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- नवरात्र पर्व के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को मां के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।कहते हैं मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।मंत्र- दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥कथा- पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रहकर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।पूजा विधि- देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अलग-अलग तरह के फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर, अर्पित करें। देवी को सफेद और सुगंधित फूल चढ़ाएं। इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। मिश्री या सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें।1. या देवी सर्वभूतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।2. दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें-
इधाना कदपद्माभ्याममक्षमालाक कमण्डलुदेवी प्रसिदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्त्मा
मां ब्रह्मचारिणी का स्रोत पाठतपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥"मां ब्रह्मचारिणी का कवच"त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।स्वरूपमाता अपने इस स्वरूप में बिना किसी वाहन के नजर आती हैं। मां ब्रह्मचारिणी के दाएं हाथ में माला और बाएं हाथ में कमंडल है।महत्त्वमाता ब्रह्मचारिणी हमें यह संदेश देती हैं कि जीवन में बिना तपस्या अर्थात कठोर परिश्रम के सफलता प्राप्त करना असंभव है। बिना श्रम के सफलता प्राप्त करना ईश्वर के प्रबंधन के विपरीत है। अत: ब्रह्मशक्ति अर्थात समझने व तप करने की शक्ति हेतु इस दिन शक्ति का स्मरण करें। योग-शास्त्र में यह शक्ति स्वाधिष्ठान में स्थित होती है। अत: समस्त ध्यान स्वाधिष्ठान में करने से यह शक्ति बलवान होती है एवं सर्वत्र सिद्धि व विजय प्राप्त होती है। - छत्तीसगढ़ में मां शक्ति के प्राचीन मंदिरों की एक लंबी श्रंृखला है। शारदीय और चैत्र नवरात्र पर इन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। इस दौरान इन मंदिरों को आकर्षक रूप से संवारा जाता है। मां शक्ति की कृपा पाने और उनके दर्शनों के लिए दूर- दूर से लोग पहुंचते हैं।इन्हीं प्राचीन मंदिरों में से एक हैं मां चंद्रहासिनी देवी मंदिर, जो राजधानी रायपुर से करीब 221 किमी की दूर जांजगीर-चाम्पा जिले के डभरा तहसील में चंद्रपुर में स्थित है। मांड नदी, लात नदी और महानदी के त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण इस मंदिर की महत्ता और बढ़ गई है। इस मंदिर को भक्तगण मां शक्ति के 52 सिद्ध शक्तिपीठों में से एक मानते हैं। चंंद्रमा की आकृति जैसा मुख होने के कारण इसकी प्रसिद्धि चंद्रहासिनी और चंद्रसेनी मां के रूप में हुई है। प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मां सती का वामकपोल (वामगण्ड) महानदी के पास स्थित पहाड़ी में गिरा, जो बाराही मां चंद्रहासिनी का मंदिर बना और मां की नथनी नदी के बीच टापू में गिरी, जिससे मां नाथलदाई के नाम से मंदिर बना।मंदिर परिसर में लगातार विस्तार हो रहा है। परिसर में अब आकर्षक रूप से पौराणिक और धार्मिक कथाओं की झाकियां, समुद्र मंथन, महाबलशाली पवन पुत्र, कृष्ण लीला, चीरहरण, महिषासुर वध, नवग्रह की मूर्तियां, शेष शैश्या , सर्वधर्म सभा, चारों धाम की झांकियां तथा अन्य देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जो इस मंदिर की शोभा में चार चांद लगा रही है। भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर तक पहुंचने के लिए छोटी- छोटी सीढ़ी बनाई गई हैं। वैसे तो यहां पर साल भर भक्तों का आना होता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां पर बड़ी संख्या में भक्त माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। दूसरे राज्यों से भी लोग मां चंद्रहासिनी के दर्शनों के लिए आते हैं। पूरा मंदिर परिसर माता के जयकारों और भजनों से गूंजता रहता है। भक्त माता के दरबार में नारियल,अगरबत्ती, फूलमाला भेंटकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।नवरात्र में लोग अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यहां पर ज्योतिकलश प्रज्ज्वलित करते हैं। चंद्रहासिनी मंदिर के कुछ दूर आगे महानदी के बीच मां नाथलदाई का मंदिर स्थित है जो रायगढ़ जिले की सीमा अंतर्गत आता है। मान्यता है कि मां चंद्रहासिनी के दर्शन के बाद माता नाथलदाई के दर्शन भी जरूरी है। मां नाथलदाई को मां चंद्रहासिनी की छोटी बहन माना जाता है।किंवदंतियों के अनुसार हजारों वर्षो पूर्व माता चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ से होते हुए चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ गई। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर माता यहां पर विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती।एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरती है, तभी अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और माता की नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। राजपरिवार ने मंदिर की व्यवस्था का भार यहां के एक जमींदार को सौंप दिया। उस जमींदार ने माता को अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना की। इसके बाद से माता चंद्रहासिनी की आराधना जारी है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- माना जाता है कि प्रत्येक देवी औषधि स्वरूप है। विभिन्न औषधियां इनकी कृपा से ही पुष्ट होती हैं। नवदुर्गा के नौ रूप औषधियों के रूप में भी कार्य करते हैं। यह नवरात्रि इसीलिए सेहत नवरात्रि के रूप में भी जानी जाती है। सर्वप्रथम इस पद्धति को मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया परंतु गुप्त ही रहा।1. शैलपुत्रीजड़ पदार्थ भगवती का पहला स्वरूप है। पत्थर, मिट्टी, जल, वायु ,अग्नि, आकाश सब शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ में परमात्मा को महसूस करना। भगवती देवी शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में इस जड़ी-बूटी का इस्तेमाल एंटी-टॉक्सिन के रूप में कंजक्टीवाइटिस, गैस्ट्रिक समस्याओं, पुराने और बार-बार होने वाले बुखार, साइनस, एनीमिया और हिस्टीरिया के इलाज में किया जाता है।2. ब्रह्मचारिणीभगवती का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी यानी ब्राह्मी का है। पथया, कायस्थ, अमृता, हेमवती, चेतकी, और श्रेयसी (यशदाता) शिवा। प्रस्फुरण, चेतना का संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। जड़ चेतन का संयोग है। प्रत्येक अंकुरण में इसे देख सकते हैं। इस औषधि को मस्तिष्क का टॉनिक कहा जाता है। ब्राह्मी मन, मस्तिष्क और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाले के साथ रक्त संबंधी समस्याओं को दूर करने और और स्वर को मधुर करने में मदद करती है। इसके अलावा यह गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन समस्याओं से ग्रस्त लोगों को ब्रह्मचारिणी की आराधना करनी चाहिए।3. चंद्रघंटाचंद्रघंटा यानी चन्दुसूर भगवती का तीसरा रूप है। यहां जीव में वाणी प्रकट होती है जिसकी अंतिम परिणति मनुष्य में वाणी है। चंद्रघंटा देवी हृदय रोग ठीक करती हैं। कल्याणकारी मोटापा दूर करने बाली, शक्ति बढ़ाने वाली हैं। अत: संबंधित रोगी-भक्तों को मां चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए। यदि आप मोटापे की समस्या से परेशान हैं तो आज मां चंद्रघंटा को चंदुसूर चढ़ाएं। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के जैसा होता है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है। इस पौधे में कई औषधीय गुण हैं। इससे मोटापा दूर होता है। यह शक्ति को बढ़ाने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। इसलिए इस बीमारी से संबंधित लोगों को मां चंद्रघंटा की पूजा और प्रसाद के रूप में चंदुसूर ग्रहण करना चाहिए।4. मां कुष्मांडामां कुष्मांडा रक्त विकार को ठीक करने वाली हैं। तुर्थ कुष्माण्डा यानी पेठा। इसे कुम्हड़ा भी कहा जाता हैं। यह हृदयरोगियों के लिए लाभदायक, कोलेस्ट्रॉल को कम करने वाला, ठंडक पहुंचाने वाला और मूत्रवर्धक होता है। यह पेट की गड़बडिय़ों में भी असरदायक होता है। रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित कर अग्न्याशय को सक्रिय करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। इन बीमारी से पीडि़त व्यक्ति को पेठा के उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करनी चाहिए। पुुष्टिकारक, वीर्यवर्धक, रक्त-विकार, उदय विकार, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए मां कुष्मांडा देवी की आराधना अमृततुल्य है।5. स्कन्दमातानवरात्रि का पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। पुत्रवती माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं। ये भक्तों को ज्ञान के सागर से भर देने वाली, उन्हें सुख-समृद्धि, धन-धान्य से परिपूर्ण कर देने वाली हैं। शक्ति, बुद्धि और संवेदनाओं से परिपूर्ण ताड़कासुर का विनाश करने वाली देवी मां औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है। अलसी में कई सारे महत्वपूर्ण गुण होते हैं। अलसी का रोज सेवन करने से आप कई रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। सुपर फूड अलसी में ओमेगा 3 और फाइबर बहुत अधिक मात्रा में होता है। यह रोगों के उपचार में लाभप्रद है और यह हमें कई रोगों से लडऩे की शक्ति देता है। कफ प्रकृति और पेट से संबंधित समस्याओं से ग्रस्त लोगों को स्कंदमाता की आराधना और अलसी का सेवन करना चाहिए।6. कात्यायनीभगवती देवी का छठां रूप है मां कात्यायनी का। मां कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह औषधि कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इससे ग्रस्त लोगों को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करना चाहिए।7. कालरात्रिदेवी भगवती का सातवां रूप है कालरात्रि, जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को प्राप्त होते हैं और मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। इन्हें महायोगिनी, महायोगीश्वरी भी कहा गया है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक, सर्वत्र विजय दिलाने वाली, मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि-स्वरूप हैं। यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी, मन और मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है।8. महागौरीभगवती का आठवां स्वरूप महागौरी गौर वर्ण का है। यह ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मांतर की साधना से पाया जा सकता है। ये रक्त शोधक एवं हृदय रोग का नाश करने वाली हैं। मां महागौरी देवी जी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए। नवदुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है और प्रत्येक व्यक्ति इसे औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधीय नाम तुलसी है और इसे घर में लगाकर इसकी पूजा की जाती है। पौराणिक महत्व से अलग तुलसी एक जानी-मानी औषधि भी है, जिसका इस्तेमाल कई बीमारियों में किया जाता है। तुलसी सात प्रकार की होती है - सफेद, काली, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। आयुर्वेद के अनुसार सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ एवं हृदय रोग का नाश करते हंै। इस देवी की आराधना सभी को करनी चाहिए।9. सिद्धिदात्रीयह भगवती का नौवां स्वरूप है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। ये सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं। दुर्गा के इस स्वरूप को नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। शतावरी का नियमपूर्वक सेवन करने वाले व्यक्ति के सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इसलिए हृदय को बल देने के लिए सिद्धिदात्री देवी की आराधना करनी चाहिए।----
- - भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन
भक्तियोगरस के परमाचार्य जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत श्री दुर्गा-तत्व तथा गोपियों के माँ कात्यायनी देवी पूजन सम्बन्धी प्रवचन, सभी भगवत्प्रेमपिपासु भावुक पाठक समुदाय को 'शारदीय नवरात्रि' की हार्दिक शुभकामनाएं :::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है..)
