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- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के आज के प्रकाशित प्रवचन अंश में हम जानेंगे कि किन-किन पड़ावों को पार करने के बाद जीव को भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के गोलोक धाम की प्राप्ति होगी? इस प्रवचन में विशेष रुप से तत्वज्ञान, साधना एवं कृपा तत्व के विषय में बतलाया गया है। श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम, सेवा, धाम प्राप्ति के इच्छुक पिपासु जीव को इसे समझकर तदनुकूल प्रयत्न करने पर निश्चय ही लाभ प्राप्त होगा ::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)जीव के तीन शत्रु है। एक शत्रु को जीतना तो आसान है, दूसरे शत्रु को जीतना थोड़ा कठिन है लेकिन उसको जीता जा सकता है और तीसरा शत्रु जो है वो इतना बलवान है कि उसको कोई नहीं जीत सकता।उनका नाम है मल, विक्षेप और आवरण।पहला मल तो तत्व ज्ञान होने से चला जाता है, शास्त्र वेद का ज्ञान, माया क्या है, जीव क्या है, ब्रह्म क्या है, जीव को भगवत प्राप्ति कैसे होगी - ये थिअरी की नॉलेज से चला जाता है या शब्दज्ञान कह दो, ये तो कोई भी कर सकता है बार बार सुनने से। ये मल आवरण है। ये पहला है।दूसरा है विक्षेप। ये भी हमने पैदा किया है। मल के गड़बड़ होने से विक्षेप हो गया। विक्षेप का रीजन मल यानी तत्त्वज्ञान का अभाव। हमने सबसे पहले थिअरी की नॉलेज नहीं प्राप्त की तो अपने आप को देह मान लिया और फिर देह के सुख के पीछे भाग पड़े, भागते रहे, भागते रहे, अनंत जन्म बीत गए, लेकिन अगर कोई बहादुर मल के हट जाने के बाद साधना कर ले, हरि गुरु का रुपध्यान करते हुए रोते हुए उनके नाम, गुण, लीला आदि का गान; तो अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा। यानी वो जो भीतर वाला अन्त:करण गंदा है वो धुल जाएगा, शुद्ध हो जाएगा। तो विक्षेप समाप्त होने का मतलब अन्त:करण की शुद्धि। तो अन्त:करण कैसे शुद्ध होगा इसका ज्ञान मल के हटने से हो गया और साधना करने से, भक्ति करने से विक्षेप भी चला गया।लेकिन वो कोई कोई बहादुर है जो साधना करके अन्त:करण शुद्ध कर ले। ये आम बात नहीं है, लेकिन वो कर सकता है।तीसरा है आवरण; ये माया की शक्ति है और दैवी शक्ति है। अन्त:करण की शुद्धि के बाद जब गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति मिलती है, वो कृपा से मिलती है, साधना से नहीं मिलती। साधना से तो केवल अन्त:करण शुद्ध होता है। उसको दिव्य भी बनाना होगा तभी उसमें दिव्य प्रेम ठहर सकेगा। वो दिव्य बनाने के लिए गुरु, भगवान की कृपा चाहिए। वो हो गई जब तब तीसरा शत्रु भी ख़तम हो जाएगा। तब जीव सदा के लिए आनंदमय ज्ञानमय होकर गोलोक में रहेगा।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय सम्मतियाँ ::::
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित अनेक भगवदीय साहित्य हैं, जिससे भगवत्प्रेम पिपासु जीवों ने अद्भुत लाभ प्राप्त किया है, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। इन समस्त ग्रन्थ-साहित्यों में 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' उनका मूल ग्रन्थ है। इनकी विलक्षणता के सम्बन्ध में कुछ कहना यूँ तो तुच्छ, रसहीन मायिक जीव के लिये अनाधिकार चेष्टा ही है। किन्तु कुछ तो जानकारी परम आवश्यक है ताकि हमारे हृदय में इस रस-ग्रन्थ का पठन करने के लिये उत्सुकता जागे। इसी विचार को ध्यान में रखकर इस संबंध में कुछ बातें लिखी जा रही हैं। यूँ तो लेख कुछ लम्बा है तथापि सुधि पाठक-जन भावयुक्त हृदय से पढ़कर आनंदानुभूति अवश्य करेंगे ::::::जगद्गुरु श्री कृपालु जी विरचित ग्रन्थ : प्रेम-रस-सिद्धान्त(1) जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' भगवदीय मार्गीय साधक तथा प्रेम पिपासु जिज्ञासु जीवों के लिये अमूल्य निधि है।(2) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसकी रचना अपने जगद्गुरु बनने के पूर्व ही कर दी थी, इसका प्रथम संस्करण वर्ष 1955 में कानपुर से प्रकाशित हुआ था। श्री महाराज जी (श्री कृपालु जी) उस समय मात्र 32 वर्ष के थे। तब वे अपना नाम कृपालुदास लिखते थे। वर्ष 2015 में इस ग्रंथ के प्रकाशन/प्रगटीकरण का 60 वाँ वार्षिकोत्सव मनाया गया।(3) इस विलक्षण 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ में क्या है ::::श्री कृपालु जी महाराज ने वेदों, शास्त्रों के प्रमाणों के साथ साथ दैनिक अनुभवों के उदाहरणों द्वारा सर्वसाधारण के लाभ को ध्यान में रखकर विषयों का निरुपण किया है। भगवान के प्रेम, सेवा तथा उनके माहात्म्य ज्ञान आदि के प्रति जिज्ञासु जीव इस ग्रन्थ के माध्यम से निश्चय ही अपने इच्छित को प्राप्त करेंगे। भगवान श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च माधुर्यमयी भक्ति 'गोपीभाव' की साधना का भी इसमें निरुपण है। पूर्ववर्ती समस्त आचार्यों, मूल जगदगुरुओं, विविध शास्त्रों के सिद्धान्तों तथा उनके सिद्धांतों में आये विरोधाभासों का भी बड़ा सुन्दर समन्वय इस ग्रन्थ में किया गया है। कम शब्दों में अधिक कहा जाय तो यह ग्रन्थ गागर में सागर ही है, जिसका पात्र जितना बड़ा होगा वह उतना ही अधिक लाभ ले सकेगा।
(4) इस ग्रन्थ के प्राक्कथन में श्री कृपालु जी महाराज ने लिखा था ::::
'...मेरे प्रवचनों को सुन-सुनकर अधिकांश लोगों ने कहा कि महाराज जी! यदि ये प्रवचन छप जायँ तो बड़ा लाभ हो। मैंने बिना कुछ सोचे-विचारे ही लोगों के कहने में आकर, जो बुद्धि में आया लिख दिया। साथ में शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों तथा महापुरुषों के आप्त-प्रमाण भी लिख दिये। अब जो कुछ भी है, आप लोगों के समक्ष है। मुझ अकिंचन की भेंट स्वीकार कीजिये एवं मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं श्री राधाकृष्ण के चरणारविन्द मकरन्द का यत्किंचित पान कर सकूँ..' (कृपाकांक्षी, जगदगुरु: कृपालु:)(5) 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ की विषय-वस्तु क्या है?अध्याय (1) जीव का चरम लक्ष्य, (2) ईश्वर का स्वरूप, (3) भगवत्कृपा, (4) शरणागति, (5) आत्म-स्वरुप, संसार का स्वरुप तथा वैराग्य का स्वरुप, (6) महापुरुष, (7) ईश्वर-प्राप्ति के उपाय, (8) कर्म मार्ग, (9) ज्ञान एवं ज्ञानयोग, (10) ज्ञान एवं भक्ति, (11) निराकार-साकार-ब्रम्ह एवं अवतार रहस्य, (12) भक्तियोग, (13) कर्मयोग की क्रियात्मक साधना, (14) कुसंग का स्वरुप।इस ग्रन्थ के अन्त में कर्मयोग सम्बन्धी प्रतिपादन पर विशेष जोर दिया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण संसारी कार्यों को करते हुये ही संसारी लोगों को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।(6) प्रथम संस्करण के शुरुआती पृष्ठ पर श्री महाराज जी के स्वयं की हैंड राइटिंग में छपा था ::::'साधकों को सादर समर्पित''मूल्य - परम प्रियतम श्रीकृष्ण के मधुर मिलन की व्याकुलता'.(7) प्रथम प्रकाशन के समय श्री कृपालु जी महाराज ने प्रकाशक का नाम 'गोलोक धाम' दिया और यह संयोग कह लीजिए अथवा उनकी पूर्व निर्धारित योजना कि अपने सम्पूर्ण साहित्य के प्रकाशनार्थ उन्होंने कई वर्ष पूर्व 'राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली' को कॉपीराइट दिया था, यहाँ भी बिल्डिंग का नाम 'गोलोक धाम' ही है।(8) 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय सम्मतियाँ ::::'...श्री कृपालुदास जी कृत 'प्रेम रस सिद्धांत' पुस्तक मैंने देखी। प्रेम जैसे गहन विषय को उन्होंने सरल सुबोध भाषा में व्यक्त किया है...... प्रेम पथ के पथिकों को इस प्रेममयी पुस्तक को प्रेमपूर्वक पढऩा चाहिए, यही मेरी पाठकों से पुनीत प्रार्थना है। भगवान करें संसार में सभी प्रभुप्रेमी बनें और प्रभु के प्रेमामृत का पान करके कृतार्थ हो जायें...'. (श्री चैतन्य चरितावली के रचयिता प्रभुदत्त ब्रम्हचारी, संकीर्तन भवन, झूँसी प्रयाग)'...श्रीपरमहंस कृपालुदासजी लिखित 'प्रेम रस सिद्धांत' नामक ग्रंथ का मैंने बड़े प्रेमपूर्वक अवलोकन किया। परमहंस (कृपालु जी) जी न केवल अधिकारी विद्वान हैं किंतु भक्तिरस के रसिक भी हैं। अतएव उनका यह सिद्धांत ग्रंथ सर्वथा पठनीय और मननीय है। जिज्ञासुओं के लिए इसमें प्रत्येक ज्ञातव्य बातें मिल जाएंगी और साधकों के लिए रस-विशेष की अच्छी जानकारी भी हो सकेगी। मैं इस ग्रंथ के अधिकाधिक प्रचार का आकाँक्षी हूँ...' (डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ,MA, LLB, D Litt, सिविल लाइंस, राजनांदगाँव)(9) कितनी भाषाओं में उपलब्ध है ::::हिन्दी, अंग्रेजी ( (Philosophy of Divine Love),), सिन्धी, गुजराती, उडिय़ा तथा तेलगू भाषा।(10) ग्रन्थ प्राप्ति के स्थान ::::जगद्गुरु कृपालु परिषत के मुख्य आश्रम,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रचारक-गण,जगद्गुरु कृपालु परिषत की साहित्य वेबसाइट www.jkpliterature.org
