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- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनप्रत्येक जीव श्रीकृष्णचन्द्र का अंश है और अंश होने के नाते वह श्रीकृष्ण का सेवक है। श्रीकृष्ण का दासत्व ही उसका धर्म है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अनेक स्थानों पर गीता के उस श्लोक के व्याख्या की है जिसमें जीव के 3 कर्तव्य बतलाये गये हैं जो गुरु के पास जाकर उसे करने होते हैं। गुरु आध्यात्मिक पथ पर चलने का आधार है। इस श्लोक में तीनों कर्तव्यों में जो सर्वप्रमुख कर्तव्य है, करणीय है उसके संबंध में श्री कृपालु महाप्रभु जी क्या कहते हैं, आइये उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन के इस अंश से समझने की चेष्टा करें :::::::(यह याद रहे कि अंतिम लक्ष्य भगवत्सेवा ही है...)..सेवा में शरीर भी काम देता है और धन भी काम देता है। दोनों का फल मिलता है। अब किसी को समय कम है तो धन से सेवा करता है, किसी के पास शरीर है स्वस्थ, और समय है तो शरीर से भी सेवा करता है। अब किसी के पास धन भी नहीं है, और शरीर भी नहीं दे सकता वो, खाली नहीं है, गृहस्थ में है, तो मन से सेवा करता है केवल। तीनों आवश्यक है, जिसकी जैसी परिस्थिति हो, वैसा करे। लेकिन अंतिम गति सेवा ही है।भगवत्प्राप्ति के बाद गोलोक (भगवद्धाम) में भी दिव्य प्रेम मिलने के बाद भी सेवा ही अंतिम लक्ष्य है। और प्रारम्भ में भी शास्त्रों ने बताया है -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीता)गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा कि गुरु की शरण में जाओ तो पहले मन को शरणागत करो, बुद्धि को, उनकी आज्ञा मानो और परिप्रश्नेन, जिज्ञासु भाव से समझो फिलॉसफी, क्या करना है, क्यों करना है, क्या लक्ष्य है, कैसे मिलेगा और सेवया, और सेवा करो। ये तीनों चीजें बताई प्रारम्भ में भी और अंत में तो सेवा है ही है। लेकिन हर एक की परिस्थिति अलग-अलग होती है। इसलिये सबके लिये अलग-अलग नियम बता दिया है। जो तन, मन, धन तीनों से कर सके अत्युत्तम है, नहीं तीन से कर सकता दो से करे, मन और धन से। और दो भी नहीं कर सकता है तो मन से तो सबको करना ही चाहिये। वो मन तो हर एक के पास है।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(प्रवचन सन्दर्भ- अध्यात्म संदेश पत्रिका, अक्टूबर 2006 अंक)(सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- -जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु प्रदत्त प्रेमोपहारविश्व में पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम के पद से विभूषित जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज से आज कौन परिचित नहीं है!! समस्त विश्व जहाँ उनके द्वारा प्रकटित अलौकिक वैदिक दर्शन को पाकर धन्य हो रहा है, वहीं उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये सामाजिक सेवाओं के द्वारा भी लाभान्वित हो रहा है। भक्तियोग रस के अवतार तथा निखिल दर्शनों के समन्वयाचार्य श्री कृपालु जी महाराज का व्यक्तित्व विश्व के लिए आश्चर्यजनक ही रहा है, उन्होंने ज्ञान, कर्म तथा भक्ति - इन सभी क्षेत्रों में सर्वोच्चता प्राप्त की थी। उन्होंने अपने भीतर छिपे ज्ञान तथा प्रेम के अथाह समुद्र से समस्त चराचर को परिप्लुत कर दिया। सनातन वैदिक परम्परा के अद्वितीय स्तम्भ स्वरुप उन्होंने कुछ प्रेमोपहार इस विश्व को दिये हैं। यथा प्रेम मंदिर, कीर्ति मंदिर तथा भक्ति मंदिर। आज हम इसी कड़ी में श्रीवृन्दावन धाम स्थित प्रेम मंदिर के विषय में जानेंगे जो कि स्वयं मूर्तिमान प्रेम का ही मानो साकार स्वरुप है। यह मंदिर युगों-युगों तक भक्ति तथा प्रेम की ध्रुव-ध्वजा रहेगा::::::::श्री प्रेम मंदिर, श्रीधाम वृन्दावन(जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु प्रदत्त प्रेमोपहार)0 शिलान्यास समारोह - 14 जनवरी 20010 कलश स्थापना - 15 सितंबर 20100 उद्घाटन समारोह - 15-17 फरवरी 2012प्रेम मंदिर के उदघाटन समारोह पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसके नाम के सम्बन्ध में यह कहा था -...अधिकांश मंदिरों का नाम भगवान् के विभिन्न स्वरूपों पर आधारित होता है, जैसे - श्री राधाकृष्ण मंदिर, श्री राम मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, हनुमान मंदिर इत्यादि। किन्तु मैंने इसका नाम प्रेम मंदिर इसलिए रखा है कि यद्यपि भगवान सबसे बड़े हैं लेकिन प्रेम ऐसा तत्व है जिसके आधीन भगवान् हो जाते हैं, इसलिए मुख्य द्वार पर मैंने यह दोहा लिखवा दिया -
प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया'...प्रेम मंदिर से संबंधित कुछ बातें -(1) प्रेम मंदिर का सम्पूर्ण परिसर 54 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है जो मनमोहक उद्यानों, फव्वारों, श्री राधाकृष्ण की मनोहर झांकियों; यथा श्री गोवर्धनधारण लीला, कालिया नाग दमन लीला, झूलन लीला आदि से सुसज्जित है।(2) नागरादि शैली में निर्मित दो मंजिला प्रेम मंदिर गोलोक और साकेत लोक, वृन्दावन और अयोध्या का सुनहरा संगम है अर्थात् मंदिर भूतल पर जहाँ वृन्दावन बिहारी श्री यादवेन्द्र सरकार श्रीकृष्ण अपनी ह्लादिनी शक्ति प्रेमतत्व की सारभूत स्वरूपा नित्य निकुंजेश्वरी वृषभानुनंदिनी श्री राधिका एवं परमप्रिय अष्ट-महासखियों के साथ नित्य निवास करते हैं। ये अष्ट महासखियां प्रत्येक जीव को प्रेरित करती हैं कि वो अपने नित्य दासत्व को पाने के लिए दासानुदास बनकर प्रेम याचना करे। दूसरी ओर प्रथम तल पर साकेत बिहारी श्री राघवेंद्र सरकार जगज्जननी जनकनंदिनी माँ सीता सहित भक्तों को दर्शन प्रदान करती हैं।(3) मंदिर के भूतल पर निर्मित भव्य मंडप के दक्षिण दिशा में निर्मित एक छोटे आकर्षक मंदिर में भक्तों के विशेष आग्रह पर, अत्यधिक विनय करने पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने स्वरुप को प्रतिष्ठापित करने की अनुमति प्रदान की। उत्तर दिशा में निर्मित मंदिर में श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रवक्ता श्री शुकदेव परमहंस विराजमान हैं। दूसरी ओर दक्षिण दिशा में श्री कृपालु जी महाराज को भागवत के विस्तृत अर्थों को लिखते हुए चलमूर्ति के रुप में दर्शाया गया है। श्री कृपालु जी महाराज का सम्पूर्ण साहित्य श्रीमद्भागवत महापुराण की सरलातिसरल व्याख्या ही है।(4) प्रथम तल पर मंडप के उत्तर दिशा में चारों पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं एवं ब्रजरस रसिकों यथा श्री वल्लभाचार्य जी, श्री जीवगोस्वामी जी, स्वामी श्री हरिदास जी एवं श्री हितहरिवंश जी विद्यमान हैं। दक्षिण दिशा में प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की लीलाओं का सुन्दर चित्रण किया गया है।(5) सम्पूर्ण मंदिर की भव्यता, सुंदरता, पच्चीकारी, नक्काशी, स्तंभों पर गढ़ी मूर्तियाँ, दीवारों पर उभारी गई विभिन्न झाँकियों व लीलाओं के दृश्य हैं। स्थान स्थान पर दीवारों पर मूल्यवान पत्थर से उकारे गए श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित प्रेम रस मदिरा के विभिन्न पद, रसिया व राधा गोविंद गीत आदि ग्रंथों के दोहे, श्यामा श्याम की रागानुगा भक्ति का मूर्तिमान स्वरुप दर्शाते हैं।(6) सम्पूर्ण वैदिक दर्शन का ज्ञान कराने वाली जगद्गुरु कृपालु महाराज द्वारा विरचित कृपालु त्रयोदशी एवं ब्रजरस त्रयोदशी को मूल्यवान जड़ाऊ पत्थरों की पच्चीकारी द्वारा गर्भगृह द्वार के दोनों ओर की दीवारों पर उकेरा गया है।(7) अन्य निर्माण विशेषताओं की बात करें तो प्रेम मंदिर के निर्माण में 30 हजार टन आयातीत इटालियन करारा मार्बल का प्रयोग किया गया है। यह विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसके निर्माण में ठोस इटालियन मार्बल का प्रयोग किया गया है।(8) 4 फुट ऊंचे, 190 फुट लम्बे व 128 फुट चौड़े विशाल सिंहासन पर विराजमान है - शुभ्र वर्ण प्रेम मंदिर। इसका 20 फुट ऊंचा भूमितल, 18 फुट ऊँचा प्रथम तल, 115 फुट ऊंचा शिखर है। ध्वजा सहित प्रेम मंदिर की ऊंचाई 125 फुट है। गर्भगृह की दीवारें 8 फुट चौड़ी हैं जिसके कारण यह विशाल मंदिर शिखर, स्वर्ण कलश व ध्वजा का भार सरलता से वहन कर रही है।(9) प्रेम मंदिर के 54 नक्काशीदार स्तम्भ मानों भुजा उठाकर भक्ति, भक्त व भगवान् की निरंतर जय जयकार करते रहते हैं। इन कला मंडित स्तंभों पर किंकरी और मंजरी सखियों के विग्रह बनाये गए हैं।(10) मंदिर परिसर पर दूर से ही प्रथम दृष्टि पड़ते ही ध्वजा सहित 125 फुट ऊंचे शिखर के दर्शन होते हैं उसके नीचे 53 फुट ऊंचा गुम्बदाकार मंडप सामरन, उसके दोनों ओर दो बड़े व चार छोटे गुम्बदाकार सामरन हैं तथा भूमि तल व प्रथम तल के दो सामरन मिलकर एक नक्काशीदार उज्ज्वल दिव्य पर्वत श्रृंखला का आभास देते हैं। मंदिर के निर्माण में कहीं भी लोहे या इस्पात का प्रयोग नहीं किया गया है।