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- किसी भी व्यक्ति के लिए उसका व्यवसाय कितना मायने रखता है यह बात किसी को समझाने की आवश्यकता नहीं है। व्यवसाय व्यक्ति के जीवन भर की पूंजी और जीविकोपार्जन का जरिया होता है। जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। ऐसे में यदि व्यवसाय में परेशानियां आने लगे तो तनाव होना स्वाभाविक होता है। व्यसाय में दिक्कते आते ही हर तरफ से परेशानियां आने लगती हैं क्योंकि व्यक्ति को व्यवसाय में दिक्कतों के चलते आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिससे परिवार में भी कलह-क्लेश होने लगता है। जिसके चलते व्यक्ति को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसका व्यवसाय अच्छा चले और उसमें तरक्की होती रहे। वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि कोई व्यवसाय करते हैं या फिर व्यवसाय आरंभ करने की सोच रहे हैं तो रंग का विशेष ध्यान रखना चाहिए। हम अपने कार्यस्थल पर बस रंगों का चयन ऐसे ही कर लेते हैं लेकिन रंग हमारे व्यवसाय को प्रभावित करते हैं ऐसे में यदि आप रंगो का चुनाव अपने व्यवसाय के अनुसार करते हैं तो लाभ प्राप्त किया जा सकता है। तो आइए जानते हैं कि किसी व्यवसाय के लिए कार्यस्थल पर कौन सा रंग करवाना फायदेमंद रहता है।यदि आपकी किराने की दुकान है तो हल्का गुलाबी या सफेद रंग करवाना सही रहता है, इससे व्यापार में तरक्की प्राप्त होती है।यदि आपका कपड़ों का व्यवसाय हैं जैसे सिलाई की दुकान, थोक या खुदरा में कपड़े बेचना आदि तो वास्तु के अनुसार आपको हल्के पीले, हरे और आसमानी रंग का चुनाव करना उचित रहता है। इससे आपकी व्यसाय की समस्याएं दूर होती हैं।यदि आप दवा विक्रेता हैं या फिर दवाखाना खोलना चाहते हैं तो आपको सफेद रंग करवाना चाहिए। वास्तु के अनुसार दवाई के कारोबार के लिए कार्यस्थल पर यह रंग सबसे अच्छा माना जाता है।यदि आपकी तोहफो की दुकान है तो आपको अपनी दुकान में पीला, आसमानी और हल्का गुलाबी या नीले रंग का प्रयोग करना चाहिए। इससे व्यवसाय में समृद्धि प्राप्त होती है।वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि आपकी किसी प्रकार की बिजली के उपकरणों से संबंधित दुकान है तो कार्यस्थल पर गुलाबी, सफेद और हल्का हरा रंग करवाना बहुत लाभप्रद माना जाता है।यदि आप सौंदर्य प्रसाधन से जुड़ा हुआ कोई व्यसाय दुकान या ब्यूटी पार्लर आदि चलाते हैं तो आसमानी और सफेद रंग का चुनाव करना सही रहता है। इससे व्यापार में खूब तरक्की होती है।
- -इन मंत्रों का जाप करने से परम पुण्य की होती है प्राप्तिपुराणों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, हस्त नक्षत्र में गंगाजी शिवजी की जटाओं से निकलकर धरती पर आई थी। मान्यता है कि इस दिन गंगा सेवन यानी गंगा स्नान करने से अनजाने में हुए पाप और कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। मान्यता है कि इस पवित्र नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते हैं। गंगा मैया तक ना जा सकें, तो इस दिन स्नान के पानी में गंगा जल मिलाकर नहाएं। ऐसा करने से भी गंगा स्नान के बराबर ही पुण्य मिलता है। इस दिन विष्णुपदी, पुण्यसलिला मां गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ, अत: यह दिन 'गंगा दशहरा' (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) या लोकभाषा में जेठ का दशहरा के नाम से जाना जाता है।स्कंदपुराण के अनुसार गंगा दशहरे के दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी पर जाकर स्नान, ध्यान तथा दान करना चाहिए, इससे वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है। यदि कोई मनुष्य पवित्र नदी तक नहीं जा पाता, तब वह अपने घर के पास की किसी नदी पर मां गंगा का स्मरण करते हुए स्नान करे और यह भी संभव नहीं हो तो मां गंगा की कृपा पाने के लिए इस दिन गंगाजल का स्पर्श और सेवन अवश्य करना चाहिए।विष्णु पुराण में लिखा है कि गंगा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श करने, उसमें स्नान करने तथा सौ योजन (कोस) से भी गंगा नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। मत्स्य, गरुड़ और पद्म पुराण के अनुसार हरिद्वार, प्रयाग और गंगा के समुद्र संगम में स्नान करने से मनुष्य मरने के बाद स्वर्ग पहुंच जाता है और फिर कभी पैदा नहीं होता यानी उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है।शास्त्रों के अनुसार गंगा अवतरण के इस पावन दिन गंगा जी में स्नान एवं पूजन-उपवास करने वाला व्यक्ति दस प्रकार के पापों से छूट जाता है। बिना दी हुई वस्तु को लेना, निषिद्ध हिंसा, परस्त्री संगम-यह तीन प्रकार का दैहिक पाप माना गया है। कठोर वचन मुंह से निकालना, झूठ बोलना, सब ओर चुगली करना एवं वाणी द्वारा मन को दुखाना ये वाणी से होने वाले चार प्रकार के पाप हैं। दूसरे के धन को लेने का विचार करना, मन से किसी का बुरा सोचना और असत्य वस्तुओं में आग्रह रखना-ये तीन प्रकार के मानसिक पाप कहे गए हैं। यानि कि दैहिक, वाणी द्वारा एवं मानसिक पाप, ये सभी गंगा दशहरा के दिन पतितपावनी गंगा स्नान से धुल जाते हैं। गंगा में स्नान करते समय स्वयं श्री नारायण द्वारा बताए गए मन्त्र-''? नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:'' का स्मरण करने से व्यक्ति को परम पुण्य की प्राप्ति होती है।दस-दस सामग्री का महत्वस्कंद पुराण के अनुसार गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालुजन दस-दस सुगंधित पुष्प,फल,नैवेद्य,दस दीप और दशांग धूप के द्वारा श्रद्धा और विधि के साथ दस बार गंगाजी की पूजा करें। जिस भी वस्तु का दान करें, उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें, उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए, ऐसा करने से शुभ फलों में वृद्धि होती है एवं मां गंगा प्रसन्न होकर मनुष्य को पाप मुक्त करती हैं। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए। जब गंगा नदी में स्नान करें, तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए।
- HappyFATHER'S DAYTo All Of You..
आप सभी सुधी पाठक समुदाय को 'फादर्स-डे' की हार्दिक शुभकामनाएं!! आइये आज इस अवसर हम सभी अपने सनातन पिता भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करें!
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'फादर्स-डे' के महत्व पर यह विशेष प्रवचन हम सभी के कल्याणार्थ दिया गया था, हम सभी इसमें निहित शब्दों पर गम्भीरता से मनन करें और अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने का सौभाग्य अर्जित करें!!
★ 'भगवान् ही हमारे वास्तविक पिता हैं'
'..भगवान् समस्त जीवों के वास्तविक पिता हैं. भगवान् के सोचने मात्र से संसार बन गया. संसार बन जाने के बाद भगवान् संसार के एक एक परमाणु में व्याप्त हो गए अर्थात् सर्वव्यापक हो गए. भगवान् ने जीवों को शरीर दिया और भगवान् अनेक रूप बनाकर प्रत्येक जीव के साथ उसके शरीर में बैठे, शरीर में चेतना दी. जीव को भगवान् ने शक्ति दी और जीव ने शरीर को शक्ति दी. जीव के पूर्व जन्म के कर्मानुसार भगवान् प्रत्येक जीव को जन्म देते हैं..
भगवान् के अनंत जीव हैं और समस्त जीव भगवान् के पुत्र हैं परंतु वे भगवान् को अपना पिता नहीं मानते हैं. संसारी पिता को पिता मानते हैं, परंतु जो वास्तविक पिता है भगवान्, उसको मानते ही नहीं. शरीर के पिता के लिए संसार में 'फादर्स डे' मनाते हैं और आत्मा का वास्तविक पिता परमात्मा है, उसको कोई नहीं मानता, उसके विषय में कोई नहीं सोचता. संसारी पिता तो एक जन्म भी साथ नहीं दे सकता क्योंकि सर्वप्रथम तो मानव देह क्षणभंगुर है, किसी की आयु निश्चित नहीं है और दूसरे संसार में सब अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही एक दूसरे से प्रेम का दिखावा करते हैं और स्वार्थ सिद्धि न होने पर परस्पर एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं.
संसारी पिता से जीव का संबंध क्षणभंगुर है, नाशवान है परंतु भगवान से जीव का संबंध नित्य है, अटूट है, सदा से है और सदा के लिए है. जीव, भगवान् को अपना पिता माने न माने, परंतु भगवान् फिर भी उसका सदा साथ देते हैं. अतः 'फादर्स डे' पर हमें अपने वास्तविक पिता भगवान् की अनन्त कृपाओं को अनुभव करते हुए उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगते हुए रोकर उनसे उनकी सेवा माँगनी चाहिए, क्योंकि भगवान् का नित्य दासत्व हमारा वास्तविक स्वरुप है. जब तक भगवान् नहीं मिलते तब तक हमें अपने गुरु को ही अपना पिता, अपना संरक्षक मानते हुए साधना करनी चाहिए, तभी 'फादर्स डे' मनाना सार्थक होगा..'
••- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज...
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - रविवार का दिन भगवान सूर्यदेव को समर्पित है। सूर्यदेव की ऊर्जा से ही यह सारा संसार प्रकाशमान है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्यदेव की उपासना से यश और आरोग्य की प्राप्ति होती है। वास्तु में सूर्यदेव की उपासना को लेकर कुछ आसान से उपाय बताए गए हैं, जिन्हें अपनाकर हम भगवान सूर्यदेव की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।ज्योतिषाचार्यों के अनुसार अगर पूरे हफ्ते सूर्यदेव को जल अर्पित न कर सकें तो रविवार को सूर्यदेव को जल अवश्य अर्पित करें। तांबे के लोटे में लाल फूल डालकर सूर्यदेव को जल अर्पित करें। जल अर्पित करते समय सूर्य मंत्र का जाप करें। रविवार के दिन घर के सभी सदस्यों को माथे पर चंदन का तिलक लगाना चाहिए। प्रत्येक रविवार सूर्यदेव का व्रत करने से कार्यक्षेत्र में उच्च पद की प्राप्ति होती है। रविवार को व्रत करने से नेत्र व चर्म रोग से मुक्ति मिलती है। रविवार के दिन आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ अवश्य करें। रविवार के दिन तेल से बने खाद्य पदार्थ किसी जरूरतमंद को खिलाएं। बड़े-बुजुर्गों की सेवा करें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।ज्योतिषाचार्यों के अनुसार रविवार को तांबे का बर्तन, पीले या लाल वस्त्र, गेहूं, गुड़, लाल चंदन आदि का दान करें। रविवार सुबह घर से निकलने से पहले गाय को रोटी दें। रविवार के दिन एक पात्र में जल लेकर बरगद के वृक्ष पर चढ़ाएं। रविवार की रात अपने सिरहाने दूध का गिलास रखकर सोएं और सुबह इस दूध को बबूल के पेड़ की जड़ में डाल दें। रविवार को पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाने से पद-प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। रविवार को काली गाय को रोटी और काली चिड़िया को दाना डालें। मछलियों को आटे की गोली बनाकर खिलानी चाहिए। रविवार के दिन पैसों से संबंधित कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 320
(किस कर्म में उधार करें, किस कर्म को तत्काल करें, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से...)