जय जय जय जय दुर्गा मैया गोविन्द राधे।कृपा करि मोहे कृष्ण प्रेम दिला दे।।
प्रेम की अन्तिम आचार्या ब्रजांगनाएँ हैं, ब्रजगोपियाँ हैं जिनकी चरणधूलि ब्रम्हा, शंकर, सनकादिक, जनकादिक, उद्धवादिक समस्त परमहंस चाहते हैं। वृक्ष बन-बनकर ब्रज में उनकी चरणधूलि के लिये गये थे। वो ब्रजगोपियाँ प्रेम की आचार्या हैं। उनके प्रेम के आगे और किसी का प्रेम न हुआ था, न होगा। महाभाव कक्षा पर पहुँची हुई हैं ब्रजगोपियाँ। उसमें दो प्रकार की गोपियाँ थीं - एक ऊढ़ा एक अनूढ़ा। एक विवाहिता और एक कन्यायें। जो विवाहिता गोपियाँ थीं, उनका प्रेम अधिक उच्च कक्षा का था और नम्बर दो की कन्यायें थीं। विवाहिता का प्रेम परकीया भाव का प्रेम कहलाता है और कन्याओं का प्रेम स्वकीया भाव का प्रेम है।
स्वकीया माने जिसका और किसी से संबंध न हो और परकीया माने जिसका विवाह हो चुका है, पति है लेकिन चोरी चोरी प्यार करती है श्यामसुन्दर से। तो ब्रजांगनाओं का परकीया भाव का प्रेम सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ये दो प्रकार की गोपियाँ थीं और दो प्रकार की वेद ऋचायें भी थीं इनकी दासियाँ यानी विवाहिताओं की दासियाँ। ऐसी वेद की ऋचायें थीं जो इन्द्र, वरुण, कुबेरादि देवताओं की वाचिका थीं।
इन्द्रो जातो वसितस्य राजा, अग्निर्देवता, वायोर्देवता सूर्यो देवताचन्द्रमा देवता वसवो रुद्रादेवता वृहस्पते देवतेन्द्र इन्द्रोदेवता।
इत्यादि तमाम वेद मंत्र हैं जो डायरेक्ट भगवान के लिये नहीं हैं, उनका नाम लिखा है इन्द्र वरुण कुबेरादि। और कुछ ऐसी वेद की ऋचायें हैं जो डायरेक्ट भगवान की वाचिका हैं;
सत्यंज्ञानमनंतम् ब्रम्ह।
इत्यादि। तो जो अनंत वाचिका हैं यानी अनूढ़ा हैं यानी कन्यायें हैं वे स्वकीया भाव की हैं और जो अन्य पूर्विका हैं, ऊढ़ा हैं, विवाहिता हैं, वे परकीया भाव की हैं। तो ये दोनों प्रकार की गोपियों के प्रेम सर्वोच्च प्रेम कहलाता है। उन दोनों ब्रजगोपियों ने दुर्गा की उपासना की थी;
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।नन्दगोपसुतम् देव पतिं मे कुरुते नम:।।(भागवत 10-22-4)
कात्यायनी नाम है। दुर्गा के बहुत नाम हैं, बहुत रुप हैं, चार भुजा की दुर्गा, आठ भुजा की, हजार भुजा की। तो उन्हीं दुर्गा का एक रुप कात्यायनी देवी था, उसी को योगमाया कहते हैं। श्रीकृष्ण की बड़ी बहन है ये योगमाया जो यशोदा की पुत्री हैं। यशोदा की पुत्री हुई थी और देवकी के पुत्र हुये थे श्रीकृष्ण। तो श्रीकृष्ण को वसुदेव ले जाकर यशोदा के बगल में लिटा दिये थे और योगमाया को यानि यशोदा की पुत्री को उठा लाये थे और देवकी को दे दिया था। उसी को कंस ने चट्टान पर पटका था। लेकिन चट्टान पर गिरने के पहले ही वो आकाश को चली गईं और आठ भुजा से प्रकट होकर कंस को डाँटा, 'तुझे मारने वाला आ गया है तू मुझे क्या मारेगा?'
तो वो कात्यायनी देवी योगमाया दुर्गा हैं, उनकी उपासना किया था ब्रजगोपियों ने और उनसे वर माँगा था कि हमारे वर श्रीकृष्ण बनें।
पतिं मे कुरुते नम:। (भागवत 10-22-4)
हे कात्यायनी! हम तुमको नमस्कार करते हैं। ऐसा वरदान दो कि श्रीकृष्ण हमारे पति बनें, प्रियतम बनें। और यही दुर्गा रामावतार में पार्वती के रुप में थीं जिनकी सीता ने, राम ने सबने इनकी उपासना की थी।
मनजाहि राच्यो मिलहिं सो वर सहज सुन्दर साँवरो।
और वहाँ वर दिया था पार्वती ने सीता को कि जाओ तुमको तुम्हारे पति राम मिलेंगे, वो पति बनेंगे। तो दुर्गा की उपासना करके हम उनसे वर माँगें, हमको श्रीकृष्ण प्रेम दे दो।
(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ : साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2009 अंक, पृष्ठ संख्या 260 सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
महापुरुष तथा भगवान के द्वारा किये जाने वाले कार्यों की अलौकिकता एवं दिव्यता के संबंध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन ::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
...यदि महापुरुष अथवा भगवान के कार्य लौकिक बुद्धि के आधार पर ही तौले जा सकें, तब तो महापुरुष एवं भगवान् भी गुणातीत, लोकातीत, शुभाशुभ-कर्मातीत, बुद्धि-अतीत न रह जायगा। अतएव आस्तिक विचारशील व्यक्ति को उन लोकातीत अचिन्त्य महापुरुषों के कार्यों पर लौकिक बुद्धि से विचार न करना चाहिये, अन्यथा सब किया-कराया मटियामेट हो जायगा। साथ ही यह भी अत्यन्त विचारणीय बात है कि उनकी उपमा मायिक जीव को भूलकर भी अपने मिथ्याहंकार युक्त निकृष्ट कर्मों में न देनी चाहिये। महापुरुषों के कार्य, भगवान के संकल्पों से सम्बद्ध होने के कारण मंगलमय होते हैं, भले ही वे कार्य देखने में प्राकृत प्रतीत हों।
ईश्वराणां वच: सत्यं तेषामाचरितंक्वचित्।(भागवत 10-33-32)
अर्थात् महापुरुष के आदेश माननीय हैं उनका आचरण तो कहीं-कहीं ही मान्य होता है। महापुरुष एवं उसका कार्य सदा ही परम पवित्र है। महापुरुष के कार्य तो 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' इस गीता के सिद्धांतानुसार भगवान के द्वारा ही होते हैं
मयि ते तेषु चाप्यहम् - इस गीता के सिद्धांतानुसार जब भगवान भक्त में रहता है, एवं भक्त भगवान में रहता है, तब फिर महापुरुषों का कार्य भगवत्कार्य ही तो है। यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार भगवान एवं महापुरुष दोनों ही के कार्य अचिन्त्य हैं। अतएव हम लोकातीत, गुणातीत, मायातीत, भगवत्स्वरूप महापुरुषों के आचरणों पर अपनी सीमित, लौकिक, मायिक बुद्धि लगा कर अपने पागलपन का परिचय न दें। हम केवल उनके आदेशों का ही पालन करें। अन्यथा उनके खिलवाड़ में पड़कर हम नष्ट हो जायेंगे।
-- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि माता भगवती की आराधना,संकल्प, साधना और सिद्धि का दिव्य समय है। यह तन-मन को निरोग रखने का सुअवसर भी है। देवी भागवत के अनुसार देवी ही ब्रह्मा,विष्णु एवं महेश के रूप में सृष्टि का सृजन,पालन और संहार करती हैं। भगवान महादेव के कहने पर रक्तबीज शुंभ-निशुंभ,मधु-कैटभ आदि दानवों का संहार करने के लिए मां पार्वती ने असंख्य रूप धारण किए किंतु देवी के प्रमुख नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि का प्रत्येक दिन देवी मां के विशिष्ठ रूप को समर्पित होता है और हर स्वरुप की उपासना करने से अलग-अलग प्रकार के मनोरथ पूर्ण होते हैं। नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।ये ही नवदुर्गा में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।मंत्र- वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम।वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम ॥पूजा विधि-सर्वप्रथम शुद्ध होकर चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर देवी शैलपुत्री की प्रतिमा स्थापित करें। तत्पश्चात कलश स्थापना करें। प्रथम पूजन के दिन शैलपुत्री के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा लाल फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है। उसके बाद उनकी वंदना मंत्र का एक माला जाप करे तत्पश्चात उनके स्त्रोत पाठ करें। यह पूर्ण होने के बाद माता शैलपुत्री को सफेद चीजों का भोग लगाएं और यह शुद्ध गाय के घी में बना होना चाहिए। माता को लगाए गए इस भोग से रोगों का नाश होता है।कथा- एक बार जब सती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, पर भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। परन्तु सती संतुष्ट नही हुईं। सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपनेआप को जलाकर भस्म कर लिया।इस दारुण दुख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने तांडव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अद्र्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।----