मंदिर निर्माण के कारीगर यद्यपि मंदिर निर्माण की शिल्पकला, वास्तुकला, कारीगरी, नक्काशी के मर्मज्ञ रहे हैं किन्तु प्रेम मंदिर निर्माण के समय यही अनुभव हुआ कि श्री राधा रानी की कृपा शक्ति ही स्वयं कार्य करा रही है। कितनी समस्याएं आईं किन्तु जब श्री कृपालु जी महाराज के पास कोई भी समस्या जाती वह प्रत्युत्तर में केवल मुस्कुरा देते। लेकिन उस मुस्कान से ही उन्हें ऐसी शक्ति मिल जाती कि तुरंत समस्याओं का समाधान तो हो ही जाता, साथ ही ऐसा लगता वे स्वयं हमारे मस्तिष्क में बैठकर ड्राइंग बनवा रहे हैं और युक्ति सुझा रहे हैं।दिव्य प्रेम तत्व को प्रकाशित करने के लिए जिन्होंने 'प्रेम मंदिर' नाम से भव्यातिभव्य दिव्योपहार श्री वृन्दावन धाम की समर्पित किया है ऐसे श्री प्रिया प्रियतम के प्रेम रस रसिक गुरुवर कृपावतार जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु को कोटि कोटि प्रणाम !!(लेख संदर्भ/स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, प्रेम-मंदिर विशेषांकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलावस्तुत: भक्ति अथवा साधना के पथ पर चलते चलते साधक बहुधा अनेक बाधाओं में फंस जाता है, जिससे उसकी साधना की गति रुक जाती है, बदल जाती है और खतरा यह भी है कि वह उस मार्ग से ही च्युत हो सकता है। यूं तो साधना मार्ग में अनेक ऐसी बाधाएं हैं किंतु एक सबसे बड़ी बाधा अथवा लापरवाही, जो न जाने कब साधक को अपने चंगुल में जकड़ लेती है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से हम सभी उसे समझें और अपनी साधना को इस भयंकर व्याधि से बचाकर चलें ::::::::(यहाँ से पढ़ें....)परदोष दर्शन और स्वगुण बखान के कारण साधक साधना करके भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही बने रहते हैं। साधना का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता, उल्टा हानि होती है। स्वयं में आध्यात्मिक प्रगति न पाकर साधकों की निराशा बढऩे लगती है। उससे कई तरह के अपराध होने लगते हैं। इतना ही नहीं , उसकी श्रद्धा हरि-गुरु के प्रति भी डगमगाने लगती है और उनके अपने मन में सर्वस्व हरि-गुरु के प्रति भी गलत विचार आने लगते हैं, जिसे शास्त्रों-वेदों में नामापराध कहा गया है। यह सबसे बड़ा पाप है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। इससे तो पुन: गुरु ही उबार सकता है हम पर अहैतुकी कृपा करके। परदोष दर्शन से दो हानि होती है - एक तो वह दोष हमारे मन में आएगा, दूसरा इसके साथ हममें अहंकार भी आएगा। मन से ही तो दोष का चिन्तन करोगे न! तो वह मन में आएगा और मन को और गंदा करेगा। उसका दोष तो जाएगा नहीं, उल्टे तुम और दोषी हो जाओगे।किसी की गंदगी को अपने अंदर डाल लेने से तो तुम्हारा मन और गंदा ही होगा। तो मन से यदि दूसरे का दोष देखेंगे तो हम सदोष हो जाएंगे। अनन्त जन्मों में अनन्त अपराध हम लोगों ने किए हैं , इसलिए ऐसे ही क्या कम सदोष हैं हम जीव? और ऊपर से और दूसरे का दोष मन में लाकर इसे और गंदा ही किए जा रहे हैं, अरे हमको तो अपने अन्त:करण को शुद्ध करना है और हम उल्टा किये जा रहे हैं।दूसरे में दोष देखने से अपने में अहंकार आयेगा। ऐसे ही कम अहंकार है क्या? यही अहंकार ही तो हमे चौरासी लाख में घुमा रहा है। इसलिए सावधानी परमावश्यक है। यदि हम सावधान न रहे तो ये दोनों ही दोष हमारे अंदर बलवान होते चले जायेंगे।नम्बर तीन, हम इसी प्रकार अगर अपने में गुण देखेंगें, तो अपने में दोष नहीं दिखाई पड़ेगा। साधना तो हम करेंगें, किन्तु हम इसके साथ यह भी करेंगें चोरी-चोरी, हमने इतना कीर्तन किया, इतना भजन किया, इतना दान किया। स्व-प्रशंसा की तुष्टि हेतु हम बारम्बार इसकी आवृत्ति करेंगें और हमें इसकी आदत पड़ जाएगी। बिना बताये चैन नहीं। हमें अपनी साधना का अहंकार हो जाएगा। दिन-रात इसी में व्यस्त रहेंगें, साधकों के दोष नही जाएँगे क्योकि भगवान के चिन्तन का हमारे पास समय ही कहां होगा!हम तो गुणों का चिन्तन कर रहें है अपने। लोगों से बस यही कहते फिर रहें हैं। इसलिए यह गांठ बांधकर मन में बैठा लो की परमार्थ का जो भी काम करो, उसमे यह समझो कि यह भगवान और गुरु की कृपा ने करा लिया मुझसे। वरना मैं करता भला! अरे हमारे कितने भाई - बहन संसार में हैं! वे क्या कर रहें हैं? पूरे संसार का चिन्तन। उसी में चौबीसों घंटे लगे हैं। मां, पिता, बेटा, बीवी, पैसा , सम्मान, सब उसी के चक्कर में लगे हैं। पता नहीं हमारे ऊपर क्या कृपा हो गई भगवान और गुरु की, कि हमको तत्त्वज्ञान हो गया। यह चिन्तन हो, उसमें भगवत्वकृपा मानो। परदोष दर्शन के स्थान पर अपने दोषों को दूर करने का सोचो हरदम, तो फिर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ोगे भगवत-क्षेत्र में।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज विस्तृत प्रवचन श्रृंखलाभगवान के प्रिय पार्षद भक्ति के आचार्य देवर्षि नारद जी ने 84 सूत्रों का एक दर्शन दिया है, जिसे नारद-भक्ति-दर्शन अथवा नारद-भक्ति-सूत्र के नाम से जाना जाता है। यह दर्शन भक्ति-तत्व की बड़ी गूढ़ तथा सम्पूर्ण व्याख्या करता है, जिसमें 84 छोटे-छोटे सूत्र हैं। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस पर एक विस्तृत प्रवचन दिया है, जिसमें उन्होंने उन सूत्रों की बड़ी विशद विवेचना कर उसे और अधिक सरलतम रुप में जीवों के समक्ष रखा ताकि वे उसके द्वारा भक्तिमार्ग अथवा प्रेममार्ग पर अधिक सुगमता से एक आधार लेकर आगे बढ़ सकें। नीचे दिया प्रवचन अंश उसी प्रवचन श्रृंखला से लिया गया है, आगे भी इस प्रवचन-माला के कई अंश साधन-पथ के लाभार्थ प्रकाशित किये जायेंगे :::::::::(जब इधर छूटेगी, तब उधर की बनेगी - यहाँ से पढ़ें..)...अन्धकार और प्रकाश में जितना बड़ा विरोध है, इतना बड़ा विरोध है भक्ति और कामना में। ये भगवान शब्द का प्रयोग ही तब होगा जब संसार की कामनाओं को छोडऩे का आप निश्चय करेंगे। अन्यथा भगवान की आवश्यकता क्या? अगर संसार में सुख है - ये हमारा डिसीजन है तो संसार सम्बन्धी कामना करते जाओ, मरते जाओ उसी में। ये भगवान नाम की चीज कब आयेगी? जब संसार की कामनाओं से और बीमारी बढ़ती है, यह बात बुद्धि में बैठेगी तभी तो हम भगवान की बात मस्तिष्क में लायेंगे, भगवान् की बात समझने के लिये विद्वानों और महात्माओं के पास जायेंगे। क्यों जायेंगे? भगवान् की बात समझना है। क्यों? वो भगवान की भक्ति प्राप्त करना है। क्यों? संसार की कामना से थक गये, पेट भर गया, चप्पल खाते-खाते समझ में आ गया यानी वो अज्ञान जो 'मैं देह हूँ' ये था, ये जितना कम होगा और 'मैं आत्मा हूँ, श्रीकृष्ण का दास हूँ' - यह ज्ञान जितना परिपक्व होगा, उसी हिसाब से ही तो हम ईश्वर की ओर चलेंगे। तो मूल कारण है अज्ञान और अज्ञान का कारण कौन है? माया, और माया का कारण कौन है? हम भगवान से बहिर्मुख हैं, पीठ किये हैं।
(स्त्रोत- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नारद-भक्ति-दर्शन पर दिये गये प्रवचन से उद्धृत संक्षिप्त अंशसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के सारगर्भित प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासायें व्यक्त की थी, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें :::::(यहाँ से पढ़ें....)प्रश्न : ईश्वरीय मार्ग में तेजी से आगे कैसे बढ़ा जाए?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::::::यह तो आपके प्रयत्न पर निर्भर करता है। कोई लड़की 24 घंटे में एक घंटे ही पढ़ी, 10/100 रिजल्ट आएगा। जितना श्रम करोगे उतना ही फल मिलेगा। चाहे ईश्वरीय राज्य हो अथवा मायिक राज्य हो। दोनों ही राज्यों में परिश्रम की लिमिट के अनुसार ही फल की लिमिट होती है। यदि हम चाहते हैं, कि हम जो कुछ कमा रहे हैं, उतना ही बना रहे तो भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि माइनस करने वाली बातें न होने पाये।अगर 24 घंटे में 12 घण्टे भगवत चिंतन किया और 12 घंटे माया का चिंतन किया तो दोनों का बैलेंस बराबर हो गया। आगे तो बढ़ नहीं पाये। यह हम मानते है, कि एटमॉस्फियर भी एक कारण है चिंतन का लेकिन सबसे बड़ा कारण यही है कि मन ने भगवान की उपासना को क्यों बन्द कर दिया। अगर तुमने टाइम भी दिया और जो तत्वज्ञान समझाया जा रहा है, उसके अनुसार आपने ईश्वरीय चिंतन के तत्वज्ञान को अपने साथ नहीं रखा तो गड़बड़ हो जाएगी और अगर ईश्वरीय चिंतन बना रहा तो और गड़बड़ भी बहुत कम असर कर पायेगी। लेकिन ज्यादातर होता यह है कि कमाई की, कुछ जमा हो पायी कि गँवाई शुरू हो गयी और सारी कमाई हवा हो गयी।अन्त:करण एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नये-नये संस्कार हावी होते रहते हैं। और पुराने संस्कार दब जाते है। अगर एक माह में आपने ईश्वरीय संस्कारों को कर लिया और उसके बाद संसार में जाकर लापरवाही की और ईश्वरीय चिंतन नहीं किया तो अन्त:करण पर संसार का मैल फिर जम जाएगा। यह जो राग-द्वेष का आप चिंतन करते हैं उसका अन्त:करण पर काई के समान मैल जम जाता है। जो कमाई आपने की थी वह दब गयी।