सन्दर्भ ::: प्रेम-रस-सिद्धान्त, साधन साध्य पत्रिका (मार्च 2018 अंक)सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला-जगद्गुरुत्तम् के संबंध में अनोखा रहस्यआज यह सर्वविदित है कि जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् के पद पर विराजित हैं। अन्य समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के विशेष मतों के प्रतिष्ठापन से इतर आपने समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए एक समन्वयात्मक वेदसम्मत सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। आपके संबंध में यद्यपि अनेकानेक गूढ़ातिगूढ़ रहस्य हैं तथापि उनमें से एक गूढ़ रहस्य और आपकी दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था के विषय में थोड़ा प्रकाश डालकर आपकी अलौकिकता का परिचय प्राप्त करते हैं।सुश्री ब्रज वनचरी देवी जी श्री कृपालु महाप्रभु जी की कृपाप्राप्त वरिष्ठतम प्रचारिका हैं और वे बचपन से कृपालु महाप्रभु जी के सत्संग का लाभ ले रही हैं। उनके पिता श्री महाबनी जी श्री महाराज जी (कृपालु महाप्रभु) के अनन्य भक्त थे। श्री महाराज जी के प्रति उनका वात्सल्य स्नेह था। प्रतापगढ़ में जगद्गुरु बनने के पहले श्री महाराज जी इनके घर ही रुकते थे और वहीं से 'जगद्गुरुत्तम्' बनने काशी विद्वत् परिषत् पधारे थे। उन्होंने (सुश्री वनचरी देवी जी) श्री महाराज जी के जगद्गुरु बनने के पूर्व के कुछ विचित्र रहस्यों का उल्लेख किया है।उन्होंने बताया कि...."...यद्यपि उस समय मैं बहुत ही छोटी थी किन्तु मुझे अभी भी याद है कि एक दिन श्री महाराज जी ने कहा कि मुझे तुम्हारे घर पर एक कमरा एकांत चाहिए और एक कागज और कलम। श्री महाराज जी एक कमरे में एकांतवास करने लगे। हमें श्री महाराज जी के इस लीला की उत्सुकता होने लगी। हमारी उत्सुकता तब और बढ़ गई जब श्री महाराज जी के कमरे से विचित्र-विचित्र आवाज़ें आने लगी जैसे बहुत से व्यक्ति बैठकर किसी दूसरी भाषा में गंभीर चर्चा कर रहे हों जबकि उस कमरे में केवल श्री महाराज जी ही थे। ऐसा लगभग रोज ही होता था लेकिन श्री महाराज जी की आज्ञानुसार हमनें उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया और इस रहस्य से पर्दा उठने का इंतजार करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् श्री महाराज जी बाहर आये तब हमने उनसे पूछा कि आप तो कमरे में अकेले ही थे, फिर ऐसी विचित्र आवाज़ें किनकी थीं, आप किनके साथ वार्तालाप कर रहे थे? पहले तो श्री महाराज जी ने टालने की कोशिश की परंतु पिताश्री (महाबनी जी) के उत्सुकतावश अत्यधिक पूछने पर अंतत: रहस्योद्घाटन किया। उन्होंने कहा,"...महाबनी ! क्या करुँ? इस समय समस्त वेदों-शास्त्रों का वास्तविक स्वरुप विकृत हो गया है। अत: समस्त शास्त्र-वेद मेरे समक्ष मूर्तिमान प्रकट होकर मेरे सम्मुख खड़े थे और मुझसे कह रहे थे कि आप हमें हमारे वास्तविक रूप में इस युग में जनता के सम्मुख प्रकट कीजिये..."वस्तुत: यहीं से श्री कृपालु महाप्रभु जी के जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु बनने का उपक्रम प्रारम्भ हुआ। इस घटना के पश्चात् श्री महाराज जी ने चित्रकूट एवं कानपुर में ऐतिहासिक पब्लिक स्पीच दी जिनमें लाखों लोगों ने उनके दिव्य प्रवचनों को सुना।इसके पूर्व उन्होंने कभी पब्लिक स्पीच नहीं दी थी और वस्तुत: प्रेम की उन्मत्त दशा में ही रहते थे। घंटों-घंटों प्रेम रस परिप्लुत संकीर्तन कराते, रात्रि जागरण और महीनों अखण्ड संकीर्तन भी। सदैव ब्रजरस में डूबे रहते और सभी साधकों को भी प्रेम रस पिलाकर उन्मत्त सा बनाये रखते। करुण क्रन्दन हृदय विदारक रुदन श्यामा-श्याम गुणगान प्रिय मिलन की व्याकुलता - बस यही दिनचर्या थी। स्वयं ही मृदंग बजाते और संकीर्तन कराते-कराते मूच्र्छित हो जाते। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती, वस्त्र भींग जाते, दीवारों का आलिंगन करते, कभी नृत्य, कभी अट्टाहास। दिव्य महाभाव की बड़ी विचित्र दशा थी वह।किन्तु वे विश्व कल्याण का उद्देश्य लेकर इस धराधाम पर अवतरित हुए और वर्तमान युग में जीवों को भगवदीय तत्वज्ञान की महती आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना कोई भी भक्तिमार्ग पर आरुढ़ व स्थिर नहीं हो सकता। इसलिए इस दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था का गोपन करके उन्होंने प्रेम प्लस ज्ञान मिश्रित स्वरुप को प्रकट किया और 'जगद्गुरुत्तम्' का पद स्वीकार कर वेदों एवं शास्त्रों को पुन: उनके वास्तविक स्वरुप में प्रतिष्ठापित किया। उन्होंने ऐसा सिद्धांत स्थापित किया है जो अब तक के आध्यात्मिक इतिहास में अद्वितीय है। इसी से समस्त जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम 'जगद्गुरुत्तम्' की उपाधि से काशी विद्वत् परिषत् की 500 सर्वमान्य अग्रगण्य विद्वानों की सभा द्वारा एकमत से 14 जनवरी, 1957 के दिन घोषित किये गए। इस समय उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी। उनके सर्वदर्शन समन्वयात्मक सिद्धांत के कारण उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' एवं 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य' को उपाधि भी प्रदान की गई है।ऐसी अद्वितीय विभूति ने जिस भूमि पर अवतार धारण किया और अपने लीला का सौरस्य प्रदान किया, भारतवर्ष की उस भूमि जो भक्तिधाम नाम से प्रसिद्ध हुई है, आज यह भक्तिधाम अपनी गोद में भक्ति-मंदिर, भक्ति-भवन तथा कृपालुं वन्दे जगदगुरूम-भक्ति मंदिर जैसे तीन महान एवं अद्वितीय स्मारकों को धारण किये है, जो कि सनातन परम्परा के चिरयुगी संवाहक हैं।लेख सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक, पृष्ठ 39सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचनश्रीराधाकृष्ण प्रेम संबंधी साधन सामग्रियों से अलंकृत अपनी प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने निम्नांकित पद में मन को संबोधित करते हुये कहा है कि इस मन ने अनादिकाल से आनंदप्राप्ति के अपने लक्ष्य के लिये उन द्वारों को खटखटाया जहाँ आनंद था ही नहीं। अत: उस भूल की सुधार कर लेने का आग्रह इस पद के माध्यम से अपने मन से किया गया है। आइये हम इसका आधार लेकर स्वयं पर विचार करें -'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थसिद्धान्त माधुरी, पद संख्या - 38चपल चित! कत इत उत भटकात।कूकर शूकर कीट पतंगनि, धर्-यो अनंतन गात।अगनित सुत पति नारि बनायो, अबहुँ बनावत जात।तू चह परमानंद कहां सो?, यह नहिं सोचि सकात।वेद पुरानन बात मान गहु, चरण शरण बलभ्रात।तब कृपालु तिन अनुकंपा ते, सब बनि जैहैं बात।।भावार्थ :::: अरे चंचल मन! तू इधर-उधर क्यों भटक रहा है? तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये। अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये एवं अब भी बनाता जा रहा है। किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता। अरे मन सुन! वेद-पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र नंदनंदन (श्रीकृष्ण) पादारविन्द की शरणागति से ही प्राप्त हो सकता है। श्री कृपालु जी कहते हैं, जब तू उनके शरणागत हो जायगा तब वे अपनी अनुकम्पा द्वारा तुझे अनन्तकाल के लिए आनन्दमय कर देंगे; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी।रचनाकार ::: जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- --जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज भगवतपथ पर चल रहे साधक के लिये कुछ आवश्यक बातें बता रहे हैं, जिनका पालन करना साधक की उन्नति के लिये परमावश्यक है। यदि साधक इन बातों में सावधानी न बरतकर लापरवाही करेगा तो निश्चित ही उसे साधना-मार्ग में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। अत: आइये जानें कि ऐसी कौन-कौन सी बातें हैं, जिनका पालन करना साधक के लिये महत्वपूर्ण है :::::::(आचार्य श्री के शब्द/मार्गदर्शन यहां से है...)(1) द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें। उदासीन रहें।(2) आज कोई नास्तिक भी है, तो कल उच्च साधक बन सकता है। अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका। सूरदास आदि सन्त उदाहरण हैं।(3) गुरु की सेवा करने वाला साधक तो गुरु का प्रिय ही है। अत: उससे द्वेष करना पाप है।(4) सचमुच कोई अपराधी भी हो, तो भी, मन से भी उसके भूतपूर्व अपराधों को न सोचें, न बोलें।(5) संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं। बड़े-बड़े साधकों का भी पतन एवं बड़े-बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है।(6) सबमें श्रीकृष्ण का निवास है, अत: उनको ही महसूस करें।सन्दर्भ पुस्तक - भक्ति की आधारशिला, पृष्ठ संख्या 6सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत यह प्रवचन न केवल आध्यात्म पथ के पथिकों के लिये महत्वपूर्ण है, बल्कि यह तो समस्त विश्व के प्रत्येक देश के प्रत्येक नागरिक के लिये महत्व रखती है। सीधे शब्दों में मनुष्य जाति के लिये यह लाभप्रद है। इसका संबंध भगवत्प्राप्ति जैसे सर्वोच्च लक्ष्य के साथ ही जीवन के विविध पक्षों, नैतिक सदाचारों, देश, राज्य तथा घर-गृहस्थी में शान्ति तथा सुख से भी है। अत: इन लाभों को दृष्टिगत रखते हुये आइये इस अंश से हम कुछ समझने की चेष्टा करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)...भगवान को मानने से अथवा यूं कहो, भक्ति करने से अंत:करण शुद्ध होगा। वास्तविकता तो यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि होना असम्भव है और सत्य, अहिंसा आदि सदाचार का आचरण अंत:करण की शुद्धि के बिना असम्भव है। ये सब दैवी गुण तभी आयेंगे जब हमारे अंत:करण की शुद्धि होगी।हमारे अंत:करण की शुद्धि जितनी मात्रा में होगी उतना ही हमारा संसार से वैराग्य होगा। अंत:करण शुद्ध केवल ईश्वरीय भक्ति से ही होगा। जब तक यह निश्चय न हो जाय कि संसार में सुख नहीं है भगवान में ही सुख है, संसार की संपत्ति बटोरने की कामना रहेगी। जब यह निश्चय हो जायेगा शान्ति भौतिक पदार्थों से नहीं, भगवान से ही मिलेगी, जितनी मात्रा में यह निश्चय होगा उतनी मात्रा में संसार का सामान संग्रह करने की कामना कम होगी, तो उतनी मात्रा की चार सौ बीसी कम हो जायेगी। संसार से संपत्ति बटोरने की कामना खतम होगी। आज एक आदमी अरबपति है, खरबपति बनना चाहता है।तो अगर ईश्वरीय भावना होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो समझेगा कि संसार में सुख नहीं है। आवश्यकता की पूर्ति के अलावा जो हमारे पास है वो गरीबों को दान दे दो, तब ये भावना पैदा होगी। अत: भक्ति के द्वारा ही वास्तविक परोपकार की भावना जाग्रत की जा सकती है।