- मां भगवती की आराधना का पर्व है नवरात्रि। मां भगवती के नौ रूपों की भक्ति करने से हर मनोकामना पूरी होती है। नौ शक्तियों से मिलन को नवरात्रि कहते हैं। देवी पुराण के अनुसार एक वर्ष में चार माह नवरात्र के लिए निश्चित हैं।वर्ष के प्रथम महीने अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में तीसरी और प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में चौथी नवरात्रि का महोत्सव मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें आश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती,इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि भी कहते हैं। माना जाता है कि गुप्त और चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ अवसर होता है।धर्म ग्रंथों के अनुसार गुप्त नवरात्रि में प्रमुख रूप से भगवान शंकर और देवी शक्ति की आराधना की जाती है। देवी दुर्गा शक्ति का साक्षात स्वरूप है। दुर्गा शक्ति में दमन का भाव भी जुड़ा है। यह दमन या अंत होता है शत्रु रूपी दुर्गुण, दुर्जनता, दोष, रोग या विकारों का। यह सभी जीवन में अड़चनें पैदा कर सुख-चैन छीन लेते हैं। यही कारण है कि देवी दुर्गा के कुछ खास और शक्तिशाली मंत्रों का देवी उपासना के विशेष काल में ध्यान शत्रु, रोग, दरिद्रता रूपी भय बाधा का नाश करने वाला माना गया है।चैत्र प्रतिपदा से नवरात्रि का प्रारंभ होता है और इसी दिन से हिंदू नव वर्ष और नए विक्रम संवत का प्रारंभ भी माना जाता है। 21 मार्च 2015 से शुरू हो रहा विक्रम संवत 2072 और शक संवत 1937। धर्म ग्रंथों के अनुसार युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी चैत्र की प्रतिपदा तिथि से माना जाता है। साथ ही मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी तिथि को हुआ था। माता के पवित्र रूप की आराधना- नवरात्र के पहले 3 दिन मां दुर्गा की पूजा होती है जो नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करती हैं। अगले 3 दिन देवी लक्ष्मी की आराधना होती है जिससे सकरात्मक आचरण और विचार मिलता है और अंतिम 3 दिन मां सरस्वती की पूजा, ज्ञान और सचाई की रौशनी बिखेरने का प्रतीक है। शक्ति के 9 रूप मनुष्य की 9 अलग-अलग विशेषताओं के प्रतीक हैं। जिनमें स्मृति, श्रद्धा, लज्जा, भूख, प्यास, क्षमा, सौन्दर्य, दृष्टि और सच्चाई शामिल है। चैत्र नवरात्र बसंत ऋतुु के दौरान आता है और इस समय धरती, सूर्य से अपेक्षाकृत अधिक नजदीक होती है और सबसे अधिक गुरुत्व बल झेल रही होती है। इस संदर्भ में नवरात्र, देवी दुर्गा को धन्यवाद कहने का त्योहार है जिन्होंने धरती की रक्षा करने के साथ ही यहां जीवन को विकसित करने में भी मदद की।
- - किस दिन किस देवी की करें आराधनाभारतवर्ष में हिंदूओं द्वारा मनाया जाने प्रमुख पर्व है। इस दौरान मां के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है। वैसे तो एक वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ के महीनों में कुल मिलाकर चार बार नवरात्र आते हैं लेकिन चैत्र और आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक पडऩे वाले नवरात्र काफी लोकप्रिय हैं।बसंत ऋतु में होने के कारण चैत्र नवरात्र को वासंती नवरात्र तो शरद ऋतु में आने वाले आश्विन मास के नवरात्र को शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। चैत्र और आश्विन नवरात्र में आश्विन नवरात्र को महानवरात्र कहा जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि ये नवरात्र दशहरे से ठीक पहले पड़ते हैं। दशहरे के दिन ही नवरात्र को खोला जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में मां के अलग-अलग रुपों की पूजा को शक्ति की पूजा के रुप में भी देखा जाता है।कब और कैसे करें घटस्थापना? पढ़ें मुहूर्त और पूजा विधि -निर्णय सिन्धु के अनुसार- संपूर्णप्रतिपद्येव चित्रायुक्तायदा भवेत। वैधृत्यावापियुक्तास्यात्तदामध्यदिनेरावौ।। अभिजीत मुहुत्र्त यत्तत्र स्थापनमिष्यते। अर्थात अभिजीत मुहूर्त में ही कलश स्थापना कर लेना चाहिए।घट स्थापना मुहूर्त का समय शनिवार, अक्टूबर 17, 2020 को प्रात:काल 06:27 से 10:13 तक है। घटस्थापना के लिए अभिजित मुहूर्त प्रात:काल 11:44 से 12:29 तक रहेगा। नवरात्रि के प्रथम दिन ही घटस्थापना की जाती है। इसे कलश स्थापना भी कहा जाता है।मां शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्रि मां के नौ अलग-अलग रुप हैं। नवरात्र के पहले दिन घटस्थापना की जाती है। इसके बाद लगातार नौ दिनों तक मां की पूजा व उपवास किया जाता है। दसवें दिन कन्या पूजन के पश्चात उपवास खोला जाता है।आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में पडऩे वाले नवरात्र गुप्त नवरात्र कहलाते हैं। हालांकि गुप्त नवरात्र को आमतौर पर नहीं मनाया जाता लेकिन तंत्र साधना करने वालों के लिये गुप्त नवरात्र बहुत ज्यादा मायने रखते हैं। तांत्रिकों द्वारा इस दौरान देवी मां की साधना की जाती है।इस बार नवरात्र व पितृ पक्ष के बीच एक महीने का अंतर आया है। आश्विन मास में मलमास लगने व एक महीने के अंतर पर नवरात्रारंभ का संयोग 165 साल पहले बना था। हर साल पितृ पक्ष याने श्राद्घ समाप्ति के अगले ही दिन से नवरात्रि उत्सव शुरू हो जाता है, लेकिन इस बार यह पर्व पितृ पक्ष समाप्ति के एक माह बाद शुरू होगा। इस बार श्राद्घ पक्ष समाप्त होते ही अधिकमास लग गया है। यानी नवरात्र व पितृ पक्ष के बीच एक महीने का अंतर आया है। आश्विन मास में मलमास लगने व एक महीने के अंतर पर नवरात्रारंभ का संयोग 165 साल पहले बना था।नवरात्रि में किस दिन किस देवी की पूजा होगी-नवरात्रि दिन 1- प्रतिपदा मां शैलपुत्री पूजा घटस्थापना 17 अक्टूबर 2020(शनिवार)नवरात्रि दिन 2- द्वितीया मां ब्रह्मचारिणी पूजा 18 अक्टूबर 2020 (रविवार)-नवरात्रि दिन 3:-तृतीय मां चंद्रघंटा पूजा 19 अक्टूबर 2020 (सोमवार)-नवरात्रि दिन 4- चतुर्थी मां कुष्मांडा पूजा 20 अक्टूबर 2020 (मंगलवार)-नवरात्रि दिन 5- पंचमी मां स्कंदमाता पूजा 21 अक्टूबर 2020 (बुधवार)नवरात्रि दिन 6- षष्ठी मां कात्यायनी पूजा 22 अक्टूबर 2020 (गुरुवार)-नवरात्रि दिन 7- सप्तमी मां कालरात्रि पूजा 23 अक्टूबर 2020 (शुक्रवार)-नवरात्रि दिन 8- अष्टमी मां महागौरी दुर्गा महा नवमी पूजा दुर्गा महा अष्टमी पूजा 24 अक्टूबर 2020 (शनिवार)-नवरात्रि दिन 9- नवमी मां सिद्धिदात्री नवरात्रि पारणा विजय दशमी 25 अक्टूबर 2020 (रविवार)-नवरात्रि दिन 10- दशमी दुर्गा विसर्जन 26 अक्टूबर 2020 (सोमवार)इस बार चातुर्मास जो हमेशा चार महीने का होता है, इस बार पांच महीने का होगा। 160 साल बाद लीप वर्ष व अधिकमास दोनों ही एक साल में आए हैं। चातुर्मास लगने से विवाह, मुंडन, कर्ण छेदन जैसे मांगलिक कार्य नहीं होंगे। इस काल में पूजन पाठ, व्रत उपवास और साधना का विशेष महत्व रहेगा।इस बार 17 सितंबर को पितृ पक्ष खत्म हुआ । इसके अगले दिन 18 सितंबर से अधिकमास शुरू हो गया , जो 16 अक्टूबर तक चलेगा। 17 अक्टूबर से नवरात्रि पर्व शुरू होगा। 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी होगी। जिसके साथ ही चातुर्मास समाप्त होंगे। इसके बाद ही विवाह, मुंडन आदि मंगल कार्य शुरू होंगे।---
- भागवत पुराण हिन्दुओं के 18 पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वण्र्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण के रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।श्रीमद्भागवत पुराण में काल गणना भी अत्यधिक सूक्ष्म रूप से की गई है। वस्तु के सूक्ष्मतम स्वरूप को परमाणु कहते हैं। दो परमाणुओं से एक अणु और तीन अणुओं से मिलकर एक त्रसरेणु बनता है। तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य किरणों को जितना समय लगता है, उसे त्रुटि कहते हैं। त्रुटि का सौ गुना कालवेध होता है और तीन कालवेध का एक लव होता है। तीन लव का एक निमेष, तीन निमेष का एक क्षण तथा पांच क्षणों का एक काष्टा होता है। पन्द्रह काष्टा का एक लघु, पन्द्रह लघुओं की एक नाडि़का अथवा दण्ड तथा दो नाडि़का या दण्डों का एक मुहूर्त होता है। छह मुहूर्त का एक प्रहर अथवा याम होता है।एक चतुर्युग (सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग, कलि युग) में बारह हज़ार दिव्य वर्ष होते हैं। एक दिव्य वर्ष मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष के बराबर होता है।जैसे कि-1. सत युग- चार हज़ार आठ सौ वर्ष का हुआ।2. त्रेता युग- तीन हज़ार छह सौ वर्ष का हुआ।3. द्वापर युग- दो हज़ार चार सौ वर्ष का हुआ।4. कलि युग- एक हज़ार दो सौ वर्ष का है।प्रत्येक मनु 7 लाख 16 हजार 114 चतुर्युगों तक अधिकारी रहता है। ब्रह्मा के एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। यह ब्रह्मा की प्रतिदिन की सृष्टि है। सोलह विकारों (प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रांए, दो प्रकार की इन्द्रियां, मन और पंचभूत) से बना यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। उसके ऊपर दस-दस आवरण हैं। ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियां, जिस ब्रह्माण्ड में परमाणु रूप में दिखाई देती हैं, वही परमात्मा का परमधाम है। इस प्रकार पुराणकार ने ईश्वर की महत्ता, काल की महानता और उसकी तुलना में चराचर पदार्थ अथवा जीव की अत्यल्पता का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है।-----
- -जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के दिव्य सन्देश
जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत जीव के साध्य एवं कर्तव्य सम्बन्धी दिव्य सन्देश ::::::
(साधन-साध्य तत्वज्ञान)
...सभी विवेकी जीवों को यही निश्चय करना है कि हमारा लक्ष्य, हमारे सेव्य श्रीकृष्ण की सेवा ही है। वह सेवा भी उनकी इच्छानुसार हो। अपनी इच्छानुसार सेवा, सेवा नहीं है। वह तो अपने सुख वाली कही जायेगी। वह सेवाधिकार स्वाभाविक है। यथा,
दासभूतो हरेरेव नान्यस्यैव कदाचन। (चै.)