..दो प्रकार का कर्म होता है क्योंकि आपके पास दो चीजें हैं; एक शरीर, एक आत्मा। तो आत्मा के कर्म के लिये उधार न करो, शरीर के कर्म को भले ही उधार कर दो और हम लोग उल्टा करते हैं। शरीर के कर्म को पहले करते हैं और अगर टाइम मिला, बचा फालतू वाला तो उसको परमार्थ में लगाते हैं। इसी प्रकार तन, मन, धन तीनों का संसार में उपयोग तो तुरन्त करते हैं और भगवान के एरिया में उपयोग करने में कतराते हैं, उधार कर देते हैं और उधार ही चलता जाता है।
अनन्त जन्म क्यों बीते? अनन्त बार भगवान को हमने देखा है, अनन्त सन्त हमको मिले हैं, उन्होंने समझाया है और हमने समझा भी है, लेकिन शरणागति में उधार कर दिया, भक्ति में उधार कर दिया, कल करेंगे और कल आने के पहले ही चल दिये। यमराज तो अपना बहीखाता लिये बैठा है ताक में, आपका समय हो गया, बस चलिये। अरे, मैं हट्टा-कट्टा हूँ, अभी जवान हूँ। अरे, जवान-ववान कुछ नहीं। टाइम, टाइम, मैं काल हूँ। काल के अनुसार काम करता हूँ। जाना पड़ेगा। अरे, मैं राजा हूँ, प्राइम मिनिस्टर हूँ, गवर्नर हूँ। अरे, तुम चाहे इन्द्र हो, सबको जाना पड़ेगा। काल के आगे किसी की दाल नहीं गलती। सबको उसकी बात माननी पड़ती है, सीधे नहीं तो टेढ़े। एक सेकण्ड का समय दे दो, काम महाराज! साइन कर दूँ प्रॉपर्टी का। न न एक बटे सौ सेकण्ड नहीं। इट इज ऐज़ श्योर ऐज़ डेथ। बस, उसी क्षण जाना पड़ेगा।
इसलिये उधार बन्द करो। परमार्थ का काम तुरन्त करो, साधना तुरन्त करो। एक क्षण का भरोसा नहीं। अगर ये फार्मूला याद रखो तो लापरवाही न होगी। हम लोग लापरवाही करते हैं न। हमारे पास आधा घण्टे का समय है। अब क्या करें? आधा घण्टा है, अब बीबी बैठी है, उसी से गप्पे हो रही हैं। आधा घण्टे का समय कैसे कटे? निरर्थक बातें हो रही हैं, वो ऐसा है, वो ऐसी है, वो ऐसा है, कुछ तुमको मिलना-जुलना है इन बातों से। नहीं जी, मिलना-जुलना तो नहीं है लेकिन फालतू बैठे थे तो एन्जॉयमेंट हो रहा है। ये एन्जॉयमेंट है? यानी हम लोग समय को बरबाद करने पर तुले हैं। किसी प्रकार ये मानव देह का अमूल्य समय समाप्त हो।
हम बोलते भी हैं, अरे बेटा! हम तो अस्सी वर्ष के हो गये, पिचासी के हो गये, हमारी तो बीत गई, तुम अपनी सोचो। क्या बीत गई? अरे, मतलब हम जाने वाले हैं। कहाँ जाओगे, गोलोक? अपने कर्म की सोचो। तुमने ऐसा कौन सा साधन किया है जो बड़े रुआब में कह रहे हो, हमारी तो बीत गई। बीत गई नहीं, हमने तो बरबाद कर दिया मानव देह को, ऐसे बोलो। अपना सर्वनाश कर लिया।
'आतमहन गति जाय'। आत्म-हत्यारा है वो जिसने भगवत्प्राप्ति नहीं किया, मरने के पहले। अरे, अगर भगवत्प्राप्ति नहीं किया तो कुछ कमी रह गई, तो भी डरो मत, अगले जन्म में पूरा कर लेना। लेकिन करो तो। उधार नहीं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - हमारे दिन की शुरुआत सूर्योदय और शाम की शुरुआत सूर्यास्त से होती है. सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच के समय को दिन और रात का संधि समय भी मना जाता है। ज्योतिषशास्त्र में इस समय को काफी महत्वपूर्ण माना गया है। अगर आपने गौर किया हो तो घर के बड़े-बूढ़े कई बार शाम के समय में कुछ कामों को करने से रोकते हैं। हमारे शास्त्रों में भी सूर्यास्त के बाद कुछ कामों को करना अशुभ माना गया है। आज हम आपके ऐसे ही 5 काम के बारे में बताएंगे जिन्हें सूरज ढलने के बाद नहीं करना चाहिए।भूलकर भी न करें ये गलतीतुलसी का पौधा लगभग हर घर में होता है। घर में तुलसी का होना बेहद शुभ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार लेकिन सूर्यास्त के बाद तुलसी के पौधे का स्पर्श नहीं करना चाहिए और न ही उसे जल देना चाहिए। इससे धन की देवी लक्ष्मी नाराज होती हैं और घर से समृद्धि दूर हो जाती है।दान करने से बचेंहिंदू धर्म में दान का विशेष महत्व है। खासकर जब दान में दही दी जाए। कहा जाता है कि सूरज ढलने के बाद कभी भी दही का दान नहीं करना चाहिए। दरअसल, दही का संबंध शुक्र ग्रह से होता है और यह सुख समृद्धि में बढ़ोतरी करती है। ऐसे में शाम के समय दही का दान करने से जीवन में सुख-समृद्धि की कमी होती है।सूर्यास्त के समय न सोएंसूर्यास्त के समय या सूर्यास्त के बाद सोना नहीं चाहिए और ना ही भोजन करना चाहिए। इससे धन हानि होती है। इसके साथ ही स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी होने लगती हैं।घर की सफाईसूर्यास्त के समय घर में झाड़ू-पोछा या साफ-सफाई नहीं करना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू-पोछा करने से घर की खुशियां समाप्त होने लगती हैं। सूर्यास्त के दौरान आप पढ़ सकते हैं या फिर खेलकूद और एक्सरसाइज कर सकते हैं।बाल -नाखून न काटेंसूरज ढलने के बाद बाल नहीं काटने चाहिए। कई लोग सूर्यास्त के बाद बाल कटा लेते हैं या फिर शेव कर लेते हैं। ऐसा करने से जीवन पर नकारात्मक असर होता है और धन हानि हो जाती है। वहीं नाखून भी नहीं काटने चाहिए।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 319
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित 'प्रेम रस सिद्धान्त' ग्रन्थ के 'कर्म' अध्याय का एक अंश...)
भक्ति के बिना धर्म पालन मात्र से मुक्ति तो दूर की बात है, अन्तःकरण-शुद्धि तक ही नहीं हो सकती।
यही कारण है कि बिना ईश्वर-भक्ति के हम धर्म करते हुए भी ईश्वरीय फल से वंचित रहते हैं। मछली गंगाजल में सदा रहती है, पर भक्ति के बिना उद्धार नहीं होता। आप लोग यह आशा करते हैं कि एक डुबकी लगाने मात्र से हम बैकुण्ठ पहुँच जायें। यह सब धोखा है।
आप कहेंगे कि आग में मन लगायें या न लगायें वह तो, एक सती होने वाली नारी को भी जलाती है एवं बरबस अग्निकुंड में डाल दिये गये व्यक्ति को भी जलाती है, उसी प्रकार गंगा जी में डुबकी लगाने से गंगा जी तो अपना फल देंगी ही। किन्तु यह बताओ कि तुमने हजारों बार गंगा-यमुना स्नान किया, क्या निष्पाप हो गये? अर्थात् अब तुम काम, क्रोध, लोभादि से परे हो गये? तब वह सिर खुजलाता है कि ऐसा तो नहीं हुआ। तो फिर पाप कहाँ धुला? वास्तव में ऐसे भोले लोग ही शास्त्र को कलंकित करते हैं। आइये इस प्रश्न को हल ही कर लीजिये।
देखिये, आप प्रथम एक शीशी में पेशाब भरिये पुनः उसे बन्द करके गंगा जी में डाल दीजिये। पुनः 24 घंटे बाद उस शीशी को निकालिये, क्या कोई इस पेशाब का आचमन करेगा? आप कहेंगे, नहीं। पूछा जाय, क्यों नहीं? तो आप उत्तर देंगे कि शीशी में रहने वाला पेशाब तो गंगा जी में मिला ही नहीं, वह तो बन्द था। बस, तो अब यह बताइये कि पाप कहाँ रहता है? मन में न? आप कहेंगे, हाँ। तो आपने मन को तो गंगा जी से बाहर रखा था, शरीर मात्र से गंगा स्नान कर रहे थे। अतः फिर मन के अन्दर रहने वाला पाप कैसे धुलेगा? शास्त्र तो यह कहते हैं कि जहाँ पापादि रहता हो, उसे शुद्ध वस्तु में एक कर दो तो शुद्ध हो जायेगा। यदि तुम अन्तःकरण को गंगाजी में एक कर दो तो निश्चय शुद्धि हो जाय। अतएव ईश्वर-भक्ति के बिना केवल कर्म से मुक्ति सर्वथा असंभव है। तुलसी के शब्दों में;
वारि मथे बरु होय घृत, सिकता ते बरु तेल।बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल॥
अर्थात् असंभव भी संभव हो जाय, किन्तु बिना ईश्वर-भक्ति के मुक्ति नहीं हो सकती। पुनः रामायण कहती है;
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
वास्तव में माया के तीन गुण हैं - सात्त्विक, राजस एवं तामस उन्हीं गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म भी होते हैं - सात्त्विक, राजस और तामस कर्म। उन्हीं कर्मों के अनुसार फल भी होते हैं- सात्त्विक फल, राजस फल एवं तामस फल। उन्हीं फलों के अनुसार लोक भी प्राप्त होते हैं- सात्त्विक लोक अर्थात् स्वर्गादिक लोक, राजस लोक अर्थात् मृत्युलोक एवं तामस लोक अर्थात् नरकादि लोक। इस प्रकार धर्मादि पुण्यकर्म सात्त्विक गुण माया का ही है, अतएव तत्सम्बन्धी लोक भी मायिक ही हैं, अतः तत्सम्बन्धी परिणाम भी मायिक ही हैं। अतएव त्रिगुण के किसी भी कर्म से कर्म ग्रन्थियों का अत्यन्ताभाव नहीं हो सकता। गुणातीत एक मात्र ईश्वर ही है, अतएव यदि कर्म में ईश्वर भक्ति का संयोग न होगा तो वह सात्त्विक हो या राजस हो या तामस किन्तु मायिक होने के कारण सदोष एवं दुःखमय ही होगा। अतएव कर्मयोग में केवल इतना ही समझना है कि मन ईश्वर में नित्य लगा रहे एवं कर्म-धर्म का पालन शरीर से होता रहे। इसमें दो विरोधी बातें हैं।
कर्म करते समय यदि ईश्वर में मन लगा रहेगा तो कर्म कैसे होंगे? क्योंकि इन्द्रियाँ सोचने या निश्चय करने का कार्य नहीं कर सकतीं। यदि मन का संयोग न होगा तो इन्द्रियाँ होते हुए भी न होने के ही बराबर हैं। यह क्रियात्मक रूप से कैसे होगा? यह गंभीररूपेण विचारणीय है। इसका विस्तृत वर्णन साधना के प्रकरण में होगा। अभी इतना ही समझ लीजिये कि 'मन यार में तन कार में', बस यही कर्मयोग है। यदि मन का लगाव ईश्वर से पृथक् कहीं हुआ तो आप कर्मयोग नहीं कर सकते। कर्मयोग तो तभी संभव है जब मन नित्य ईश्वर में रहे, एक क्षण के लिए भी पृथक् न हो।