इस प्रकार से हमें अपने मन पर ही ध्यान देना है, इस मन के बहकावे में नहीं आना है।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित अक्षि उपनिषद में महर्षि सांकृति और आदित्य के मध्य प्रश्नोत्तर के मध्यम से चक्षु-विद्या तथा योग-विद्या पर प्रकाश डाला गया है। यह उपनिषद दो खण्डों में विभाजित है।प्रथम खण्ड में भगवान सांकृति उपासना करके सूर्य से नेत्र-ज्योति को शुद्ध और निर्मल करने की प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं- हे सत्वगुण स्वरूप, नेत्रों के प्रकाशक और सर्वत्र हज़ारों किरणों से जगत् को आभायुक्त करने वाले सूर्यदेव! हमें असत से सतपथ की ओर ले चलों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्युर्माऽमृतं गमय।ऋषि ज्योति-स्वरूप सूर्य से अपनी आंखों की निरोग रखने की प्रार्थना करते हैं। जो ब्राह्मण प्रतिदिन सूर्य के लिए इस चाक्षुष्मती-विद्या का पाठ करता है, उसे नेत्र रोग कभी नहीं होते और न उसके वंश में कोई अन्धत्व को ही प्राप्त होता है।दूसरे खण्ड में ऋषिवर सूर्य से ब्रह्म-विद्या का उपदेश देने की प्रार्थना करते हैं। आदित्य देव (सूर्यदेव) उत्तर देते हुए कहते हैं- हे ऋषिवर! आप समस्त प्राणियों की भांति अजन्मा, शांत, अनन्त, धु्रव, अव्यक्त तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्य-स्वरूप परब्रह्म को देखते हुए शान्ति और सुख से रहें। आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त इस जगत् में अन्य किसी का आभास न हो, इसी को योग कहते हैं। इस योगकर्म को समझते हुए सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।योग की ओर प्रवृत्त होने पर, अन्त:करण दिन-प्रतिदिन समस्त भौतिक इच्छाओं से दूर हो जाता है। साधक लोक-हित के कार्य करते हुए सदैव हर्ष का अनुभव करता है। वह सदैव पुण्यकर्मों के संकलन में ही लगा रहता है। दया, उदारता और सौम्यता का भाव सदैव उसके कार्यों का आधार होता है। वह मृदुल वाणी का प्रयोग करता है और सदैव सद्संगति का आश्रय ग्रहण करता है।---
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनों से 5 सार सार बातें; जो हमारे आध्यात्म-लाभ में सहायक बन सकते हैं ::::(1) साधक को बड़ी सावधानी से सद्गुरु के आदेश का सदा पालन करना चाहिए। गुरु आदेश-पालन से ही श्यामा-श्याम की प्राप्ति होगी।(2) संसारी व्यवहार करो, संसार का काम करो, लेकिन एक प्रमुख आदेश है कि अपने गुरु और इष्टदेव को सदा अपने साथ रखो।(3) द्वेष करने वाले के प्रति भी द्वेष न करो. दूसरों की गलती के प्रति सहनशील बनो। गलती प्रत्येक व्यक्ति करता है, अत: सबसे नम्रता एवं दीनता का व्यवहार करो।(4) आहार-विहार सब नियमित होना चाहिए। शरीर को जिन जिन तत्वों की आवश्यकता है ये सब आपके खाने में होने चाहियें, विटामिन ए, बी, सी, डी सब होने चाहिए। जबान (स्वाद) के लिए मत खाओ। खाने के लिए जिंदा न रहो, जिंदा रहने के लिए खाओ।(5) महापुरुष को हमारे क्लास का सब अनुभव पहले से ही है। इसलिए वो हमारे दु:ख को हमारी दयनीय दशा को समझ करके उसी के अनुसार चलेगा और उसी के अनुसार दवा करेगा, हमारी हेल्प करेगा।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - -कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनकृपा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और एक ऐसी चीज है ये कृपा जिसकी आस प्रत्येक को अपने जीवन में होती है। किन्तु क्या आप जानते हैं कि 'कृपाओं' में महत्वपूर्ण कृपायें कौन सी हैं? आइये जानें विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन के द्वारा, तथा पढ़कर कुछ क्षण रुककर यह विचार भी करें कि हम कृपा के साथ न्याय करते हैं या नहीं, अगर नहीं तो निश्चय ही कृपा का मोल समझकर जीवन परिवर्तित करने की आवश्यकता है :::::::(यहाँ से पढ़ें...)तीन प्रकार की भगवत्कृपा होती है। एक कृपा, एक विशेष कृपा, एक अद्भुत कृपा, ये तीन कृपायें होती हैं भगवान की। किसी का पुण्य थोड़ा है, उसके ऊपर एक कृपा हुई। किसी का पुण्य विशेष अधिक है तो दो कृपा हो गई और किसी का बहुत पुण्य है तो तीन कृपा होती है। ये तीनों दुर्लभ हैं। बहुत दुर्लभ, हज़ारो में एक ऐसा नहीं, लाखों में एक ऐसा नहीं, करोड़ो में एक ऐसा नहीं, अरबों में एक ऐसा नहीं। अनंत में एक होता है। ये ऐसी कृपा है।पहली कृपा मानवदेह प्राप्त होना। ये मानवदेह सब देहों में श्रेष्ठ है। देवताओं के देह से भी श्रेष्ठ है।दूसरी कृपा महापुरुष का मिलना; ये विशेष कृपा। जिसको भगवत्प्राप्ति हो गई हो, जो भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग जानता हो, हमको बता सके ऐसा वास्तविक महापुरुष अगर किसी को मिल गया तो ये नंबर दो की कृपा हुई।तीसरी कृपा, तीसरी चीज जो सबसे इम्पोर्टेन्ट है, जिसको अद्भुत कृपा कहते हैं, भूख कहते हैं, जिज्ञासा, वो पाने की व्याकुलता। जो हमारे ऊपर नहीं हुई या बहुत कम हुई।बार- बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है, अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ, कितनी भगवत्कृपायें मेरे ऊपर हुई हैं!! देव- दुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को ही मिलता है, फिर मेरे जैसा सौभाग्यशाली कौन होगा, जिसको ऐसा गुरु मिला जो केवल कृपा ही करता है। जब उनका अनुग्रह प्राप्त है तो निराशा की क्या बात है? धिक्कार है मेरे जीवन को।अपनी बुद्धि को उनके श्री चरणों में डाल दो तो निराशा हट जायेगी। और अगर हट गई और मृत्यु हो गई, तो अगले जन्म में आपको आशावाद के अनुसार ही फल मिलेगा। अगर कोई गलती हमसे हुई भी हैं तो भविष्य में अब गलती न करें, ये प्रतिज्ञापूर्वक चिन्तन के द्वारा ठीक कर लें। महापुरुष का पाया हुआ प्यार-दुलार, दर्शन, स्पर्शादि जो मिला है उसको, अगर कोई जीव उसका मूल्य आँके, तो फिर कुछ करना ही नहीं है उसको। वो चिंतन ही पर्याप्त है, अनंत भगवत्प्राप्ति की कौन कहे। और अगर मूल्यांकन न करेगा तो कितनी कृपा भगवान कर दें, कितने ही सामान ला के आपकी गोदी में रख दें और आप उसका मूल्य ही नहीं समझना चाहते तो ये आपकी कमजोरी है।अगर कोई महापुरुष का महत्व नहीं समझता तो उसको महापुरुष के मिलने से कोई लाभ नहीं मिलेगा। उसको उतने परसेन्ट ही लाभ मिलेगा जितने परसेन्ट वह उसको महापुरुष मानेगा। तो जितना अधिक महत्व समझोगे, उतना लाभ मिलेगा। महापुरुष को देख लिया एक बार, बहुत बड़ी कृपा है। कोई कर्म नहीं, कोई यज्ञ नहीं है, कोई दान नहीं, कोई तपस्या नहीं कि जो महापुरुष को सामने ला के खड़ा कर सके। भगवान को भले ही कोई देख ले, महापुरुष उससे बड़ी पॉवर है।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित पद पर विचार करेंमृत्यु अटल होती है और सबसे बड़ी बात कि यह कब आ जायेगी, इसका कुछ पता नहीं है। देखते-देखते ही हमारे सामने कितने ही लोग, सगे-संबंधी आदि मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। यह सत्य है कि मृत्यु का समय निश्चित है, पर कब, यह कौन जाने? देवताओं को भी दुर्लभ यह मनुष्य शरीर जिस उद्देश्य के लिये, अर्थात अपना परमार्थ बना लेने के लिये मिला है, किन्तु क्षण-क्षण उस लक्ष्य को भूले हमारा जीवन बीता जा रहा है। इसी लापरवाही पर चेतावनी देते हुए जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित यह पद है, आइये इस पद के शब्द-शब्द पर गंभीरतापूर्वक विचार करें ::::::::(यहाँ से पढ़ें...)अरे मन! अवसर बीत्यो जात।काल-कवल वश विधि हरि, हर सब, तोरी कहा बिसात।लहि पारस नर-तनु सुर-दुर्लभ, गुंजन-हित भटकात।बधिर, अंध जिमि सुनत न देखत, रहत विषय मदमात।अब करिहौं, अब करिहौं , इमि कहि, रहि जैहौ पछितात।होत कृपालु प्रलय पल महँ तू, केहि बल पर इतरात।।भावार्थ : अरे मन! यह स्वर्ण अवसर बीता जा रहा है। तेरी तो गिनती ही क्या है? ब्रम्हा, विष्णु, शंकर आदि सभी सीमित आयु वाले काल के ग्रास बन जाते हैं। पारस के समान देवताओं के लिये भी दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर भी तू अज्ञानवश सांसारिक विषयरूपी घुंघुची के बनावटी सौंदर्य पर मुग्ध हो रहा है। बहरे एवं अंधे के समान तू न तो सत्पुरुषों की बातें ही सुनता और न स्वयं ही संसार के मिथ्यापन को देखता है। विषयों में ही मतवाला हो रहा है। अब इसके बाद करुंगा, अब इसके बाद करुंगा - ऐसा बार-बार कहते हुये रह जायेगा। अन्त में पछताना ही पल्ले पड़ेगा। श्री कृपालु जी कहते हैं कि एक क्षण में तो प्राण महाप्रलय (मृत्यु) कर जाते हैं, तू बार-बार भविष्य के लिये क्यों छोड़ देता है। उस मृत्यु को रोकने के लिये तेरे पास शक्ति ही क्या है, जिस पर इतरा रहा है?(ग्रन्थ - प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी, पद संख्या 7रचयिता - जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
