकृष्ण और नन्द-यशोदा मिलन का वर्णन है।सम्पूर्ण महाभारत 18 पर्वों में विभक्त है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में 50 से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या 200 से भी अधिक है। लक्षश्लोकात्मक महाभारत की सम्पूर्ति के लिए इन 18 पर्वों के पश्चात् खिलपर्व के रूप में हरिवंश पुराण की योजना की गयी है। हरिवंश पुराण में 3 पर्व हैं- हरिवंश पव , विष्णु पर्व और भविष्य पर्व । इन तीनों पर्वों में कुल मिलाकर 318 अध्याय और 12 हजार श्लोक हैं। महाभारत का पूरक तो यह है ही, स्वतन्त्र रूप से भी इसका विशिष्ट महत्व है।
- महात्मा शुकदेव भगवान वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएं मिलती हैं। कहीं उन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है।एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडा शुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वतीजी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गईं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिए उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान शंकर वापस लौट गए। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके उन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली।श्री शुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गांवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी श्रीमद्भागवत-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थे। श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिए जाया करते थे। एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बंधकर शुकदेव जी अपने पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आए। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। उन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी महाराज परम तत्वज्ञानी महाराज जनक के पास गए और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया।
- रायपुर। दूरदर्शन पर एक बार फिर रामानंद सागर के सीरियल रामायण का प्रसारित किया जा रहा है और लोग इसे काफी पसंद कर रहे हैं। कुछ समय से मुंबई में टेली सीरियलों और फिल्मों की शूटिंग भी नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में दूरदर्शन ने अपने सुनहरे दौर के क्लासिक सीरियलों का प्रसारण फिर से शुरू किया है।इन्हीं सीरियलों में रामायण भी है। सीरियल के माध्यम से छोटे-छोटे बच्चे भी रामायण के पात्रों को जान रहे हैं। कहा जाता है कि सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्वश्रवा का पुत्र रावण दशानन होने के साथ ही परम भगवान शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ , महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकान्ड विद्वान, पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था और उसने अपना महल पूरी तरह स्वर्ण रजित बनाया था, इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। जानिए रावण के परिवार के बारे में -1. रावण के माता-पिता थे ऋषि विश्वश्रवा और कैकसी। ऋषि विश्वश्रवा की दो पत्नियां थी। उन्होंने ऋषि भारद्वाज की पुत्री इलाविदा से पहले विवाह किया था। जिनसे कुबेर का जन्म हुआ और उसी ने लंका नगरी बसाई थी। विश्वश्रवा की दूसरी पत्नी कैकसी से रावण, कुंभकरण, विभीषण और सूर्पणखा पैदा हुई थी।2. ऋषि विश्वश्रवा ऋषि पुलस्त्य और हविर्भुवा के पुत्र थे। यानी ऋषि पुलस्त्य और हविर्भुवा रावण के दादा- दादी थे।3. वहीं रावण की माता कैकसी राक्षसराज सुमाली और केतुमती की बेटी थी। सुमाली के बेटों में प्रहस्त, अकन्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राश, दण्ड, सुपाश्र्व, सहादि, प्रधस और भास्कण आदि का उल्लेख मिलती है, जो रावण के मामा थे। कैकसी की बहनों में रांका, पुण्डपोत्कटा, और कुभीनशी का जिक्र मिलता है। मारीच और सुबाहू भी रावण के मामा थे और ये दोनों सुण्ड एवं ताड़का के पुत्र थे।3. रावण के छह भाई थे जिनके नाम ये हैं- कुबेर, विभीषण, कुम्भकरण, अहिरावण, खर और दूषण। खर, दूषण, कुम्भिनी, अहिरावण और कुबेर रावण के सगे भाई बहन नहीं थे।4. रावण की दो बहने थीं सूर्पनखा और दूसरी कुम्भिनी। कुम्भिनी मथुरा के राजा मधु राक्षस की पत्नी थी और राक्षस लवणासुर की मां थीं। सूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ हुआ था।5. रावण की दो पत्नियों का ही उल्लेख ज्यादा मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं तीसरी पत्नी का जिक्र भी होता है लेकिन उसका नाम अज्ञात है। रावण की पहली पत्नी का नाम मंदोदरी था जोकि राक्षसराज मयासुर की पुत्री थीं। दूसरी का नाम धन्यमालिनी था । मंदोदरी रावण की मुख्य रानी थी जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं। पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है।6. मंदोदरी का पिता मय दानव तलातल का राजा था। सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहां त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। कहा जाता है कि मय विषयों का परम गुरु था। विश्वकर्मा देवों के तो मय दानव दैत्यों का वास्तुकार माना जाता था। मय दानव के पास एक विमान रथ था जिसका परिवृत्त 12 क्यूबिट था और उस में चार पहिए लगे थे। इस विमान का उपयोग उसने देव-दानवों के युद्ध में किया था।7. रावण की संतानें- मंदोदरी से रावण को जो पुत्र मिले उनके नाम हैं- इंद्रजीत, मेघनाद, महोदर, प्रहस्त, विरुपाक्ष भीकम वीर। कहते हैं कि दूसरी पत्नी धन्यमालिनी से अतिक्या और त्रिशिरार नामक दो पुत्र जन्में जबकि तीसरी पत्नी के प्रहस्था, नरांतका और देवताका नामक पुत्र थे।8. सरमा, विभीषण की पत्नी थी, जो एक गन्धर्व कन्या थी और उसकी बेटी का नाम त्रिजटा था।9. कुंभकर्ण की पत्नी का नाम वज्रज्वाला था।10. मेघनाद की पत्नी का नाम सुलोचना था, जो बहुत पतिव्रता थी। वह नागराज वासुकी की बेटी थी।11. मेघनाद के पुत्र का नाम अक्षय कुमार था।----------------
- विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी प्राचीन भारत की जीवनधारा थी। वैदिक काल में वह सदानीरा महानदी थी, जो हिमालय से अवतरित होकर सागर में समाहित होती थी। प्राचीन ऋषि-महर्षियों को वेदों जैसे अनमोल ग्रंथों की रचना करने के लिए प्रेरित करने वाली सरस्वती, महाभारत की भी साक्षी रही थी। उत्तर महाभारत काल में उसके जल स्तर में कमी होने लगी। पौराणिक काल में वह पवित्र सरोवरों का रूप धारण कर लघुरूपधारिणी वंदनीय नदी बनकर रह गयी। कालांतर में सरस्वती जलशून्य होकर विस्मृत हो गयी।भारत के अधिकांश प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती नदी का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति और महाभारत में सरस्वती का वर्णन किया गया है।ऋग्वेद में सरस्वती की सर्वाधिक जानकारी है। सरस्वती की स्तुति में 75 मंत्र हैं, जो ऋग्वेद के नौ मण्डलों में समाहित हैं। इन मंत्रों की रचना विभिन्न ऋषियों ने काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप की है। ऋग्वेद में कहा गया है, एकमेव चैतन्यमयी पवित्र सरस्वती नदी पर्वतों से अवतरित होकर सागर में समाहित होती है। वह इस भूलोक में राजा नहुष की प्रजा को पौष्टिक तत्व, दूध एवं घी प्रदान करती है । ऋग्वेद में स्तुति की गयी है, हे सरस्वती! आप माताओं में श्रेष्ठ माता, नदियों में उत्तम महानदी और देवियों में अग्रगण्य देवी हो। हे माता ! हम सब अज्ञानी हैं। आप हमें ज्ञान प्रदान करें।ऋग्वेद में वर्णन मिलता है कि सरस्वती माता से सुखमय जीवन का आश्रय प्राप्त होता है। साथ ही वे अन्न तथा बल प्रदान कर सत्य के मार्ग पर चलने वाली हैं। ऋग्वेद में एक स्थान पर सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धु नदी की माता कहा गया है। इन मंत्रों से प्रकट होता है कि ऋग्वेदिक काल में सरस्वती सदानीरा महानदी थी, जो हिमालय की हिमाच्छादित शिखाओं से अवतरित होकर आज के पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, सिंध प्रदेश व गुजरात क्षेत्र को सिंचित कर शस्य-श्यामला बनती थी। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के एक मंत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया (व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियां सरस्वती की सहायक नदियां थीं।मनुस्मृति के अनुसार देवनदी सरस्वती व दृषद्वती के मध्य देवताओं द्वारा निर्मित जो भूप्रदेश है उसे ब्रह्मावर्त कहते हैं । स्पष्ट: ब्रह्मावर्त का निर्माण सरस्वती और दृषद्वती द्वारा संचित मृदा से हुआ होगा। यही स्थल महाभारत काल में कुरुक्षेत्र कहलाया।ब्राह्मण ग्रंथों में सरस्वती नदी के शिथिल होकर सर्पाकार मार्ग से पश्चिम दिशा में बहने का वर्णन मिलता है। ताण्डय ब्राह्मण के एक मन्त्र सरस्वती नदी के वृद्धावस्था में प्रवेश होने का संकेत करते हैं। इन ग्रंथों में पहली बार सरस्वती के उद्गम स्थल प्लक्षप्रसवण एवं विनशन, राजस्थान के मरुस्थल का वह स्थान जहां सरस्वती विलुप्त हुई, का उल्लेख मिलता है। इन मंत्रों से ज्ञात होता है कि सरस्वती का उदय हिमालय से होता था। ब्राह्मण काल में सरस्वती राजस्थान के मरुस्थल में विनशन में आकर सूख चुकी थी।-----
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अष्टमांगालिक चिहों के समुदाय को अष्टमंगल कहा गया है। आठ प्रकार के मंगल द्रव्य और शुभकारक वस्तुओं को अष्टमंगल के रूप में जाना जाता है । सांची के स्तूप के तोरणास्तंभ पर उत्कीर्ण शिल्प में मांगलिक चिहों से बनी हुई दो मालाएं अंकित हैं। एक में 11 चिह्न हैं - सूर्य, चक्र, पद्यसर, अंकुश, वैजयंती, कमल, दर्पण, परशु, श्रीवत्स, मीनमिथुन और श्रीवृक्ष। दूसरी माला में कमल, अंकुश, कल्पवृक्ष, दर्पण, श्रीवत्स, वैजयंती, मीनयुगल, परशु पुष्पदाम, तालवृक्ष तथा श्रीवृक्ष हैं। इनसे ज्ञात होता है कि लोक में अनेक प्रकार के मांगालिक चिहों की मान्यता थी।
विक्रम संवत् के आरंभ के लगभग मथुरा की जैन कला में अष्टमांगलिक चिहों की संख्या और स्वरूप निश्चित हो गए। कुषाणकालीन आयागपटों पर अंकित ये चिहृ इस प्रकार है-मीनमिथुन, देवविमानगृह, श्रीवत्स, वर्धमान या शराव, संपुट, त्रिरत्न, पुप्पदाम, इंद्रयष्टि या वैजयंती ओर पूर्णघट। इन आठ मांगलिक चिह्नों की आकृति के ठीकरों से बना आभूषण अष्टमांगलिक माला कहलाता था। कुषाणकालीन जैन ग्रंथ अंगाविज्जा, गुप्तकालीन बौद्धग्रंथ महाव्युत्पति ओर बाणकृत हर्षचरित में अष्टमांगलिक माला आभूषण का उल्लेख हुआ है। बाद के साहित्य और लोकजीवन में भी इन चिहों की मान्यता और पूजा सुरक्षित रही, किंतु इनके नामों में परिवर्तन भी देखा जाता है। शब्दकल्पद्रु में उद्धृत एक प्रमाण के अनुसार सिंह, वृषभ, गज, कलश, व्यजन, वैजयंती दीपक और दुंदुभी, ये अष्टमंगल थे।
नन्दिकेश्वर पुराणोक्त दुर्गोत्सव पद्धति, में कहा गया है-म्रुगराजो वृषो नाग: कलशो व्यंजन यथा, वैजयन्ती तथा भेरी दीप इत्यष्टमंगलम।
(अर्थात - सिंह, बैल, हाथी, कलश, पंखा, वैजन्ती, ढोल और दीपक यह आठ प्रकार के मंगल कहे गये हैं।)
शुद्धित्व में इस प्रकार से कहा गया है-लोकेस्मिन मन्ग्लान्यष्टो ब्राह्मïणों गौर्हुताशन, हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टम।
( यानी इस लोक में ब्राह्मण, गाय, अग्नि, सोना, घी, सूर्य, जल, तथा राजा यह आठ मंगल कहे गये हैं।)