'यो मां स्मरति नित्यशः', 'एवं सततयुक्ता ये', 'सततं कीर्तयन्तो मां’, ‘तेषां नित्याभियुक्तानां', इत्यादि गीताक्त सिद्धान्तों द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि मन का ईश्वर में लगाव नित्य निरन्तर होना चाहिये।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस सिद्धान्त' (कर्म-प्रकरण)०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - ज्योतिष मान्यताओं के अनुसार शुक्रको भौतिक सुख, वैवाहिक सुख, भोग-विलास, शौहरत, कला, प्रतिभा, सौन्दर्य, रोमांस, काम-वासना और फैशन-डिजाइनिंग आदि का कारक ग्रह माना जाता है। शुक्र, वृष और तुला राशि के स्वामी होते हैं और मीन इनकी उच्च राशि है, जबकि कन्या इनकी नीच राशि है। शुक्र के शुभ होने पर व्यक्ति को जीवन में सभी तरह के सुखों की प्राप्ति होती है। 22 जून, 2021 को शुक्र का राशि परिवर्तन होने जा रहा है। शुक्र इस दिन कर्क राशि में प्रवेश कर जाएंगे। शुक्र 22 जून से 17 जुलाई तक इसी राशि में विराजमान रहेंगे। शुक्र का कर्क राशि में प्रवेश कुछ राशियों के लिए बेहद शुभ रहने वाला है। इन राशियों के जातकों को धन- लाभ हो सकता है। आइए जानते हैं शुक्र का राशि परिवर्तन किन राशियों के लिए शुभ रहने वाला है....मेष राशिमेष राशि के जातकों के लिए शुक्र का राशि परिवर्तन किसी वरदान से कम नहीं है।धन- लाभ होने के योग बन रहे हैं।पारिवारिक जीवन में खुशियों का अनुभव करेंगे।जीवनसाथी के साथ समय व्यतीत करेंगे।नौकरी और व्यापार में तरक्की के योग भी बन रहे हैं।स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।मिथुन राशिशुक्र का कर्क राशि में प्रवेश मिथुन राशि के जातकों के लिए शुभ कहा जा सकता है।आर्थिक समस्याओं से छुटकारा मिलेगा।लेन- देन और निवेश के लिए ये समय किसी वरदान से कम नहीं है।शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए समय शुभ है।वैवाहिक जीवन में सुख का अनुभव करेंगे।सेहत अच्छी रहेगी।मकर राशिमकर राशि के जातकों के लिए शुक्र का राशि परिवर्तन शुभ रहने वाला है।नौकरी और व्यापार के लिए ये समय किसी वरदान से कम नहीं है।धन- लाभ होगा, जिससे आर्थिक पक्ष मजबूत होगा।शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए समय अच्छा है।परिवार के सदस्यों के साथ समय व्यतीत करेंगे।दांपत्य जीवन में सुख का अनुभव करेंगे।मीन राशिमीन राशि के जातकों के लिए शुक्र का कर्क राशि में प्रवेश शुभ कहा जा सकता है।ॉआर्थिक पक्ष मजबूत होगा।निवेश करने के लिए समय अच्छा है।नौकरी और व्यापार में लाभ होगा।कार्यों में सफलता प्राप्त करेंगे।
- घर में पैसा तो खूब आता है लेकिन वह कब खर्च हो जाता है पता भी नहीं चलता है। बहुत कमाने पर भी घर में पैसों की बरकत नहीं होती है। यदि आपके घर में बिन वजह के खर्चे बढ़ गए हैं और घर में धन संचय नहीं हो पा रहा है तो वास्तु शास्त्र इसमें सहायक हो सकता है। वास्तु शास्त्र में कुछ ऐसी चीजों के बारे में बताया गया है जिन्हें सही स्थान और सही दिशा में रखा जाए तो रुपए पैसे की कमी नहीं होती है। आपके घर में बिन वजह के खर्चे कम होते हैं और धन की बरकत बनी रहती है। इसके साथ ही परिवार के में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है और परिवार के सदस्यों की तरक्की होती है। तो आइए जानते हैं कि किन चीजों को घर में रखकर सकारात्मकता और आर्थिक उन्नति प्राप्त की जा सकती है। वास्तु के अनुसार घर की पूर्व दिशा में सूर्य यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। माना जाता है कि इससे आपके घर में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है जिससे परिवार के सदस्यों की तरक्की होती है।उत्तर दिशा में धातु से निर्मित मछली और कछुआवास्तु शास्त्र के मुताबिक घर की उत्तर दिशा में धातु से निर्मित मछली और कछुआ रखने से धन का आगमन होता है साथ ही घर में पैसों की बरकत भी बनी रहती है। धातु के कछुए को किसी पानी के पात्र में करके रखना चाहिए। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कछुआ अंदर की ओर मुख करके ही रखें।लक्ष्मी माता की कमल पर विराजमान मूर्तिउत्तर दिशा को धन के देवता कुबेर की दिशा माना गया है। इस दिशा को धनदायक माना जाता है। लक्ष्मी माता को धन की देवी हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में उत्तर दिशा में लक्ष्मी माता की कमल पर विराजमान ऐसी मूर्ति रखी जाए जिसमें उनके हाथ से सोने के सिक्के गिर रहें हों तो घर में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहती है।मिट्टी के घड़े में पानीएक मिट्टी के घड़े में पानी भरकर घर की उत्तर दिशा में रखना चाहिए। इससे घर में सुचारू रूप से धन की आवक बनी रहती है लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि घड़े का पानी सूखना नहीं चाहिए। पानी को समय-समय पर बदलते ही रहना चाहिए ताकि उसमें किसी तरह के किटाणु न पनपने पाएं।सोने और चांदी के सिक्केकुछ सोने और चांदी के सिक्के लेकर लाल कपड़े में बांध लें और एक सुन्दर सा मिट्टी का बर्तन लेकर उसमें रख दें। अब उस पात्र को गेहूं या चावल से भर दें। इस बर्तन को अपने घर की उत्तर-पश्चिम दिशा में रखें। इससे आपके घर में धन की बरकत बनी रहती है।
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जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 318
साधक का प्रश्न ::: पापात्मा होते हुए भी वाल्मीकि भगवत्प्राप्ति कर महापुरुष कैसे बन गये ?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: अरे ! सभी जीव सदा के पापात्मा हैं कोई वाल्मीकि ही नहीं। लेकिन जब भगवत्प्राप्ति कर लिया तो वाल्मीकि जैसे महापुरुष हो गये, वैसे ही तुलसीदास, सूरदास, मीरा सब महापुरुष हो गये। तो सब पापात्मा थे तब थे, बाद में तो सिद्ध कर रहे हैं तुलसीदास, महापुरुषों के दादा थे, 'वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना' - इतनी बड़ी सीट दिया है वाल्मीकि को। ये तो भगवन्नाम की महिमा बताया है और बाकी रही बात पापी थे वाल्मीकि, तो कौन पापी नहीं था? तुलसीदास पापी नहीं थे क्या पहले? कि सूरदास नहीं थे? अरे सभी जीव पहले पापी होते हैं फिर भगवान् की शरण में जाकर के पाप समाप्त होके महापुरुष बनते हैं। खाली वाल्मीकि की बात क्या है? सूरदास की तो और निन्दा है। और स्वयं तुलसीदास की कितनी निन्दा है कि साँप पकड़ कर के गये अपनी श्रीमती के घर। लेकिन वह पहली लाइफ से क्या मतलब? महापुरुष हो गये तो बस फिर बात खत्म। सभी जीव अनन्त जन्मों के अनन्त पापों से युक्त हैं। वाल्मीकि का पाप क्या है? जब जीव अनन्त पापों से युक्त हैं। एक वाल्मीकि ही महापुरुष ऐसे हुए हैं जो रामावतार से पहले रामायण लिख गये हैं उनकी तो इतनी प्रशंसा है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक (भाग - 2)०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - हर माह की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत रखा जाता है। यह तिथि भगवान शंकर के भक्तों के लिए खास होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। भगवान भोलेनाथ की विशेष कृपा पाने के लिए भक्त व्रत भी रखते हैं।हिंदू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि 22 जून 2021, दिन मंगलवार को है। इस दिन सिद्धि व साध्य योग के साथ विशाखा और अनुराधा नक्षत्र भी रहेगा।ग्रह-नक्षत्रों का महत्व-प्रदोष व्रत के दिन सिद्धि योग दोपहर 1 बजकर 52 मिनट तक रहेगा। इसके बाद साध्य योग लग जाएगा। नक्षत्र की बात करें तो विशाखा नक्षत्र दोपहर 02 बजकर 23 मिनट तक रहेगा इसके बाद अनुराधा नक्षत्र लग जाएगा।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, सिद्धि व साध्य योग में किए गए कार्यों में सफलता हासिल होती है। ये मांगलिक व शुभ कार्यों के लिए शुभ योग हैं। विशाखा नक्षत्र को ज्यादातर शुभ कार्यों के लिये सामान्य माना जाता है। इसीलिये यह शुभ मुहूर्त में गिना जाता है। इसके अलावा अनुराधा नक्षत्र को ज्यादातर शुभ कार्यों के लिये श्रेष्ठ माना जाता है।प्रदोष व्रत पूजा- विधिसुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें।स्नान करने के बाद साफ- स्वच्छ वस्त्र पहन लें।घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें।अगर संभव है तो व्रत करें।भगवान भोलेनाथ का गंगा जल से अभिषेक करें।भगवान भोलेनाथ को पुष्प अर्पित करें।इस दिन भोलेनाथ के साथ ही माता पार्वती और भगवान गणेश की पूजा भी करें। किसी भी शुभ कार्य से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है।भगवान शिव को भोग लगाएं। इस बात का ध्यान रखें भगवान को सिर्फ सात्विक चीजों का भोग लगाया जाता है।भगवान शिव की आरती करें।इस दिन भगवान का अधिक से अधिक ध्यान करें।प्रदोष व्रत पूजा- सामग्रीअबीरगुलालचंदनअक्षतफूलधतूराबिल्वपत्रजनेऊकलावादीपककपूरअगरबत्तीफल
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 317
(भूमिका - जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत यह प्रवचन उनके द्वारा किये गये 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या के 11-वें प्रवचन का अंश है। आचार्य श्री ने 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या अक्टूबर 1990 में, भक्तिधाम मनगढ़ में की थी...)