- श्राद्ध पक्ष ही वह 16 दिवस है जब हमें श्याम वर्ण के पक्षी कौए की महत्ता का ज्ञान होता है, कौआ यम का प्रतीक है, मृत्यु का वाहन है, जो पुराणों में शुभ-अशुभ का संकेत देने वाला बताया गया है। इस कारण से पितृ पक्ष में श्राद्ध का एक भाग कौओं को भी दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बड़ा ही महत्व है। श्राद्ध का एक अंश कौए को भी दिया जाता है। कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बात बताई गई है, मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौआ अगर आपके दिए अन्न को आकर ग्रहण कर ले तो तो माना जाता है कि पितरों की आप पर कृपा हो गई।गरुड़ पुराण में तो कौए को यम का संदेश वाहक कहा गया है। श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है। मान्यता है कि पितृपक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौए को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उनके पितर ग्रहण करते है। शास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। कौआ यम का दूत होता है।आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के 16 दिनों में कौआ हर घर की छत का मेहमान होता है। लोग इनके दर्शन को तरसते हैं। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। इन दिनों में कौए एवं पीपल को पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। धर्म ग्रंथ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को रस चख लिया था। यही कारण है कि कौए की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है। यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।यह बहुत ही रोचक है कि जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। यह आपने कभी ख्याल किया हो तो कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता। यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है। भोजन बांटकर खाने की सीख हर किसी को कौए से लेनी चाहिए। कौए के बारे में पुराण में बताया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है। कौए को यमस्वरूप भी माना जाता है और न्याय के देवता शनिदेव का वाहन भी है।कौआ का सबसे पहला रूप देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने लिया था। त्रेतायुग में एकबार जब भगवान राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मार दी थी। तब श्री राम ने तिनके से जयंत की आंख फोड़ दी थी। जयंत ने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में तुम्हें हिस्सा मिलेगा। तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि पितृ पक्ष में कौए को भी एक हिस्सा मिलता है।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अमृत वाणीजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में मानव-देह के महत्व तथा भगवान और गुरु की कृपाओं को बार-बार महसूस करते हुये भक्तिमार्ग पर निरन्तर आगे बढऩे की प्रेरणा अनगिनत बार दी है। वस्तुत: अनंत देहधारियों में मनुष्य देह प्राप्त करने वाले विशेष सौभाग्यशाली हैं। मानव देहप्राप्ति के सौभाग्य के साथ ही भगवान तथा गुरु के द्वारा प्रदत्त अन्य सौभाग्यों पर विचार करने संबंधी उनके इन वचनों को आइये हम पुन:-पुन: चिंतन, मनन करें :::::::(यहाँ से पढ़ें...)देवदुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को मिलता है, यानी पूरे ब्रह्माण्ड में केवल सात अरब मानव हैं। जबकि एक फुट गड्ढे में पांच अरब जीव रहते हैं। सोचो कि तुम कितने भाग्यशाली हो। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा। फिर उनमें वे और भाग्यशाली हैं, जिन्होंने भारत में जन्म लिया है, क्योंकि यहां जन्म से ही भगवान का नाम सुनने में आता है। धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे। फिर भारत में वो और भाग्यशाली हैं, जिनको कोई महापुरुष मिल गया है। जिसके पीछे भगवान चरण धूलि के लिये चलते हैं। अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभि:। फिर उन भाग्यशालियों में वे और भाग्यशाली हैं, जो गृहस्थ के प्रपंच से गुरु द्वारा बचाये गये हैं। फिर उनके भाग्य की सराहना क्या की जाए जो गुरु आश्रम में परम त्यागमय जीवनयुक्त गुरु की सेवा करते हैं। इससे अधिक सौभाग्य असम्भव है। यह सब सौभाग्य पाकर भी जो निरन्तर आगे न बढ़े तो उसके समान दुर्भाग्य या आत्महनन क्या होगा? उसके मन में हरि एवं गुरु के अतिरिक्त अहंकार या राग-द्वेष आता है तो यही समझना चाहिये कि उसने सारी कृपाओं को अपने पैरों से कुचलने की प्रतिज्ञा कर ली है।प्रमुख साधन दीनता है, इसी आधार पर भक्ति का महल खड़ा होगा। अतएव यह शौक पैदा करना चाहिए कि कोई मेरी बुराई करे और मैं खुश होकर धन्यवाद दूं तथा उस बुराई को स्वीकार करके उसे ठीक करुं। एतदर्थ यह भी आवश्यक है कि हम किसी की बुराई न सुनें, न देखें, न करें, न सोचें। यदि कभी मन में ऐसे सर्वनाश करने वाले भाव आ भी जाएं तो जोर-जोर से कीर्तन करने लगें। शिकायत किसी की किसी से न करें। अनन्त जन्म की पापात्मा भला स्वयं को अच्छा कैसे समझ सकती है। जरा सोचो यह जीवन क्षणभंगुर है। अत: यदि कल का दिन ना मिला तो इतनी बड़ी गुरु-कृपा, भगवत्कृपा, सौभाग्य सब व्यर्थ हो जायेगा। बार-बार सोचो , बार-बार सोचो।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
- पितृ यानी पूर्वजों की महिमा देवताओं से कम नहीं है। माना जाता है कि उनके आशीर्वाद से घर में सुख-शांति बनी रहती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मार्कंडेय पुराण में वर्णित एक कहानी के मुताबिक रुचि नाम के एक प्रजापति थे जिन्होंने खुद को सांसारिक मोहमाया से दूर कर लिया था। रुचि का यह रवैया देखकर उनके पूर्वज बहुत चिंतित हो गए। उस वक्त एक ऐसे राजा की जरूरत थी जो दुनिया को चला सके, लेकिन रुचि तो इन सबसे उदासीन हो चुके थे।आखिर पुरखों ने रुचि को दर्शन दिए और उन्हें गृहस्थ जीवन का महत्व समझाया। पहली बात तो यह कि रुचि लगभग बूढ़े हो चले थे। दूसरे उनके पास धन या सुख साधन नहीं थे। ऐसे में कौन उनसे अपनी बेटी की शादी कराता?आखिरकार सभी चिंताएं छोड़कर रुचि ब्रह्मा जी की आराधना में लग गए क्योंकि ब्रह्मा जी ही इस सृष्टि के रचयिता हैं।रुचि से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिए। उन्होंने रुचि से कहा कि वह अपने पुरखों के लिए तर्पण करें और फिर से उनकी आराधना करें। ब्रह्मा जी की बात मानकर रुचि ने एकांत में जाकर अपने पुरखों के लिए तर्पण किया और पूरी श्रद्धा के साथ उनकी स्तुति की। रुचि ने उस समय जो स्तुति में जो कुछ भी कहा उसे पितृ स्रोत का नाम दिया गया। रुचि की प्रार्थना से प्रसन्न होकर पूर्वज एक बार फिर उनके सामने प्रकट हुए। उन्होंने रुचि से वरदान मांगने को कहा और रुचि ने सुयोग्य पत्नी मांगी। पुरखों ने कहा कि तुम्हें जल्दी ही एक पत्नी मिलेगी और तुम पिता भी बनोगे। पुरखों के अंतर्धान होने के कुछ ही देर बाद नदी से प्रमोल्चा नाम की अप्सरा अपनी बेटी को लेकर रुचि के सामने प्रकट हुई। उसने रुचि से कहा कि वह उसकी बेटी से विवाह करें। इस तरह रुचि ने शादी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। कुछ समय के बाद दंपती को एक बेटा हुआ जिसका नाम मनु रखा गया। रुचि का पुत्र होने की वजह से उसे रौच्य मनु भी कहा गया। आगे चलकर यह बालक पूरी पृथ्वी का स्वामी बना। यह तो पूर्वजों के महिमा की सिर्फ एक कहानी है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसी न जाने कितनी कहानियां भरी पड़ी हैं। यही वजह है कि आज भी लोग पूरी श्रद्धा के साथ पितरों को याद करते हैं।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की वाणीआध्यात्म जगत में यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि भगवान एवं संत दोनों एक हैं। शास्त्र भी इसकी मान्यता देते हैं। यह भी आया है कि भगवान से अधिक ऊँचा स्थान गुरु, महात्मा, संत, महापुरुष का होता है। और भगवान के संत जनों की निंदा महान अपराध है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इसी संबंध में चेतावनीपूर्वक यह आग्रह कर रहे हैं कि अपना कल्याण चाहने वालों को भूलकर भी संत-निंदा के अपराध में नहीं पडऩा चाहिये। आइये उन्हीं के शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें एवं इस सिद्धान्त को हृदयंगम करें -