अगर कोई, कोई भी भक्ति करेगा तो अंत:करण शुद्धि होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो स्वाभाविक रुप से दैवी गुण (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, गरीबों की सहायता आदि) आयेंगे। यही दैवी गुण आधार हैं विश्व-शान्ति के। हमारी अंत:करण की शुद्धि पर ही हमारा हिन्दू धर्म जोर देता है ताकि हमारे विचार शुद्ध हों, जब विचार शुद्ध होंगे तो ये राग-द्वेष अशान्ति जो संसार में फैल रही है, अपने आप समाप्त हो जायेंगे। जातिवाद आदि की बीमारी ये सब बीमारियाँ समाप्त हो जायें अगर कोई सही-सही हिन्दू धर्म को मान ले।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ पुस्तक - विश्व-शांति; पृष्ठ 9 एवं 10, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विश्व-शांति के विषय में दिये गये प्रवचन का पुस्तक रुपसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अगर कुंडली में सूर्य और मंगल का दोष हो तो घर में गुड़हल का पौधा लगाना चाहिए। यह पौधा सूर्य और मंगल ग्रह से जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि मंगल ग्रह को प्रसन्न करने लिए पवनसुत हनुमान को गुड़हल का फूल अर्पित करना लाभदायक होता है। साथ ही सूर्यदेव को जल अर्पित करते समय इसमें गुड़हल का फूल डालकर अध्र्य दें। ऐसे करने से जातक को अत्यंत लाभ होता है और वास्तुदोष भी दूर होते हैं। गुड़हल का पौधा घर में कहीं भी लगा सकते हैं। यह अत्यंत लाभकारी होता है।औषधीय गुणों से भरपूर गुड़हल का फूल बहुत ही ऊर्जावान माना जाता है। देवी और सूर्यदेव की उपासना में इसका विशेष रूप से प्रयोग होता है। मान्यता है कि नियमित रूप से देवी मां तो गुड़हल का फूल अर्पित करने से शत्रु और विरोधियों से राहत मिलती है। गुड़हल का फूल डालकर सूर्यदेव को जल अर्पित करने से दीघार्यु और आरोग्य की प्राप्ति होती है।गुड़हल के फूल में मां दुर्गा का वास माना जाता है। पुष्प के हरे भाग में बुध और केतू होते हैं। वहीं केसरिया भाग मंगल को दर्शाता है। गुड़हल के रक्त वर्ण में सूर्य का प्रतिनिधित्व माना गया है। वहीं पुष्प की जहां से उत्पत्ति होती है, वहां गुरु का वास माना गया है। अंकुरण के मध्य में राहू और अंत में शनि मौजूद होते हैं। वहीं पुष्प के बीज भाग में चंद्रमा उपस्थित होता है। वास्तु की दृष्टि से गुड़हल का फूल बहुत ही शुभ माना जाता है। घर में गुलदस्ते का लगा गुड़हल का फूल परिवार के सदस्यों के बीच प्यार, अपनेपन और बॉन्ंिडग को दर्शाता है। दांपत्य जीवन में जोश को बनाए रखने के लिए भी गुड़हल का फूल बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। यह आप और आपके पार्टनर के बीच पैशन को दर्शाता है।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का निम्नांकित प्रवचन अंश उनके नारद-भक्ति-दर्शन पर दी गई प्रवचन श्रृंखला से है। यह प्रवचन श्रृंखला उन्होंने वर्ष 1990 में भक्तिधाम मनगढ़ (उ.प्र.) में दिया था। इस अंश में श्री कृपालु महाप्रभु जी संसार में छह प्रकार के लोगों के विषय में संक्षिप्त में बता रहे हैं। छठे प्रकार में महापुरुष, संत-महात्माओं के स्वभाव का निरुपण किया गया है। आइये इस संक्षिप्त अंश से हम अपने आत्मिक-लाभ का कुछ आधार प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...महापुरुष लोग अपना अनिष्ट करके हम लोगों का इष्ट करते हैं -
भुर्ज तरु सम सन्त कृपाला।भोजपत्र का पेड़ होता है, उस पेड़ की छाल होती है तो एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक। सब निकाल लो तो पेड़ जीरो बटा सौ, वो छालों का लिपटा हुआ एक पुंज ही पेड़ होता है। देखिये! छ: प्रकार के लोग होते हैं। हाँ, जल्दी समझियेगा ध्यान देकर, अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना। आप लोग सोचते तो हैं और बोलते भी हैं, अपने छोटों के आगे - हैं, हैं, हैं, मैं भी कुछ अकल रखता हूँ और छोटी सी बात जल्दी नहीं समझते, हमको डिटेल करना पड़ता है। अपना अनिष्ट करके भी दूसरे का अनिष्ट करना, ये सबसे निम्न क्लास के लोग होते हैं। हमारा नुकसान हो जाय तो हो जाय लेकिन उसका नुकसान जरुर करना है।अरे! ये कौन सी समझदारी की बात है कि अपना नुकसान कर रहे हो, उसके नुकसान करने के चक्कर मे। लेकिन होते हैं ऐसे -जे बिनु काज दाहिने बाएँ।तो अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना, सबसे खराब, नम्बर एक। इससे अच्छा, अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट करना यानी अपने फायदे के लिये दूसरे का नुकसान कर देना। ये पहले वाले से कुछ अच्छे हैं, नम्बर दो और तीसरा अपने इष्ट के लिये दूसरे का इष्ट करना यानी अपना भी लाभ हो इसका भी हो, फिफ्टी-फिफ्टी, ये उससे भी अच्छा है, नम्बर तीन और नम्बर चार अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट न करना। नम्बर पाँच, दूसरे का ही इष्ट करना और नम्बर छ:, अपना अनिष्ट करके दूसरे का इष्ट करना। अपना नुकसान भले ही हो जाय लेकिन इसका लाभ हो जाय। महाराज! हमको नरक में वास दे दो लेकिन इन जीवों का कल्याण करो, ये महापुरुषों का सिद्धान्त है। आप लोग इसको सोच नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नारद-भक्ति-दर्शन की 11-दिवसीय व्याख्या के 9 वें दिन के प्रवचन से (1990)सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन का यह अंश हमारे लिये इस दिशा में मार्गदर्शन है कि हम अपना मन किधर से हटावें और किसमें लगावें? यह समझना और अच्छे से समझना बहुत आवश्यक है क्योंकि मन का ही सारा खेल है, बंधन और मोक्ष दोनों का कारण मन है। निम्नांकित प्रवचन अंश श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित पद - सुनो मन, एक काम की बात; की व्याख्या से ली गई है, जो उनके द्वारा भक्तिधाम मनगढ़ में सन 1984 में की गई थी। यह बाद में "कामना और उपासना" नाम से पुस्तक रुप में प्रकाशित हुई। आइये इस अंश से आध्यात्मिक लाभ हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...हमारे मन का, मायिक जगत में जितने भी चर अचर जीव हैं, चेतन अचेतन जीव हैं वहां मन का अटैचमेन्ट न हो। मायाबद्ध, ये शब्द न भूलना। नहीं तो कहीं आपके मायिक जगत में तुलसीदास, सूरदास भी हों और आप कहें ये मायिक जगत में हैं इसलिये इनसे भी अटैचमेन्ट न किया जाय। मायिक जगत में जो जड़ चेतन माया के अण्डर में हैं।इस जगत में तो सन्त लोग, मायातीत भी आते हैं और भगवान मायाधीश भी आता है, उनको छोड़कर जो माया के अण्डर में है वो तीन कैटेगरी में आते हैं, उनका तीन क्लास है - सात्त्विक, राजस, तामस। ये तीन प्रकार की जेल है - ए क्लास, बी क्लास, सी क्लास। हमारे देश में भी तीन क्लास की जेल होती है। तो महापुरुष और भगवान को छोड़कर के मायिक जगत के समस्त जड़ चेतन मनुष्य यानी जीव अथवा जड़ पदार्थ जिनमें जीव नहीं है, निर्जीव, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट न हो। न अनुकूल भाव से न प्रतिकूल भाव से, उसका नाम वैराग्य।अब ठीक इसके विपरीत परिभाषा बन गई भगवान की। भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनकी लीला, उनके गुण, उनके धाम, उनके सन्त, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट हो, अनुकूल भाव से, वहां प्रतिकूल (विपरीत या उल्टा) भाव न लगाना। यद्यपि प्रतिकूल भाव से उपासना करके बड़े बड़े राक्षसों ने भगवान का धाम प्राप्त किया है, लेकिन आपको नहीं करना है वह। अनुकूल भाव से आपके मन का अटैचमेन्ट हो जाय। जड़ वस्तु में हो जाय, तो भी काम बन जायेगा। संसार में जैसे रसगुल्ला जड़ वस्तु है न, ऐसे ही आपका ब्रजरेणु (ब्रजधाम की धूल) में हो जाय अटैचमेन्ट, गोलोक के किसी कण में हो जाय आपके मन का अटैचमेन्ट तो भी आप भगवान का लोक प्राप्त करेंगे।लेकिन मन बहुत चंचल है। इसलिये सबमें लगाये रहना चाहिये, भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त। सबमें मन को घुमाते रहो ताकि थके न मन।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
संदर्भ -कामना और उपासना पुस्तक, भाग - 1, प्रवचन - 1सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - प्रगटित ब्रजरस साहित्यजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज रसिक शिरोमणि हैं, जिन्होंने अपने अनगिनत प्रवचनों में न केवल श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति अर्थात माधुर्य भाव और उसमें भी समर्था रति, जिसे गोपी-प्रेम कहा जाता है; का सांगोपांग निरुपण किया बल्कि अपने द्वारा प्रगट किये गये ब्रजरस-साहित्यों में उस रस-साम्राज्य की हर एक झाँकी को साक्षात कर दिया है। इन रस-साहित्यों की सर्वप्रमुख विशेषता है कि इनमें स्वसुख की कामना की किंचित मात्र भी गंध नहीं है अपितु यह साहित्य-समुद्र तो हृदय को श्रीराधाकृष्ण की नाम, रुप, लीला, गुण, धाम आदि माधुरियों में बरबस निमज्जित, बरबस ओतप्रोत कर देता है।भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)इन ग्रन्थों के एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति में ज्ञान, प्रेम तथा रस की ऐसी गहराई है जिसकी कोई थाह नहीं है। जो जैसा और जितना बड़ा पैमाना लेकर जायेगा, वह वैसा और उतना अधिक इसका अनुभव कर सकेगा।आज हम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में कुछ जानेंगे, इस ग्रन्थ की विशेषतायें इस प्रकार हैं :::::::प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थविशेषतायें एवं सम्मतियां(1) आनन्दकन्द श्रीकृष्ण-चन्द्र को भी क्रीतदास बना लेने वाला उन्हीं का परम अन्तरंग प्रेम तत्व है तथा यही प्रत्येक जीव का परम चरम लक्ष्य है। प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ में इसका विशद निरुपण किया गया है तथा इसकी प्राप्ति का साधन भी बतलाया गया है।