भगवान् की कृपा को रियलाइज करने का अभ्यास करो, कितनी कृपा है। कितनी कृपा है? आज दिन भर में हम यहाँ गये, वहाँ गये, ये किया और कितनी कृपा है, कहीं एक्सीडेन्ट नहीं हुआ, कहीं ऐसा कोई खतरा नहीं हुआ, पूरा दिन बीत गया, इतनी कृपा है उसकी (भगवान की)! हम तो ऐसे कृतघ्नी हैं कि कितनी ही बड़ी चीज मिले, कोई मूल्य ही नहीं समझते। जैसे - गंगाजी प्रयाग में है तो प्रयाग में रहने वाला गंगा नहाने साल में एक बार भी नहीं जाता। अजी, वहाँ कौन जाय इतनी दूर, यहाँ से दूर है, दूर। चार फर्लांग है। अभी इंग्लैंड, अमेरिका और बम्बई, कलकत्ता से आने वाले तो नहा रहे हैं और तुम चार फर्लांग बोल रहे हो। वह उसका महत्त्व नहीं समझता।
मैं जो आप लोगों को यह समझाता हूँ एक घंटे, इसका मूल्य भी आप लोगों में से कोई नहीं समझता, एक भी नहीं समझता। वरना पागल हो जाय वो खुशी में, क्या मिल रहा है ये? करोड़ों कल्प शास्त्र वेद के अध्ययन से जो न मिलता, वो बैठे-बैठे फ्री में मिल रहा है ऐसे। ये कौन-सी भगवत्कृपा हो रही है मेरे ऊपर और क्यों हो रही है, मैंने किया क्या है, इस जीवन में? सब गन्दे काम किये। सब इन्द्रियों के सुख के लिये सामान इकट्ठे करने का, सब चार सौ बीस, उसी का प्लान, उसी की प्रैक्टिस की। फिर भी इतनी कृपा उनकी हो रही है। कृपा को रियलाइज़ करना सबसे बड़ी बात है। यही भगवान् के माहात्म्य-ज्ञान का सेंस है।
माहात्म्य-ज्ञान... वो अकारण करुण हैं, बिना कारण के कृपा करते हैं। आग जल रही है, बिना कारण के वो टेम्प्रेचर दे रही है। आप दस फुट की दूरी पर बैठे हुए कॉंप रहे हैं ठण्ड में, आग कहती है - आ जाओ न मेरे पास, मैं कुछ पैसा नहीं लूँगी, आ जाओ, तुम्हारी ठण्ड चली जायेगी, भाई! नहीं, तुम्हारे पास तो नहीं आयेंगे, ठण्ड में ठिठुरते रहेंगे, तुम्हारे पास नहीं आयेंगे। अनन्त जीवों को हमने आत्मसमर्पण किया, माँ को, बाप को, बेटे को, बीबी को, पति को, हर जन्म में किया। खाली महापुरुष और भगवान् के शरणागत नहीं हुए, वहाँ प्रतिज्ञा किए हैं कि तुम दोनों की शरण में नहीं जायेंगे, बाकी गधों के पास जाने में हमें कोई लज्जा नहीं। इतना दुराग्रह है, अन्यथा क्या बात है? क्या माँगते हैं भगवान्?
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।(गीता 18-62)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(गीता 18-66)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥(गीता 9-22)
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥(गीता 12-6)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥(गीता 12-7)
वो तो हर जगह प्रतिज्ञा कर रहे हैं, केवल हम उसको मानें। तो नारद जी कहते हैं कि ये माहात्म्य-ज्ञान परमावश्यक है और जब अवतार नहीं है तब तो बहुत ही आवश्यक है। इसलिये माहात्म्य-ज्ञान हो फिर भक्ति हो।
देखो नम्बर एक - माहात्म्य-ज्ञान, नम्बर दो - भक्ति। कौन-सा विश्व में ऐसा भक्त, भक्ति कर सकता है कि भगवान् को जाने न, कोई महापुरुष बतावे न और भक्ति करने लग जाय। उसे क्या मालूम है, किसकी भक्ति करना है, क्या बलाय है, भक्ति? तो माहात्म्य-ज्ञान हुआ - नम्बर एक, भक्ति नम्बर दो। तब फिर भक्ति जब करने लगा तो;
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्।(भाग. 1-2-7)
फिर भक्ति से ज्ञान हुआ और जब भक्ति से ज्ञान हुआ तो और भक्ति हुई, फिर और ज्ञान हुआ, फिर और भक्ति हुई, इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अन्त में भक्ति ही रह जायेगी, परिपूर्ण अवस्था में, ज्ञान का लय हो जायेगा। इसलिये कर्म, योग, ज्ञान - सबसे श्रेष्ठ बताई गई भक्ति;
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।(गीता 6-46)
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥(गीता 6-47)
कर्मियों से, तपस्वियों से, ज्ञानियों से, योगियों से सबसे श्रेष्ठतर है भक्ति। भक्ति के बिना कोई कर्म, धर्म, योग, ज्ञान कुछ भी हो, 'न मां साधयति'। परम ज्ञानी बन जायेगा, उसकी पहिचान क्या? उतनी ही तेज, उच्च कोटि का भक्त होना चाहिये। अगर भक्ति नहीं करता है और कहता है - मैं ज्ञानी हूँ तो वो पागलखाने वाला ज्ञानी है, थ्योरिटिकल ज्ञानी है, ज्ञानाभिमानी है। ऐसे ज्ञानाभिमानियों के लिये तो;
येऽन्येऽरविंदाक्षविमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः।आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतंत्यधोऽनादृतयुष्मदंघ्रयः॥(भाग. 10-2-32)
वो श्रीकृष्ण भक्ति और श्रीकृष्ण का सम्मान नहीं कर रहा है इसलिये 'आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं' - गिर जाता है। 'परत खगेस न लागहिं बारा' - आधार नहीं है, बेचारे के पास। निराधार कोई भी नहीं रह सकता।तो कर्म का आधार भक्ति, ज्ञान का आधार भक्ति, योग का आधार भक्ति क्योंकि माया-निवृत्ति बिना भक्ति के हो ही नहीं सकती, कोई भी हो - यया सर्वमवाप्यते। वेदव्यास कहते हैं;
यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्।योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि।।(भाग. 11-20-32)
अगर कोई जिद्द करे कि हमको साहब माया-निवृत्ति और श्रीकृष्ण प्राप्ति नहीं चाहिये, स्वर्ग चाहिये। वह भी ले लो बाबा। वो तो बड़ी जल्दी दे देंगे। बड़ा अच्छा है। वो तो पहले देने को तैयार हैं;
कागभुशुंडि माँगु वर, अति प्रसन्न मोहिं जान।अणिमादिक सिधि अपर निधि, मोक्ष सकल सुख खान।।
सब दे देंगे। जितनी छोटी चीज़ माँगो, दानी को देने में उतना ही आराम है, उसको क्या प्रॉब्लम है? स्वर्ग तो छोटी चीज़ है न ! असली कर्म वो है जिसमें कि वो भक्ति शरण्य हो, कर्म सर्वेन्ट हो। असली ज्ञान वो है जिसमें भक्ति स्वामी हो, मेन हो और ज्ञान सर्वेन्ट हो। यानी योग, ज्ञान, कर्म कुछ भी हो, उसकी स्वामिनी भक्ति होनी चाहिये।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।(गीता 7-14)
अकाट्य नियम है। इसीलिये मधुसूदन सरस्वती सरीखे अद्वैत वेदान्ती भी एडमिट करते हैं कि कर्म गुह्य है, ज्ञान गुह्यतर है और भक्ति गुह्यतम है। देखो! 18 वें अध्याय के 63 वें श्लोक में कहा गया कि ज्ञान जो है;
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।(गीता 18-63)
यहाँ 'तरं' शब्द का प्रयोग किया भगवान् ने यानी गुप्त से अधिक गुप्त। ज्ञान के लिये कहा और उसके बाद - 'सर्वगुह्यतमं भूयः' - 64 वें श्लोक में यह कहा, 18 वें अध्याय में। सबसे गुप्त बात सुन। वो क्या बात?
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।(गीता 18-65)
इसका अर्थ भी किया मधुसूदन सरस्वती ने - नवधा भक्ति करो श्रीकृष्ण की। ये सबसे प्राइवेट, ये गुह्यतम सिद्धान्त है और इसके बाद थोड़ा उसको धुक्-धुक् हो रही थी, अर्जुन को, कि वो कहते हैं - 'तमेव शरणं गच्छ' - उसकी शरण में जाओ उसकी, उसकी किसकी? कुछ कनफ्यूज्ड हो रहा था तो भगवान् ने कहा, अच्छा सुन;
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।(गीता 18-66)
तू उसकी और इसकी मत जा, मेरी शरण में आजा, सीधे-सीधे, छुट्टी मिली। मैंने तो आपको गुरु बनाया है महाराज !