अर्थात समस्त जीवमात्र, अपने अंशी ब्रम्ह श्रीकृष्ण के नित्यदास हैं। यह दासत्व ही उनका स्व स्वरुप है। जिस प्रकार वृक्ष के अंश स्वरुप मूल, शाखा, उप शाखा, पत्रादि अपने अंशी वृक्ष की सेवा करते हैं अर्थात वृक्ष की जड़ें पृथिवी से तत्त्व निकाल कर वृक्ष को देती हैं। शाखा, पत्ते आदि भी सूर्यताप, वायु आदि के द्वारा सेवा करते हैं। इसी प्रकार जीवों को भी अपने अंशी श्रीकृष्ण की सेवा करनी है। यही ज्ञातव्य (जो जानना है) है, यही कर्तव्य है।
-- जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, अक्टूबर 2007 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के आज के प्रकाशित प्रवचन अंश में हम जानेंगे कि किन-किन पड़ावों को पार करने के बाद जीव को भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के गोलोक धाम की प्राप्ति होगी? इस प्रवचन में विशेष रुप से तत्वज्ञान, साधना एवं कृपा तत्व के विषय में बतलाया गया है। श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम, सेवा, धाम प्राप्ति के इच्छुक पिपासु जीव को इसे समझकर तदनुकूल प्रयत्न करने पर निश्चय ही लाभ प्राप्त होगा ::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)जीव के तीन शत्रु है। एक शत्रु को जीतना तो आसान है, दूसरे शत्रु को जीतना थोड़ा कठिन है लेकिन उसको जीता जा सकता है और तीसरा शत्रु जो है वो इतना बलवान है कि उसको कोई नहीं जीत सकता।उनका नाम है मल, विक्षेप और आवरण।पहला मल तो तत्व ज्ञान होने से चला जाता है, शास्त्र वेद का ज्ञान, माया क्या है, जीव क्या है, ब्रह्म क्या है, जीव को भगवत प्राप्ति कैसे होगी - ये थिअरी की नॉलेज से चला जाता है या शब्दज्ञान कह दो, ये तो कोई भी कर सकता है बार बार सुनने से। ये मल आवरण है। ये पहला है।दूसरा है विक्षेप। ये भी हमने पैदा किया है। मल के गड़बड़ होने से विक्षेप हो गया। विक्षेप का रीजन मल यानी तत्त्वज्ञान का अभाव। हमने सबसे पहले थिअरी की नॉलेज नहीं प्राप्त की तो अपने आप को देह मान लिया और फिर देह के सुख के पीछे भाग पड़े, भागते रहे, भागते रहे, अनंत जन्म बीत गए, लेकिन अगर कोई बहादुर मल के हट जाने के बाद साधना कर ले, हरि गुरु का रुपध्यान करते हुए रोते हुए उनके नाम, गुण, लीला आदि का गान; तो अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा। यानी वो जो भीतर वाला अन्त:करण गंदा है वो धुल जाएगा, शुद्ध हो जाएगा। तो विक्षेप समाप्त होने का मतलब अन्त:करण की शुद्धि। तो अन्त:करण कैसे शुद्ध होगा इसका ज्ञान मल के हटने से हो गया और साधना करने से, भक्ति करने से विक्षेप भी चला गया।लेकिन वो कोई कोई बहादुर है जो साधना करके अन्त:करण शुद्ध कर ले। ये आम बात नहीं है, लेकिन वो कर सकता है।तीसरा है आवरण; ये माया की शक्ति है और दैवी शक्ति है। अन्त:करण की शुद्धि के बाद जब गुरु कृपा से स्वरूप शक्ति मिलती है, वो कृपा से मिलती है, साधना से नहीं मिलती। साधना से तो केवल अन्त:करण शुद्ध होता है। उसको दिव्य भी बनाना होगा तभी उसमें दिव्य प्रेम ठहर सकेगा। वो दिव्य बनाने के लिए गुरु, भगवान की कृपा चाहिए। वो हो गई जब तब तीसरा शत्रु भी ख़तम हो जाएगा। तब जीव सदा के लिए आनंदमय ज्ञानमय होकर गोलोक में रहेगा।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय सम्मतियाँ ::::
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित अनेक भगवदीय साहित्य हैं, जिससे भगवत्प्रेम पिपासु जीवों ने अद्भुत लाभ प्राप्त किया है, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। इन समस्त ग्रन्थ-साहित्यों में 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' उनका मूल ग्रन्थ है। इनकी विलक्षणता के सम्बन्ध में कुछ कहना यूँ तो तुच्छ, रसहीन मायिक जीव के लिये अनाधिकार चेष्टा ही है। किन्तु कुछ तो जानकारी परम आवश्यक है ताकि हमारे हृदय में इस रस-ग्रन्थ का पठन करने के लिये उत्सुकता जागे। इसी विचार को ध्यान में रखकर इस संबंध में कुछ बातें लिखी जा रही हैं। यूँ तो लेख कुछ लम्बा है तथापि सुधि पाठक-जन भावयुक्त हृदय से पढ़कर आनंदानुभूति अवश्य करेंगे ::::::जगद्गुरु श्री कृपालु जी विरचित ग्रन्थ : प्रेम-रस-सिद्धान्त(1) जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' भगवदीय मार्गीय साधक तथा प्रेम पिपासु जिज्ञासु जीवों के लिये अमूल्य निधि है।(2) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसकी रचना अपने जगद्गुरु बनने के पूर्व ही कर दी थी, इसका प्रथम संस्करण वर्ष 1955 में कानपुर से प्रकाशित हुआ था। श्री महाराज जी (श्री कृपालु जी) उस समय मात्र 32 वर्ष के थे। तब वे अपना नाम कृपालुदास लिखते थे। वर्ष 2015 में इस ग्रंथ के प्रकाशन/प्रगटीकरण का 60 वाँ वार्षिकोत्सव मनाया गया।(3) इस विलक्षण 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ में क्या है ::::श्री कृपालु जी महाराज ने वेदों, शास्त्रों के प्रमाणों के साथ साथ दैनिक अनुभवों के उदाहरणों द्वारा सर्वसाधारण के लाभ को ध्यान में रखकर विषयों का निरुपण किया है। भगवान के प्रेम, सेवा तथा उनके माहात्म्य ज्ञान आदि के प्रति जिज्ञासु जीव इस ग्रन्थ के माध्यम से निश्चय ही अपने इच्छित को प्राप्त करेंगे। भगवान श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च माधुर्यमयी भक्ति 'गोपीभाव' की साधना का भी इसमें निरुपण है। पूर्ववर्ती समस्त आचार्यों, मूल जगदगुरुओं, विविध शास्त्रों के सिद्धान्तों तथा उनके सिद्धांतों में आये विरोधाभासों का भी बड़ा सुन्दर समन्वय इस ग्रन्थ में किया गया है। कम शब्दों में अधिक कहा जाय तो यह ग्रन्थ गागर में सागर ही है, जिसका पात्र जितना बड़ा होगा वह उतना ही अधिक लाभ ले सकेगा।
(4) इस ग्रन्थ के प्राक्कथन में श्री कृपालु जी महाराज ने लिखा था ::::
'...मेरे प्रवचनों को सुन-सुनकर अधिकांश लोगों ने कहा कि महाराज जी! यदि ये प्रवचन छप जायँ तो बड़ा लाभ हो। मैंने बिना कुछ सोचे-विचारे ही लोगों के कहने में आकर, जो बुद्धि में आया लिख दिया। साथ में शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों तथा महापुरुषों के आप्त-प्रमाण भी लिख दिये। अब जो कुछ भी है, आप लोगों के समक्ष है। मुझ अकिंचन की भेंट स्वीकार कीजिये एवं मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं श्री राधाकृष्ण के चरणारविन्द मकरन्द का यत्किंचित पान कर सकूँ..' (कृपाकांक्षी, जगदगुरु: कृपालु:)(5) 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ की विषय-वस्तु क्या है?अध्याय (1) जीव का चरम लक्ष्य, (2) ईश्वर का स्वरूप, (3) भगवत्कृपा, (4) शरणागति, (5) आत्म-स्वरुप, संसार का स्वरुप तथा वैराग्य का स्वरुप, (6) महापुरुष, (7) ईश्वर-प्राप्ति के उपाय, (8) कर्म मार्ग, (9) ज्ञान एवं ज्ञानयोग, (10) ज्ञान एवं भक्ति, (11) निराकार-साकार-ब्रम्ह एवं अवतार रहस्य, (12) भक्तियोग, (13) कर्मयोग की क्रियात्मक साधना, (14) कुसंग का स्वरुप।इस ग्रन्थ के अन्त में कर्मयोग सम्बन्धी प्रतिपादन पर विशेष जोर दिया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण संसारी कार्यों को करते हुये ही संसारी लोगों को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।(6) प्रथम संस्करण के शुरुआती पृष्ठ पर श्री महाराज जी के स्वयं की हैंड राइटिंग में छपा था ::::'साधकों को सादर समर्पित''मूल्य - परम प्रियतम श्रीकृष्ण के मधुर मिलन की व्याकुलता'.(7) प्रथम प्रकाशन के समय श्री कृपालु जी महाराज ने प्रकाशक का नाम 'गोलोक धाम' दिया और यह संयोग कह लीजिए अथवा उनकी पूर्व निर्धारित योजना कि अपने सम्पूर्ण साहित्य के प्रकाशनार्थ उन्होंने कई वर्ष पूर्व 'राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली' को कॉपीराइट दिया था, यहाँ भी बिल्डिंग का नाम 'गोलोक धाम' ही है।(8) 'प्रेम-रस-सिद्धान्त' ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय सम्मतियाँ ::::'...श्री कृपालुदास जी कृत 'प्रेम रस सिद्धांत' पुस्तक मैंने देखी। प्रेम जैसे गहन विषय को उन्होंने सरल सुबोध भाषा में व्यक्त किया है...... प्रेम पथ के पथिकों को इस प्रेममयी पुस्तक को प्रेमपूर्वक पढऩा चाहिए, यही मेरी पाठकों से पुनीत प्रार्थना है। भगवान करें संसार में सभी प्रभुप्रेमी बनें और प्रभु के प्रेमामृत का पान करके कृतार्थ हो जायें...'. (श्री चैतन्य चरितावली के रचयिता प्रभुदत्त ब्रम्हचारी, संकीर्तन भवन, झूँसी प्रयाग)'...श्रीपरमहंस कृपालुदासजी लिखित 'प्रेम रस सिद्धांत' नामक ग्रंथ का मैंने बड़े प्रेमपूर्वक अवलोकन किया। परमहंस (कृपालु जी) जी न केवल अधिकारी विद्वान हैं किंतु भक्तिरस के रसिक भी हैं। अतएव उनका यह सिद्धांत ग्रंथ सर्वथा पठनीय और मननीय है। जिज्ञासुओं के लिए इसमें प्रत्येक ज्ञातव्य बातें मिल जाएंगी और साधकों के लिए रस-विशेष की अच्छी जानकारी भी हो सकेगी। मैं इस ग्रंथ के अधिकाधिक प्रचार का आकाँक्षी हूँ...' (डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ,MA, LLB, D Litt, सिविल लाइंस, राजनांदगाँव)(9) कितनी भाषाओं में उपलब्ध है ::::हिन्दी, अंग्रेजी ( (Philosophy of Divine Love),), सिन्धी, गुजराती, उडिय़ा तथा तेलगू भाषा।(10) ग्रन्थ प्राप्ति के स्थान ::::जगद्गुरु कृपालु परिषत के मुख्य आश्रम,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रचारक-गण,जगद्गुरु कृपालु परिषत की साहित्य वेबसाइट www.jkpliterature.org