(2) यह पद-ग्रन्थ है तथा ब्रजभाषा में रचित है। इसमें कुल 1008 पद हैं।(3) ये सभी 1008 पद कुल 21 माधुरियों में विभक्त हैं।(4) ये 21 माधुरियां हैं - सद्गुरु, आरती, सिद्धान्त, दैन्य, धाम, प्रेम, श्रीकृष्ण बाललीला, श्रीराधा बाललीला, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, युगल, लीला, महासखी, निकुन्ज, मिलन, मान, मुरली, होरी, विरह, रसिया तथा प्रकीर्ण माधुरी।(5) इस ग्रन्थ के पदों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। रस-साहित्य का यह अद्वितीय ग्रन्थ है।(6) सगुण-साकार ब्रम्ह की सरस लीलाओं का रस-वैलक्षण्य विशेषरूपेण श्री कृष्णावतार में ही हुआ है। अत: इन सरस पदों का आधार उसी अवतार की लीलायें हैं तथा ये वेद शास्त्र, पुराणादि सम्मत तथा अनेक महापुरुषों की वाणियों के मतानुसार हैं।(7) श्रीराधाकृष्ण की रुप-माधुरी पर आधारित एक पद दृष्टव्य है। यह पद प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ की युगल-माधुरी से है (संख्या 19) ::::हमारे मन, बसे युगल सरकार।गौर वरनि वृषभानुनन्दिनी, नील वरन रिझवार।गरबाहीं दीने दोउ ठाढ़े, मंजु निकुंज मझार।उत पहिरे नीलांबर सोहति, इत पीतांबर धार।उत सोरह सिंगार सजीं उत, नटवर भेष सँवार।उत सिंगार मध्य छवि सोहति, इत छवि मधि श्रृंगार।बड़भागी 'कृपालु' जिन छिन-छिन, जोरी युगल निहार।।(8) सिद्धान्त-पक्ष का भी इस ग्रन्थ में बड़ा सुन्दर तथा विशद निरुपण किया गया है, सिद्धान्त-माधुरी का यह पद दृष्टव्य है (संख्या 77) ::::मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टाँगि बाँधि मुख गर्भहीनज़ समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नन्दकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।(9) प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में हिन्दी-साहित्य जगत के कुछ विद्वानों की सम्मतियां ::::...संत कृपालुदास की प्रस्तुत कृति सूर, मीरा, नन्ददास, रसखान, भारतेन्दु आदि समर्थ कवियों की कला कृतियों की परम्परा का एक नवीन पुष्प है, जिसका हास-विलास लोकोत्तर भावों की सफल अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। उनके पदों की कोमल पदावली संगीतात्मक है, उसमें अनुभूति की तीव्रता है और उसकी कुशल अभिव्यक्ति भी है...(डॉ. रामकुमार वर्मा, साकेत-12 सितम्बर 1955, एम.ए. पी.एच. डी. एवं रीडर, हिन्दी डिपार्टमेन्ट, प्रयाग विश्वविद्यालय)
...प्राय: सामान्य कवि प्रेम और भक्ति पर लिखा ही करते हैं; किन्तु इस प्रकार लिखना कि उससे भक्ति-प्रेमरस संचरित हो, केवल उन्हीं पवित्रात्माओं और भावानुभूत सहृदयों का काम है जिनमें वस्तुत: प्रेम और भक्ति का सत्य स्वरुप प्रकाशित होता है। प्रेम और भक्ति पर लिखा तो प्राय: जाता है और बहुत लिखा जाता है, किन्तु उसमें सत्यता और शुद्धता का यथेष्टांश प्राय: बहुत ही कम रहता है। मुझे हर्ष है कि यह रचना हिन्दी-साहित्य-सेवियों को श्री कृपालुदास जी की कृपा से प्राप्त हुई है...(सुमित्रानन्दन पंत, डायरेक्टर, ऑल इण्डिया रेडियो, हिन्दी प्रोग्राम)(10) इस प्रकार इस रस-साहित्य का यह किंचित मात्र माहात्म्य वर्णन है, क्योंकि रसिकों के उद्गार की माहात्म्यता का वर्णन कोरी शुष्क तथा मायिक बुद्धि से कर पाना तो सर्वथा असम्भव है। आशा है कि सुधि रसिक पाठकगण इस ग्रन्थ का अवलोकन करने को प्रेरित होंगे।ग्रन्थ प्राप्ति के स्थान :::::
जगद्गुरु कृपालु परिषत के मुख्य आश्रम,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रचारक-गणजगद्गुरु कृपालु परिषत की साहित्य वेबसाइट www.jkpliterature.orgयूट्यूब चैनल www.youtube.com/JKP Prem Ras Madira(यह ग्रन्थ बिना अर्थ के तथा अर्थ सहित दोनों रुप में उपलब्ध है। अर्थ सहित यह 2 भागों में प्रकाशित हुई है।)
सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - संकीर्तन पद्धतिजगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु संकीर्तन के माध्यम से नित्य नवायमान दिव्य सुधा रस का पान कराते थे। जब वह स्वयं संकीर्तन कराते थे, वह रस अवर्णनीय है। प्रत्येक साधक यही अनुभव करता था, मानो अंग प्रत्यंग में अमृत का संचार हो रहा हो। प्रेमावतार गुरुदेव के एक एक अंग से, एक एक रोम से ऐसी सुधा धारा प्रवाहित होती थी कि मन करता था सहस्त्रों नेत्रों से, सहस्त्रों कर्णों से इस सौंदर्य, रुप, सुधा माधुरी का पान किया जाय। किन्तु इन प्राकृत इन्द्रियों द्वारा एक बूँद का आस्वादन भी नहीं हो सकता। कोई रसिक ही समझ सकता था कि वे संकीर्तन गाते समय अथवा नयी पंक्तियाँ बनाते समय प्रेमराज्य की किस भूमिका पर होते थे।संकीर्तन शिरोमणि कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन की 3 पद्धतियों (व्यास, नारद तथा हनुमत) को अपनाया है। किन्तु उनका अपना ही विलक्षण अद्वितीय ढंग है। श्री राधाकृष्ण के नित्य नवायमान एवं प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम से ओतप्रोत नित्य नवीन रचनाओं द्वारा ब्रजरस वितरित करना उनका स्वभाव है। प्रेमोन्मत्त अवस्था में आचार्य श्री के श्रीमुख से नित्य नवीन संकीर्तन नि:सृत होते थे। एक ही भाव के संकीर्तन विभिन्न प्रकार से प्रकट कर दिए और उनका नए नए प्रकार से गान किसी भी साधक के मन को श्यामा श्याम में सहज रुप से ही आसक्त कर देता है।ईश्वरीय प्रेम को नारद जी ने प्रतिक्षण वर्धमानं कहा है इसी रस को कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन में स्थापित करके यह सिद्ध कर दिया है कि नाम और नामी समान हैं। इनके अनुसार जिस दिन जीव को यह विश्वास हो जायेगा कि भगवान् और उनका नाम दो नहीं है, एक ही है, तुरंत भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भक्तियुक्त चित्त द्वारा संकीर्तन को ही कलियुग में भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है जो वेद शास्त्र सम्मत है।इसके अनुसार जीव का चरम लक्ष्य श्रीकृष्ण का माधुर्य भाव युक्त निष्काम प्रेम प्राप्त करना है तदर्थ श्रवण, कीर्तन, स्मरण इन 3 साधनों में भी स्मरण भक्ति प्रमुख है। सरलता से भगवत्स्मरण हो सके एतदर्थ नित्य नवीन नवीन रचनाओं की अमूल्य निधि द्वारा इन्होंने दुर्लभ युगल रस का वितरण करके कलिमल ग्रसित अधम जीवों को भी ब्रजरस में निमज्जित किया।समस्त वेदों शास्त्रों में कलिकाल में भवरोग के निदान के लिए एकमात्र हरिनाम संकीर्तन को ही औषधि बताया गया है। कलियुग में श्रीराधाकृष्ण का गुणानुवाद ही समस्त भवरोगियों के लिए रामबाण औषधि है। किन्तु इस घोर कलिकाल में अनेक अज्ञानियों, असंतों द्वारा ईश्वरप्राप्ति के अनेक मनगढ़ंत मार्गों, अनेकानेक साधनाओं का निरुपण सुनकर भोले भाले मनुष्य कोरे कर्मकांडादि में प्रवृत्त होकर भ्रांत हो रहे हैं।ऐसे में अज्ञानान्धकार में डूबे जीवों के वास्तविक मार्गदर्शन के लिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने दिव्य प्रेम रस मदिरा से ओतप्रोत स्वरचित अद्वितीय ब्रजरस संकीर्तनों द्वारा 'रूपध्यान' की सर्वसुगम, सर्वसाध्य, सरलातिसरल पद्धति से पिपासु जीवों को हरि नामामृत का पान कराकर ईश्वरीय प्रेम में सराबोर किया।वे स्वयं तो उस दिव्य प्रेमरस में डूबे ही रहते थे और सभी साधकों को भी संकीर्तन के माध्यम से बरबस प्रेम रस में नखशिख सराबोर करते रहते थे। ब्रजरसिकों ने जिस श्री राधाकृष्ण प्रेम माधुरी का वर्णन अपने साहित्य में किया है उसी दिव्य प्रेम रस को जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने कीर्तनों में पूर्ण रूपेण समाविष्ट कर दिया है जिसका श्रवण, मनन व कीर्तन भावुक हृदयों को श्यामा श्याम की प्रेम रस माधुरी से परिप्लुत कर देता है।उनके अनेक संकीर्तन आनंदकंद सच्चिदानंद श्री राधाकृष्ण के सांगोपांग शास्त्रीय रूपध्यान में अत्यंत सहायक है। प्रत्येक अंग का सौंदर्य चित्रण, उनकी लीला माधुरी, श्रृंगार माधुरी इतनी मनोहारी है कि बहुत कम प्रयास से ही साधक के मानस पटल पर युगल सरकार की सजीव झाँकी अंकित हो जाती है। अत: उनके ये अद्वितीय दिव्य प्रेम रस परिपूर्ण संकीर्तन एवं रूपध्यानकी अनूठी पद्धति साधक समुदाय के लिए परम उपयोगी है।ब्रजरसयुक्त उनके द्वारा रचित दिव्य संकीर्तन साहित्य :
1. प्रेम रस मदिरा (1008 पद अर्थ सहित),2. राधा गोविन्द गीत (11111 दोहे),3. भक्ति शतक (100 दोहे और व्याख्या),4. श्यामा श्याम गीत (ब्रजरसपरक 1008 दोहे)5. ब्रज रस माधुरी (भाग 1 से 4),6. युगल शतक (श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण संबंधित 100 कीर्तन)7. युगल माधुरी,8. युगल रस,9. श्री राधा त्रयोदशी (श्रीराधा रुप आदि पर 13 पद)10. श्री कृष्ण द्वादशी (श्रीकृष्ण रुप आदि पर 12 पद)11. संकीर्तन सरगम।इन दिव्य संकीर्तन ग्रन्थों के विषय में कल के लेख में सविस्तार जानेंगे। ये सभी संकीर्तन पुस्तकें उनके आश्रमों (मनगढ़, वृन्दावन, बरसाना, दिल्ली) तथा उनके प्रचारकों के पास उपलब्ध हैं।सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु साहित्य/ JKP Magazinesसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारत में प्राचीन मंदिरों का अपना एक अद्भुत इतिहास रहा है। आज हम एक ऐसे मंदिर के बारे में बता रहे हैं, जो अपनी एक अनोखी खासियत के कारण प्रसिद्ध है। ये खासियत है- इस मंदिर के गुंबद की कभी परछाई नहीं पड़ती, जी हां... यह सच है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर है-ब्रहदीश्वर मंदिर।तमिलनाडु राज्य के तंजौर में स्थित ब्रहदीश्वर मंदिर तमिल वास्तुकला में चोलों द्वारा की गई अद्भुत प्रगति का एक प्रमुख नमूना है। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, ब्रहदीश्वर मंदिर हिंदू देवता शिव को समर्पित भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ, भारतीय शिल्प कौशल के आधारस्तम्भों में से एक है। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो कि ग्रेनाइट का बना हुआ है। बृहदेश्वर मंदिर अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और केन्द्रीय गुम्बद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। मान्यता है कि इस मंदिर में सबकी मनोकामना होती है।बृहदीस्वरा मंदिर को पेरुवुडइयर कोविल, राजराजेस्वरम भी कहा जाता है जिसे 11वीं सदी में चोल साम्राजय के राजा चोल ने बनवाया था। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर भारत के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बने हैं। तमिल भाषा में इसे बृहदीश्वर के नाम से संबोधित किया जाता है। यह मंदिर चोल शासकों की महान कला का केन्द्र रहा है। भगवान शिव को समर्पित बृहदीश्वर मंदिर शैव धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल रहा है।हर महीने जब भी सताभिषम का सितारा बुलंदी पर हो, तो मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि राजाराज के जन्म के समय यही सितारा अपनी बुलंदी पर था। एक दूसरा उत्सव कार्तिक के महीने में मनाया जाता है जिसका नाम है कृत्तिका। एक नौ दिवसीय उत्सव वैशाख (मई) महीने में मनाया जाता है और इस दौरान राजा राजेश्वर के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया जाता था।बृहदेश्वर मंदिर वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का बेजोड़ नमूना है। इसके शिलालेखों में अंकित संस्कृत व तमिल लेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर की उत्कृष्टता के कारण ही इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का स्थान मिला है।मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम यानी द्वार के भीतर एक चौकोर मंडप है तथा चबूतरे पर नंदी जी की विशाल मूर्ति स्थापित है। नंदी की यह प्रतिमा भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नंदी की दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।12 बजे के बाद नहीं नजर आती परछाईयह मंदिर ग्रेनाइट की विशाल चट्टानों को काटकर वास्तु शास्त्र के हिसाब से बनाया गया है। इसमें एक खासियत यह है कि दोपहर 12 बजे के बाद इस मंदिर के गुंबद की परछाई जमीन पर नहीं पड़ती। आज तक वैज्ञानिक भी इस मंदिर के रहस्य को सुलझा नहीं सके हैं, कि आखिर क्यों इस मंदिर के गुम्बद की छाया 12 बजे के बाद जमीन पर नहीं पड़ती है । यानी दोपहर के वक्त मंदिर के हर हिस्से की परछाई तो जमीन पर दिखती है , लेकिन हैरानी की बात यह है कि मंदिर के गुंबद की परछाई धरती पर नहीं पड़ती है और यह बिल्कुल ही नहीं दिखती ।बृहदेश्वर मंदिर पेरूवुदईयार कोविल, तंजई पेरिया कोविल, राजाराजेश्वरम् तथा राजाराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।--
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक की साधना में बाधा पहुँचाने वाले अनेक बाधक तत्वों के विषय में अनेक बार समझाया है, यथा परदोष दर्शन, लोकरंजन, परनिन्दा आदि। इसी में एक बाधक तत्व है अनेकानेक शास्त्रों को स्वयं की बुद्धि के बल पर पढऩे और समझने का प्रयास करना। यद्यपि यह सुनने-पढऩे में थोड़ा अटपटा मालूम होता है तथापि सिद्धान्त अनुसार समझने पर इसे आसानी से समझा जा सकता है। अत: आइये श्री कृपालु महाप्रभु जी के ही शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)...अनेकानेक शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों को पढऩा कुसंग है। चौंको मत, बात समझो। कारण यह है कि वे महापुरुष के प्रणीत ग्रन्थ हैं, अतएव उन्हें हम भगवत्प्रणीत ग्रन्थ भी कह सकते हैं। उनका वास्तविक तत्त्व अनुभवी महापुरुष ही जानते हैं। तुम उन्हें पढ़कर अनेकानेक प्रश्न पैदा कर बैठोगे, जिनका कि समाधान अनुभव के बिना संभव नहीं।यदि किसी मात्रा में संभव भी है तो वह एकमात्र महापुरुष के द्वारा ही। अतएव हमारे यहाँ के प्रत्येक शास्त्रादि स्वयं प्रमाण देते हैं कि महापुरुष के द्वारा ही शास्त्रों का तत्वज्ञान हो सकता है -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।(गीता 4-34)यदि तुम शास्त्रों, वेदों को पढ़कर स्वयं ही तत्वनिर्णय करना चाहो तो सर्वप्रथम इस विषय में महापुरुष का निर्णय पढ़ लो। तुलसीदास के शब्दों में -श्रुति पुराण बहु कहेउ उपाई,छूटै न अधिक अधिक अरुझाई..अर्थात् यदि महापुरुष के बिना ही, अपने आप शास्त्रीय भगवद्विषयों का तत्वनिर्णय करने चलोगे तो सुलझने के बजाय उलझते जाओगे। सारांश यह है कि एक प्रश्न के समाधान के लिए तुम शास्त्रों में अपनी बुद्धि को लेकर उत्तर ढूंढऩे जाओगे तो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य न समझकर सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न करके लौटोगे, क्योंकि पुन: तुलसीदास ही के शब्दों में -मुनि बहु, मत बहु, पंथ पुराननि, जहां तहां झगरो सो..(विनय पत्रिका)अर्थात् अनेक ऋषि मुनि हो चुके हैं एवं उनके द्वारा प्रणीत अनेक मत भी बन चुके हैं। पुराणादिक में इस विषय में झगडे ही झगड़े हैं। फिर तुम्हारी बुद्धि भी मायिक है अतएव तुम मायिक अर्थ ही निकालोगे।(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ - साधन-साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रसजगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रस के परमाचार्य हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थों तथा प्रवचनों में भक्ति तथा प्रेम तत्व का विशद विवेचन किया है। प्रेम की साकार स्वरुपा महारानी श्री राधारानी तथा उनके नाम, रुप, गुण, धाम, लीला आदि का भी अति मधुर तथा सरस वर्णन उन्होंने अपने ब्रजरसपरक ग्रन्थ-साहित्यों में किया है। निम्नांकित पद उनके द्वारा रचित प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ से है, जिसमें उन्होंने श्रीराधारानी जी के उन गुणों का वर्णन किया है, जिन पर विचार कर-करके उनका शरणागत जीव सदैव निर्भय रहता है। आइये हम भी उन गुणों पर गम्भीर चिन्तन कर उन्हीं श्रीराधारानी का महाश्रय ग्रहण करें :::::::::(यह पद नीचे इस प्रकार है..)श्री राधे हमारी सरकार, फिकिर मोहिं काहे की।
हित अधम उधारन देह धरें,बिनु कारन दीनन नेह करें,जब ऐसी दया दरबार, फिकिर मोहिं काहे की।
टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें,जब ऐसी सरल सुकुमार, फिकिर मोहिं काहे की।
भृकुटी नित तकत ब्रम्ह जाकी,ताकी शरणाई डर काकी,जब ऐसी हमारी रखवार, फिकिर मोहिं काहे की।
जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै,जब ऐसी कृपालु रिझवार, फिकिर मोहिं काहे की।।उपरोक्त पद का भावार्थ :::: जब किशोरी जी (श्रीराधेरानी) हमारी स्वामिनी हैं तब मुझे किस बात की चिंता है? जो पतितों के उद्धार के लिये ही अवतार लेती हैं एवं अकारण ही दीनों से प्रेम करती हैं। जब हमारी स्वामिनी के दरबार में इतनी अपार दया है, तब मुझे किस बात की चिंता है? हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि बुधि भूलकर दौड़ आती हैं। जब हमारी किशोरी जी इतनी सुकुमार और सरल स्वभाव की हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? ब्रम्ह श्रीकृष्ण भी जिनकी भौहें देखते रहते हैं अर्थात प्यारे श्यामसुन्दर भी जिनके संकेत से चलते हैं, उनकी (श्रीराधेरानी) शरण में जाकर फिर किसका भय है? जब ऐसी स्वामिनी जी हमारी रक्षा करने वाली हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी!' ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं। श्री कृपालु जी कहते हैं कि जब हमारी स्वामिनी जी शरणागत से इतना प्यार करती हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है?ग्रन्थ का नाम - प्रेम रस मदिरा, प्रकीर्ण माधुरी, पद संख्या 21पद एवं ग्रन्थ के रचयिता : भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा जिज्ञासुओं के पूछे गये प्रश्नों का समाधान ::::::साधक का प्रश्न: हमारा अंत:करण कितना शुद्ध है, ये हम कैसे जानें? कोई पहचान है क्या इसकी?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::::::...इसकी एक पहचान है। जिसका हृदय जितना अधिक शुद्ध होगा, उसका हृदय, उसका मन उतनी ही जल्दी भगवान और महापुरुष की ओर खिंच जायेगा।भगवान और महापुरुष चुम्बक के समान हैं। चुम्बक पत्थर होता है, लोहे को खींच लेता है। तो एक चुम्बक पत्थर बीच में रख दो और चारों ओर सुइयां खड़ी कर दो लोहे की। तो जिस सुई में जितना अधिक शुद्धत्व होगा, वो उतनी जल्दी खिंचेगी और जिसमें जितनी गन्दगी होगी, मिलावट होगी, उतनी देर में खिंचेगी।जितना अधिक पाप का हृदय होगा उतनी देर में वो खिंचेगा भगवान और महापुरुष के सामने। तो अंत:करण की शुद्धि का यही प्रमाण है कि शुद्ध वस्तु को पाकर खिंच जाय। जितनी जल्दी खिंच जाय, जितने परसेंट सरेंडर हो जाय, वो ही उसका प्रमाण है कि हमारा हृदय कितना शुद्ध है, कितना पापात्मा है, गन्दा है।सन्दर्भ -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाविश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संसार में सुख होने के विश्वास की हमारी भ्रामक भूल के प्रति ध्यान दिलाते हुये सारगर्भित महत्वपूर्ण प्रवचन, जिससे हम यह जान सकेंगे कि भगवान की राह पर हमारा उत्थान क्यों नहीं होता, कैसे उस रुकावट को हटाकर हम शीघ्रता से आगे बढ़ सकते हैं ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से हैं...)...एक सच्चा संत कभी किसी को सांसारिक पदार्थों की ही प्राप्ति को सम्मति नहीं देता क्योंकि एक मायाबद्ध जीव के लिए अज्ञान हो सकता है लेकिन एक सन्त (जो कि भगवत्प्राप्ति कर चुका हो) उसके लिए सब कुछ शीशे की तरह साफ़ होता है, वो जानता है कि सार क्या है?