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।(गीता 2-7)
हाँ-हाँ, तो गुरु की शरण में आ जा तो भी वही लक्ष्य प्राप्त होगा। तेरा बुद्धि लगाना बन्द हो जाय, बस इतनी कृपा कर। हाँ इसके बाद फिर उसी अध्याय में संदेह गया। अब तो खोल-खोल कर कह दिया, मेरी शरण में आ जा - ऐसा कोई गुरु कहेगा सब गुरु कहेंगे भगवान् की शरण में जाओ। अरे! स्वयं कह रहा हूँ;
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।(गीता 18-73)
तो कोई भी ज्ञानी हो, सबसे बड़ा ज्ञानी ही होता है, ये कर्मी-वर्मी तो सब ऐसे ही सड़े-गले होते हैं। इनकी गिनती की जाये? लेकिन;
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।(गीता 15-19)
इस गीता वाक्य पर भी मधुसूदन सरस्वती ने भाष्य किया कि जो प्रेमपूर्ण भक्ति है, वह पूर्ण ज्ञानी होने के बाद और बलवान् होकर आयेगी, उसको आना पड़ेगा। अगर नहीं आती है तो ज्ञानी-व्यानी नहीं, धोखा है उसको। वो मुग़ालते में है कि मैं ज्ञानी हूँ। अरे! ऐसे तो सभी ज्ञानी थ्योरी में हो सकते हैं। क्या, ज्ञान में कोई थ्योरी है लम्बी-चौड़ी? 'तत् त्वम् असि', तू ब्रह्म है और 'अहं ब्रह्मास्मि', मैं ब्रह्म हूँ। बस हो गया और ज्ञान में कुछ नहीं है क्योंकि उसका न नाम है, न रूप है, न गुण है, न लीला है, न परिभाषा है - अनिर्वचनीय, अनिर्वचनीय, सब अनिर्वचनीय। संसार? अनिर्वचनीय। माया? अनिर्वचनीय। ब्रह्म? अनिर्वचनीय। (बस) हो गया ज्ञान, पूरा हो गया। अनिर्वचनीय माने क्या? बताया नहीं जा सकता। बताया नहीं जा सकता तो पूछा ही क्यों जाय फिर, जब बताया नहीं जा सकता तो? सगुण साकार में तो इतने माहात्म्य हैं, अनन्त गुण हैं, एक-एक गुण की परिभाषा करो तो अनन्त काल तक भी समाप्त न होंगे और वो बेचारा निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रह्म ! हाँ, एक रसिक कहता है कि ;
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।न तं भर्तारमिच्छन्ति षंडं पतिमिवस्त्रियः।।
कोई स्त्री विषय सुख चाहती है, पुत्र चाहती है। ये दो एम (लक्ष्य/उद्देश्य) से ब्याह करती है और ब्याह होने जा रहा है। उसको मालूम हो जाय कि जिससे ब्याह होने जा रहा है, वह नपुंसक है, क्लीव है तो भला क्यों ब्याह करेगी? पागल है, दिमाग खराब है, उसका 'षंडं' माने नपुंसक, 'पतिमिवस्त्रियः' - कोई स्त्री उसको पति नहीं बनायेगी। तो उसी प्रकार कोई भी जीव ऐसे ब्रह्म को क्या इष्टदेव बनावे कि;
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।
न वो कृपा कर सकता है, न कोप कर सकता है। अरे! कोप ही कर दे और मार दे तो भी जीव कल्याण हो जाय। श्रीकृष्ण ने जिस जिसको मारा, कल्याण हो गया न? वो कोप भी नहीं कर सकता और कृपा भी नहीं कर सकता। शंकराचार्य ने कहा था न;
उदासीनः स्तब्धः सततमगुण: संगरहितो, भवांस्तात: कातः परमिह भवेज्जीवनगतिः।अकस्मादस्माकं यदि न कुरुषेस्नेहमथतद्, वसस्वस्वीयांतर्विमल जठरेऽस्मिन्पुनरपि॥(शंकराचार्य)
तो इसलिये उससे हम माया निवृत्ति करायेंगे। कैसे? इसलिये ज्ञानी को भी आना पड़ता है भक्ति की शरण में, तब भगवान् अपनी कृपा से ज्ञान भी देते हैं - उन लोगों को अनुकम्पा करके, कृपा करके ज्ञान देते हैं और माया-निवृत्ति भी करा देते हैं और जो शरणागत नहीं होगा, भक्ति की शरण में नहीं आयेगा, वो बस कुछ दूर जायेगा, फिर अध:पतन, फिर उठा फिर अध:पतन, यही हुआ करेगा। आप लोगों ने देखा होगा ये चीटियाँ, कुछ सामान खाने का अपने बच्चों के लिये ले जाती हैं - जैसे चना है, कोई लावा है, कोई अनाज है, उसको मुँह में पकड़ के और दीवाल पर चढ़ती हैं। थोड़ी दूर चढ़ती हैं फिर गिर पड़ती हैं लेकिन बार-बार ऐसे ही करती हैं;
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन विवेक।
हाँ, तो अब आप लोग समझ गये होंगे कि वो भक्ति भगवान् से भी बड़ी है, उसके बिना कोई कर्मी, ज्ञानी अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता, लेकिन हमको निष्कामता पर ही विशेष ध्यान देना है, माहात्म्य ज्ञानयुक्त भक्ति पर। ऐसी भक्ति अगर हम करेंगे तो अन्त:करण की शुद्धि होगी, फिर गुरु कृपा से दिव्य प्रेम मिलकर हम अपने अनन्तकालीन भविष्य को आनन्दमय, सुखमय बना सकेंगे।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'नारद भक्ति दर्शन' व्याख्या (प्रवचन - 11)०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - कहा जाता है कि हाथों में बनी लकीरों में व्यक्ति का भाग्य छिपा होता है। हस्तरेखा शास्त्र एक बहुत ही प्राचीन विधा है, जिसमें हथेली में बनी रेखाओं का आकलन करके व्यक्ति के भविष्य के संबंध में जानकारी दी जाती है। हथेली की रेखाएं सदैव एक जैसी नहीं रहती हैं। ये समय समय पर बदलती रहती हैं। जिसके कारण हथेली में कई प्रकार के चिन्हों का निर्माण होता है। कई बार ये चिन्ह अशुभ होते हैं तो कई बार ये चिन्ह व्यक्ति का भाग्य चमका देते हैं। हस्तरेखा में एक ऐसे ही चिन्ह का जिक्र किया गया है। यदि यह चिन्ह किसी के हाथ में बनता है तो बेहद ही शुभ माना जाता है। हस्तरेखा शास्त्र कहता है कि यह चिन्ह व्यक्ति को जीवन में लोकप्रियता दिला सकता है। हथेली में यह चिन्ह जिस स्थान पर बना होता है, उसी के अनुसार फल भी प्रदान करता है। तो चलिए जानते हैं कि कौन सा वह चिन्ह और कैसे वह चमका सकता है आपकी किस्मत।हथेली में रेखाओं की आकृति से बहुत से चिन्ह बनते हैं जिनमें से एक चिन्ह होता है ''तारा'' हस्तरेखा शास्त्र में इस चिन्ह को बहुत ही खास माना गया है। यदि यह चिन्ह किसी रेखा के अंतिम छोर पर बनता है तो उस रेखा के प्रभाव को बहुत बढ़ा देता है। इसी तरह से यदि यह चिन्ह हथेली के किसी पर्वत पर स्थित होता है तो उस पर्वत के शुभ प्रभाव को भी कई गुना ज्याद बढ़ा देता है।सूर्य पर्वत पर तारे चिन्ह होने का मतलब माना जाता है कि जातक को उच्च पद की प्राप्ति हो सकती है साथ ही यश-कीर्ति और धन लाभ भी होता है, लेकिन व्यक्ति को मानसिक रूप से खुशी प्राप्त नहीं हो पाती है।यदि किसी व्यक्ति की हथेली में चंद्र पर्वत पर तारे का निशान है तो व्यक्ति जीवन में लोकप्रियता प्राप्त करता है। ऐसे लोग लोकप्रिय कलाकार आदि बन सकते हैं। इसके अलावा विज्ञान के क्षेत्र में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त होने के योग भी रहते हैं। इन लोगों का भाग्य भी साथ देता है।यदि किसी व्यक्ति की हथेली में गुरु पर्वत पर तारे का चिन्ह बनता है तो माना जाता है कि व्यक्ति को शक्ति और प्रतिष्ठा दोनों प्राप्त होती हैं। व्यक्ति के मान-सम्मान में वृद्धि होती है।यदि किसी व्यक्ति की हथेली में शुक्र पर्वत पर तारे का चिन्ह बना हुआ है तो उसे प्रेम की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही आर्थिक स्थिति भी सही रहती है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 316
(भूमिका - भगवान पतितपावन हैं और पतितों का उद्धार करने का उनका स्वभाव और गुण भी है, फिर भी हम क्यों अब तक उनसे दूर हैं? अपनी किस कमी को हम दूर करें, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के इस प्रवचन-अंश में हम इसका उत्तर समझने की चेष्टा करें.....)
भगवान का एक नाम है - 'पतितपावन'। ये सबसे महत्वपूर्ण नाम है। क्योंकि अनन्त कोटि ब्रम्हाण्ड के समस्त जीव पतित हैं, पापात्मा हैं। अनन्त जन्मों में अनन्त पाप कर चुके हैं। और वर्तमान में भी कर रहे हैं।
अच्छा कर्म भी पाप है, बुरा कर्म भी पाप है, केवल भगवान और महापुरुष का चिंतन - बस ये ही सही है, बाकी सब पाप है क्योंकि बाकी सबसे कर्मों का बन्धन होता है। अच्छा कर्म करोगे, स्वर्ग मिलेगा, खराब कर्म करोगे, नरक मिलेगा। अच्छा बुरा दोनों करोगे तो मृत्युलोक मिलेगा। तीनों का परिणाम 84 लाख में घुमायेगा वो कर्म।
तो इस परिभाषा के अनुसार जितने क्षण हम भगवान और महापुरुष में मन को लगाते हैं उतनी देर ही केवल पाप से बचे रहते हैं। सोचिये ऐसा 24 घण्टे में कितनी देर करते हैं हम?