सन्दर्भ ::: प्रेम-रस-सिद्धान्त, साधन साध्य पत्रिका (मार्च 2018 अंक)सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी विशेष लेखों की श्रृंखला-जगद्गुरुत्तम् के संबंध में अनोखा रहस्यआज यह सर्वविदित है कि जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् के पद पर विराजित हैं। अन्य समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के विशेष मतों के प्रतिष्ठापन से इतर आपने समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए एक समन्वयात्मक वेदसम्मत सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। आपके संबंध में यद्यपि अनेकानेक गूढ़ातिगूढ़ रहस्य हैं तथापि उनमें से एक गूढ़ रहस्य और आपकी दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था के विषय में थोड़ा प्रकाश डालकर आपकी अलौकिकता का परिचय प्राप्त करते हैं।सुश्री ब्रज वनचरी देवी जी श्री कृपालु महाप्रभु जी की कृपाप्राप्त वरिष्ठतम प्रचारिका हैं और वे बचपन से कृपालु महाप्रभु जी के सत्संग का लाभ ले रही हैं। उनके पिता श्री महाबनी जी श्री महाराज जी (कृपालु महाप्रभु) के अनन्य भक्त थे। श्री महाराज जी के प्रति उनका वात्सल्य स्नेह था। प्रतापगढ़ में जगद्गुरु बनने के पहले श्री महाराज जी इनके घर ही रुकते थे और वहीं से 'जगद्गुरुत्तम्' बनने काशी विद्वत् परिषत् पधारे थे। उन्होंने (सुश्री वनचरी देवी जी) श्री महाराज जी के जगद्गुरु बनने के पूर्व के कुछ विचित्र रहस्यों का उल्लेख किया है।उन्होंने बताया कि...."...यद्यपि उस समय मैं बहुत ही छोटी थी किन्तु मुझे अभी भी याद है कि एक दिन श्री महाराज जी ने कहा कि मुझे तुम्हारे घर पर एक कमरा एकांत चाहिए और एक कागज और कलम। श्री महाराज जी एक कमरे में एकांतवास करने लगे। हमें श्री महाराज जी के इस लीला की उत्सुकता होने लगी। हमारी उत्सुकता तब और बढ़ गई जब श्री महाराज जी के कमरे से विचित्र-विचित्र आवाज़ें आने लगी जैसे बहुत से व्यक्ति बैठकर किसी दूसरी भाषा में गंभीर चर्चा कर रहे हों जबकि उस कमरे में केवल श्री महाराज जी ही थे। ऐसा लगभग रोज ही होता था लेकिन श्री महाराज जी की आज्ञानुसार हमनें उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया और इस रहस्य से पर्दा उठने का इंतजार करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् श्री महाराज जी बाहर आये तब हमने उनसे पूछा कि आप तो कमरे में अकेले ही थे, फिर ऐसी विचित्र आवाज़ें किनकी थीं, आप किनके साथ वार्तालाप कर रहे थे? पहले तो श्री महाराज जी ने टालने की कोशिश की परंतु पिताश्री (महाबनी जी) के उत्सुकतावश अत्यधिक पूछने पर अंतत: रहस्योद्घाटन किया। उन्होंने कहा,"...महाबनी ! क्या करुँ? इस समय समस्त वेदों-शास्त्रों का वास्तविक स्वरुप विकृत हो गया है। अत: समस्त शास्त्र-वेद मेरे समक्ष मूर्तिमान प्रकट होकर मेरे सम्मुख खड़े थे और मुझसे कह रहे थे कि आप हमें हमारे वास्तविक रूप में इस युग में जनता के सम्मुख प्रकट कीजिये..."वस्तुत: यहीं से श्री कृपालु महाप्रभु जी के जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु बनने का उपक्रम प्रारम्भ हुआ। इस घटना के पश्चात् श्री महाराज जी ने चित्रकूट एवं कानपुर में ऐतिहासिक पब्लिक स्पीच दी जिनमें लाखों लोगों ने उनके दिव्य प्रवचनों को सुना।इसके पूर्व उन्होंने कभी पब्लिक स्पीच नहीं दी थी और वस्तुत: प्रेम की उन्मत्त दशा में ही रहते थे। घंटों-घंटों प्रेम रस परिप्लुत संकीर्तन कराते, रात्रि जागरण और महीनों अखण्ड संकीर्तन भी। सदैव ब्रजरस में डूबे रहते और सभी साधकों को भी प्रेम रस पिलाकर उन्मत्त सा बनाये रखते। करुण क्रन्दन हृदय विदारक रुदन श्यामा-श्याम गुणगान प्रिय मिलन की व्याकुलता - बस यही दिनचर्या थी। स्वयं ही मृदंग बजाते और संकीर्तन कराते-कराते मूच्र्छित हो जाते। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती, वस्त्र भींग जाते, दीवारों का आलिंगन करते, कभी नृत्य, कभी अट्टाहास। दिव्य महाभाव की बड़ी विचित्र दशा थी वह।किन्तु वे विश्व कल्याण का उद्देश्य लेकर इस धराधाम पर अवतरित हुए और वर्तमान युग में जीवों को भगवदीय तत्वज्ञान की महती आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना कोई भी भक्तिमार्ग पर आरुढ़ व स्थिर नहीं हो सकता। इसलिए इस दिव्य प्रेमोन्मत्त अवस्था का गोपन करके उन्होंने प्रेम प्लस ज्ञान मिश्रित स्वरुप को प्रकट किया और 'जगद्गुरुत्तम्' का पद स्वीकार कर वेदों एवं शास्त्रों को पुन: उनके वास्तविक स्वरुप में प्रतिष्ठापित किया। उन्होंने ऐसा सिद्धांत स्थापित किया है जो अब तक के आध्यात्मिक इतिहास में अद्वितीय है। इसी से समस्त जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम 'जगद्गुरुत्तम्' की उपाधि से काशी विद्वत् परिषत् की 500 सर्वमान्य अग्रगण्य विद्वानों की सभा द्वारा एकमत से 14 जनवरी, 1957 के दिन घोषित किये गए। इस समय उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी। उनके सर्वदर्शन समन्वयात्मक सिद्धांत के कारण उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' एवं 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य' को उपाधि भी प्रदान की गई है।ऐसी अद्वितीय विभूति ने जिस भूमि पर अवतार धारण किया और अपने लीला का सौरस्य प्रदान किया, भारतवर्ष की उस भूमि जो भक्तिधाम नाम से प्रसिद्ध हुई है, आज यह भक्तिधाम अपनी गोद में भक्ति-मंदिर, भक्ति-भवन तथा कृपालुं वन्दे जगदगुरूम-भक्ति मंदिर जैसे तीन महान एवं अद्वितीय स्मारकों को धारण किये है, जो कि सनातन परम्परा के चिरयुगी संवाहक हैं।लेख सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक, पृष्ठ 39सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचनश्रीराधाकृष्ण प्रेम संबंधी साधन सामग्रियों से अलंकृत अपनी प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने निम्नांकित पद में मन को संबोधित करते हुये कहा है कि इस मन ने अनादिकाल से आनंदप्राप्ति के अपने लक्ष्य के लिये उन द्वारों को खटखटाया जहाँ आनंद था ही नहीं। अत: उस भूल की सुधार कर लेने का आग्रह इस पद के माध्यम से अपने मन से किया गया है। आइये हम इसका आधार लेकर स्वयं पर विचार करें -'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थसिद्धान्त माधुरी, पद संख्या - 38चपल चित! कत इत उत भटकात।कूकर शूकर कीट पतंगनि, धर्-यो अनंतन गात।अगनित सुत पति नारि बनायो, अबहुँ बनावत जात।तू चह परमानंद कहां सो?, यह नहिं सोचि सकात।वेद पुरानन बात मान गहु, चरण शरण बलभ्रात।तब कृपालु तिन अनुकंपा ते, सब बनि जैहैं बात।।भावार्थ :::: अरे चंचल मन! तू इधर-उधर क्यों भटक रहा है? तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये। अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये एवं अब भी बनाता जा रहा है। किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता। अरे मन सुन! वेद-पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र नंदनंदन (श्रीकृष्ण) पादारविन्द की शरणागति से ही प्राप्त हो सकता है। श्री कृपालु जी कहते हैं, जब तू उनके शरणागत हो जायगा तब वे अपनी अनुकम्पा द्वारा तुझे अनन्तकाल के लिए आनन्दमय कर देंगे; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी।रचनाकार ::: जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- --जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज भगवतपथ पर चल रहे साधक के लिये कुछ आवश्यक बातें बता रहे हैं, जिनका पालन करना साधक की उन्नति के लिये परमावश्यक है। यदि साधक इन बातों में सावधानी न बरतकर लापरवाही करेगा तो निश्चित ही उसे साधना-मार्ग में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। अत: आइये जानें कि ऐसी कौन-कौन सी बातें हैं, जिनका पालन करना साधक के लिये महत्वपूर्ण है :::::::(आचार्य श्री के शब्द/मार्गदर्शन यहां से है...)(1) द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें। उदासीन रहें।(2) आज कोई नास्तिक भी है, तो कल उच्च साधक बन सकता है। अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका। सूरदास आदि सन्त उदाहरण हैं।(3) गुरु की सेवा करने वाला साधक तो गुरु का प्रिय ही है। अत: उससे द्वेष करना पाप है।(4) सचमुच कोई अपराधी भी हो, तो भी, मन से भी उसके भूतपूर्व अपराधों को न सोचें, न बोलें।(5) संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं। बड़े-बड़े साधकों का भी पतन एवं बड़े-बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है।(6) सबमें श्रीकृष्ण का निवास है, अत: उनको ही महसूस करें।सन्दर्भ पुस्तक - भक्ति की आधारशिला, पृष्ठ संख्या 6सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत यह प्रवचन न केवल आध्यात्म पथ के पथिकों के लिये महत्वपूर्ण है, बल्कि यह तो समस्त विश्व के प्रत्येक देश के प्रत्येक नागरिक के लिये महत्व रखती है। सीधे शब्दों में मनुष्य जाति के लिये यह लाभप्रद है। इसका संबंध भगवत्प्राप्ति जैसे सर्वोच्च लक्ष्य के साथ ही जीवन के विविध पक्षों, नैतिक सदाचारों, देश, राज्य तथा घर-गृहस्थी में शान्ति तथा सुख से भी है। अत: इन लाभों को दृष्टिगत रखते हुये आइये इस अंश से हम कुछ समझने की चेष्टा करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)...भगवान को मानने से अथवा यूं कहो, भक्ति करने से अंत:करण शुद्ध होगा। वास्तविकता तो यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि होना असम्भव है और सत्य, अहिंसा आदि सदाचार का आचरण अंत:करण की शुद्धि के बिना असम्भव है। ये सब दैवी गुण तभी आयेंगे जब हमारे अंत:करण की शुद्धि होगी।हमारे अंत:करण की शुद्धि जितनी मात्रा में होगी उतना ही हमारा संसार से वैराग्य होगा। अंत:करण शुद्ध केवल ईश्वरीय भक्ति से ही होगा। जब तक यह निश्चय न हो जाय कि संसार में सुख नहीं है भगवान में ही सुख है, संसार की संपत्ति बटोरने की कामना रहेगी। जब यह निश्चय हो जायेगा शान्ति भौतिक पदार्थों से नहीं, भगवान से ही मिलेगी, जितनी मात्रा में यह निश्चय होगा उतनी मात्रा में संसार का सामान संग्रह करने की कामना कम होगी, तो उतनी मात्रा की चार सौ बीसी कम हो जायेगी। संसार से संपत्ति बटोरने की कामना खतम होगी। आज एक आदमी अरबपति है, खरबपति बनना चाहता है।