- समुद्र मंथन के दौरान 8वें रत्न के रूप में सर्वप्रथम गणेश शंख की ही उत्पत्ति हुई थी। इसे गणेश शंख इसलिए कहते हैं कि इसकी आकृति हू-ब-हू गणेशजी जैसी है। शंख में निहित सूंड का रंग अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त है। प्रकृति के रहस्य की अनोखी झलक गणेश शंख के दर्शन से मिलती है। यह शंख दरिद्रतानाशक और धन प्राप्ति का कारक है।श्रीगणेश शंख का पूजन जीवन के सभी क्षेत्रों की उन्नति और विघ्न बाधा की शांति हेतु किया जाता है। इसकी पूजा से सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। माना जाता है कि आर्थिक, व्यापारिक, कर्ज और पारिवारिक समस्याओं से मुक्ति पाने का श्रेष्ठ उपाय श्री गणेश शंख है।गणेश शंख प्रकृति का मनुष्य के लिए अनूठा उपहार है। निश्चित रूप से वे व्यक्ति परम सौभाग्यशाली होते हैं जिनके पास या घर में गणेश शंख का पूजन दर्शन होता है। भगवान गणेश सर्वप्रथम पूजित देवता हैं। इनके अनेक स्वरूपों में यथा- विघ्न नाशक गणेश, दरिद्रतानाशक गणेश, कर्ज़ मुक्तिदाता गणेश, लक्ष्मी विनायक गणेश, बाधा विनाशक गणेश, शत्रुहर्ता गणेश, वास्तु विनायक गणेश, मंगल कार्य गणेश आदि- आदि अनेक नाम और स्वरूप गणेश जी के जन सामान्य में व्याप्त हैं। गणेश जी की कृपा से सभी प्रकार की विघ्न- बाधा और दरिद्रता दूर होती है। जहां दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग केवल और केवल लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किया जाता है। वहीं श्री गणेश शंख का पूजन जीवन के सभी क्षेत्रों की उन्नति और विघ्न बाधा की शांति हेतु किया जाता है। माना जाता है कि इसकी पूजा से सकल मनोरथ सिद्ध होते हंै। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है।ये अपने आप में चैतन्य शंख है। इसकी स्थापना मात्र से ही गणेश कृपा की अनुभूति होने लगाती है। इसके सम्मुख नित्य धूप- दीप जलना ही पर्याप्त है किसी जटिल विधि- विधान से पूजा करने की जरुरत नहीं है। भगवान शंकर रुद्र शंख को बजाते थे। जबकि उन्होंने त्रिपुराशुर के संहार के समय त्रिपुर शंख बजाया था।---
- मां भगवती की आराधना का पर्व है नवरात्रि। मां भगवती के नौ रूपों की भक्ति करने से हर मनोकामना पूरी होती है। नौ शक्तियों से मिलन को नवरात्रि कहते हैं। देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं।वर्ष के प्रथम महीने अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में तीसरी और प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में चौथी नवरात्रि का महोत्सव मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें आश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती,इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि भी कहते हैं। माना जाता है कि गुप्त और चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है।धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्रि में प्रमुख रूप से भगवान शंकर और देवी शक्ति की आराधना की जाती है। देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है। दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का। यह सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में ध्यान शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है।चैत्र प्रतिपदा से नवरात्रि का प्रारंभ होता है और इसी दिन से हिंदू नव वर्ष और नए विक्रम संवत का प्रारंभ भी माना जाता है। 21 मार्च 2015 से शुरू हो रहा विक्रम संवत 2072 और शक संवत 1937। धर्म ग्रंथों के अनुसार युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी चैत्र की प्रतिपदा तिथि से माना जाता है। साथ ही मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी तिथि को हुआ था। माता के पवित्र रूप की आराधना- नवरात्र के पहले 3 दिन मां दुर्गा की पूजा होती है जो नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करती हैं। अगले 3 दिन देवी लक्ष्मी की आराधना होती है जिससे सकरात्मक आचरण और विचार मिलता है और अंतिम 3 दिन मां सरस्वती की पूजा, ज्ञान और सचाई की रौशनी बिखेरने का प्रतीक है। शक्ति के 9 रूप मनुष्य की 9 अलग-अलग विशेषताओं के प्रतीक हैं। जिनमें स्मृति, श्रद्धा, लज्जा, भूख, प्यास, क्षमा, सौन्दर्य, दृष्टि और सच्चाई शामिल है। चैत्र नवरात्र बसंत ऋतुु के दौरान आता है और इस समय धरती, सूर्य से अपेक्षाकृत अधिक नजदीक होती है और सबसे अधिक गुरुत्व बल झेल रही होती है। इस संदर्भ में नवरात्र, देवी दुर्गा को धन्यवाद कहने का त्योहार है जिन्होंने धरती की रक्षा करने के साथ ही यहां जीवन को विकसित करने में भी मदद की।-----
- शक्ति उपासना का पर्व नवरात्रि आज से शुरु हो गया है। नवरात्र के पहले दिन विधि-विधान के साथ घटस्थापना या कलश स्थापना कर देवी मां की पूजा की जाती है।नवरात्रि में दुर्गा के नौ रूपों (मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कुष्मांडा, मां स्कंदमाता, मां कात्यायनी, मां कालरात्रि, मां महागौरी, मां सिद्धिदात्री) की पूजा होती है। नवरात्रि का पहला दिन मां शैलपुत्री को समर्पित रहता है। हिन्दू् पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इनके पूजन से मूलाधार चक्र जाग्रत हो जाता है। कहते हैं कि जो भी भक्ता श्रद्धा भाव से मां की पूजा करता है उसे सुख और सिद्धि की प्राप्ति होती हैपौराणिक कथा के अनुसार मां शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय (शैल) की पुत्री हैं और इसी कारण उनका नाम शैलपुत्री है। कहा जाता है मां शैलपुत्री अपने पूर्व जन्म में राजा दक्ष की कन्या पुत्री थी और उनका नाम सती था। माता सती का विवाह जगत के संहारक, देवों के देव महादेव शिजी के साथ हुआ था। एक बार राजा दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को आमंत्रित होने के लिए न्यौता दिया, लेकिन जानबूझकर भगवान शिवजी को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया।वहीं माता सती इस यज्ञ में शामिल होने के लिए आतुर थीं। ऐसे में उन्होंने शिवजी से यज्ञ में चलने का आग्रह किया। किंतु शिवजी ने उनसे कहा कि राजा दक्ष ने उन्हें इस आयोजन के लिए निमंत्रण नहीं भेजा है। अत: हमारा जाना वहां उचित नहीं होगा और ऐसी स्थिति में तुम्हारा भी वहां पर जाना ठीक नहीं है। भोलेनाथ ने जब उन्हें अपने मायके में होने वाले यज्ञ में हिस्सा लेने के लिए मना किया तो वे दुखी हो गईं। माता सती का दुखी चेहरा भोले बाबा से देखा न गया। उन्होंने माता सती को जाने की अनुमति दे दी, किंतु स्वयं नहीं गए।उधर जब मां सती अपने पिता के घर पहुंची, तो उन्हें पिता के द्वारा तिरस्कार का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, राजा दक्ष ने अपनी बेटी और पूरी सभा के सामने शिवजी को खूब बुरा भला कहा, उनकी निंदा की। अपने पति के प्रति इस दव्र्यवहार को देखकर माता सती का हृदय बहुत दुखी हो गया। अपने पति परमेश्वर का अपमान उनसे सहन नहीं हुआ। पिता की कड़वी बातों ने उन्हें मरने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने उसी यज्ञ में अपना जौहर कर दिया। यज्ञ की अग्नि में माता सती जलकर भस्म हो गईं।वज्रपात के समान इस दारुणं-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णत: विध्वंस करा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ।