अनन्त पाप तो एक जन्म में हम कर चुके और फिर अनन्त जन्म हो चुके हैं, पापों की क्या गिनती है। लेकिन भगवान पतितपावन हैं, सब पाप भस्म कर देते हैं शरणागत का।
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।(गीता 18-66)
जीव को पूर्ण शरणागत होना है। अनन्तानन्त जन्मों के अनन्तानन्त पापों से छुट्टी। पतितपावन नाम इसलिये महत्वपूर्ण है कि सब जीव पतित हैं अनन्त कोटि ब्रम्हाण्ड में, उसमें स्वर्ग भी है वहाँ के लोग भी सब पतित हैं, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यमराज सब पतित हैं। आप लोग हजारों बार इन्द्र बन चुके हैं, स्वर्ग के सम्राट और फिर कुत्ते, बिल्ली, गधे बने और फिर मनुष्य बने। किन्तु ब्रह्मलोक तक माया का आधिपत्य है इसलिये ब्रह्मलोक तक सब जीव पाप करते हैं। कभी-कभी भगवान का स्मरण जब कभी कर लेते हैं उतने समय समझ लो वो बिना पाप के है, वो भी ठीक-ठीक समय स्मरण करें तो।
अनन्त पाप किये बैठे हैं, करोड़, दस करोड़ नहीं। अगर एक जन्म में कोई एक पाप करे तो भी अनन्त जन्म बीत चुके। अनन्त पाप किये बैठा है हर आदमी।
हम पतित हैं और भगवान पतितपावन हैं - ये दोनों विश्वास दृढ़ हों तो काम बन जाये एक सैकेण्ड में, कोई देर नहीं लगेगी। लेकिन इन दोनों में कहीं न कहीं गड़बड़ है। या तो अपने को हम पतित नहीं मानते सेंट परसेन्ट और या तो ठाकुर जी के ऊपर विश्वास नहीं करते कि वो पतितपावन हैं।
हम अगर अपने को पतित मानते हैं, उसकी पहचान क्या है? आपको कोई कहे तुम कामी हो, तुम क्रोधी हो, तुम लोभी हो, तुम अहंकारी हो, तुम धूर्त हो, तुम 420 हो, तुम पाखण्डी हो - इन शब्दों का प्रयोग अगर कोई हमारे लिये करे और हमको फील (बुरा न लगे) न हो तो समझो कि आप अपने को पतित मानते हैं।
किसी ने एक शब्द कहा, अपमानजनक लग जाता है अन्दर। 'हमको क्यों कहा ऐसा, क्यों कहा............'। अरे! तुम तो कहते हो मैं पतित हूँ, तुम तो अभी भगवान के आगे कहा रहे थे, 'मो सम कौन कुटिल खल कामी', तुमने कीर्तन किया, इसका गायन किया भगवान के सामने मन्दिर में, मेरे समान कोई पापी नहीं है, अगर कोई तुम्हें कह देता है तो तुम फील क्यों करते हो। तुम भगवान को झूठ बोलकर धोखा दे रहे थे।
तो हम अपने को पतित मानें सेंट परसेन्ट और भगवान को पतितपावन मानें सेंट परसेन्ट। ये दोनों बातें जब फिट हो जायँ, जब भी हो जायें, 2 घण्टे में, एक दिन में, एक महीने में, एक साल में, एक जन्म में, हजार जन्म में, तुरन्त पतितपावन श्रीकृष्ण हमें अपना लेंगे।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम भिक्षां देहि' (प्रवचन-पुस्तक)०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - हर कोई चाहता है कि उसका घर देखने में सुंदर लगे, ताकि सभी उनके घर की तारीफ करें । इसलिए हम सभी अपने घरों को सजाने संवारने के लिए कई तरह के शोपीस और मूर्तियां आदि लाते हैं। इनमें से कई प्रतिमाएं घर के लिए बहुत शुभ होती हैं तो वहीं कुछ नकारात्मकता को बढ़ाती हैं। वास्तु के अनुसार घर के निर्माण से लेकर साज-सजावट का संबंध भी आपकी तरक्की, आर्थिक स्थिति और खुशहाली से होता है। वास्तु शास्त्र में कुछ ऐसी मूर्तियों के बारे में बताया गया है जिन्हें घर में रखना बेहद शुभ होता है। इन मूर्तियों को घर में रखने से तरक्की और आर्थिक उन्नति प्राप्त होती है। घर में सकारात्मकता आती है और घर स्वामी के सौभाग्य में वृद्धि होती है। ऐसी ही मूर्तियां हैं-हाथीवास्तु के अनुसार, हाथी ऐश्वर्य का प्रतीक होता है। तो वहीं ज्योतिष और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भी हाथी की प्रतिमा रखना बहुत शुभ माना जाता है। आप अपने घर में हाथी की पीतल या चांदी की मूर्ति रख सकते हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार शयनकक्ष में चांदी के हाथी की मूर्ति रखने से राहु से संबंधित सभी दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। चांदी से निर्मित ठोस हाथी घर में रखने से घर में धन, समृद्धि आती है।हंसवास्तु के अनुसार, घर के अतिथिगृह में हंस के जोड़ों की मूर्ति रखने से आर्थिक लाभ होता है। विवाहित दंपति जीवन में यदि परेशानियां आ रही हो तो अपने शयनकक्ष में बत्तख के जोड़े की मूर्ति रख सकते हैं। इससे वैवाहिक जीवन में प्रेम बढ़ता है।कछुआफेंगशुई वास्तु के अनुसार घर में कछुआ रखने से धन वृद्धि होती है। इसके अलावा धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कछुआ, भगवान विष्णु का रूप माना जाता है इसलिए मान्यता है कि जिस स्थान पर कछुआ होता है, वहां मां लक्ष्मी का वास होता है। धन वृद्धि के लिए घर के ड्राइंग रूम में पूर्व और उत्तर दिशा में कछुए की स्थापना करनी चाहिए। लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कछुआ घर के अंदर की ओर जाता हुआ नजर आए।गायहिंदू धर्म में गाय को पूजनीय माना जाता है। वास्तु के अनुसार, घर पर पीतल की बनी हुई गाय की मूर्ति रखना बहुत शुभ माना जाता है। जिन दंपति को संतान प्राप्ति की कामना है उन्हें पीतल से बनी गाय की प्रतिमा रखनी चाहिए। मान्यता है कि इससे संतान सुख प्राप्ति की कामना पूरी होती है। पढ़ाई करने वालों के लिए भी गाय की प्रतिमा रखना अच्छा रहता है। इससे पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ती है।ऊंटवास्तु और फेंगशुई के अनुसार, घर पर ऊंट की मूर्ति रखने से सुख सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। इसे घर के ड्राइंग रूम या लिविंग रूम में उत्तर-पश्चिम दिशा में रखना चाहिए। इससे नौकरी और व्यवसाय से संबंधित आ रही समस्याओं का समाधान हो जाता है और कॅरिअर को फायदा पहुंचता है।
- कुछ लोग होते हैं जो बहस करने में विश्वास नहीं करते। जब तक मुमकिन होता है ये लोग बहस के मुद्दों को टालते हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बहस का कोई मौका अपने हाथ से नहीं जाने देते हैं। जिस भी बहस में ये पड़ जाते हैं, उसमें अपनी बात सही मनवाकर ही मानते हैं। आइए जानते हैं कौन से होते हैं ऐसे राशि वाले जो हर लड़ाई या बहस में जीतकर ही मानते हैं:मेष राशि: इस राशि के लोग हमेशा हर चीज में आगे रहना पसंद करते हैं। ये लोग मानते हैं कि ये ही बेस्ट हैं। अपनी बात को सही साबित करने के लिए ये लोग लॉजिकल बात करते हैं।मिथुन: मिथुन राशि के लोग बहुत ही जल्दी लोगों से घुलते मिलते हैं और हमेशा नई चीजें सीखने में विश्वास करते हैं। इसलिए ये लोग हर चीज में आगे रहते हैं और लोग मानते हैं कि इन्हें अधिकतर चीजों के बारे में जानकारी है। अपनी बात को सही मनवाने के लिए ये हर चीज करते हैं, फिर चाहे एक लॉजिकल बहस हो या फिर दूसरे को अपने तर्कों से प्रभावित करना।वृश्चिक राशि: इस राशि के लोग भी अपने दुश्मनों से लड़ना और जीतना अच्छे से जानते हैं। ये हर बात का करारा जवाब देते हैं और सामने वालों को बात मनवाकर ही मानते हैं।कुंभ राशि: इस राशि के लोग सामने वाले की बात को बहुत ध्यान से सुनते हैं और इसी दौरान बहस के लिए अपना मुद्दा बनाते हैं। ये लोग पहले साधारण तौर पर अपना पक्ष रखते हैं, अगर इनकी बात नहीं मानी जाती, तब ये लोग बहस करते हैं।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 315
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 89-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भक्ति अथवा भगवान के दिव्य प्रेमराज्य के 'दुःख' की दिव्यता कैसी होती है, कैसे वह संसार के दुःख से सर्वथा भिन्न होता है जो भक्त/प्रेमी को अनंतानंत आनन्द देता रहता है...
मिलन पाय पिय विरह भय, विरह पाय नहिँ चैन।दुहुँन भांति अस दिव्य दुख, पाव रसिक दिन रैन।।89।।
भावार्थ - श्यामसुन्दर के मिलन काल में भक्तों को यह भय रहता है कि कहीं वियोग न हो जाय। अतः दुःखी रहता है। वियोग में तो दुःखी होना स्वाभाविक है ही। इस प्रकार मिलन एवं वियोग दोनों ही दशाओं में भक्तों को दिव्य दुःख मिलता है।
व्याख्या - दिव्य प्रेम में यह विशेष विलक्षणता होती है कि श्याम मिलन की अवस्था में भी यह भय बना रहता है कि यदि कभी वियोग हो गया तो कैसे जीवित रह सकूँगा। नियम यह है कि जिस वस्तु के मिलन में जितना सुख मिलता है, उस वस्तु के वियोग में उतना ही दुःख मिलता है। अनन्त मात्रा के ब्रह्मानन्द का भी अनन्त गुना आनन्द प्रेमानन्द है। अतः उसके वियोग का दुःख भी अनन्त मात्रा का ही होगा। श्रीकृष्ण प्रेम में दोनों की ऐसी दशा हो जाती है कि मिलन काल में भी वियोग का अनुभव होने लगता है। राधा-कृष्ण एक दूसरे का आलिंगन करते-करते ही एक दूसरे से कहने लगते हैं कि मेरी राधा कहाँ चली गई? मेरे श्यामसुन्दर कहाँ चले गये? की बुद्धि से भी परे हैं। संसार में तो मिलन में भी अल्प सुख मिलता है। अतः वियोग में भी अल्प ही दुःख मिलता है। अतः मिलन दशा में वियोग का चिंतन संसारी प्रेम में नहीं होता। फिर भी कभी-कभी यह झलक आ ही जाती है कि कहीं यह सुख छिन न जाय। किंतु श्रीकृष्ण प्रेम में यह स्वाभाविक रूप से होता रहता है। एक रसिक इसी बात को निम्न शब्दों में व्यक्त करता है। यथा;
अदृष्टे दर्शनोत्कंठा दृष्टे विश्लेषभीरुता।नादृष्टेन न दृष्टेन भवता लभ्यते सुखम्।।
अर्थात् वियोग में तो दर्शन की व्याकुलता का दुःख रहता है एवं मिलन दशा में यह दुःख रहता है कि कहीं वियोग न हो जाय। अतः दोनों ही दशाओं में दुःख ही दुःख है। किंतु यह समझे रहना चाहिये कि यह वियोग दुःख, मिलन के सुख से भी अधिक मधुर होता है। श्रीकृष्ण प्रेम (दिव्य) एवं संसारी प्रेम (आसक्ति) में यही प्रमुख अन्तर है। यही कारण है कि रसिकों ने दिव्य प्रेम को विषामृत की संज्ञा दी है। अर्थात् संयोग में संयोग, संयोग में वियोग, वियोग में वियोग, वियोग में संयोग का विचित्र अनुभव होता है। प्रत्येक दशा में अनन्त अनिर्वचनीय प्रतिक्षण वर्धमान इत्यादि। सखियाँ अनेक प्रकार के उपचार करती हैं। दोनों को स्वस्वरूप का बोध कराती हैं। फिर भी दोनों समाधि दशा में वियोग का ही अनुभव चिरकाल तक करते रहते हैं। यह अवस्थायें परमहंसों दिव्यानन्द प्राप्त होता है। वहाँ दुःख का प्रवेश हो ही नहीं सकता। क्योंकि दुःख तो माया का विकार है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 89०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 314
आज अनेक प्रकार के मार्ग, अनेक प्रकार के सम्प्रदाय चल रहे हैं। एक प्रश्न स्वाभाविक मस्तिष्क में उठता है, हमारे यहाँ शास्त्रों, वेदों में अनेक प्रकार के मत क्यों बन गये हैं? तथा इन विविध मतों में कौन सत्य है? कौन असत्य है?