तो अगर ईश्वरीय भावना होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो समझेगा कि संसार में सुख नहीं है। आवश्यकता की पूर्ति के अलावा जो हमारे पास है वो गरीबों को दान दे दो, तब ये भावना पैदा होगी। अत: भक्ति के द्वारा ही वास्तविक परोपकार की भावना जाग्रत की जा सकती है।अगर कोई, कोई भी भक्ति करेगा तो अंत:करण शुद्धि होगी, अंत:करण शुद्ध होगा तो स्वाभाविक रुप से दैवी गुण (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, गरीबों की सहायता आदि) आयेंगे। यही दैवी गुण आधार हैं विश्व-शान्ति के। हमारी अंत:करण की शुद्धि पर ही हमारा हिन्दू धर्म जोर देता है ताकि हमारे विचार शुद्ध हों, जब विचार शुद्ध होंगे तो ये राग-द्वेष अशान्ति जो संसार में फैल रही है, अपने आप समाप्त हो जायेंगे। जातिवाद आदि की बीमारी ये सब बीमारियाँ समाप्त हो जायें अगर कोई सही-सही हिन्दू धर्म को मान ले।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ पुस्तक - विश्व-शांति; पृष्ठ 9 एवं 10, श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विश्व-शांति के विषय में दिये गये प्रवचन का पुस्तक रुपसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अगर कुंडली में सूर्य और मंगल का दोष हो तो घर में गुड़हल का पौधा लगाना चाहिए। यह पौधा सूर्य और मंगल ग्रह से जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि मंगल ग्रह को प्रसन्न करने लिए पवनसुत हनुमान को गुड़हल का फूल अर्पित करना लाभदायक होता है। साथ ही सूर्यदेव को जल अर्पित करते समय इसमें गुड़हल का फूल डालकर अध्र्य दें। ऐसे करने से जातक को अत्यंत लाभ होता है और वास्तुदोष भी दूर होते हैं। गुड़हल का पौधा घर में कहीं भी लगा सकते हैं। यह अत्यंत लाभकारी होता है।औषधीय गुणों से भरपूर गुड़हल का फूल बहुत ही ऊर्जावान माना जाता है। देवी और सूर्यदेव की उपासना में इसका विशेष रूप से प्रयोग होता है। मान्यता है कि नियमित रूप से देवी मां तो गुड़हल का फूल अर्पित करने से शत्रु और विरोधियों से राहत मिलती है। गुड़हल का फूल डालकर सूर्यदेव को जल अर्पित करने से दीघार्यु और आरोग्य की प्राप्ति होती है।गुड़हल के फूल में मां दुर्गा का वास माना जाता है। पुष्प के हरे भाग में बुध और केतू होते हैं। वहीं केसरिया भाग मंगल को दर्शाता है। गुड़हल के रक्त वर्ण में सूर्य का प्रतिनिधित्व माना गया है। वहीं पुष्प की जहां से उत्पत्ति होती है, वहां गुरु का वास माना गया है। अंकुरण के मध्य में राहू और अंत में शनि मौजूद होते हैं। वहीं पुष्प के बीज भाग में चंद्रमा उपस्थित होता है। वास्तु की दृष्टि से गुड़हल का फूल बहुत ही शुभ माना जाता है। घर में गुलदस्ते का लगा गुड़हल का फूल परिवार के सदस्यों के बीच प्यार, अपनेपन और बॉन्ंिडग को दर्शाता है। दांपत्य जीवन में जोश को बनाए रखने के लिए भी गुड़हल का फूल बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। यह आप और आपके पार्टनर के बीच पैशन को दर्शाता है।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का निम्नांकित प्रवचन अंश उनके नारद-भक्ति-दर्शन पर दी गई प्रवचन श्रृंखला से है। यह प्रवचन श्रृंखला उन्होंने वर्ष 1990 में भक्तिधाम मनगढ़ (उ.प्र.) में दिया था। इस अंश में श्री कृपालु महाप्रभु जी संसार में छह प्रकार के लोगों के विषय में संक्षिप्त में बता रहे हैं। छठे प्रकार में महापुरुष, संत-महात्माओं के स्वभाव का निरुपण किया गया है। आइये इस संक्षिप्त अंश से हम अपने आत्मिक-लाभ का कुछ आधार प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...महापुरुष लोग अपना अनिष्ट करके हम लोगों का इष्ट करते हैं -
भुर्ज तरु सम सन्त कृपाला।भोजपत्र का पेड़ होता है, उस पेड़ की छाल होती है तो एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक। सब निकाल लो तो पेड़ जीरो बटा सौ, वो छालों का लिपटा हुआ एक पुंज ही पेड़ होता है। देखिये! छ: प्रकार के लोग होते हैं। हाँ, जल्दी समझियेगा ध्यान देकर, अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना। आप लोग सोचते तो हैं और बोलते भी हैं, अपने छोटों के आगे - हैं, हैं, हैं, मैं भी कुछ अकल रखता हूँ और छोटी सी बात जल्दी नहीं समझते, हमको डिटेल करना पड़ता है। अपना अनिष्ट करके भी दूसरे का अनिष्ट करना, ये सबसे निम्न क्लास के लोग होते हैं। हमारा नुकसान हो जाय तो हो जाय लेकिन उसका नुकसान जरुर करना है।अरे! ये कौन सी समझदारी की बात है कि अपना नुकसान कर रहे हो, उसके नुकसान करने के चक्कर मे। लेकिन होते हैं ऐसे -जे बिनु काज दाहिने बाएँ।तो अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना, सबसे खराब, नम्बर एक। इससे अच्छा, अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट करना यानी अपने फायदे के लिये दूसरे का नुकसान कर देना। ये पहले वाले से कुछ अच्छे हैं, नम्बर दो और तीसरा अपने इष्ट के लिये दूसरे का इष्ट करना यानी अपना भी लाभ हो इसका भी हो, फिफ्टी-फिफ्टी, ये उससे भी अच्छा है, नम्बर तीन और नम्बर चार अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट न करना। नम्बर पाँच, दूसरे का ही इष्ट करना और नम्बर छ:, अपना अनिष्ट करके दूसरे का इष्ट करना। अपना नुकसान भले ही हो जाय लेकिन इसका लाभ हो जाय। महाराज! हमको नरक में वास दे दो लेकिन इन जीवों का कल्याण करो, ये महापुरुषों का सिद्धान्त है। आप लोग इसको सोच नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।(प्रवचनकर्ता : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नारद-भक्ति-दर्शन की 11-दिवसीय व्याख्या के 9 वें दिन के प्रवचन से (1990)सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन का यह अंश हमारे लिये इस दिशा में मार्गदर्शन है कि हम अपना मन किधर से हटावें और किसमें लगावें? यह समझना और अच्छे से समझना बहुत आवश्यक है क्योंकि मन का ही सारा खेल है, बंधन और मोक्ष दोनों का कारण मन है। निम्नांकित प्रवचन अंश श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित पद - सुनो मन, एक काम की बात; की व्याख्या से ली गई है, जो उनके द्वारा भक्तिधाम मनगढ़ में सन 1984 में की गई थी। यह बाद में "कामना और उपासना" नाम से पुस्तक रुप में प्रकाशित हुई। आइये इस अंश से आध्यात्मिक लाभ हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करें ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहां से है....)...हमारे मन का, मायिक जगत में जितने भी चर अचर जीव हैं, चेतन अचेतन जीव हैं वहां मन का अटैचमेन्ट न हो। मायाबद्ध, ये शब्द न भूलना। नहीं तो कहीं आपके मायिक जगत में तुलसीदास, सूरदास भी हों और आप कहें ये मायिक जगत में हैं इसलिये इनसे भी अटैचमेन्ट न किया जाय। मायिक जगत में जो जड़ चेतन माया के अण्डर में हैं।इस जगत में तो सन्त लोग, मायातीत भी आते हैं और भगवान मायाधीश भी आता है, उनको छोड़कर जो माया के अण्डर में है वो तीन कैटेगरी में आते हैं, उनका तीन क्लास है - सात्त्विक, राजस, तामस। ये तीन प्रकार की जेल है - ए क्लास, बी क्लास, सी क्लास। हमारे देश में भी तीन क्लास की जेल होती है। तो महापुरुष और भगवान को छोड़कर के मायिक जगत के समस्त जड़ चेतन मनुष्य यानी जीव अथवा जड़ पदार्थ जिनमें जीव नहीं है, निर्जीव, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट न हो। न अनुकूल भाव से न प्रतिकूल भाव से, उसका नाम वैराग्य।अब ठीक इसके विपरीत परिभाषा बन गई भगवान की। भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनकी लीला, उनके गुण, उनके धाम, उनके सन्त, इनमें कहीं भी मन का अटैचमेन्ट हो, अनुकूल भाव से, वहां प्रतिकूल (विपरीत या उल्टा) भाव न लगाना। यद्यपि प्रतिकूल भाव से उपासना करके बड़े बड़े राक्षसों ने भगवान का धाम प्राप्त किया है, लेकिन आपको नहीं करना है वह। अनुकूल भाव से आपके मन का अटैचमेन्ट हो जाय। जड़ वस्तु में हो जाय, तो भी काम बन जायेगा। संसार में जैसे रसगुल्ला जड़ वस्तु है न, ऐसे ही आपका ब्रजरेणु (ब्रजधाम की धूल) में हो जाय अटैचमेन्ट, गोलोक के किसी कण में हो जाय आपके मन का अटैचमेन्ट तो भी आप भगवान का लोक प्राप्त करेंगे।लेकिन मन बहुत चंचल है। इसलिये सबमें लगाये रहना चाहिये, भगवान, उनका नाम, उनका रुप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त। सबमें मन को घुमाते रहो ताकि थके न मन।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