- चैत्र नवरात्रि से पहले दिन को संवत्सर कहा जाता है। इसे हिन्दू नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जगत पिता ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन की थी।ब्रह्माजी ने जब सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ किया तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रवरा तिथि घोषित किया। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवसायिक और राजनीतिक अधिक महत्व के जो भी कार्य आरंभ किए जाते हैं, सभी सिद्धफलीभूत होते हैं। कालांतर में भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का अविर्भाव और सतयुग का आरंभ भी इसी दौरान हुआ था। प्रवरा तिथि के महत्व को स्वीकार कर, भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही किया था। आगे चलकर महर्षि दयानंद जी ने भी आर्य समाज की स्थापना इसी दिन करना शुभ संकेत माना।इस दिन संवत्सर पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्याड्ं स्नान, वर्षेशादि पंचाग फल श्रवण, परिभद्रफल प्राशनन और प्रपास्थापन प्रमुख हैं। इस दिन मुख्यतया ब्रह्माजी का व उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के प्रधान देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षसों, गंधर्वों, ऋषि, मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशुपक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। इसका विधिपूर्वक पूजन करने से वर्ष पर्यन्त सुख-शान्ति, समृद्धि आरोग्यता बनी रहती है।भारत की गौरवमयी सभ्यता एवं संस्कृति में संवत्सर का विशेष महत्व है। हिंदुओं के प्राय: सभी शुभ संस्कार, विवाह, मुंडन, नामकरण आदि एवं मंत्र जाप यज्ञादि अनुष्ठानों में संकल्प आदि के समय संवत के नाम का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है। ऋग्वेद में एक उल्लेख मिलता है कि दीर्घतमा ऋषि ने युग-युगों तक तपस्या करके ग्रहों, उपग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियों का आकाश मंडल में ज्ञान प्राप्त किया। वेदांग ज्योतिष काल गणना के लिए विश्व भर में भारत की सबसे प्राचीन और सटीक पद्धति है।पौराणिक काल गणना वैवश्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन इस प्रकार से हुआ। युधिष्ठिर संवत, कलिसंवत, कृष्ण संवत, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत। उसके बाद हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। इसलिए वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष और ब्रह्मांड संहिताओं में मास, ऋतु, वर्ष, युग, ग्रह, ग्रहण, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, विषुव और दिन रात का मान व उनकी ह्रास, वृद्धि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।ईसवी सन से 57 वर्ष पहले उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आक्रांताशकों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। यह चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को घटित हुआ। विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। काल को देवता माना जाता है। संवत्सर की प्रतिमा स्थापित करके उसका विधिवत पूजन व प्रार्थना की जाती है। विक्रम और शक संवत्सर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हालांकि हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है, हालांकि शक हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। कालान्तर में भारत में बसने के उपरांत शक भारतीय संस्कृति में ऐसे रच बस गए कि उनकी मूल पहचान लुप्त हो गई।विश्व में लगभग 25 संवतों का प्रचलन है जिसमें 15 तो 2500 वर्षों से प्रचलित हैं। दो-चार को छोड़कर प्राय: सभी संवत् वसंत ऋतु में आरंभ होते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को विक्रम संवत् का आरंभ भी भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप है क्योंकि इसका संबंध हमारे ऋतुचक्र से जुड़ा है।---
- चंडीगढ़। हमारे देश में एक गुरुद्वारा ऐसा भी है, जहां पर न तो लंगर बनता है और न ही गोलक है। फिर भी यहां कोई भूखा नहीं रहता। पढि़ए इस खास गुरुद्वारे की रोचक कहानी।हम बात कर रहे हैं चंडीगढ़ के सेक्टर-28 स्थित गुरुद्वारा नानकसर की। यहां पर न तो लंगर बनता है और न ही गोलक है। दरअसल, गुरुद्वारे में संगत अपने घर से बना लंगर लेकर आती है। यहां देशी घी के परांठे, मक्खन, कई प्रकार की सब्जियां, दाल, मिठाइयां और फल संगत के लिए रहता है। संगत के लंगर छकने के बाद जो बच जाता है उसे सेक्टर-16 और 32 के अस्पताल के अलावा पीजीआई में भेज दिया जाता है, ताकि वहां पर भी लोग प्रसाद ग्रहण कर सकें। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है।
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धन की देवी लक्ष्मी को खासतौर से दीपावली और अगहन मास के मौके पर विशेष रूप से पूजा जाता है। गणेश जी लक्ष्मी जी के मानस पुत्र हैं। माना जाता है कि लक्ष्मी जी चंचला हैं, एक स्थान पर नहीं टिकतीं। लेकिन दो स्थानों पर लक्ष्मी जी सदा निवास करती हैं। पहला वह स्थान जहां विष्णु जी का अभिषेक दक्षिणावर्ती शंख से किया जाए। दूसरा वह स्थान, जहां गणपति की आराधना की जाए । तीसरा उपाय है लक्ष्मी जी के 18 पुत्रों का नाम जपना।