एक बार उद्धव जी ने भी श्रीकृष्ण से यह प्रश्न किया था। बात यह है कि भगवान ने तो सर्वप्रथम वेदों के द्वारा केवल अपने निज भागवत धर्म का ही उपदेश किया था, किन्तु अनंतानंत जन्मों के संस्कारों के कारण तथा सत, रज, तम गुणों से युक्त बुद्धि होने के कारण एवं अनंत प्रकार की रुचि वैचित्र्य होने के कारण इस दिव्य वेद वाणी का साधकों ने अनेकानेक अर्थ कर डाला, जिसके परिणामस्वरूप अनेकानेक मत बन गये। उसमें कुछ सत्य भी हैं, कुछ असत्य भी हैं। कुछ मत तो ऐसे हैं जो कि शास्त्रों वेदों के भी विपरीत, दम्भीयों ने बीच में ही गढ़ लिया है। यह प्रश्न एक समुद्र मंथन के समान है।
कुछ शास्त्रकार धर्म को, कुछ यश को, कुछ सत्य को, कुछ शम दमादि को, कुछ यम नियमादि को, कुछ जप को, कुछ तप को, कुछ यज्ञ को, कुछ दान को, कुछ व्रत को, कुछ आचार को, कुछ योगादि को, इत्यादि विविध प्रकार के साधनों को कल्याण का साधन बताते हैं, किन्तु वास्तव में इन साधनों से वास्तविक कल्याण नहीं होता, क्योंकि इन साधनों के परिणामस्वरूप जो लोक मिलते हैं वे आदि-अंत वाले होते हैं। उनके परिणाम में दुःख ही दुःख होता है। वे अज्ञान से युक्त होते हैं। वहाँ भी अल्प एवं क्षणभंगुर ही सुख मिलता है तथा वे स्वर्गादि समस्त लोक, शोक से परिपूर्ण होते हैं। अतएव उसकी प्राप्ति, तत्वज्ञ पुरुष नहीं करता, एवं उसे भी इसी लोक के सदृश असत्य समझकर परित्याग कर देते हैं।
सत्य मार्ग यह है कि जीव, एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनंदकंद सच्चिदानंद श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दे, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांच युक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे तथा मोक्षपर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्तःकरण शुद्धि नहीं हो सकती। स्मरण रहे, सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णतः शुद्ध नहीं कर सकती।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2002 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - सभी राशियों पर पड़ेगा असर5 राशियों के लोगों को आ सकती हैं मुसीबतेंज्योतिष में गुरु (ज्यूपिटर) ग्रह और उनकी चाल बहुत अहम मानी गई है. गुरु का संबंध व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, उसके ज्ञान और बुद्धिमत्ता से होता है. 20 जून 2021 से गुरु वक्री होने जा रहे हैं. वे कुंभ राशि में वक्री चाल से गोचर करेंगे और सितंबर के मध्य तक रहेंगे. इसका असर सभी 12 राशियों पर पड़ेगा लेकिन 5 राशियां ऐसी हैं, जिनके जातकों को गुरु की वक्री चाल के कारण कई परेशानियां हो सकती हैं. जानते हैं कि गुरु की वक्री चाल कौनसी राशियों पर नकारात्मक असर डालेगी---मेष: गुरु इस राशि में 11वें भाव में रहेंगे. इसे लाभ का भाव कहा जाता है, यहां गुरु का वक्री होना आर्थिक नुकसान करा सकता है. इस समय निवेश करते समय खासी सावधानी बरतनी चाहिए. साथ ही इस दौरान ना तो उधार लें और न दें.उपाय- अच्छे नतीजों के लिए इस राशि के जातक गुरुवार के दिन पीले कपड़े पहनें.मिथुन: वक्री गुरु इस राशि के नवम भाव में रहेंगे. यह धर्म, अध्यात्म और भाग्य का भाव होता, लिहाजा बहुत मेहनत से ही फल मिलेगा. इसके अलावा पिता के साथ बातचीत करते समय सावधानी बरतें, वरना विवाद की स्थिति बन सकती है.उपाय- पिता, बुजुर्गों और गुरुओं का सेवा-सम्मान करें.सिंह: इस राशि के सप्तम भाव में वक्री गुरु रहेंगे, जो कि दांपत्य जीवन में परेशानी का कारण बन सकता है. गुरु की उलटी चाल चलने के दौरान जीवनसाथी के साथ आपके मतभेद हो सकते हैं. लिहाजा अपनी बात और भावनाएं सोच-समझकर ही अपने जीवन साथी के सामने व्यक्त करें.उपाय- गुरुवार के दिन पीली वस्तुओं का दान करें.धनु: धनु राशि का स्वामी ग्रह गुरु ही है, लिहाजा इनकी उलटी चाल इस राशि के लोगों पर बुरा असर डाल सकती है. इस दौरान धनु राशि के जातक स्पष्ट बात करने में मुश्किल महसूस कर सकते हैं. साथ ही साहस भी कुछ कम रहेगा. छोटे भाई-बहनों के साथ मनमुटाव की संभावना है.उपाय- नकारात्मक असर को कम करने के लिए गुरुवार के दिन केले के पेड़ की पूजा करें.मीन: इस राशि के लोग शुभ कार्यों पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं. इन लोगों के बनते काम बिगड़ सकते हैं, घर में कलह हो सकती है. यात्रा का योग भी बनेगा.उपाय- ध्यान-धर्म करें इससे तनाव कम होगा.
- वास्तुशास्त्र के अंतर्गत घर की नकारात्मकता ऊर्जा को दूर करने के लिए कई उपाय बताए गए हैं, इन्हीं में से एक है नमक के पानी का पोंछा लगाना। माना जाता है कि घर की साफ-सफाई करते समय यदि पानी में थोड़ा सा नमक डालकर पोंछा लगाया जाए तो घर की नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। जिससे घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और आपके जीवन की परेशानियां दूर होती है। लेकिन क्या आपको पता है कि नमक के पानी का पोंछा लगाने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। तो चलिए जानते हैं कि वास्तुशास्त्र के इस उपाय को करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।दूसरों की नजर से बचाएंयदि आप अपने घर में पोंछा लगाने जा रहें हैं और उसी समय कोई आ जाए तो उसके सामने पानी में नमक न मिलाएं। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि आपके घर साफ-सफाई के लिए कोई हेल्पर है तो पोंछे वाले पानी में नमक डालते समय उसकी नजर भी नहीं पडऩी चाहिए। माना जाता है कि यदि इस कार्य को करते समय किसी बाहर के व्यक्ति की नजर पड़ जाए तो इस उपाय का कोई प्रभाव नहीं रह जाता है। इस कारण आपको कोई लाभ नहीं मिलता है।सप्ताह के दिनों का ध्यान रखेंकुछ लोग प्रतिदिन पानी में नमक डालकर पोंछा लगाते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। सप्ताह के हर दिन पानी में नमक मिलाकर पोंछा नहीं लगाना चाहिए। वास्तुशास्त्र के खासतौर पर गुरुवार के दिन ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इसके अलावा मंगलवार और रविवार को भी पानी में नमक डालकर पोंछा नहीं लगाना चाहिए।घर में न फेंके पोंछे का पानीयदि आप नमक डालकर पोंछा लगाते हैं तो उस पानी को भूलकर भी घर में न फेंके। पोंछा लगा हुआ पानी हमेशा घर के बाहर नाली में फेंकना चाहिए। माना जाता है कि यदि आप वह पानी घर में ही फेंकते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा घर में ही रह जाती है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 313
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस उद्धरण में समझाया है कि कैसे हम छोटी-छोटी सी बात पर अपना आपा खो बैठते हैं। जब हमारे विपरीत कोई बात होती है तो कैसे अपनी बुद्धि को संतुलित रखना है, साथ ही संसार में व्यवहार मात्र करते हुये कैसे अपने अन्तःकरण में एकमात्र हरि-गुरु सम्बन्धी सामग्री को ही प्रवेश देना है आदि विषयों की ओर आचार्यश्री ने इंगित किया है...)