संदर्भ -कामना और उपासना पुस्तक, भाग - 1, प्रवचन - 1सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - प्रगटित ब्रजरस साहित्यजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज रसिक शिरोमणि हैं, जिन्होंने अपने अनगिनत प्रवचनों में न केवल श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति अर्थात माधुर्य भाव और उसमें भी समर्था रति, जिसे गोपी-प्रेम कहा जाता है; का सांगोपांग निरुपण किया बल्कि अपने द्वारा प्रगट किये गये ब्रजरस-साहित्यों में उस रस-साम्राज्य की हर एक झाँकी को साक्षात कर दिया है। इन रस-साहित्यों की सर्वप्रमुख विशेषता है कि इनमें स्वसुख की कामना की किंचित मात्र भी गंध नहीं है अपितु यह साहित्य-समुद्र तो हृदय को श्रीराधाकृष्ण की नाम, रुप, लीला, गुण, धाम आदि माधुरियों में बरबस निमज्जित, बरबस ओतप्रोत कर देता है।भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)इन ग्रन्थों के एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति में ज्ञान, प्रेम तथा रस की ऐसी गहराई है जिसकी कोई थाह नहीं है। जो जैसा और जितना बड़ा पैमाना लेकर जायेगा, वह वैसा और उतना अधिक इसका अनुभव कर सकेगा।आज हम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में कुछ जानेंगे, इस ग्रन्थ की विशेषतायें इस प्रकार हैं :::::::प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थविशेषतायें एवं सम्मतियां(1) आनन्दकन्द श्रीकृष्ण-चन्द्र को भी क्रीतदास बना लेने वाला उन्हीं का परम अन्तरंग प्रेम तत्व है तथा यही प्रत्येक जीव का परम चरम लक्ष्य है। प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ में इसका विशद निरुपण किया गया है तथा इसकी प्राप्ति का साधन भी बतलाया गया है।(2) यह पद-ग्रन्थ है तथा ब्रजभाषा में रचित है। इसमें कुल 1008 पद हैं।(3) ये सभी 1008 पद कुल 21 माधुरियों में विभक्त हैं।(4) ये 21 माधुरियां हैं - सद्गुरु, आरती, सिद्धान्त, दैन्य, धाम, प्रेम, श्रीकृष्ण बाललीला, श्रीराधा बाललीला, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, युगल, लीला, महासखी, निकुन्ज, मिलन, मान, मुरली, होरी, विरह, रसिया तथा प्रकीर्ण माधुरी।(5) इस ग्रन्थ के पदों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। रस-साहित्य का यह अद्वितीय ग्रन्थ है।(6) सगुण-साकार ब्रम्ह की सरस लीलाओं का रस-वैलक्षण्य विशेषरूपेण श्री कृष्णावतार में ही हुआ है। अत: इन सरस पदों का आधार उसी अवतार की लीलायें हैं तथा ये वेद शास्त्र, पुराणादि सम्मत तथा अनेक महापुरुषों की वाणियों के मतानुसार हैं।(7) श्रीराधाकृष्ण की रुप-माधुरी पर आधारित एक पद दृष्टव्य है। यह पद प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ की युगल-माधुरी से है (संख्या 19) ::::हमारे मन, बसे युगल सरकार।गौर वरनि वृषभानुनन्दिनी, नील वरन रिझवार।गरबाहीं दीने दोउ ठाढ़े, मंजु निकुंज मझार।उत पहिरे नीलांबर सोहति, इत पीतांबर धार।उत सोरह सिंगार सजीं उत, नटवर भेष सँवार।उत सिंगार मध्य छवि सोहति, इत छवि मधि श्रृंगार।बड़भागी 'कृपालु' जिन छिन-छिन, जोरी युगल निहार।।(8) सिद्धान्त-पक्ष का भी इस ग्रन्थ में बड़ा सुन्दर तथा विशद निरुपण किया गया है, सिद्धान्त-माधुरी का यह पद दृष्टव्य है (संख्या 77) ::::मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टाँगि बाँधि मुख गर्भहीनज़ समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नन्दकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।(9) प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ के विषय में हिन्दी-साहित्य जगत के कुछ विद्वानों की सम्मतियां ::::...संत कृपालुदास की प्रस्तुत कृति सूर, मीरा, नन्ददास, रसखान, भारतेन्दु आदि समर्थ कवियों की कला कृतियों की परम्परा का एक नवीन पुष्प है, जिसका हास-विलास लोकोत्तर भावों की सफल अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। उनके पदों की कोमल पदावली संगीतात्मक है, उसमें अनुभूति की तीव्रता है और उसकी कुशल अभिव्यक्ति भी है...(डॉ. रामकुमार वर्मा, साकेत-12 सितम्बर 1955, एम.ए. पी.एच. डी. एवं रीडर, हिन्दी डिपार्टमेन्ट, प्रयाग विश्वविद्यालय)
...प्राय: सामान्य कवि प्रेम और भक्ति पर लिखा ही करते हैं; किन्तु इस प्रकार लिखना कि उससे भक्ति-प्रेमरस संचरित हो, केवल उन्हीं पवित्रात्माओं और भावानुभूत सहृदयों का काम है जिनमें वस्तुत: प्रेम और भक्ति का सत्य स्वरुप प्रकाशित होता है। प्रेम और भक्ति पर लिखा तो प्राय: जाता है और बहुत लिखा जाता है, किन्तु उसमें सत्यता और शुद्धता का यथेष्टांश प्राय: बहुत ही कम रहता है। मुझे हर्ष है कि यह रचना हिन्दी-साहित्य-सेवियों को श्री कृपालुदास जी की कृपा से प्राप्त हुई है...(सुमित्रानन्दन पंत, डायरेक्टर, ऑल इण्डिया रेडियो, हिन्दी प्रोग्राम)(10) इस प्रकार इस रस-साहित्य का यह किंचित मात्र माहात्म्य वर्णन है, क्योंकि रसिकों के उद्गार की माहात्म्यता का वर्णन कोरी शुष्क तथा मायिक बुद्धि से कर पाना तो सर्वथा असम्भव है। आशा है कि सुधि रसिक पाठकगण इस ग्रन्थ का अवलोकन करने को प्रेरित होंगे।ग्रन्थ प्राप्ति के स्थान :::::
जगद्गुरु कृपालु परिषत के मुख्य आश्रम,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रचारक-गणजगद्गुरु कृपालु परिषत की साहित्य वेबसाइट www.jkpliterature.orgयूट्यूब चैनल www.youtube.com/JKP Prem Ras Madira(यह ग्रन्थ बिना अर्थ के तथा अर्थ सहित दोनों रुप में उपलब्ध है। अर्थ सहित यह 2 भागों में प्रकाशित हुई है।)
सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::
-- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज - संकीर्तन पद्धतिजगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु संकीर्तन के माध्यम से नित्य नवायमान दिव्य सुधा रस का पान कराते थे। जब वह स्वयं संकीर्तन कराते थे, वह रस अवर्णनीय है। प्रत्येक साधक यही अनुभव करता था, मानो अंग प्रत्यंग में अमृत का संचार हो रहा हो। प्रेमावतार गुरुदेव के एक एक अंग से, एक एक रोम से ऐसी सुधा धारा प्रवाहित होती थी कि मन करता था सहस्त्रों नेत्रों से, सहस्त्रों कर्णों से इस सौंदर्य, रुप, सुधा माधुरी का पान किया जाय। किन्तु इन प्राकृत इन्द्रियों द्वारा एक बूँद का आस्वादन भी नहीं हो सकता। कोई रसिक ही समझ सकता था कि वे संकीर्तन गाते समय अथवा नयी पंक्तियाँ बनाते समय प्रेमराज्य की किस भूमिका पर होते थे।संकीर्तन शिरोमणि कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन की 3 पद्धतियों (व्यास, नारद तथा हनुमत) को अपनाया है। किन्तु उनका अपना ही विलक्षण अद्वितीय ढंग है। श्री राधाकृष्ण के नित्य नवायमान एवं प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम से ओतप्रोत नित्य नवीन रचनाओं द्वारा ब्रजरस वितरित करना उनका स्वभाव है। प्रेमोन्मत्त अवस्था में आचार्य श्री के श्रीमुख से नित्य नवीन संकीर्तन नि:सृत होते थे। एक ही भाव के संकीर्तन विभिन्न प्रकार से प्रकट कर दिए और उनका नए नए प्रकार से गान किसी भी साधक के मन को श्यामा श्याम में सहज रुप से ही आसक्त कर देता है।ईश्वरीय प्रेम को नारद जी ने प्रतिक्षण वर्धमानं कहा है इसी रस को कृपालु महाप्रभु ने संकीर्तन में स्थापित करके यह सिद्ध कर दिया है कि नाम और नामी समान हैं। इनके अनुसार जिस दिन जीव को यह विश्वास हो जायेगा कि भगवान् और उनका नाम दो नहीं है, एक ही है, तुरंत भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भक्तियुक्त चित्त द्वारा संकीर्तन को ही कलियुग में भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है जो वेद शास्त्र सम्मत है।इसके अनुसार जीव का चरम लक्ष्य श्रीकृष्ण का माधुर्य भाव युक्त निष्काम प्रेम प्राप्त करना है तदर्थ श्रवण, कीर्तन, स्मरण इन 3 साधनों में भी स्मरण भक्ति प्रमुख है। सरलता से भगवत्स्मरण हो सके एतदर्थ नित्य नवीन नवीन रचनाओं की अमूल्य निधि द्वारा इन्होंने दुर्लभ युगल रस का वितरण करके कलिमल ग्रसित अधम जीवों को भी ब्रजरस में निमज्जित किया।समस्त वेदों शास्त्रों में कलिकाल में भवरोग के निदान के लिए एकमात्र हरिनाम संकीर्तन को ही औषधि बताया गया है। कलियुग में श्रीराधाकृष्ण का गुणानुवाद ही समस्त भवरोगियों के लिए रामबाण औषधि है। किन्तु इस घोर कलिकाल में अनेक अज्ञानियों, असंतों द्वारा ईश्वरप्राप्ति के अनेक मनगढ़ंत मार्गों, अनेकानेक साधनाओं का निरुपण सुनकर भोले भाले मनुष्य कोरे कर्मकांडादि में प्रवृत्त होकर भ्रांत हो रहे हैं।ऐसे में अज्ञानान्धकार में डूबे जीवों के वास्तविक मार्गदर्शन के लिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने दिव्य प्रेम रस मदिरा से ओतप्रोत स्वरचित अद्वितीय ब्रजरस संकीर्तनों द्वारा 'रूपध्यान' की सर्वसुगम, सर्वसाध्य, सरलातिसरल पद्धति से पिपासु जीवों को हरि नामामृत का पान कराकर ईश्वरीय प्रेम में सराबोर किया।वे स्वयं तो उस दिव्य प्रेमरस में डूबे ही रहते थे और सभी साधकों को भी संकीर्तन के माध्यम से बरबस प्रेम रस में नखशिख सराबोर करते रहते थे। ब्रजरसिकों ने जिस श्री राधाकृष्ण प्रेम माधुरी का वर्णन अपने साहित्य में किया है उसी दिव्य प्रेम रस को जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने कीर्तनों में पूर्ण रूपेण समाविष्ट कर दिया है जिसका श्रवण, मनन व कीर्तन भावुक हृदयों को श्यामा श्याम की प्रेम रस माधुरी से परिप्लुत कर देता है।उनके अनेक संकीर्तन आनंदकंद सच्चिदानंद श्री राधाकृष्ण के सांगोपांग शास्त्रीय रूपध्यान में अत्यंत सहायक है। प्रत्येक अंग का सौंदर्य चित्रण, उनकी लीला माधुरी, श्रृंगार माधुरी इतनी मनोहारी है कि बहुत कम प्रयास से ही साधक के मानस पटल पर युगल सरकार की सजीव झाँकी अंकित हो जाती है। अत: उनके ये अद्वितीय दिव्य प्रेम रस परिपूर्ण संकीर्तन एवं रूपध्यानकी अनूठी पद्धति साधक समुदाय के लिए परम उपयोगी है।ब्रजरसयुक्त उनके द्वारा रचित दिव्य संकीर्तन साहित्य :