(संत-निंदा से सर्वथा बचो - यहां से पढ़ें...)निदाम भगवत: श्रवणन तत्परस्य जनस्य वा।ततो नापैति य: सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत:।।(श्रीमद्भागवत, स्कंध 10)अर्थात् भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियां भी नष्ट हो जायेंगी। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला निन्दनीय है या महापुरुष है. संत-निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यह ही सब अपराध अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान् के उन्मुख ही नहीं होने देते।जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी आदि खाय एवं इसके पश्चात् ही एक दिन विष (जहर) खा ले तथा मर जाय। अतएव बड़ी ही सावधानी-पूर्वक सतर्क होकर हरि, हरिजन-निंदा-श्रवण से बचना चाहिए।विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते।गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति।।भगवान् के प्रति किया हुआ अपराध गुरु द्वारा क्षमा कर दिया जाता है किन्तु गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं कर सकते।(जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी, ज्योतिषाचार्यइस बार भादो मास की पूर्णिमा पर दो सितंबर से महालय श्राद्ध की शुरुआत होगी। इस बार श्राद्ध पक्ष का आरंभ बुधादित्य योग के साथ हो रहा है। सर्वपितृ अमावस्या पर पक्ष काल का समापन शुभयोग के संयोग में होगा। सोलह दिवसीय श्राद्घ में 10 दिन अमृतसिद्घि, सर्वार्थसिद्घि योग तथा पुष्य नक्षत्र का विशिष्ट संयोग भी रहेगा। धर्मशास्त्र के जानकारों के अनुसार शुभ संयोगों की साक्षी में पितरों का श्राद्घ करने से वंशवृद्घि, शुभ कार्यों को प्रगति मिलेगी। मांगलिक कार्यों में आ रहे अवरोध दूर होंगे।इस बार श्राद्घ पक्ष में किसी भी तिथि का क्षय नहीं है। पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक सोलह दिवसीय श्राद्घ पक्ष में पूर्ण तिथियां रहेंगी।श्रद्धया इदं श्राद्धम (जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोडऩे पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था प्रेत है, क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उध्र्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढिय़ों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढिय़ों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है।शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएं। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्माग श्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4) मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु (5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं। पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियां चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।----
- वैदिक अध्ययन के निमित्त विशिष्ट विद्याओं की शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के नाम से विख्यात हैं। मुण्डक उपनिषदक में छ: वेदांगों का उल्लेख किया गया है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वेदांग की छह शाखाओं से ही वैदिक पाठ को सरल एवं सुबोध बनाया गया। आगे चलकर इन विषयों के पठन-पाठन में कुछ परिवर्तन हुए और इस प्रकार वैदिक शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथक्-पृथक् वर्ग स्थापित हो गया। इन्हीं वर्गों का पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ।कल्पसूत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया। महायज्ञों से सम्बन्धित सूत्रों को श्रौतसूत्र, गृह-संस्कारों पर प्रकाश डालने वाले सूत्रों को गृह्यसूत्र, धर्म अथवा नियमों से सम्बन्धित सूत्रों को धर्मसूत्र और यज्ञ एवं हवनकुण्डों की क्रमश वेदी एवं नाप आदि से सम्बन्धित सूत्रों को शुल्वसूत्र कहा गया। वेदांग का यह विस्तृत क्षेत्र तत्कालीन धार्मिक अवस्था का एकमात्र निर्देशक है। इन्हीं सूत्रों में सामाजिक अवस्था का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। किन्तु कठिनाई यह है कि ये इतने विस्तृत तथा अथाह सागर की तरह हैं कि इनमें से ऐतिहासिक तथ्यों को खोज निकालना सरल कार्य नहीं। ऋग्वेद से लेकर सूत्रों की रचना तक का समय लगभग दो हजार ई.पू. से पांचवीं शताब्दी ई.पू. तक माना जाता है। इस लम्बे अरसे का इतिहास इसी वैदिक साहित्य से प्रकाशित होता है।
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदान किया गया समाधानजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने आध्यात्म-जगत में एक अभूतपूर्व अध्याय जोड़ते हुये समस्त विश्व को एक नई रोशनी, दिशा और उत्साह प्रदान किया है। जहाँ उन्होंने साधना-तत्व का अद्वितीय निरुपण किया, साथ ही उन्होंने सांसारिक जगत के भी अनेक छोटे-बड़े प्रश्नों का समाधान साधक-समुदाय को प्रदान किया। उन्होंने सदैव यही समझाया कि आत्मा का कल्याण शरीर की स्वस्थता के बिना बहुत कठिन है। अत: आध्यात्मिक उत्थान के लिये यथासंभव शरीर की देखभाल भी परमावश्यक है। इसी से संबंधित एक प्रश्न एक साधक ने पूछा था। आइये श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रदान किये उत्तर का पठन कर लाभ पाने का प्रयत्न करें :::::::(यहाँ से पढ़ें...)एक साधक का प्रश्न - महाराज जी! जब मृत्यु निश्चित है तो बीमार होने पर दवाई करें या न करें, उसे तो समय से जाना ही है?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदान किया गया उत्तर-...दो प्रकार का रोग होता है, एक को कहते हैं कर्मज, एक को कहते हैं दोषज, हमारे आयुर्वेद में। आयुर्वेद का मैं आचार्य हूँ। तो आयुर्वेद में दो प्रकार की बीमारी बताई है। जो रोग आपके आहार-विहार की गड़बड़ी से हुआ है, यानी आपकी गड़बड़ी से हुआ है। खानपान जो कुछ अंड-बंड आपने किया उसके कारण हो गया है, उसको दोषज कहते हैं। अब जो प्रारब्ध (भाग्य) का कर्मफल भोग है, उसके द्वारा जो रोग होता है वो कर्मज कहलाता है। तो कर्मज रोग का तो इलाज करो, न करो, बराबर है। जब प्रारब्ध भोग समाप्त हो जायेगा तो अपने आप ठीक हो जायेगा। फिर तो अंड-बंड दवा भी करो तो भी वो रोग चला जायेगा। नाम करते हैं लोग, अरे हमने ऐसा कर लिया, हम तो ठीक हो गये। वो कर्मज व्याधि थी इसलिये ठीक हो गया अपने आप। वो बता रहा है, ऊटपटांग इलाज। उसने झाड़-फूँक कर दिया, उसने ये कर दिया।दोषज बीमारी जो होगी, जो हमारी गड़बड़ी से हुई है उसमें तो दवा काम करेगी, इलाज करना होगा। अब चूंकि मालूम नहीं हो सकता कि ये कर्मज है कि दोषज है इसलिये दवा सबकी करनी पड़ती है।नम्बर दो अगर हमारा पिता बीमार है, उसकी सब प्रॉपर्टी तो हम लेने को बैठे हैं तैयार और दवा करने के बारे में हम ये कह दें कि जो होना है सो होगा। तो लोग खा जायेंगे, क्या कहेंगे लोग उनको। लोक दृष्टि से भी और शास्त्र की दृष्टि से भी इलाज तो कराना ही है। अब अगर वो दोषज है तो फायदा होगा और बीमारी ठीक हो जायेगी। अगर कर्मज है तो दवा काम नहीं करेगी, वो भोग के एक दिन अपने आप ठीक हो जायेगी।(स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2016 अंक)
उ सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीराधारानी के छठी उत्सव से संबंधित कुछ दोहों का वर्णनआज महारानी श्रीराधारानी जी की छठी-उत्सव है। भाद्रपद की अष्टमी पर श्रीब्रजधाम में उनका अवतरण हुआ था। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रज-साहित्यों में श्रीराधा-तत्व पर विशद निरुपण किया है, यथा उनके नाम, रुप, लीला, गुण, धाम तथा उनके जनों से संबंधित अनगिनत प्रवचन, पद, कीर्तन तथा दोहों आदि की रचना उन्होंने की है जो कि प्रेम की सर्वोच्च कक्षा, सर्वोच्च भाव से ओतप्रोत हैं। सर्वोच्च भाव अर्थात उनके प्रति परम निष्काम भक्ति का ही उपदेश श्री कृपालु महाप्रभु जी के साहित्यों में समाया हुआ है। आइये, आज उनके द्वारा ही रचित एक अनुपमेय ग्रन्थ श्यामा-श्याम गीत में वर्णित श्रीराधारानी के छठी उत्सव से संबंधित कुछ दोहों तथा उनके भावार्थ के माध्यम से हम सब भी गोपी-भाव से श्रीबरसाना धाम में श्रीकीर्ति मैया तथा वृषभानु बाबा के आँगन में चलें ::::::(श्रीराधारानी की छठी की बधाई - यहाँ से पढ़ें...)लाली की छठी है आज बरसाने धामा।चलो री बधाई गाने सब ब्रज बामा।।भावार्थ : अरे! आज बरसाना धाम में श्रीराधा का छठी-उत्सव मनाया जा रहा है। चलो! सभी ब्रजगोपिकायें एकत्रित होकर बधाई गान के लिये वहाँ पहुँचे।चलो बरसाने बधाई गाने बामा।सुनि के बधाई मुसका देंगी श्यामा।।भावार्थ : बधाई गान हेतु बरसाना धाम चलो। बधाई गान सुनकर श्रीराधा मुस्कुरा उठेंगी।आओ आओ आओ बधाई गाओ बामा।रोज रोज आवे न छठी प्यारी श्यामा।।भावार्थ : आओ सभी मिलकर श्रीवृषभानुनन्दिनी के हेतु बधाई-गान करो, श्रीराधा की छठी रोज नहीं आयेगी। उत्सव को उत्साहपूर्वक मनाओ।मायिक शिशु की बधाई गावैं गामा।तेरा तो तन मन चिदानन्द श्यामा।।भावार्थ : संसार में प्राकृत बालकों के जन्म दिन आदि पर भी बधाई गान किया जाता है। श्रीराधा का तो तन, मन सभी कुछ दिव्य है। उनकी छठी के उत्सव को तो अत्यन्त ही धूमधाम से मनाया जाना चाहिये।