ऋग्वेद में लक्ष्मी जी के 4 पुत्रों के नाम का उल्लेख मिलता है, लेकिन देवी लक्ष्मी के 18 पुत्र माने गए हैं, जिनके नाम हैं- देवसखाय, चिक्लीताय , आनन्दाय, कर्दमाय, श्रीप्रदाय,जातवेदाय, अनुरागाय,सम्वादाय, विजयाय , वल्लभाय, मदाय, हर्षाय, बलाय, तेजसे, दमकाय, सलिलाय, गुग्गुलाय और कुरूण्टका।--- - 1. कोणार्क सूर्य मंदिर- ओडिशा के कोणार्क में रथ के आकार में बनाया गया यह खूबसूरत मंदिर सूर्य देव को समर्पित है। इस सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंहदेव ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। मंदिर अपने विशिष्ट आकार और शिल्पकला के लिए दुनिया भर में मशहूर है। हिन्दू मान्यता के अनुसार सूर्य देवता के रथ में 12 पहिए हैं और रथ को खींचने के लिए उसमें 7 घोड़े हैं। रथ के आकार में बने कोणार्क के इस मंदिर में भी पत्थर के पहिए और घोड़े बनाए गए हैं। यहां की सूर्य प्रतिमा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सुरक्षित रखी गई है और अब यहां कोई भी मूर्ति नहीं है।2. सूर्य मंदिर, मोढ़ेरा- गुजरात के अहमदाबाद से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है यह प्रसिद्ध मंदिर। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम ने करवाया था। सोलंकी सूर्यवंशी थे और वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे। इसलिए उन्होंने अपने आराध्य देवता की पूजा अर्चना के लिए एक भव्य सूर्य मंदिर बनवाया।3. मार्तंड सूर्य मंदिर, अनंतनाग- इस मंदिर का निर्माण मध्यकालीन युग में 7वीं से 8वीं शताब्दी के दौरान हुआ था। सूर्य राजवंश के राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण जम्मू कश्मीर के छोटे से शहर अनंतनाग के पास एक पठार के ऊपर करवाया था। इसमें 84 स्तंभ हैं जो नियमित अंतराल पर रखे गए हैं। मंदिर को बनाने के लिए चूने के पत्थर की चौकोर ईंटों का उपयोग किया गया है, जो उस समय के कलाकारों की कुशलता को दर्शाता है।4. बेलाउर सूर्य मंदिर, बिहार- बिहार के भोजपुर जिले के बेलाउर गांव के पश्चिमी एवं दक्षिणी छोर पर स्थित बेलाउर सूर्य मंदिर काफी प्राचीन है। राजा द्वारा बनवाए 52 पोखरों में से एक पोखर के बीच में यह सूर्य मंदिर स्थित है। यहां छठ महापर्व के दौरान हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सच्चे मन से इस स्थान पर छठ व्रत करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।5. झालरापाटन सूर्य मंदिर- राजस्थान के झालावाड़ का दूसरा जुड़वा शहर झालरापाटन को सिटी ऑफ वेल्स यानी घाटियों का शहर भी कहा जाता है। शहर के बीचोंबीच स्थित सूर्य मंदिर झालरापाटन का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। वास्तुकला की दृष्टि से भी यह मंदिर अहम है। इसका निर्माण दसवीं शताब्दी में मालवा के परमार वंशीय राजाओं ने करवाया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा विराजमान है।6. सूर्य मंदिर, रांची- रांची से 39 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह सूर्य मंदिर बुंडू के समीप है। संगमरमर से निर्मित इस मंदिर का निर्माण 18 पहियों और 7 घोड़ों के रथ पर विद्यमान भगवान सूर्य के रूप में किया गया है। 25 जनवरी को हर साल यहां विशेष मेले का आयोजन होता है।---
- क्राइसोकोला एक प्रकार का उपरत्न है, जो एक चिकना तथा रेशेदार पत्थर है। यह उपरत्न चिकना होता है। कई बार यह पारभासी को कई बार यह अपारदर्शी रुप में पाया जाता है। इस उपरत्न को देखने पर फिरोजा का आभास होता है। क्राइसोकोला काफी कुछ फिरोजा से मिलता-जुलता है। कई बार इसे देखकर रंगें हुए कैल्सीडोनी व तुरमलीन उपरत्न का भी भ्रम पैदा होता है।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह उपरत्न शांति, सौहार्द, बुद्धि तथा विवेक का सूचक माना जाता है। यह अशांति के समय व्यक्ति को शांत रखता है और विचारों में उग्रता नहीं आने देता। यह व्यक्ति को अध्यक्षता करने के लिए बढा़वा देता है। विचारों में तटस्थता तथा स्पष्टता लाता है। यह घबराहट तथा चिड़चिड़ेपन में कमी करता है। जब व्यक्ति बहस, लडा़ई और रिश्ता टूटने से मानसिक रुप से परेशान होता है और रहने के स्थान पर नकारात्मक ऊर्जा अधिक हो जाती है तब इस उपरत्न को उपयोग में लाने से वातावरण तथा व्यक्तिगत भावनाएं शुद्ध हो जाती हैं।माना जाता है कि इस उपरत्न को घर में रखने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। आफिस में रखने से सभी व्यक्ति आपस में मिलकर काम करते हैं। इस उपरत्न को आफिस के कैश रजिस्टर या कैश रखने वाले लॉकर के पास रखा जाए तो धन में वृद्धि होती है। जातक का भाग्य बली होता है। वातावरण में खुशहाली रहती है। मानसिक स्तर अच्छा रहता है।यदि व्यक्ति विशेष को किसी बात से अकारण डर लगता है अथवा तनाव या अपराध भावना जागृत होती है तब इस उपरत्न को धारण करना चाहिए। इसे धारण करने से जातक को आंतरिक ऊर्जा प्राप्त होती है और वह स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढा़लने में सक्षम होता है।स्फटिक ओपल के साथ प्राप्त हुए क्राइसोकोला को ही आभूषण बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस उपरत्न में तांबे का समिश्रण होता है। इसलिए यह तांबे की खानों के आसपास पाया जाता है। एलात उपरत्न, क्राइसोकोला की ही एक श्रेणी है और यह विभिन्न श्रेणियों में हरे तथा नीले रंगों के मिश्रण में पाया जाता है।शुद्ध रुप में पाया जाने वाला क्राइसोकोला गहने बनाने के उद्देश्य से बहुत ही नर्म होता है, लेकिन यह क्वार्टज रुप में पाए जाने से कुछ सख्त हो जाता है। यह उपरत्न नीले-हरे रंग में पाया जाता है। फिरोजा जैसे रंग में पाए जाने से क्राइसोकोला कई कीमती रत्नों के उपरत्न के रुप में उपयोग में लाया जा सकता है।--
- अश्वत्थामा पर्वत भुवनेश्वर (ओडि़शा) के पास स्थित है। इसे अब धवलागिरि की पहाड़ी नाम से भी जाना जाता है। अश्वत्थामा पर्वत में मौर्य सम्राट अशोक का एक अभिलेख उत्कीर्ण है। कहते हैं कि इतिहास-प्रसिद्ध कलिंग युद्ध जिसने अशोक के हृदय को बदल दिया था, इसी स्थान पर हुआ था। पर्वत पर पहले अश्वत्थामा विहार स्थित था।अश्वत्थामा का उल्लेख महाभारत काल में मिलता है। अश्वत्थामा, गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा ने अपने मित्र दुर्योधन का साथ दिया। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में माहिर था। महाभारत के युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा ने पांडवों से बदला लेने के लिए रात्रि में सोये हुए पांडवों के बचे हुए वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पांचों पुत्रों के सिर भी काट डाले। भगवान कृष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया। अर्जुन ने अश्वत्थामा को मारने का बीड़ा उठाया । लेकिन द्रोपदी ने अर्जुन को अश्वत्थामा की हत्या करने से यह कहकर रोक दिया कि शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अत: तुम वही करो जो उचित है। उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। मान्यता है कि अश्वत्थामा को अमरत्व का वरदान प्राप्त था और आज भी वह जीवित है।०------