1. प्रेम रस मदिरा (1008 पद अर्थ सहित),2. राधा गोविन्द गीत (11111 दोहे),3. भक्ति शतक (100 दोहे और व्याख्या),4. श्यामा श्याम गीत (ब्रजरसपरक 1008 दोहे)5. ब्रज रस माधुरी (भाग 1 से 4),6. युगल शतक (श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण संबंधित 100 कीर्तन)7. युगल माधुरी,8. युगल रस,9. श्री राधा त्रयोदशी (श्रीराधा रुप आदि पर 13 पद)10. श्री कृष्ण द्वादशी (श्रीकृष्ण रुप आदि पर 12 पद)11. संकीर्तन सरगम।इन दिव्य संकीर्तन ग्रन्थों के विषय में कल के लेख में सविस्तार जानेंगे। ये सभी संकीर्तन पुस्तकें उनके आश्रमों (मनगढ़, वृन्दावन, बरसाना, दिल्ली) तथा उनके प्रचारकों के पास उपलब्ध हैं।सन्दर्भ : जगद्गुरु कृपालु साहित्य/ JKP Magazinesसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारत में प्राचीन मंदिरों का अपना एक अद्भुत इतिहास रहा है। आज हम एक ऐसे मंदिर के बारे में बता रहे हैं, जो अपनी एक अनोखी खासियत के कारण प्रसिद्ध है। ये खासियत है- इस मंदिर के गुंबद की कभी परछाई नहीं पड़ती, जी हां... यह सच है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर है-ब्रहदीश्वर मंदिर।तमिलनाडु राज्य के तंजौर में स्थित ब्रहदीश्वर मंदिर तमिल वास्तुकला में चोलों द्वारा की गई अद्भुत प्रगति का एक प्रमुख नमूना है। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, ब्रहदीश्वर मंदिर हिंदू देवता शिव को समर्पित भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ, भारतीय शिल्प कौशल के आधारस्तम्भों में से एक है। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो कि ग्रेनाइट का बना हुआ है। बृहदेश्वर मंदिर अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और केन्द्रीय गुम्बद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। मान्यता है कि इस मंदिर में सबकी मनोकामना होती है।बृहदीस्वरा मंदिर को पेरुवुडइयर कोविल, राजराजेस्वरम भी कहा जाता है जिसे 11वीं सदी में चोल साम्राजय के राजा चोल ने बनवाया था। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर भारत के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बने हैं। तमिल भाषा में इसे बृहदीश्वर के नाम से संबोधित किया जाता है। यह मंदिर चोल शासकों की महान कला का केन्द्र रहा है। भगवान शिव को समर्पित बृहदीश्वर मंदिर शैव धर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल रहा है।हर महीने जब भी सताभिषम का सितारा बुलंदी पर हो, तो मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि राजाराज के जन्म के समय यही सितारा अपनी बुलंदी पर था। एक दूसरा उत्सव कार्तिक के महीने में मनाया जाता है जिसका नाम है कृत्तिका। एक नौ दिवसीय उत्सव वैशाख (मई) महीने में मनाया जाता है और इस दौरान राजा राजेश्वर के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया जाता था।बृहदेश्वर मंदिर वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का बेजोड़ नमूना है। इसके शिलालेखों में अंकित संस्कृत व तमिल लेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर की उत्कृष्टता के कारण ही इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का स्थान मिला है।मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम यानी द्वार के भीतर एक चौकोर मंडप है तथा चबूतरे पर नंदी जी की विशाल मूर्ति स्थापित है। नंदी की यह प्रतिमा भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नंदी की दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।12 बजे के बाद नहीं नजर आती परछाईयह मंदिर ग्रेनाइट की विशाल चट्टानों को काटकर वास्तु शास्त्र के हिसाब से बनाया गया है। इसमें एक खासियत यह है कि दोपहर 12 बजे के बाद इस मंदिर के गुंबद की परछाई जमीन पर नहीं पड़ती। आज तक वैज्ञानिक भी इस मंदिर के रहस्य को सुलझा नहीं सके हैं, कि आखिर क्यों इस मंदिर के गुम्बद की छाया 12 बजे के बाद जमीन पर नहीं पड़ती है । यानी दोपहर के वक्त मंदिर के हर हिस्से की परछाई तो जमीन पर दिखती है , लेकिन हैरानी की बात यह है कि मंदिर के गुंबद की परछाई धरती पर नहीं पड़ती है और यह बिल्कुल ही नहीं दिखती ।बृहदेश्वर मंदिर पेरूवुदईयार कोविल, तंजई पेरिया कोविल, राजाराजेश्वरम् तथा राजाराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।--
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक की साधना में बाधा पहुँचाने वाले अनेक बाधक तत्वों के विषय में अनेक बार समझाया है, यथा परदोष दर्शन, लोकरंजन, परनिन्दा आदि। इसी में एक बाधक तत्व है अनेकानेक शास्त्रों को स्वयं की बुद्धि के बल पर पढऩे और समझने का प्रयास करना। यद्यपि यह सुनने-पढऩे में थोड़ा अटपटा मालूम होता है तथापि सिद्धान्त अनुसार समझने पर इसे आसानी से समझा जा सकता है। अत: आइये श्री कृपालु महाप्रभु जी के ही शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें :::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है....)...अनेकानेक शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों को पढऩा कुसंग है। चौंको मत, बात समझो। कारण यह है कि वे महापुरुष के प्रणीत ग्रन्थ हैं, अतएव उन्हें हम भगवत्प्रणीत ग्रन्थ भी कह सकते हैं। उनका वास्तविक तत्त्व अनुभवी महापुरुष ही जानते हैं। तुम उन्हें पढ़कर अनेकानेक प्रश्न पैदा कर बैठोगे, जिनका कि समाधान अनुभव के बिना संभव नहीं।यदि किसी मात्रा में संभव भी है तो वह एकमात्र महापुरुष के द्वारा ही। अतएव हमारे यहाँ के प्रत्येक शास्त्रादि स्वयं प्रमाण देते हैं कि महापुरुष के द्वारा ही शास्त्रों का तत्वज्ञान हो सकता है -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।(गीता 4-34)यदि तुम शास्त्रों, वेदों को पढ़कर स्वयं ही तत्वनिर्णय करना चाहो तो सर्वप्रथम इस विषय में महापुरुष का निर्णय पढ़ लो। तुलसीदास के शब्दों में -श्रुति पुराण बहु कहेउ उपाई,छूटै न अधिक अधिक अरुझाई..अर्थात् यदि महापुरुष के बिना ही, अपने आप शास्त्रीय भगवद्विषयों का तत्वनिर्णय करने चलोगे तो सुलझने के बजाय उलझते जाओगे। सारांश यह है कि एक प्रश्न के समाधान के लिए तुम शास्त्रों में अपनी बुद्धि को लेकर उत्तर ढूंढऩे जाओगे तो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य न समझकर सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न करके लौटोगे, क्योंकि पुन: तुलसीदास ही के शब्दों में -मुनि बहु, मत बहु, पंथ पुराननि, जहां तहां झगरो सो..(विनय पत्रिका)अर्थात् अनेक ऋषि मुनि हो चुके हैं एवं उनके द्वारा प्रणीत अनेक मत भी बन चुके हैं। पुराणादिक में इस विषय में झगडे ही झगड़े हैं। फिर तुम्हारी बुद्धि भी मायिक है अतएव तुम मायिक अर्थ ही निकालोगे।(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ - साधन-साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रसजगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्तियोग रस के परमाचार्य हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थों तथा प्रवचनों में भक्ति तथा प्रेम तत्व का विशद विवेचन किया है। प्रेम की साकार स्वरुपा महारानी श्री राधारानी तथा उनके नाम, रुप, गुण, धाम, लीला आदि का भी अति मधुर तथा सरस वर्णन उन्होंने अपने ब्रजरसपरक ग्रन्थ-साहित्यों में किया है। निम्नांकित पद उनके द्वारा रचित प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ से है, जिसमें उन्होंने श्रीराधारानी जी के उन गुणों का वर्णन किया है, जिन पर विचार कर-करके उनका शरणागत जीव सदैव निर्भय रहता है। आइये हम भी उन गुणों पर गम्भीर चिन्तन कर उन्हीं श्रीराधारानी का महाश्रय ग्रहण करें :::::::::(यह पद नीचे इस प्रकार है..)श्री राधे हमारी सरकार, फिकिर मोहिं काहे की।
हित अधम उधारन देह धरें,बिनु कारन दीनन नेह करें,जब ऐसी दया दरबार, फिकिर मोहिं काहे की।
टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें,जब ऐसी सरल सुकुमार, फिकिर मोहिं काहे की।
भृकुटी नित तकत ब्रम्ह जाकी,ताकी शरणाई डर काकी,जब ऐसी हमारी रखवार, फिकिर मोहिं काहे की।
जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै,जब ऐसी कृपालु रिझवार, फिकिर मोहिं काहे की।।उपरोक्त पद का भावार्थ :::: जब किशोरी जी (श्रीराधेरानी) हमारी स्वामिनी हैं तब मुझे किस बात की चिंता है? जो पतितों के उद्धार के लिये ही अवतार लेती हैं एवं अकारण ही दीनों से प्रेम करती हैं। जब हमारी स्वामिनी के दरबार में इतनी अपार दया है, तब मुझे किस बात की चिंता है? हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि बुधि भूलकर दौड़ आती हैं। जब हमारी किशोरी जी इतनी सुकुमार और सरल स्वभाव की हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? ब्रम्ह श्रीकृष्ण भी जिनकी भौहें देखते रहते हैं अर्थात प्यारे श्यामसुन्दर भी जिनके संकेत से चलते हैं, उनकी (श्रीराधेरानी) शरण में जाकर फिर किसका भय है? जब ऐसी स्वामिनी जी हमारी रक्षा करने वाली हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है? जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी!' ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं। श्री कृपालु जी कहते हैं कि जब हमारी स्वामिनी जी शरणागत से इतना प्यार करती हैं, तब मुझे किस बात की चिंता है?ग्रन्थ का नाम - प्रेम रस मदिरा, प्रकीर्ण माधुरी, पद संख्या 21पद एवं ग्रन्थ के रचयिता : भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा जिज्ञासुओं के पूछे गये प्रश्नों का समाधान ::::::साधक का प्रश्न: हमारा अंत:करण कितना शुद्ध है, ये हम कैसे जानें? कोई पहचान है क्या इसकी?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::::::...इसकी एक पहचान है। जिसका हृदय जितना अधिक शुद्ध होगा, उसका हृदय, उसका मन उतनी ही जल्दी भगवान और महापुरुष की ओर खिंच जायेगा।भगवान और महापुरुष चुम्बक के समान हैं। चुम्बक पत्थर होता है, लोहे को खींच लेता है। तो एक चुम्बक पत्थर बीच में रख दो और चारों ओर सुइयां खड़ी कर दो लोहे की। तो जिस सुई में जितना अधिक शुद्धत्व होगा, वो उतनी जल्दी खिंचेगी और जिसमें जितनी गन्दगी होगी, मिलावट होगी, उतनी देर में खिंचेगी।जितना अधिक पाप का हृदय होगा उतनी देर में वो खिंचेगा भगवान और महापुरुष के सामने। तो अंत:करण की शुद्धि का यही प्रमाण है कि शुद्ध वस्तु को पाकर खिंच जाय। जितनी जल्दी खिंच जाय, जितने परसेंट सरेंडर हो जाय, वो ही उसका प्रमाण है कि हमारा हृदय कितना शुद्ध है, कितना पापात्मा है, गन्दा है।सन्दर्भ -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।