हम लोगों ने तो अनादिकाल से संसार में, संसारी वस्तुओं में ही सुख है, ये माना हुआ है और यहीं पर हमारी गाड़ी अटकी पड़ी है। अनादिकाल से अब तक हमने ये ही किया है, संसारी भोग पदार्थों में ही सुख है, ये बात संस्कार रूप से हमारे अंदर बैठी हुई है और बड़े होते- होते भी हम ये ही देखते हैं जिससे हमारी ये धारणा और पुष्ट होती जाती है, जबकि हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि संसारी सुख (जो कि जड़ है) प्रतिक्षण घटता जाता है, उसे सुख नहीं कहा जा सकता, उसे तो मृग-मरीचिका ही कहा जा सकता है।जिस तरह एक व्यक्ति एक रूपये के नोट को नहीं देना चाहता लेकिन यदि उसे उस एक रूपये के नोट के बदले हजार रूपये का नोट दिया जाय तो वो उस एक रूपये के नोट को छोड़ देता है, ऐसे ही यदि हमें इस संसार में सुखबुद्धि से ऊपर उठना है तो हमें भगवान की भक्ति का आश्रय लेना होगा, भक्ति करते करते जब अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा और उसमें भगवत्कृपा से भगवान का प्रेम प्रकट होगा तब हमें उसी अनुपात में दिव्य, प्रतिक्षण वर्धमान, अनंत भगवद आनंद का अनुभव होता चला जाएगा और त्यों ही त्यों उसी अनुपात में हम इन संसारी गर्हित, तुच्छ आनंद को छोड़ते चले जायेंगे, हमें इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ेगी, संसार अपने आप छूटता चला जाएगा, हम उत्तरोत्तर ऊपर उठते चले जायेंगे, हर साधक को साधना के दौरान इसका अनुभव होता है।जो लोग ये बात समझ जाते हैं वे मानव जीवन के अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और वे ही लोग तुलसीदास, मीरा, नानक, सूरदास, कबीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि बन जाते हैं, हमने ये बात नहीं समझी इसलिए हम लोग आज भी संसारी वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं।हमारा ये अज्ञान यहां तक है कि हम लोग मंदिर भी जाते हैं तो वहां भी भगवान के सामने भी संसार की ही कामना किया करते हैं कि भगवान हमें पुत्र दो, रूपये दो, नौकरी दो आदि आदि। हमने अभी समझा ही नहीं है कि सुख कहा हैं? संसारी वस्तुओं की कामना करना ऐसा ही है जैसे शुगर का मरीज अपनी बीमारी भी ठीक करना चाहे परन्तु और उत्तरोत्तर मीठा खाता चला जाय, ऐसे तो बीमारी और बढ़ती चली जायेगी। अनादि काल से हमने अब तक ये ही किया है, संत लोग ये बात समझते हैं इसलिए वो संसारी चीजों को ही लक्ष्य बनाने की सम्मति कभी नहीं देते, बल्कि वे तो निष्काम भक्ति के लिए जीव को प्रेरित करते हैं।अगर कोई संत कहलाने वाला व्यक्ति अध्यात्म की आड़ लेकर संसारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए जनसमुदाय को उत्साहित करता है तो समझ लेना चाहिए कि वो व्यक्ति संत नहीं है, संत के भेष में पाखंडी है, धूर्त है। आजकल हमारे देश में ऐसे बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। ये धूर्त भोली भाली जनता को संसार देने का वादा करते हैं। भारत भूमि में आज तक हुए सभी वास्तविक संतजनों ने निष्काम भक्ति का ही प्रचार किया है और जीवों की संसार में सुखबुद्धि को हतोत्साहित करने का काम किया है। क्योंकि जब तक जीव की संसार में सुखबुद्धि बनी रहेगी तब तक जीव भगवान की तरफ नहीं चलेगा, अगर चलेगा तो बार-बार गिरेगा। इसलिए लोगों को संसार के दोषों का बार-बार चिंतन करते रहना चाहिए।
(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशों के प्रति साधक के कर्तव्य तथा उसकी लापरवाही के सम्बन्ध के संबंध में कुछ मार्गदर्शन ::::::::(उनके द्वारा नि:सृत वाणी यहां से है....)....हमको जो सुख मिलता है, वो आत्मा का सुख नहीं है मन का है और लिमिटेड है और वो नश्वर है। तमाम गड़बडिय़ां हैं उसमें। जो भी सुख हमको मिलता है संसार में वो सदा नहीं रहता। ये तो अनुभव करता है आदमी। भूख लगी है रसगुल्ला खाया सुख मिला। उसमें भी पहले रसगुल्ले में ज्यादा सुख मिला, दूसरे में उससे कम, तीसरे में उससे कम, चौथे में खतम। जिस वस्तु से सुख मिलता है उससे भी हमेशा एक सा नहीं मिलता। धीरे-धीरे घटता जाता है और फिर उसी से दु:ख मिलने लगता है। ये भी होता है। स्वार्थ हानि हुई कि दु:ख। उसी बीवी से प्यार और उसी बीवी की शकल देखने से नफरत हैं। उसी बेटे से प्यार है और उसी से झगड़ा हो गया या कोई अपमान कर दिया पिता का तो उससे बातचीत करना बन्द। तो संसार का सुख तो अगर थोड़ा है और सदा रहे तो भी कोई बात है। वो तो आया गया, धूप-छाँव की तरह।तो ये सब बातें हमेशा बुद्धि में बैठी रहें। कभी बैठती हैं कभी गायब हो जाती हैं, फिर संसार में बह जाता है वो लापरवाही से।तत्त्वविस्मरणात् भेकीवत्।
भूल गया। तो फिर क्या होगा?बहुत बचपन की बात है। एक व्यक्ति डायरी रखता था हमेशा। उसको भूलने की आदत थी, तो उसमें लिख ले। तो हमने कहा - एक बात बताओ, वो डायरी में लिख लेता है और अगर डायरी पढऩा भूल जाय तो वो लिखा हुआ क्या करेगा? डायरी में कोई लिख ले क्यों लिख ले? भूल जायेगा। बढिय़ा तरकीब है। अच्छा जी! ये तरकीब अगर बढिय़ा है लेकिन वो पढऩा भूल जाय तो? अरे! जब भूल जाय, तो सभी कुछ भूल सकता है। तो फिर तुम्हारा लिखना ये क्या काम करेगा?तो हम तत्व को भूल जाते हैं। जिस समय गुरु का उपदेश होता रहता है तो समझ में सब बात आती है पढ़े लिखे आदमी को। वो मानता है, एडमिट करता है, सब सही है और फिर संसार के एटमॉसफियर में गया और भूल गया। तो उसमें सावधान रहना चाहिये और बार-बार मन को पकड़ करके बुद्धि के द्वारा हरि गुरु के चरणों में लगाते रहना चाहिये। तो अभ्यास करने से पक्का हो जायेगा।पुस्तक सन्दर्भ - प्रश्नोत्तरी, भाग - 3; जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज तथा साधकों मध्य प्रश्नोत्तर पर आधारित।सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज -प्रवचन शैलीभारतवर्ष के 500 शीर्षस्थ विद्वानों की तत्कालीन सभा काशी विद्वत परिषत ने जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को जब पंचम मौलिक जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की, तब उन्होंने अपने पद्यप्रसूनोपहार में उनके लिये यह श्लोक कहा था;यद्व्याख्याननवीनमेघपटलध्वानेन चित्ताटवी नास्तिक्योपहतात्मनामपि मुदा सूक्ते विवेकाङ्कुरम।स्फूर्जत्तर्कविचारमंत्रनिवहव्यक्षिप्तदुर्भावना-भूतावेशविषश्चिरं विजयतामेकोयमीड्यो नृणाम।।(पद्यप्रसूनोपहार, काशी विद्वत परिषत, 1957)अर्थात... श्री कृपालु जी का प्रवचन नूतन जलधार की गर्जना के समान है। यह नास्तिकता से पीडि़त मन की व्यथा को हरने वाला है। प्रवचन को सुनकर चित्त रूपी वनस्थली दिव्य भगवदीय ज्ञान के अंकुर को जन्म देती है, कुतर्कयुक्त विचारों से विक्षप्त तथा दुर्भावना से पीडि़त मनुष्यों की रक्षा करने में श्री कृपालु जी महाराज अमृत औषधि के समान हैं। उनकी सदा ही जय हो...श्री राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दिव्यातिदिव्य प्रवचनों का रसास्वादन देश विदेश के लाखों धर्म-पिपासु जन प्रत्येक दिन कर रहे हैं। प्राचीन ब्रजरस महारसिकों ने जो श्री राधाकृष्ण की दिव्य लीलाओं की रसवृष्टि ब्रज में की थी, उसी परंपरा में आचार्यश्री का प्रवचन संकीर्तन आदि का स्वरुप है।जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के महान दार्शनिक, महान विद्वान एवं महान संत थे। आपके प्रवचनों को सुनते समय ऐसा अनुभूत होता है कि आपके श्रीमुख से नि:सृत एक एक शब्द मानों स्वयं साक्षात् रुप में चारों वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति, गीतादि प्रकट होकर बोल रहे हों। आपकी भाषा शैली पूर्णत: शुद्ध एवं आकर्षक है। आपको अनेक भाषाओं जैसे संस्कृत, हिंदी, अरबी, फ़ारसी एवं उर्दू का पूर्ण ज्ञान है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों और धर्मग्रंथों पर भी आपका पूर्ण अधिकार था। उन्होंने शास्त्र-वेदों के अथाह ज्ञान का निचोड़ निकालकर हमारे समक्ष रख दिया है, जिन्हें कई जन्मों में स्वयं पढ़कर नहीं समझा जा सकता है।जनमानस उनके प्रवचन सुनकर यह अनुभव कर लेता है कि जीवन को जीने के लिये न केवल भौतिकवाद बल्कि आध्यात्मवाद का भी समन्वय अपने जीवन में लाना होगा।यह बात उल्लेखनीय है कि,(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रम्हसूत्र, गीता आदि के प्रमाणों के नंबर इतनी तेज गति से बोलते थे कि सभी श्रोता जिसने भी उनके प्रवचन सुने, चाहे टीवी के माध्यम से, चाहे व्यक्तिगत रुप से वह हृदय से स्वीकार करता है कि ऐसी अलौकिक प्रतिभा संपन्न विद्वान आज तक नहीं हुआ। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ होने में तो कोई संदेह है ही नहीं, ये तो कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम् ही हैं।(2) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बताई है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडिटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रूपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान् के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान् के किसी एक रुप पर केंद्रित करने का नाम ही ध्यान या भक्ति है क्योंकि भगवान् के ही एक रुप पर मन को न टिकाने से मन यत्र तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान् को तो देखा नहीं, तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है आदि बातों को - भक्तिरसामृतसिन्धु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रम्हसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ प्रेम रस सिद्धांत में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।