- बिल्व तथा श्रीफल नाम से प्रसिद्ध यह फल बहुत ही काम का है। यह जिस पेड़ पर लगता है वह शिवद्रूम भी कहलाता है। बिल्व का पेड़ संपन्नता का प्रतीक, बहुत पवित्र तथा समृद्धि देने वाला है। बेल के पत्ते शंकर जी का आहार माने गए हैं, इसलिए भक्त लोग बड़ी श्रद्धा से इन्हें महादेव के ऊपर चढ़ाते हैं। शिव की पूजा के लिए बिल्व-पत्र बहुत ज़रूरी माना जाता है। शिव-भक्तों का विश्वास है कि पत्तों के त्रिनेत्र स्वरूप तीनों पर्णक शिव के तीनों नेत्रों को विशेष प्रिय हैं। बिल्व पत्र का भगवान शंकर के पूजन में विशेष महत्व है जिसका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है। बिल्वाष्टक और शिव पुराण में इसका स्पेशल उल्लेख है। श्रीमद् देवी भागवत में स्पष्ट वर्णन है कि जो व्यक्ति मां भगवती को बिल्व पत्र अर्पित करता है वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं होता।बिल्व पत्र चार प्रकार के होते हैं - अखंड बिल्व पत्र, तीन पत्तियों के बिल्व पत्र, छ: से 21 पत्तियों तक के बिल्व पत्र और श्वेत बिल्व पत्र। इन सभी बिल्व पत्रों का अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है। यह अपने आप में लक्ष्मी सिद्ध है। एकमुखी रुद्राक्ष के समान ही इसका अपना विशेष महत्व है। यह वास्तुदोष का निवारण भी करता है। माना जाता है कि इसे गल्ले में रखकर नित्य पूजन करने से व्यापार में चैमुखी विकास होता है। इस बिल्व पत्र के महत्व का वर्णन भी बिल्वाष्टक में आया है। कभी-कभी एक ही वृक्ष पर चार, पांच, छह पत्तियों वाले बिल्व पत्र भी पाए जाते हैं। परंतु ये बहुत दुर्लभ हैं। ये मुख्यत: नेपाल में पाए जाते हैं। पर भारत में भी कहीं-कहीं मिलते हैं। जिस तरह रुद्राक्ष कई मुखों वाले होते हैं उसी तरह बिल्व पत्र भी कई पत्तियों वाले होते हैं।जिस तरह सफेद सांप, सफेद टांक, सफेद आंख, सफेद दूर्वा आदि होते हैं उसी तरह सफेद बिल्वपत्र भी होता है। यह प्रकृति की अनमोल देन है। इस बिल्व पत्र के पूरे पेड़ पर श्वेत पत्ते पाए जाते हैं। इसमें हरी पत्तियां नहीं होतीं। इन्हें भगवान शंकर को अर्पित करने का विशेष महत्व है। बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में स्कंदपुराण में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोंछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं।कहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई शक्तियां समाहित हैं। शिवपुराण में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है। नारियल से पहले बिल्व के फल को श्रीफल माना जाता था क्योंकि बिल्व वृक्ष लक्ष्मी जी का प्रिय वृक्ष माना जाता था। प्राचीन समय में बिल्व फल को लक्ष्मी और सम्पत्ति का प्रतीक मान कर लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए बिल्व के फल की आहुति दी जाती थी जिसका स्थान अब नारियल ने ले लिया है।वनस्पति में बेल का अत्यधिक महत्व है। यह मूलत: शक्ति का प्रतीक माना गया है। यह हृदय रोगियों और उदर विकार से ग्रस्त लोगों के लिए रामबाण औषधि है। बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी होता है। यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। औषधीय गुणों से परिपूर्ण बिल्व की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते हैं।----
- शेषनाग झील जम्मू और कश्मीर में अमरनाथ गुफ़ा के पास स्थित एक धार्मिक झील है। यह पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की एक ख़ूबसूरत झील है। यह झील कऱीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। यह झील चन्दनवाडी से लगभग 16 किमी और पहलगाम से लगभग 32 किमी की दूर पर है।किंवदंतियों के अनुसार शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं। वहीं एक और किंवदंती है कि जब शिव जी माता पार्वती को अमरकथा सुनाने अमरनाथ ले जा रहे थे, तो उनका इरादा था कि इस कथा को कोई ना सुने। अगर कोई दूसरा इसे सुन लेगा, तो वो भी अमर हो जाएगा और सृष्टि का मूल सिद्धांत गड़बड़ हो जायेगा। इसी सिलसिले में उन्होंने अपने असंख्य सांपों-नागों को अनन्तनाग में, बैल नन्दी को पहलगाम में, चन्द्रमा को चन्दनवाडी में छोड़ दिया था। लेकिन अभी भी उनके साथ शेषनाग था जिसे उन्होंने इस झील में छोड़ दिया। शंकर जी ने शेषनाग को आदेश दिया था कि इस स्थान से आगे कोई ना जाने पाए। बस तभी से इसका नाम शेषनाग झील हो गया।अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यहां की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बफऱ् से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं।--