श्यामा जू को दिव्य तनु आनंदधामा।दिव्य दृष्टि मिले तब देखे कोउ श्यामा।।भावार्थ : श्रीराधा का चिन्मय वपु, आनंद से परिपूर्ण है। किंतु जब तक दिव्य-दृष्टि न मिल जाय, कोई भी उसका अवलोकन नहीं कर सकता।भानु को बधाई दें या दें कीर्ति बामा।या दें बधाई श्यामा को ब्रजधामा।।भावार्थ : श्रीराधा के प्राकट्य उत्सव पर वृषभानु बाबा को बधाई दी जाये या कीर्ति मैया को अथवा ब्रजमण्डल में अवतरित श्रीराधा को?प्रथम बधाई की हैं पात्र ब्रज बामा।जिन्हें ब्रज रस देने आये श्याम श्यामा।।भावार्थ : सर्वप्रथम बधाई प्राप्त करने की वास्तविक अधिकारिणी ब्रज गोपियाँ ही हैं जिन्हें ब्रज-रस प्रदान करने के लिये श्यामा श्याम को गोलोक धाम से अवतार लेकर ब्रजमंडल में आना पड़ा। (ये साधन सिद्धा गोपियाँ हैं, जिनमें दण्डक वन के ऋषि भी सम्मिलित हैं।)काम, क्रोध, लोभ आदि, शत्रु छे श्यामा।छठी को छहों को बना दे निष्कामा।।भावार्थ : हे श्रीराधे! मेरे मन में काम, क्रोध आदि छै शत्रुओं का निवास है। अपनी छठी के दिन इन छहों को नष्ट कर मुझे निष्काम बना दो।(स्त्रोत - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित श्यामा श्याम गीत के दोहे संख्या 362, 363, 366, 367, 368, 369, 371)(सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की दिव्य-वाणी से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज हमारी स्थिति के विषय में समझा रहे हैं कि आखिरकार हम क्यों बारम्बार दु:खमय संसार की ओर ही आकृष्ट हो रहे हैं, इस स्थिति का सुधार कैसे होगा और क्या अनन्यता की परिभाषा और उसका स्वरुप है? एक-एक शब्द को गंभीरतापूर्वक विचार करते हुये पढऩे से ही वह हृदयंगम हो सकेगा, अत: इस हेतु बारम्बार पढऩे की भी अपेक्षा है। आइये उनकी दिव्य-वाणी से नि:सृत प्रवचन के इस अंश से कुछ लाभ पाने की चेष्टा करें -(यहां से पढ़ें....)...एक महापुरुष कहता है -
असुन्दर: सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।द्वेषी मयि स्याद् करुणाम्बुधिर्वा कृष्ण: स एवाद्य गतिर्ममायम।।श्रीकृष्ण चाहे काले कुरुप हों, अरे ऐसे भी बनकर आ जाते हैं श्रीकृष्ण, धोखे में न रहना। ऐसे कुरुप बनकर आ जायें तुम्हारी बगल में बैठ जाएं कि तुम कहो कि ये कहां से आ गया, जंगली जानवर, बदबू आ रही है। उठकर वहां से चले जाओगे। अरे वो बड़े नाटक करने वाले हैं। हां! तो चाहे ऐसे बन कर आ जाओ और चाहे अनंतकोटि कन्दर्प दर्पदलन पटीयान बन कर आ जाओ। हम दोनों को स्वीकार करेंगे। चाहे करुणा के अवतार बन कर आ जाओ और चाहे दुश्मनी के अवतार बन कर आ जाओ। हे श्रीकृष्ण! तुम ही हमारे थे, हो, रहोगे, कान खोलकर सुन लो। हमारे प्रेम में परिवर्तन नहीं होगा, तुम्हारे व्यवहार को देखकर। ये अनन्यता है।ये हमने बार-बार आप लोगों को बताया है कि मांगों मत कुछ गुरु और भगवान से। वो तुम्हारे दास नहीं हैं, तुम उनके दास हो। मांगना तो स्वामी का काम है। आर्डर देता है स्वामी न। अरे संसारी सर्विस तो करते हैं आप लोग। बॉस ने आर्डर भेजा है, एक गवर्नमेन्ट का आर्डर आया है। नीचे वाला आर्डर नहीं भेजता प्राइम-मिनिस्टर को। तो तुम दास हो। तुम कहते हो हमारी ये इच्छा है। ऐ तुम्हारी इच्छा? तुम्हारी इच्छा तो गोबर गणेश की है।परीक्षित ने एक बार पूछा शुकदेव परमहंस से कि महाराज! ये लोग इतने जूते-चप्पल खाते हैं फिर भी संसार में ही मरते हैं, भगवान की ओर नहीं आते? उन्होंने कहा हाँ हाँ ठीक है, ठीक है। एक दिन जंगल में जा रहे थे, तो वहाँ देखा एक जगह सूखा लेट्रीन पड़ा था और उसमें चार-पाँच कीड़े उसका गोला बना रहे थे। शुकदेव ने कहा - ऐ, फूल रख दिया एक शुकदेव ने और कहा परीक्षित! वो जो कीड़े बेचारे पाखाने में, गन्दगी में पड़े हैं। उनको जरा लकड़ी से पकड़ करके इस फूल में रख दो। उन्होंने कहा कि क्या गुरुजी का आर्डर है गन्दा, मानना पड़ेगा। वो गये लकड़ी से पकड़ करके दो तीन कीड़े फूल में रख दिये। वो फिर रेंगते हुये वहीं पहुंच गये। उन्होंने कहा - देखा रे परीक्षित! उन्होंने कहा, हां देखा। तेरे प्रश्न का उत्तर हो गया न? ओ, हां महाराज! हो गया, समझ गये।तो कामनायें कुछ नहीं करना भगवान से। वेद बार-बार कहता है -
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा ये-अस्य हृदि श्रिता:।अथ मत-र्योमृतो भवत्यत्र ब्रम्ह समश्नुते।।(शाट्यायनी उप. 27वाँ मंत्र, कठोपनिषद 2-3-14, बृहदारण्यक उप. 4-4-7)अरे मनुष्यों! संसारी कामनायें छोड़ दो तो तुम ब्रम्ह के समान हो जाओ। कुछ और करना ही नहीं है। ये भक्ति-वक्ति का मतलब ही यही होता है, ये (संसार की) कामनायें छोड़कर वो (भगवान की) कामना करो। बस इसी का नाम भक्ति है। भक्ति माने भगवान की कामना।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)( स्त्रोत-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मैं कौन? मेरा कौन? विषय पर दिये गये ऐतिहासिक 103 प्रवचनों की श्रृंखला के 79 वें प्रवचन का एक अंश।)(सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा किया गया वेदादिक सम्मत समाधानजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। उन्होंने अपने अवतारकाल में अनेकानेक गुढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों एवं शंकाओं का निराकरण किया है जिससे भगवदीय प्रेम-पथिकों के लिये साधना का मार्ग नित्य निरंतर प्रकाशवान रहा है। अनेक जिज्ञासु जीवों ने उनसे अपनी जिज्ञासाएं व्यक्त की थीं, जिनका उन्होंने बड़ा सरल एवं वेदादिक सम्मत समाधान प्रदान किया है। ऐसा ही एक प्रश्न एक साधक ने उनसे पूछा था। आइये उस प्रश्न तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये उत्तर पर हम सभी विचार करें-(यहां से पढ़ें...)एक साधक का प्रश्न - महाराज जी! भुक्ति अधिक खतरनाक है या मुक्ति?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर...कैतव माने ठगने वाला, छलने वाला, चार सौ बीस। भुक्ति माने जानते ही हैं आप ब्रम्हलोक तक के मैटीरियल सुख को भुक्ति कहते हैं और माया से मुक्त हो जाना मुक्ति है। ये दोनों कैतव हैं, ठग हैं।लेकिन मुक्ति अधिक ठग है, क्योंकि मुक्ति हो जायेगी तो फिर संसार में आना ही नहीं पड़ेगा। तो फिर प्रेमानन्द सदा को गया और भुक्ति में तो संसार में घूमते रहेंगे, घूमते-घूमते कभी कोई रसिक मिल गया और हमारी बुद्धि में वो बैठ गया और हम उसके आदेशानुसार चल पड़े तो एक दिन प्रेमानन्द मिल सकता है। इसलिये भुक्ति से मुक्ति अधिक खतरनाक है।पाप भी खतरनाक, पुण्य भी खतरनाक - दोनों डेन्जरस है। पाप करने पर नरक मिलेगा, पुण्य करने पर स्वर्ग मिलेगा। दोनों नश्वर। हरि-गुरु भक्ति से ही कल्याण होगा।
(स्त्रोत-प्रश्नोत्तरी पुस्तक (भाग - 1, प्रश्न संख्या 97)) - मेलाकाइट एक प्रकार का उपरत्न हैै जिसे दहाना फरहग भी कहते हैं। यह उपरत्न मुख्यत: हरे रंग में पाया जाता है। इस उपरत्न को काटने के बाद इसमें शैल के समान गोल आकृति दिखाई देती है। यह उपरत्न बहुत ही छोटे क्रिस्टल में पाया जाता है। बड़े आकार में इसके क्रिस्टल कम ही पाए जाते हैं। यह उपरत्न रेशायुक्त तथा अपारदर्शक होता है। इस उपरत्न में हरे रंग में हल्के तथा गहरे रंग की धारियां दिखाई देती हैं। यह धारियां ही इस उपरत्न को एक अलग पहचान देती हंै और इसे एक अद्वित्तीय उपरत्न बनाती है। इसे जब चमकाया जाता है तब यह रेशमी दिखाई देता है। यह बहुत ही नाजुक उपरत्न है इसलिए इसे गर्मी, अम्ल तथा गर्म पानी से दूर ही रखना चाहिए।यह बहुत ही लोकप्रिय उपरत्न है। इसे इसके हरे रंग के कारण लोकप्रियता हासिल हुई है। इस उपरत्न का यह नाम ग्रीक शब्द मैलो के नाम पर रखा गया है। जिसका अर्थ है - जड़ी-बूटी या औषधि।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह उपरत्न मानव शरीर के सभी अवरुद्ध चक्रों को खोलने में सहायक होता है और सभी चक्रोंं की ऊर्जा को नियंत्रित रखता है। यह जातक की आध्यात्मिकता तथा तर्कशीलता में वृद्धि करता है। यह सच्चे प्यार को पाने, उसमें संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है। यह धारक को स्वयं की भलाई के लिए प्रोत्साहित करता है। यह उपरत्न अच्छे तथा बली भाग्य का सूचक है। यह धारक को समृद्धि प्रदान करता है। यह उपरत्न धारक को सुरक्षा प्रदान करता है। गर्भवती महिलाओं के गर्भ की सुरक्षा करता है और छोटे बच्चों की सुरक्षा करता है। यह बुराई से सुरक्षा करता है। हवाई यात्रा तथा अन्य यात्राओं में यह धारक को सुरक्षित रखता है। यह धारक को भावनात्मक रुप से भी सुरक्षा प्रदान करता है। जो व्यक्ति स्वयं को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह उपयोगी उपरत्न है।यह उपरत्न मुख्य रुप से हरे रंग में पाया जाता है। यह गहरे हरे तथा हल्के हरे रंग में पाया जाता है। यह काले रंग में भी पाया जाता है। इस उपरत्न में हल्के तथा गहरे रंग के बैण्ड अथवा धारियां पाई जाती हैं।यह उपरत्न चिली, अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी आस्ट्रेलिया, कांगों, नामीबिया, रुस, मेक्सिको, इंगलैण्ड, एरीजोना, फांस, साइबेरिया, इजराइल, जाम्बिया, यूरल आदि स्थानों पर पाया जाता है।---