...कभी कभी इतना अधिक गुस्सा आता है हम लोगों को कि बाप, माँ, बेटा, स्त्री, पति को भी अंड-बंड बोल जाते हैं। उस समय अगर कोई वीडियो कैसेट बना ले और बाद में आप उसको देखें तो अपनी शक्ल देखकर खुद ही कहें अरे मुझे क्या हो गया था? मैं ऐसा हो गया था? अपने बाप को ही मैनें बक दिया तमाम सारा। अपने पति को ही मैंने गालियाँ बक दी। ये सब बात कब आप महसूस करेंगे जब नॉर्मल हो जायेंगे।
और फिर फील करते हैं आप लोग, ऐ! क्या मुझको हो गया था? मुझको गुस्सा क्यों आया अंड-बंड बक गया मैं!! बड़ा गधा हूँ मैं!! लेकिन उस समय पागल हो गये थे। इसलिये बोल रहे थे। होश में नहीं थे उस समय। बाद में होश में आये तो भी क्या होता है? और फिर ये दौरा पड़ता ही रहता है। दिन में कई बार। महीने में बहुत जोर से, कभी-कभी साल में तो कभी-कभी ये नौबत आ जाती है कि मैं मर जाऊँ तो अच्छा। यहाँ तक पहुँच जाते हैं आप लोग। तो हैं सब पागल। तो पागल को पागल कहें तो क्यों बुरा मानो भाई। जैसे तुम, वैसे हम।
सोचो क्या बात है? नकटा नकटे को नकटा कहे तो नकटे को हँसना चाहिये कि जरा अपनी नाक को देख लो। हमको नकटा कह रहे हो तुम भी तो वैसे ही हो यार। अपन एक पार्टी के हैं। अपनी बड़ी-बड़ी मैज्योरिटी है। अरे तुलसीदास, सूरदास तो इने-गिने हुये हैं तो हम तो बहुत ज्यादा हैं। हाँ आपस में क्यों बुराई करते हो, दोनों एक से हैं बिल्कुल। तुम्हारा टैम्प्रेचर हाई हो गया गुस्से का, हमारा एक घण्टे बाद हो जायेगा और क्या फर्क है। वो सब के पास है। जैसा वातावरण मिलेगा वही दोष बलवान हो जायेगा।
गेहूँ आप लोग देखते हैं। बोरे में गेहूँ बन्द है, चार महीने से वैसा का वैसा है लेकिन जब उसको मिट्टी में डाल दिया, पेड़ बन गया। फल लग गये। उसी प्रकार सारे दोषों का जो बीज है हमारे अन्तःकरण में बैठा है, जिसका वातावरण मिल जाय बस वही बलवान हो जाता है। दिन में सैकड़ों बार दौरे पड़ते हैं। एक दो बार नहीं इतना सारा परिवर्तन हो रहा है हमारे अन्तःकरण में और हम समझ नहीं पाते ये क्या बीमारी है? बोल रहे हैं लेकिन हमारे पास समय नहीं है सोचने का कि ये बीमारी है क्या और क्या इसका इलाज है? सबका इलाज है। पहले बीमारी तो मानो। तुम तो बीमारी ही नहीं मानते। ये मुश्किल है। तो इलाज कैसे हो? क्यों नहीं मानते? सभी ऐसे हैं। इसलिये क्यों मानें? उसके बेटे ने भी डाँटा था। हमारे बेटे ने भी डाँट दिया। ठीक है। उसके पति ने बीबी को डाँटा, हमारे पति ने डाँटा ठीक है। सब हो रहा है, ये सब चल रहा है।
लेकिन हमको फील करना चाहिये कि इस सब स्वरूप को समझकर फील ना करें। अंदर (अन्तःकरण) न जानें दें गंदी चीज। अंदर तो केवल भगवान, उनका नाम, उनका गुण, उनका रूप, उनकी लीला, उनका धाम, उनके संत - बस इतने हमारे अन्तःकरण में जायें। बाकी को बाहर रखें। चारों ओर बिठा लो अपने, कोई बात नहीं। अंदर न जाने दो। नहीं तो वैसे ही मन गन्दा है और हो जायेगा। परत की परत मैल जम जायेगी उसमें। यानी प्यार भगवाब के क्षेत्र में ही हो। व्यवहार संसार भर में हो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'अध्यात्म संदेश' पत्रिका, अक्टूबर 2006 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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साधक का प्रश्न ::: संत के साथ जब रहते हैं तो ये सत्संग हुआ, और जो घर में जाकर फोटो वगैरह रखकर सत्संग करते हैं क्या वो भी सत्संग हुआ?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: हाँ वो भी सत्संग है। वो नम्बर दो का है। संत के मुख से सत्संग मिले वो नंबर एक है। अधिक प्रभावशाली होता है। उसी बात को, संत की बात को एक सत्संगी बोले और बाकी लोग सुनें उसका भी लाभ है, उतना नहीं है। बस इतना सा अन्तर है। लेकिन कूड़ा-कबाड़ा संसार की बात करना या सुनना या सोचना - उससे हजार गुना अच्छा है भगवान और गुरु की बात सोचना, सुनना, पढ़ना, बोलना। लेकिन वास्तविक तो;
सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथाः।तज्जोषणादाश्चपवर्गवत्-र्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति।।(भागवत 3-25-25)
श्रद्धा पहली आवश्यक वस्तु है। 'सतांप्रसंगान' स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि असली संत के द्वारा तो सत्संग मिलता ही है और जो मेरी अलौकिक लीला, नाम, गुणादि का जो प्रसंग प्राप्त करता है कोई साधक, उसके लगातार सेवन से सत्संग मिलता रहे बार-बार, तो 'श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति' श्रद्धा भी अपने-आप पैदा हो जायेगी। श्रद्धा के बाद रति होती है (भाव-भक्ति) वो भी मिल जायेगी और उसके बाद प्रेम (असली भक्ति) वो भी, क्रम से तीनों मिल जायेंगी। सत्संग किया जाय। तो सत्संग, सत् भी सही हो। रसिक संत हो, उसके पास दिव्य प्रेम हो और संग भी सही हो।
यानी हमारा मन, हमारी बुद्धि उसमें आसक्त हो, संत की वाणी में। यानी हम भोले बनकर और संत की वाणी पर विश्वास करके सुनें, वो सत्संग है। जैसे एक पारस है, एक लोहा है। पास-पास कर दो तो भी सोना नहीं बनेगा। संग हो। संग माने सेंट परसेन्ट शरणागति। खास तौर से मन की। शरीर की शरणागति मात्र से काम नहीं बनेगा कि उठाया खोपड़ी को पैर पर रख दिया। ये सिर को पैर पर रखने का अभिप्राय तो ये है कि मैं अपना सब कुछ आपको अर्पित करता हूँ। अब अर्पित न करे, केवल सिर धर दे पैर के ऊपर, सुन ले सत्संग, गुरु के वाक्यों को और समझ में भी आ जाये, सिर भी हिला दे और प्रैक्टिकल अमल न करे, तो फिर वो सत्संग नहीं है।
सत्संग का मतलब असली सत्, असली संग। संत, सत्, महात्मा, गुरु, महापुरुष - ये सब एक नाम हैं। जो भगवान को पा ले वही सही है, उसी को सत् कहते हैं। और जो भगवान से दूर रहे, संसार में अटैच्ड है जिसका मन, वो असत्। बस दो ही चीज तो है - एक ब्रह्म, एक माया। ज्यादा गड़बड़ है ही नहीं, तमाम समझने की जरूरत नहीं। सीधी-सीधी बात है, गधे की अकल समझ सकती है। बस दो, अच्छा-बुरा, लाभ-हानि।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'साधन-साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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(स्वरचित पद 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' की व्याख्या का अंश, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने यह व्याख्या सन 1981 में 10-प्रवचनों में की थी...)
गौरांग महाप्रभु ने पहला शब्द यही लिखा है;
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक - 3)
...अगर किसी को ईश्वर की कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो। है क्या? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम? और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्यों जी ऐ नीम के पेड़! तुम डि. लिट्. प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में?
हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो, दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्धविश्वासी नहीं हैं, डि. लिट्. हैं। अब क्या हाल है, नीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। श्यामसुन्दर के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।
एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। वह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे (भगवत्प्रेम/स्मृति का नशा) में तो चलते ही हैं, इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से नैचुरेलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रक्खा था मक्कारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे।
अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे, फील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे, अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं;
कर्मावलम्बकाः केचित् केचित् ज्ञानावलम्बकाः।
कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और,
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बकाः।।
और हम तो भगवान के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता, सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा, हम क्यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है;
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बकाः।।
यह दीनता है, यह आदर्श है, ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो, ऐसे बनना पड़ेगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' स्वरचित पद की व्याख्या०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -(1) www.jkpliterature.org.in (website)(2) JKBT Application (App for 'E-Books')(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)(4) Kripalu Nidhi (App)(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.) - गुरुवार 10 जून को शनि जयंती का पावन दिन है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन भगवान शनि का जन्म हुआ था। शनि को ज्योतिष में पापी और क्रूर ग्रह कहा जाता है। शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या की वजह से व्यक्ति का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है। व्यक्ति को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शनि जयंती के पावन दिन विधि- विधान से शनि महाराज की पूजा- अर्चना की जाती है। इस दिन ये छोटा सा उपाय करने से भगवान शनि प्रसन्न हो जाते हैं। धार्मिक कथाओं के अनुसार राजा दशरथ ने भी इसी उपाय से भगवान शनि को प्रसन्न किया था। शनि जयंती के पावन दिन शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ जरूर करें। दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ करने से शनि देव का आर्शाीवाद मिलता है।दशरथ कृत शनि स्त्रोतनम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च।नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते।।नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम:।नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखायनमोऽस्तुते।सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च।।अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते।नमो मन्दगते तुभ्यं निरिस्त्रणाय नमोऽस्तुते।।तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च।नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:।।ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे।तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।।देवासुरमनुष्याश्च सिद्घविद्याधरोरगा:।त्वया विलोकिता: सर्वे नाशंयान्ति समूलत:।।प्रसाद कुरु मे देव वाराहोऽहमुपागत।एवं स्तुतस्तद सौरिग्र्रहराजो महाबल:।।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 310
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 90-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के 'अधम-उधारन' नाम/स्वरूप की चर्चा है, जिसे सुनकर पतितजनों के मन में अपने उद्धार की आशा जगती है...
अधम उधारन नाम सुनि, उर आशा बढ़ि जात।भक्ति वश्य सुनि नाम पै, मन महँ अति डरपात।।90।।
भावार्थ - हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारा पतित पावन नाम सुनकर मन में साहस होता है, क्योंकि मैं पतित हूँ, मेरा भी काम बन जायगा। किंतु जब भक्त वत्सल, भक्तिवश्य आदि नाम सुनता हूँ तो निराशा छा जाती है। डर लगने लगता है।
व्याख्या - भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्त स्वरूप हैं। अनन्त लीलायें हैं। अतः तदनुसार अनन्त नाम भी हैं। जैसे एक स्वरूप है ब्रह्म। वह अकर्ता है। एक स्वरूप है परमात्मा। वह न्याय करता है। सबके कर्मों का फल देता है। इस स्वरूप से भी किसी का काम नहीं बनता। क्योंकि प्रत्येक जीव के अनन्त जन्म हो चुके, अतः अनन्त पाप पुण्य भी हो चुके। यदि कोई भगवत्प्राप्ति भी कर ले और भविष्य के कर्मबन्धन से अवकाश भी प्राप्त कर ले तो न्याय के अनुसार पिछले अनन्त संचित कर्मों को तो भोगना ही चाहिये। और वे कर्म अनन्त हैं, अतः अनन्तकाल तक भोगकर भी अनन्त ही शेष रहेंगे। अर्थात् अनन्त होने के कारण भूतकाल के कर्मभोगों का कभी अन्त ही न होगा। तो फिर ऐसी भगवत्प्राप्ति या मुक्ति का प्रयोजन ही निरर्थक हो जायगा। अब तीसरे स्वरूप पर विचार करना है। यह है श्रीकृष्ण भगवान् का स्वरूप। इसी से काम बनेगा। इस स्वरूप ने नियम बनाया है कि यदि कोई जीव मेरी शरण में आ जायगा तो उसके पिछले सब पाप पुण्य समाप्त कर दूंगा। यथा गीता;
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(गीता 18-66)
इतना ही नहीं वरन् भविष्य का ठेका भी लेने की प्रतिज्ञा है। यथा;
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥(गीता 9-22)
येतु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥(गीता 12-6)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।।(गीता 12-7)
इस प्रकार भूतकाल भी बन गया एवं भविष्य काल भी बन गया। वर्तमान तो बना ही है। और यह माया-निवृत्ति एवं आनन्द प्राप्ति सदा को मिल जाती है।
सदा पश्यन्ति सूरयः।(सुबालोपनिषद् , छठवाँ मंत्र , मुक्तोपनिषद् )
शरणागति भी 2 प्रकार के लोगों की होती है। प्रथम - पतितों की शरणागति। द्वितीय - भक्तों की शरणागति। इन दोनों में पतितों की शरणागति से ही आशा होती है क्योंकि भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी पतित होते हैं। भक्ति प्राप्त होने पर तो भक्तवत्सल नाम उन भक्तों के ही काम का है। अतः पतित साधक तो भक्त वत्सल नाम से भयभीत ही होता है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 310०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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