- पांचजन्य शंख का भारतीय धर्मशास्त्रों में विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। भगवान श्रीकृष्ण इसी शंख को धारण करते हैं, जो बहुत चमत्कारिक था। इसमें 5 अंगुलियों की आकृति होती है। पांचजन्य शंख अब भी मिलते हैं लेकिन वे सभी चमत्कारिक नहीं हैं। इन्हेंं घर के वास्तुदोषों से मुक्त रखने के लिए स्थापित किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह राहु और केतु के दुष्प्रभावों को भी कम करता है।मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। इसलिए यह भी मान्यता है कि जहां शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है।शंख को समुद्रज, कंबु, सुनाद, पावनध्वनि, कंबु, कंबोज, अब्ज, त्रिरेख, जलज, अर्णोभव, महानाद, मुखर, दीर्घनाद, बहुनाद, हरिप्रिय, सुरचर, जलोद्भव, विष्णुप्रिय, धवल, स्त्रीविभूषण, पाञ्चजन्य, अर्णवभव आदि नामों से भी जाना जाता है।महाभारत में लगभग सभी योद्धाओं के पास शंख होते थे। उनमें से कुछ योद्धाओं के पास तो चमत्कारिक शंख होते थे, जैसे भगवान कृष्ण के पास पांचजन्य शंख था जिसकी ध्वनि कई किलोमीटर तक पहुंच जाती थी। कहते हैं कि यह शंख आज भी कहीं मौजूद है। इस शंख के हरियाणा के करनाल में होने के बारे में कहा जाता रहा है। माना जाता है कि यह करनाल से 15 किलोमीटर दूर पश्चिम में काछवा और बहलोलपुर गांव के समीप स्थित पराशर ऋषि के आश्रम में रखा था, जहां से यह चोरी हो गया।महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण अपने पांचजन्य शंख से पांडव सेना में उत्साह का संचार ही नहीं करते थे बल्कि इससे कौरवों की सेना में भय व्याप्त हो जाता था। इसकी ध्वनि सिंह गर्जना से भी कहीं ज्यादा भयानक थी। इस शंख को विजय व यश का प्रतीक माना जाता है।--
- मनीप्लांट ऐसा पौधा है, जो प्राय: हर घर में मिल जाता है। यह न केवल घर की सुंदरता बढ़ता है, बल्कि आर्थिक स्थिति में भी सुधार ला सकता है। इस पौधे के बारे में अक्सर कहा जाता है कि इसे खरीदकर कभी नहीं लगाना चाहिए।वास्तु शास्त्र के अनुसार, इसे घर में लगाने के लिए दक्षिण-पूर्व दिशा सबसे उचित होती है। दरअसल इस दिशा के देवता गणेशजी हैं, जबकि प्रतिनि निधि शुक्र हैं। गणेशजी अमंगल का नाश करने वाले हैं, जबकि शुक्र सुख-समृद्धि लाने वाले। बेल और लता का कारक भी शुक्र ग्रह को माना गया है। इसलिए मनीप्लांट को दक्षिण-पूर्व दिशा में लगाना सबसे उचित माना गया है। इस दिशा में यह पौधा लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का भी लाभ मिलता है।मनी प्लांट को कभी भी उत्तर-पूर्व दिशा में नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि यह दिशा सबसे नकारात्मक मानी गई है। इस दिशा का प्रतिनिधि देवगुरु बृहस्पति को माना गया है । गुरु और शुक्र में शत्रुवत संबंध होता है। इसलिए शुक्र से संबंधित इस पौधेे को उत्तर-पूर्व दिशा में रखने से नुकसान होता है। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी मनीप्लांट का पौधा लगाना शुभा नहीं होता है। माना जाता है कि इस दिशा में मनी प्लॉट रखने से परिवार में तनाव भरा माहौल रहता है और पति-पत्नी के रिश्ते मधुर नहीं रहते हंै।
- होली भारत का बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होलाका सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य में एक सूत्र है राका होला के , जिसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है- होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका देवता है।होलाका उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि ने बृहद्यम के एक श्लोक का उल्लेख किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिक कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है। वराह पुराण में आया है कि यह पटवास-विलासिनी है।जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, इसलिए यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है।कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पांचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुुसंहार में पूरा एक सर्ग ही वसन्तोत्सव को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंदबरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, मलिक मुहम्मद जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने बसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं।पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएं की हैं। सूफ़ी संत हजऱत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफ़ऱ जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएं लिखी हैं। संस्कृत शब्द होलक्का से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में होलक्का को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था।----
- होली भारत का बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होलाका सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य में एक सूत्र है राका होला के , जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने की है- होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका देवता है।होलाका उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमादि ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है। वराह पुराण में आया है कि यह पटवास-विलासिनी है।जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, इसलिए यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है।
- होली रंगों का त्यौहार है। भारत में दो दिन पहले से ही होली का खुमार शुरू हो जाता है और रंग पंचमी तक जारी रहता है। कहीं फूलों से , कहीं रंगों, गुलालों से होली खेली जाती है तो कहीं पत्थर से। हमारे देश में चिता की राख से भी होली खेली जाती है। रंगभरी एकादशी के दिन से बनारस के बाबा काशी विश्वनाथ मंदिर के दरबार से होली की शुरुआत होती है।श्रद्धालु रंग भरी एकादशी के मौके पर बाबा के दरबार में जमकर होली खेलते हैं। । दूसरे दिन काशी के महा श्मशान मणिकर्णिका घाट पर होली खेलने का कार्यक्रम होता है। इस दौरान भगवान भोलेनाथ के भक्त चिता की राख से होली खेलते हैं।काशी के बाबा विश्वनाथ मंदिर में रंगों से नहीं बल्कि चिता की राख से होली खेलने की परंपरा बरसों पुरानी है। मान्यता है कि फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ माता पार्वती, पुत्र गणेश के साथ काशी पधारते हैं। तब तीनों लोक के लोग उनके स्वागत सत्कार के लिए काशी पहुंचते हैं। नहीं आ पाते हैं, तो महादेव के सबसे प्रिय भूत-पिशाच, दृश्य- अदृश्य आत्माएं। इस खुशी में यहां रंगोत्सव मनाया जाता है। अगले दिन गंगा नदी के किनारे मणिकर्णिका घाट पर चिता की भस्म की होली खेली जाती है। बसंत पंचमी से बाबा विश्वनाथ के वैवाहिक कार्यक्रम का जो सिलसिला शुरू होता है, वह होली तक चलता है। बसंत पंचमी पर बाबा का तिलकोत्सव होता है और महाशिवरात्रि पर विवाह। रंगभरनी एकादशी पर गौरा की विदाई का कार्यक्रम होता है। इसके अगले दिन बाबा अपने अड़भंगी बारातियों के साथ महाश्मशान पर दिगंबर रूप में होली खेलते हैं। इसे मसाने की होली के नाम से जाना जाता है। इसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से लोग बनारस पहुंचते हैं।--