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज समन्वयवादी जगद्गुरु हैं। उन्होंने अनेकानेक विरोधाभासों का समन्वय किया है। वे ऐसे पहले जगद्गुरु हैं, जिन्होंने अपना कोई मत अथवा सम्प्रदाय नहीं चलाया, अपितु समस्त जीवों के लिये समन्वय रुप में केवल एक सम्प्रदाय माना और सुझाया कि उसी एक मान्यता से विश्व में व्याप्त वर्तमान समस्यायें आसानी से हल की जा सकती हैं। यह तर्क वेदादिक सम्मत भी है। आइये उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन के एक अंश के द्वारा इसे समझने का प्रयत्न करें :::::(हम सब आनन्द सम्प्रदाय के हैं - यहाँ से पढ़ें...)...हम सुख चाहते हैं अपना। बाहर से मतलब नहीं है, अपना सुख चाहते हैं। सुख!! सुख चाहते हो? हाँ, सुख। सब सुख चाहते हैं। हाँ!! तो फिर सब आस्तिक हैं, सब भगवान के भक्त हैं। क्योंकि भगवान का तो नाम ही है सुख, आनन्द। (रसो वै स: - वेद)इसलिये सब आस्तिक भी हैं, सब वैष्णव भी हैं, सब भगवान के हैं, यानी बस एक सम्प्रदाय है सारी दुनियां में। अगर कोई पूछे कि आप किस सम्प्रदाय के हैं? आनन्द सम्प्रदाय के, भगवत सम्प्रदाय के। क्यों? इसलिये कि हम केवल भगवान को चाहते हैं। केवल आनन्द चाहते हैं, हम दु:ख नहीं चाहते। और अगर और डिटेल में जाओ, तो फिर ये कह सकते हो कि हम आनन्द चाहते हैं, लेकिन मिला नहीं है। तो भगवान में आनन्द मानने लगे। प्रयत्न कर रहे हैं कि हम आस्तिक बन जायें, वैष्णव बन जायें, शैव बन जायें।तो विश्व में वर्तमान काल में जो मायाधीन हैं वो आस्तिक नहीं, वैष्णव नहीं बन सकता। जब माया चली जायेगी और भगवान गवर्न करेंगे हमको, तब हम आस्तिक हुये। हर समय रियलाइज करेंगे तब। अंदर बैठे हैं, अंदर बैठे हैं। अभी तो मुँह से बोलते हैं, सबके अंदर बैठे हैं। घट घट व्यापक राम। अरे घट घट है क्या? तुम्हारे घट (हृदय) में है, ये तुम महसूस करते हो? अगर करो तो न कोई गवर्नमेन्ट की जरुरत है, न कोर्ट की, न पुलिस की। हर समय यह फीलिंग रहे कि वो अंदर बैठे हैं।अगर इसका प्रचार करे, हर दुनियां की, देश की गवर्नमेन्ट , सबके अंदर भगवान बैठे हैं। इसका प्रचार करे, भरे लोगों के, बच्चों के दिमाग में। तो अपराध अपने आप कम हो जायें। सब डरेंगे कि हाँ! वो (भगवान) नोट कर लेंगे, फिर दण्ड देंगे भगवान, इसलिये गलत काम नहीं करना है।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'मैं कौन? मेरा कौन? विषय पर दिये गये ऐतिहासिक 103 प्रवचनों की श्रृंखला के 67 वें प्रवचन का एक अंश।सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - वैदिक मंत्रोच्चारण हिंदू धर्म के प्राचीन गं्रथ, वेदों के स्तोत्रों की अभिव्यक्ति है। वैदिक मंत्रोच्चारण कम से कम 3 हजार वर्षों से चली आ रही परंपरा, जो संभवत: विश्व की प्राचीनतम सतत गायन परंपरा है।वेदों का प्रारंभिक संग्रह या संहिता ऋग्वेद है। जिसमें एक हजार स्तोत्र हैं। इन्हें अक्षरात्मक शैली, यानी उच्च स्वर में वाचन, जिसमें अक्षर को ध्वनिनुरुप बोला जाता है। इनमेें सुर के तीन स्तर होते हैं: एक मूलभूत प्रपठन सुर, जिसके साथ ऊपर व नीचे अन्य स्वर होते हैं, जिनका उपयोग ग्रंथों में व्याकरण संबंधी स्वराघात पर बल देने के लिए किया जाता है,।ऋग्वेद के ये स्तोत्र उत्तरवर्ती संग्रह, सामवेद का आधार हैं, जिसके स्तोत्र (मंत्र) की ऐसी शैली अक्षरात्मक न होकर अधिक अलंकृत, सुरीले और गेय (दो या अधिक स्वरों के लिए एक शब्द) सुरों की छह या उससे अधिक विस्तृत श्रेणी है। स्वरों की साधारण संख्यात्मक प्रणाली ने वाचन में सटीकता स्वरोच्चारण और शारीरिक मुद्राओं पर बल देने की मौखिक परंपरा के साथ इस स्थिर परंपरा तथा समूचे भारत में इसकी समरुपता को बनाए रखा है। वैदिक मंत्रोच्चार आज भी उसी शैली में होता है, जैसा सदियों पहले होता था।मंत्र अक्षरों के संयोजन से निर्मित और संरचित है जो कि, जब सही ढंग से स्पष्ट उच्चारण होता है , सार्वभौमिक ऊर्जा को व्यक्ति के आध्यात्मिक ऊर्जा में केंद्रित करते हैं । मंत्र का सार मूल शब्द या बीज कहलाता है और इसके द्वारा उत्पन्न शक्ति को मंत्र शक्ति कहा जाता है । प्रत्येक मूल शब्द एक विशेष ग्रह या ग्रह स्वामी से संबंधित है। मंत्र का उच्चारण मंत्र योग या मंत्र जप कहलाता है। मंत्र जप ध्वनि ऊर्जा, सांस और इन्द्रियों में समन्वय स्थापित करता है। मंत्रों के उच्चारण से ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती है, जो एक शक्तिशाली ऊर्जा है, और जीवन में मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक स्तर में बदलाव के लिए उपयोगी है।मंत्रों की शक्ति उसके शब्दों में है। घर में भक्ति और विश्वास के साथ मंत्रों के नियमित जप से उस से सम्बन्धित देवताओं या ग्रह स्वामी की सकारात्मक और रचनात्मक ऊर्जा अपनी ओर आकर्षित होती है और नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति में सहायता करता है। यह अपनी समस्याओं के समाधान हेतु एक दिव्य साधन है। यह आपको सार्वभौमिक कंपन ऊर्जा के साथ समकालीन करता है। मन्त्र अवचेतन मन को सजग करता है, सचेतक चेतना को जागृत करता है और अपने वांछित लक्ष्य या उद्देश्य की ओर आकर्षित करता है। शारीरिक स्तर पर , यह आपकी तंत्रिकाओं को शांत करता है, ग्रंथियों को सक्रिय बनाता है, रक्तचाप सामान्य करता है और शरीर में विभिन्न जीवन प्रणालियों को अनुरूप करता है। मन्त्रों के जप से चित्त में आत्मविश्वास और एकाग्रता की वृद्धि होती है।आपका जन्म चार्ट या कुंडली आपके अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के ग्रहों को दिखाता है। फलस्वरूप, वे आपके जीवन के प्रासंगिक हिस्सों को अनुकूल या प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं; यह आपका स्वास्थ्य, करिअर, रिश्ते इत्यादि हो सकता है। मंत्रों का उपयोग लाभकारी और हानिकारक दोनों ग्रहों के लिए किया जा सकता है। इन्हें लाभकारी ग्रह की ताकत बढ़ाने और हानिकारक ग्रहों के हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। मंत्रों के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि वे केवल सकारात्मक प्रभाव देते हैं। उनका उपयोग स्वास्थ्य, संपत्ति, भाग्य, सफलता में वृद्धि और आलस्य, बीमारियों और परेशानियों से दूर होने के लिए किया जा सकता है।----
- -जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी महाराज के प्रवचनों के कुछ अंश-साधक बहुधा भक्तिमार्ग में चलते तो हैं लेकिन साथ ही वे उन विपरीत आचरणों को भी निभाते जाते हैं जिनसे उनकी साधना की गति धीमी पड़ जाती है अथवा दिशा विपरीत हो जाती है। साधना का एक बहुत बड़ा बाधक तत्व है परनिन्दा , अर्थात् चुगलखोरी या दूसरों की निंदा अथवा बुराई करना। जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अनेक अवसरों पर इस विषय में साधकों को सावधान किया है। आइये उन्हीं के प्रवचनों के कुछ अंशों से इस संबंध में कुछ विचार करें -(दूसरों की निंदा से हानि किसकी? यहाँ से पढ़ें....)(1) महापुरुषों ने परनिन्दा को ही सबसे महान पाप बतलाया है फिर भी कमाल ये है कि हम परनिन्दा का ही श्रवण, मनन, कीर्तन आदि करते हैं।(2) यावत्पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि ।न शास्त्रे सत्यता बुद्धि सद्बुद्धि सद्गुरौ तथा ।।(ब्रम्हवैवर्त पुराण)संसारी बातें, निन्दनीय बातें, पाप की बातें, सुनना, सोचना, बोलना - ये पहिचान है कि हमारा मन कितना पापयुक्त है।सिद्धांत तो यह है कि जो स्वयं पापयुक्त होता है वही दूसरों की निंदा करता है. परनिन्दा करना ही स्वयं के निन्दनीय होने का प्रमाण है।(3) निन्दनीय की भी निंदा करना हानिकारक है, निन्दनीय से तो उदासीन होना चाहिए। शत्रुता या निंदा किसी भी प्रकार भगवत्प्राप्ति की साधना में सहायक न होगा, फिर सारा संसार ही तो निन्दनीय है, तुम कहाँ तक निंदा करोगे? यह तो सोचो कि भगवत्प्राप्ति के पूर्व प्रत्येक जीव एवं तुम भी निन्दनीय हो।(हम भी निन्दनीय हैं क्योंकि हमारे भीतर माया के समस्त विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य इत्यादि भरे हैं और जब तक भगवान् को नहीं पा जायेंगे, रहेंगे, फिर अनन्त जन्मों के अनंत पाप भी हमारे साथ हैं।)(4) गड़बड़ी का चिंतन न करो, न श्रवण करो। जैसे सांप को देखकर भागते हो, ऐसे भागो अगर कोई किसी की बुराई करे तो। हमें नहीं सुनना है। हम भी तो वैसे ही हैं। क्या सुनें उसको, हम कौन दूध के धोये हैं, महापुरुषों के दादा हैं, जो तुम उसकी बुराई कर रहे हो और मैं सुनूं बैठकर। हमसे क्या मतलब है, वो खऱाब है कि अच्छा है, हम अंतर्यामी तो हैं नहीं।(5) वस्तुत: हम स्वयं दोष देखते हैं किसी में और दूसरों से कहकर उसका भी चिंतन खऱाब करते हैं, यह और बड़ा अपराध करते हैं। श्री कृपालु महाप्रभु जी कहते हैं... गन्दी बात सोचा, और सोचा तो सोचा उसके बाद दूसरे को सुनाया, ऐ सुनो ! वो उसके पास बहुत जाता है। और पाप हो गया। अब उसने उससे कहा, सुनो जी ! उसके पास वो 24 घंटे रहता है। और आगे बढ़ा दिया। तमाम का नुकसान कर डाला उस एक मूर्ख ने।(6) महापुरुष तक भी अपने आपको 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' कहते हैं। तुम तो वास्तव में ही कुटिल, खल, कामी हो। तुम्हे मान लेने में क्या आपत्ति है? यदि तुम ऐसा मान लो तो तुम्हारी बुद्धि में समस्त संसार ही अच्छा दिखाई पडऩे लगे।(प्रवचनकर्ता : जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