श्रोताओं के मुख से -जब श्रोता उनको टीवी पर सुनते हैं और अचानक समय पूरा होने के कारण प्रवचन या कीर्तन बंद हो जाता है तो वे ऐसा अनुभव करते हैं मानो किसी प्रीतिभोज में वे अपनी सबसे प्रिय वस्तु का सेवन कर रहे हों और कोई अचानक आकर उनसे छीन ले। जिस दिन प्रवचन नहीं सुन पाते तो ऐसा लगता है जैसे आज का दिन व्यर्थ चला गया हो। जब कभी कुछ सौभाग्यशाली श्रोता श्री महाराज जी के दर्शन के लिए आते तो कहते - 'महाराज जी ! आपने हमारे कान, आँख, सब खऱाब कर दिए। आपको सुनने के पश्चात् किसी और का सुनना अच्छा ही नहीं लगता बल्कि आपके प्रवचन सुन सुनकर इतना तत्वज्ञान आपकी कृपा से हो गया है कि और कोई बाबा बोलता है तो लगता है कि गलत बोल रहा है, नामापराध न हो जाय इस भय से और कुछ सुनना ही बंद कर दिया..-अद्वितीय प्रवचन श्रृंखलाएं :::::(1) मैं कौन? मेरा कौन? - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस विषय पर 103 प्रवचन दिये हैं, जिसमें उन्होंने मैं अर्थात जीवात्मा तथा मेरा अर्थात जीवात्मा के सर्वस्व भगवान के मध्य सम्बन्ध सहित आध्यात्म जगत के सम्पूर्ण तत्वों का वेदादिक सम्मत विवेचन इस 103-प्रवचन की अद्वितीय श्रृंखला में किया है।(2) ब्रम्ह, जीव, माया तत्वज्ञान - तीन सनातन तथा अनादि तत्वों ब्रम्ह, जीव तथा माया; इन पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने 40-प्रवचन दिये हैं।इनके अलावा भी अनगिनत आध्यात्मिक विषयो पर प्रवचन श्रृंखलाएँ, स्वरचित पदों की तथा स्वरचित दोहों की व्याख्याओं के अनगिनत प्रवचन उन्होंने अपने अवतारकाल में जीवों के कल्याणार्थ दिये हैं। जिनमें जनमानस को यह बड़ी सरलता से ज्ञात हो जाता है कि वह आजपर्यन्त क्यों दु:खी है, संसार क्या है, कैसे वह सुख की प्राप्ति करेगा, भगवान कौन हैं और भगवान से उसका संबंध क्या है, कैसा है और कैसे भगवान को वह पावे? यदि कोई निरन्तर गंभीर तथा चिन्तनशील होकर उन्हें श्रवण करे तो निश्चय ही अज्ञान का समूल नाश होकर हृदय ज्ञान तथा भगवत्प्रेम से सराबोर हो जायेगा।भारत में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के टीवी पर आने वाले प्रवचनों का समय -
न्यूज 18 इंडिया -प्रतिदिन सुबह 6.00 से 6.25 बजेन्यूज 24 -सोम से शुक्र, सुबह 6.25 से 6.50 बजेभारत समाचार - प्रतिदिन सुबह 6.50 से 7.15 बजेसाधना चैनल -प्रतिदिन सुबह 8.05 से 8.30 बजेआस्था चैनल - प्रतिदिन शाम 6.20 से 6.45 बजेसंस्कार चैनल -सोम से शनि, रात्रि 8.30 से 8.55 बजेनोट - कार्यक्रम परिवर्तनशील हैं, वर्तमान दिनांक तक के अनुसार समय-सारणी का यह विवरण है।
(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी श्रृंखला :::::::::- निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य जगदगुरुत्तम 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराजजगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् हैं, जिनकी 30 अक्टूबर (शरद पूर्णिमा) को 98 वीं जयंती है। उनके जन्मदिवस को विश्व में जगद्गुरुत्तम्-जयंती के रुप में मनाया जाता है। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरुप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत परिषत के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें विद्वत परिषत आमंत्रित किया। जहां काशी विद्वत परिषत ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रुप प्रस्तुत किया।(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें कंप्यूटर जगद्गुरु की संज्ञा दी है।(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरुप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुत: शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंत:करण शुद्धि के लिए कहा था -शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।(प्रबोध सुधाकर)अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि नहीं हो सकती।उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि:।अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम।।अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए। हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्णभक्त ही थे।(6) जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा - गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।ऐसे जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरुप को देखकर काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोसणा करते हुए कहा था -...इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं...साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -...शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं। इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..इसी प्रकार जगद्गुरुत्तम की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी पाकर जगद्गुरु की उपाधि ने सम्मान पाया है।आपकी इस विश्व को दिए गए समस्त उपहार अनमोल और अद्वितीय हैं, और अनंत युगों तक रहेंगे. वे जीव धन्यातिधन्य हैं जिन्होंने आपको गुरु रुप में पाया और प्यार किया है।(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनों में से साधनोपयोगी 5 सार बातें :::::::(1) जिस साधक की जितनी ऊंची स्प्रिचुअल कक्षा होगी, उसी लिमिट में श्यामसुन्दर उसको अच्छे-बुरे दिखाई देंगे।(2) अगर मूर्ति में पूर्ण भगवान होने की भावना नहीं है और मूर्ति पूजा की, तो उसको भगवतपूजा न कह कर पत्थर पूजा कहेंगे।(3) जीव के शरीर और उसकी चित्तवृत्ति का कोई भरोसा नही है। अत: किसी का अहंकार श्रेयस्कर नहीं है।(4) हमारा संबंध केवल श्रीकृष्ण से ह। उस संबंध को पक्का करेगी भक्ति। पुरस्कार मिलेगा प्रेम। उसका अंतिम लाभ मिलेगा सेवा।(5) भगवान का कोई भी कार्य अमंगलकारी नहीं है फिर माया हमारा अमंगल कैसे करेगी? माया का झापड़ खाकर ही हमें संसार से वैराग्य होता है, हम ईश्वर की ओर बढ़ते हैं।(संदर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिठ्ठस्रठ्ठके आधीन।)
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधानसाधक का प्रश्न -हरि गुरु के प्रति अब तक पूर्ण शरणागति क्यों नहीं हुई ?(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर)कभी कभी गुरु के खिलाफ सोचने लगते है। कभी शास्त्र वेद पर अश्रद्धा होने लगती है। कभी संसार मीठा लगने लगता है। अगर संसार मीठा लग रहा है तो वैराग्य नहीं और वैराग्य नहीं तो श्रद्धा नहीं। श्रद्धा का आधार है वैराग्य!जब सेंट परसेंट और निरंतर; दो शब्दों पर ध्यान दीजिए। सेंट परसेंट और निरंतर ये डिसीजन बना रहे। संसार में सुख नहीं है, उसके लिए भागें ना। मम्मी का प्यार, पापा का प्यार, बेटी का प्यार, बेटा का प्यार, खाने का, रसना का रोग, ये खायें, ये खायें, ये पीयें, देखने का रोग, सूंघने का रोग, स्पर्श करने का रोग अगर है तो वैराग्य कम्प्लीट नहीं, तो श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं तो, श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं है।इस प्रकार चेक करो और जहां मिस्टेक समझ में आए उसको काटो। और अगर ऐसा सोचा कि जैसे चल रहा है चलने दो तो लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी? एक दिन ये मानव देह छिन जाएगा, बिना बताए, धोखा देखे। सबसे बड़ा धोखेबाज काल है।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(सन्दर्भ -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहा तथा उसकी व्याख्या, उनके द्वारा यह प्रवचन वीरगंज, नेपाल में 8 दिसम्बर सन 2006 को दिया गया था। आइये हम सभी अपने आत्मकल्याण हेतु इस प्रवचन से लाभ लेवें :::::::::(स्वरचित दोहा व्याख्या)दैन्य भाव रूपध्यान गोविन्द राधे।श्यामा श्याम कीर्तन उनसे मिला दे।।3 बात समझना है, 3 काम करना है। 3 काम करना है, नंबर एक दीन भाव, नंबर दो रूपध्यान, नंबर तीन श्यामा श्याम का नाम, रूप, गुण, लीलादि संकीर्तन। तो एक तो आप लोग करते हैं, इन 3 में से एक करते हैं आप लोग, श्यामा श्याम नाम, रूप, गुण, लीलादि कीर्तन। किन्तु 2 नहीं करते। उन दोनों के बिना केवल कीर्तन करना रसना से ऐसा ही है जैसे प्राणहीन शरीर, मुर्दा।वेद से लेकर रामायण तक हर ग्रंथ, हर संत, हर पंथ एक बात कहता है कि दीन भाव रखो। भगवान का स्मरण मन से, फिर इंद्रियों से करो। रसना से भगवन्नाम लो, हाथ से पूजन करो, कुछ करो, लेकिन इसके पहले दीन भाव और रूपध्यान, ये 2 सबसे प्रमुख हैं। गौरांग महाप्रभु ने कहा कि दीनतायुक्त कीर्तन होना चाहिए। तो शिष्यों ने पूछा कि किस तरह की दीनता? तो उन्होंने बताया -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक)तृण से बढ़कर दीन भाव, तृण घास, घास के ऊपर पैर रख दो तो घास झुक जाएगी। अब तुम पैर रख के आगे चले गए वो बेचारी झुक गई और फिर धीरे धीरे, धीरे धीरे नॉर्मल हुई, पैर रखने पर। वृक्ष कितना सहिष्णु है, छोटा होता है तो कोई जानवर आया, खा गया। बड़ा हुआ, फल लगा, पक्षी आ-आकर खा गए, मनुष्य तोड़-तोड़ के खा गए, लकड़ी काट-काट के अपनी बिल्डिंग बना रहे हैं लोग, वृक्ष सहन कर रहा है। उसे खुशी हो रही है कि हमसे किसी को सुख मिल रहा है।तो दीनता जितनी अधिक होगी उतने ही हम भगवान् के समीप पहुँचेंगे, ये स्वर्ण अक्षरों में लिख लो। आप लोग सोचते हैं कि आँसू नहीं आते, कीर्तन करते हैं, आँसू के बिना कीर्तन, कीर्तन नहीं है, तोता रटन्त है, वो तो। जहाँ मन रहेगा उसी का फल भगवान् देते हैं। इंद्रियों का वर्क तो भगवान् नोट ही नहीं करते। लाखों करोड़ों मर्डर किया, अर्जुन ने, हनुमान जी ने, भगवान् ने नोट ही नहीं किया क्योंकि उनका मन भगवान् में था। शरीर का कर्म तो निरर्थक होता है, उसे एक्टिंग कहते हैं, एक्टिंग। जैसे मन्दिर में जा के आप लोग बोलते हैं न -