- आईना ऐसी चीज हैं, जो हर एक घर में मिल जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि गलत जगह पर लगाया गया आईना घर की सुख समृद्धि को भी कम कर सकता है। इसलिए घर में आईना लगाने से पहले उसकी दिशा अवश्य जान लें।वास्तुशास्त्र के अनुसार आईने को दक्षिण दिशा में नहीं लगाना चाहिए। माना जाता है कि इससे घर वालों में दूरियां उत्पन्न हो सकती है। यहां तक कि घर वालों के बीच के संबंध इतने ज्यादा बिगड़ सकते हंै कि घर की खुशहाली पूरी तरह से खत्म भी हो सकती है। इसलिए इस दिशा में भूलकर भी आईना लगाने की गलती न करें।आईने को उत्तर पश्चिम की दिशा में भी नहीं लगाना चाहिए। कहा जाता है कि आईने को इस दिशा में लगाने से परिवार किसी क़ानूनी विवाद में फंस सकता है। इसके इलावा घर की महिलाओं को भी बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा और बेकार का खर्च भी खूब होगा। इसलिए इस दिशा में आईना लगाने से बचना चाहिए।किसी भी दर्पण को सोने के कमरे में नहीं होना चाहिए। पति-पत्नी के सोने के कमरे में दर्पण से किसी तीसरे आदमी की मौजूदगी का अहसास होता है। रात के वक्त अंधेरे में अपना ही प्रतिबिंब हमें चौंका भी देता है। इसलिए अगर आईना या ड्रेसिंग-टेबल रखना भी हो , तो इस तरह से रखा जाना चाहिए कि सोने वाले का अक्स उसमें न दिखाई दे , क्योंकि टीवी की स्क्रीन भी शीशे का काम करती है इसलिए टीवी को भी बेड के सामने नहीं रखना चाहिए। अगर किसी वजह से ऐसा करना मुश्किल हो , तो सोने से पहले दर्पण को किसी कपड़े या पर्दे से ढंक देना चाहिएबता दे कि वास्तु विज्ञान के अनुसार अगर सोते समय बिस्तर की तरफ से देखने पर आईना दिखाई दे, तो यह स्थिति भी अच्छी नहीं होती। दरअसल ऐसा कहा जाता है कि यह स्थिति दाम्पत्य जीवन पर बुरा प्रभाव डालती है। इससे न केवल पति और पत्नी का रिश्ता खराब हो सकता है, बल्कि स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव भी पड़ सकता है। इसलिए आईना लगाते समय इस बात का खास ध्यान जरूर रखे।--
- नंदप्रयाग गढ़वाल, उत्तराखंड का एक प्राचीन तीर्थ स्थान है। नंदप्रयाग हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध पर्वतीय तीर्थों में से एक है। मन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर नंदप्रयाग स्थित है । यह सागर तल से 2 हजार 805 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है । यहां पर गोपाल जी का मंदिर दर्शनीय है ।धार्मिक पंच प्रयागों में से दूसरा नंदप्रयाग अलकनंदा नदी पर वह जगह है जहां अलकनंदा एवं नंदाकिनी नदियों का मिलन होता है। ऐतिहासिक रूप से शहर का महत्व इस बात में है कि यह बद्रीनाथ मंदिर जाते तीर्थयात्रियों का पड़ाव स्थान होता है साथ ही यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल भी है। वर्ष 1803 में आई बाढ़, शहर का सब कुछ बहा ले गई जिसे एक ऊंची जगह पर पुनसर््थापित किया गया। नंदप्रयाग का महत्व इस तथ्य से भी है यह स्वाधीनता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन के विरोध का स्थानीय केंद्र रहा था। यहां के अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का योगदान इसमें तथा कुली बेगार प्रथा की समाप्ति में, सबको हमेशा याद रहेगा।अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर बसा पंच प्रयागों में से एक नंदप्रयाग का मूल नाम कंदासु था जो वास्तव में अब भी राजस्व रिकार्ड में यही है। यह शहर बद्रीनाथ धाम के पुराने तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित है तथा यह पैदल तीर्थ यात्रियों के ठहरने एवं विश्राम करने के लिये एक महत्वपूर्ण चट्टी था। यह एक व्यस्त बाजार भी था तथा वाणिज्य के अच्छे अवसर होने के कारण देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये। जाड़े के दौरान भोटियां लोग यहां आकर ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं, नमक तथा बोरेक्स बेचा करते तथा गर्मियों के लिये गुड़ जैसे आवश्यक सामान खरीद ले जाते। कुमाऊंनी लोग यहां व्यापार में परिवहन की सुविधा जुटाने (खच्चरों एवं घोड़ों की आपूर्ति) में शामिल हो गये जो बद्रीनाथ तक सामान पहुंचाने तथा तीर्थयात्रियों की आवश्यकता पूर्ति में जुटकर राजस्थान, महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों ने अच्छा व्यवसाय किया।ऐसा कहा जाता है कि स्कंदपुराण में नंगप्रयाग को कण्व आश्रम कहा गया है जहां दुष्यंत एवं शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी। स्पष्ट रूप से इसका नाम इसलिये बदल गया क्योंकि यहां नंद बाबा ने वर्षों तक तप किया था। नंदप्रयाग से संबद्ध एक दूसरा रहस्य चंडिका मंदिर से जुड़ा है। कहा जाता है कि देवी की प्रतिमा अलकनंदा नदी में तैर रही थी तथा वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को यह स्वप्न में दिखा। इस बीच कुछ चरवाहों ने मूर्ति को नदी के किनारे एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक जब घर वापस नहीं आये तो लोगों ने उनकी खोज की तथा उन्हें मूर्ति के बगल में मूर्छितावस्था में पाया। एक दूसरे स्वप्न में पुजारी को श्रीयंत्र को प्रतिमा के साथ रखने का आदेश मिला। रथिन मित्रा के टेम्पल्स ऑफ गढ़वाल एंड अदर लैंडमार्क्स, गढ़वाल मंडल विकास निगम 2004 के अनुसार, कहावतानुसार भगवान कृष्ण के पिता राजा नंद अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में यहां अपना महायज्ञ पूरा करने आये तथा उन्हीं के नाम पर नंदप्रयाग का नाम पड़ा।नंदप्रयाग में एक धर्म-निरपेक्ष एवं भेद-भाव रहित संस्कृति है। विभिन्न क्षेत्रों एवं धर्मों के लोग यहां एक साथ शांतिपूर्वक रहते आये हैं और आज भी रहते हैं।----