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।(स्कन्द पुराण)ये क्या है, भगवान् को बेवकूफ बना रहे हो। तुम कहते हो तुम्हीं मां हो, तुम्हीं पिता हो, तुम्हीं मेरी धन-दौलत हो और तुम्हारे मन का अटैचमेंट संसारी मां, पिता और प्रॉपर्टी, धन-दौलत में है और भगवान् से कहते हो तुम ही मेरे हो। एव माने ही। तो दीनता-नम्रता ये सबसे पहला काम। पहला अध्याय भक्ति के विषय में।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
(सन्दर्भ - कृपालु भक्ति धारा (भाग - 3) पुस्तक, पृष्ठ 175, 176सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलासमस्त देहों में मनुष्य का देह अत्यन्त दुर्लभ है। यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। इसका महत्व सभी शास्त्रों ने गाया है क्योंकि यही देह भगवान को पाने का साधन है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपने प्रवचनों, ग्रन्थों, रचनाओं में मानव-देह की महत्वता, क्षणभंगुरता आदि पर अनगिनत बार प्रकाश डाला है तथा मानव-समुदाय को बार-बार चेताया भी है। आज उन्हीं के द्वारा सुरचित प्रेम-रस-मदिरा नामक विलक्षण पद-ग्रन्थ में वर्णित एक पद के माध्यम से मानव-देह के महत्व पर विचार करने का प्रयास करेंगे -प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ के,- सिद्धान्त माधुरी खण्ड से
मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टांगी बाँधि मुख गर्भहिं, समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नंदकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।भावार्थ - यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता। दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं। मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं। जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूंगा। जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है। श्री कृपालु जी कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो।( प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी - पद संख्या 77)(पद एवं ग्रन्थ रचनाकार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
(सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, पंचम मूल जगदगुरुत्तम हैं। उन्होंने इस युग में आनंदप्राप्ति तथा दु:खनिवृत्ति के लिये एकमात्र भक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की है। इस हेतु उन्होंने अपने अवतार-काल में अनगिनत प्रवचन दिये तथा अनेकानेक भक्ति सम्बन्धी साहित्यों को प्रगट भी किया। उनके द्वारा प्रगटित भक्तिपरक ग्रन्थों में से एक है, भक्ति-शतक! इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने भक्ति-तत्व की व्याख्या में 100 दोहों की रचना की है तथा समस्त वेदादिक ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनकी व्याख्या करके जनमानस को भक्ति के प्रत्येक रहस्य से अवगत कराया है। आज इसी अद्वितीय ग्रन्थ में से एक दोहा तथा उसकी व्याख्या से हम कुछ आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे :::::::
भक्ति-शतक ग्रन्थ से..- दोहा संख्या 57 तथा उसकी व्याख्या(दोहा)हरि हरिजन के कार्य को, कारण कछु न लखाय।पर उपकार स्वभाव वश, करत कार्य जग आय।।दोहे का अर्थ - भगवान् एवं महापुरुषों के किसी भी कार्य का एक ही कारण है, वह यह कि उनका स्वभाव ही केवल परोपकार का होता है।व्याख्या - वेद कहता है,पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।(ईशावास्योपनिषद)अर्थात् भगवान् अनंत मात्रा का पूर्ण होता है। अत: पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। ऐसे भगवान् के किसी भी कार्य में स्वार्थ होने का ही प्रश्न नहीं उठता। इसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरुषों के विषय में वेदव्यास कहते हैं। यथा,गुणातीत: स्थितप्रज्ञो विष्णुभक्तश्च कथ्यते।एतस्य कृतकृत्यत्वाच्छास्त्रमस्मान्निवर्तते।।(वेदव्यास)अर्थात् भगवत्प्राप्ति पर जीव कृतकृत्य हो जाता है। उसे पुन: कुछ भी करना अवशिष्ट नहीं रहता। यदि रहता भी है तो स्वार्थरहित श्रीकृष्ण सेवा कार्य ही करना होता है। और यह अवस्था अनंतकाल तक बनी रहती है। यथा वेद,सदा पश्यन्ति सूरय: तद्विष्णो परमं पदम।(सुबालोपनिषद, छठा मन्त्र एवं मुक्तोपनिषद्)
सोश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रम्हणा विपश्चितेति।(तैत्तिरियोपनिषद् 2-1)अस्तु उपर्युक्त वैदिक प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि हरि एवं हरिजनों का कार्य केवल परोपकार के कारण ही होता है। यदि परोपकार उनका स्वभाव न होता, तो विश्व का एक भी मायाधीन जीव अपना लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति) न प्राप्त कर पाता।(ग्रन्थ रचनाकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार दिनांक 23 सितम्बर को प्रात: 08:20 मिनट पर राहु मिथुन राशि से वृष राशि में गोचर करेगा। वृष का स्वामी शुक्र है। सभी को संकटों से थोड़ी राहत मिल सकती है। राहु 12 अप्रैल 2022 तक इसी राशि में रहेगा। इसका प्रभाव प्रत्येक राशियों पर पड़ेगा। यह गोचर वृष व वृश्चिक राशि के लिए थोड़े संघर्ष के बाद सफलता का है। मिथुन व कन्या राशि के लोग व्यवसाय में सफलता की प्राप्ति करेंगे। सिंह व मीन के लोग जॉब को नई दिशा देंगे। कन्या व मीन राशि राजनीति में ज्यादा लाभान्वित होगी।
राहु के वृष राशि में गोचर का विस्तृत प्रभाव....मेष : राहु व्यवसाय में आपकी महत्वाकांक्षी योजनाओं को विस्तार देगा। स्वास्थ्य की स्थितियां थोड़ी प्रतिकूल हो सकती हैं। जॉब परिवर्तन में सफलता मिलेगी। व्यवसाय परिवर्तन में सफल हो सकते हैं। सफेद व लाल रंग शुभ है। प्रत्येक रविवार को गेहूं व गुड़ का दान करें। बुधवार को बहते जल में नारियल प्रवाहित करें।वृष : मध्यम फल रहेगा। जॉब में सुखद परिवर्तन का प्रस्ताव मिलेगा। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें। प्रत्येक मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। शुक्रवार व बुधवार को अन्न का दान करें। नीला व हरा रंग शुभ है। राजनीति से संबंधित जातकों को लाभ मिलेगा।मिथुन: राहु का गोचर संकेत करता है कि स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत रहना होगा। यदि आप जॉब में परिवर्तन करना चाहते हैं तो यह समय आपके लिए शुभ अवसर प्रदान करेगा। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को हरे वस्त्र तथा रविवार को गुड़ का दान करें। धन आगमन होगा।कर्क : कार्य बाधाएं आ सकती हैं। व्यवसाय में सुंदर अवसर की प्राप्ति का समय है। छात्रों के लिए यह समय बहुत सुंदर है। सफेद रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए भी यह समय बहुत ही अनुकूल है। जॉब में प्रमोशन का प्रयास करें। स्वास्थ्य बेहतर रहेगा। प्रतिदिन अन्न का दान करें। शिव उपासना करते रहें।सिंह : आत्मबल कम मत होने दें। जॉब को लेकर मन का द्वंद्व समाप्त होगा। राजनीति में सुंदर अवसरों की प्राप्ति करेंगे। आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर होगी। नीला व सफेद रंग शुभ है। प्रतिदिन श्री सूक्त का पाठ करें। परिवार व मित्रों का सहयोग आपके साथ है। बुधवार को गाय को पालक व चने की दाल खिलाते रहें।कन्या : राहु व्यवसाय में आशातीत सफलता देगा। स्वास्थ्य भी बेहतर होगा। गृह निर्माण सम्बन्धित नया कार्य आरंभ होगा। किसी व्यक्ति से नए राजनैतिक संबंध बन सकते हैं। हरा रंग शुभ है। जॉब के दृष्टिकोण से यह बहुत ही अच्छा रहेगा। राहु के द्रव्य दान करने से बाधाएं समाप्त होंगी। प्रतिदिन भैरो उपासना करें।तुला : व्यवसाय में लाभ की संभावना रहेगी। गृह निर्माण सम्बन्धी आपकी ठप्प पड़ी योजनाओं को शुरू होना आपके लिए शुभ है। घर पर ही धार्मिक कार्य होंगे। हरा रंग शुभ है। प्रतिदिन प्रात:काल पूजा के बाद चावल व गुड़ दान करने से पुण्य की प्राप्ति होगी। जॉब परिवर्तन के दृष्टिकोण से यह समय बहुत ही श्रेयस्कर है।वृश्चिक : यश व प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी। आप जॉब को परिवर्तित करने की सोचेंगे जो कि भविष्य में बेहतर रहेगा। व्यवसाय में भी सफलता है। लाल रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। जॉब में प्रमोशन हेतु प्रयास करें तो सफलता मिलने की संभावना अधिक है। प्रतिदिन सुंदरकांड का पाठ करें।धनु: राहु का राशि परिवर्तन बहुत ही सुखद रहेगा। व्यवसाय में सफलताओं व जॉब में प्रगति का समय है। स्वास्थ्य पहले से बेहतर होगा। आपके ससुराल पक्ष की सहायता से कोई रुका सरकारी कार्य पूर्णता की तरफ जाएगा। धन का आगमन होगा। लाल रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए यह परिवर्तन बहुत ही शुभ अवसरों वाला है। स्वास्थ्य सुख के लिए बजरंगबाण का नियमित पाठ करें।मकर : सूर्य व बुध राजनीति में सफलता देंगे। स्वास्थ्य के प्रति एलर्ट रहना होगा। आय प्राप्ति के नए स्रोत बन सकते हैं। सफेद रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार को तिल का दान करें तथा हनुमानबाहुक का पाठ करें।कुम्भ : यह परिवर्तन मिश्रित फलदायी है। आप एक ऐसे मिशन पर कार्य आरंभ करेंगे जो आपका ड्रीम रह चुका है। व्यावसायिक योजनाएं सफलता की तरफ मुड़ेंगी। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार व बुधवार को तिल का दान करें।मीन : यह परिवर्तन राजनीतिज्ञों के लिए बहुत शुभ है। व्यवसाय के लिए तनाव का समय है। व्यवसाय मे मित्रों का सहयोग प्राप्त होगा जिससे नवीन अवसरों की प्राप्ति करेंगे। नीला रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। यह गोचर प्रोन्नति का अवसर प्रदान करता है। प्रतिदिन गणेश उपासना करते रहें। बुधवार को उड़द का दान पुण्यदायी है।वृष का स्वामी शुक्र है। तो शुक्र एकाक्षरी बीज मंत्र- 'ॐ शुं शुक्राय नम: का जाप इस दौरान जरूर करें।