- प्राचीन काल से ये माना जाता रहा है कि पेड़ -पौधे सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न कर नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालते हैं। अगर हम वास्तु शास्त्र की बात करें तो ऐसे कई पौधे हैं जिन्हें घर में लगाना अशुभ माना गया है। माना जाता है कि इन पौधों से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है जिससे गृह-कलेश, धन हानि, कंगाली आती है। आज ऐसे ही कुछ पौधों के बारे में हम जानकारी दे रहे हैं।बोनसाई - बड़े पेड़ों की प्रजाति को बौनसाई रूप में रखने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। पीपल, बरगद, बांस, नींबू आदि पौधे बौनसाई रूप में घरों के अंदर भी मिल जाते हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार, लाल फूल और बोनसाई के पौधों को घर के अंदर रखना अशुभ है। आप बौनसाई के शौकीन हैं, तो इन्हें घर के अंदर नहीं, बल्कि खुली जगह या फिर बगीचे में रख सकते हैं। इससे नकारात्मक ऊर्जा का घर के अंदर प्रवेश नहीं हो पाता है।खजूर का पेड़ - वास्तु शास्त्र के हिसाब से खजूर का पेड़ घर में लगाना शुभ नहीं होता। कहा जाता है कि ये नकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है जिससे घर में आर्थिक समस्या बनी रहती है और इसका बुरा प्रभाव सेहत पर भी पड़ता है। पाम प्रजाति के इन पौधों को सड़क के किनारे लगाना उचित माना गया है।इमली और मेहंदी का पौधा - सदियों से यह मान्यता चली आ रही है कि इमली और मेहंदी के पेड़ों पर बुरी आत्माओं का वास होता है। इसलिए इन पौधों को घर में लगाने से बचें।बांस का पेड़ - बांस के पेड़ को वैसे तो अच्छा माना जाता है, लेकिन वास्तु शास्त्र कि दृष्टि से देखें तो ये घर के लिए शुभ नहीं होता। इसे घर पर लगाने से कई सारी समस्याओं का आगमन होता है। इसलिए जितना हो सकें इसे घर के बाहर ही लगाए। माना जाता है कि बांस के फूल अकाल लाते हैं।कपास -कपास का पौधा, सिल्की सूती पौधा और पाल्मीरा का पेड़ (एक प्रकार का ताड़ का पेड़) भी घर के आसपास लगाए जाने पर अशुभ फल देते हैं।बेर का पेड़ - वास्तु शास्त्र में बेर के पेड़ को भी अशुभ माना जाता है। इसे घर में लगाने से नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है। इसलिए इसे लगाने से मना किया गया है। मान्यता ये भी है कि बेर के पेड़ में भी बुरी आत्माओं का वास होता है।---
- राधा को अक्सर राधिका भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में विशेषकर वैष्णव सम्प्रदाय में प्रमुख देवी हैं। वह कृष्ण की प्रेमिका और संगी के रूप में चित्रित की जाती हैं। उनके ऊपर कई काव्य रचना की गई है और रास लीला उन्हीं की शक्ति और रूप का वर्णन करती है । वैष्णव सम्प्रदाय में राधा को भगवान कृष्ण की शक्ति स्वरूपा भी माना जाता है , जो स्त्री रूप मे प्रभु के लीलाओं मे प्रकट होती हैं। गोपाल सहस्रनाम के 19वें श्लोक में वर्णित है कि महादेव जी द्वारा जगत देवी पार्वती जी को बताया गया है कि एक ही शक्ति के दो रूप है राधा और माधव(श्रीकृष्ण) तथा ये रहस्य स्वयं श्री कृष्ण द्वारा राधा रानी को बताया गया है। अर्थात राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं। भारत के धार्मिक सम्प्रदाय निम्बार्क और चैतन्य महाप्रभु इनसे भी राधा को सम्मीलित किया गया है।ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थीं। ब्रज में राधा का महत्व सर्वोपरि है। राधा के लिए विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। राधा के पति का नाम ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार रायाण था अन्य नाम रापाण और अयनघोष भी मिलते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रूप राधा है। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का प्राकट्य यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहां राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहां की ल_मार होली सारी दुनिया में मशहूर है।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले के गोकुल-महावन कस्बे के निकट रावल गांव में मुखिया वृषभानु गोप एवं कीर्ति की पुत्री के रूप में राधा रानी का प्राकट्य जन्म हुआ। राधा रानी के जन्म के बारे में यह कहा जाता है कि राधा जी माता के गर्भ से पैदा नहीं हुई थीं, लेकिन उनकी माता ने अपने गर्भ को धारण तो कर रखा था। उन्होंने योग माया कि प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया। परन्तु वहां स्वेच्छा से श्री राधा प्रकट हो गई। श्री राधा रानी जी निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में अवतीर्ण हुई उस समय भाद्र पद का महीना था, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, अनुराधा नक्षत्र, मध्यान्ह काल 12 बजे और सोमवार का दिन था। इनके जन्म के साथ ही इस दिन को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाने लगा।राधा रानी जी श्रीकृष्ण जी से ग्यारह माह बड़ी थीं। लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आंखे नहीं खोली हैं। इस बात से उनके माता-पिता बहुत दु:खी रहते थे। कुछ समय पश्चात जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाडले के साथ वृषभानु जी के घर आती हंै तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती हंै। यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती हंै। जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते हंै। तब राधा जी अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए पहली बार अपनी आंखें खोलती हंै। वे एक टक कृष्ण जी को देखती हैं, अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते हंै।माना जाता है कि राधा और कृष्ण का विवाह कराने में ब्रह्मा जी का बड़ा योगदान था। भगवान ब्रह्मा ने जब श्रीकृष्ण को सारी बातें याद दिलाईं तो उन्हें सब कुछ याद आ गया। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने हाथों से शादी के लिए वेदी को सजाया। गर्ग संहिता के मुताबिक विवाह से पहले उन्होंने श्रीकृष्ण और राधा से सात मंत्र पढ़वाए। भांडीरवन में वेदीनुमा वही पेड़ है जिसके नीचे, जहां पर बैठकर राधा और कृष्ण ने शादी हुई थी। दोनों की शादी कराने के बाद भगवान ब्रह्मा अपने लोक को लौट गए। लेकिन इस वन में राधा और कृष्ण अपने प्रेम में डूब गए। गर्ग संहिता के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण ही इस जगत् के आधार हैं। भांडीरवन के पास ही एक वंशी वन है जहां भगवान कृष्ण अक्सर वंशी बजाने जाया करते थे। कहा जाता है कि हज़ारों साल पुराना वंशी वन आज भी मौजूद है साथ ही वो वृक्ष भी मौजूद है जिस पर कृष्ण भगवान बांसुरी बजाए करते थे। कहा तो इतना जाता है कि आज भी अगर उस वृक्ष में कान लगाकर सुनेंगे तो आपको बांसुरी और तबले की आवाज़ सुनाई देती है।श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि श्री राधा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्रीकृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता। राधा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।राधाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं। माता यशोदा ने एक बार राधाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राधाजी ने उन्हें बताया कि रा तो महाविष्णु हैं और धा विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक धाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राधा रखा। भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक घाम में राधाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पीड़ा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रुक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरुक्षेत्र में उपस्थित हुए। रुक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के हृदय में विराजते हैं। रुक्मिणीजी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले पड़ गए।बृज में आज भी माना जाता है कि राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण बिना श्री राधा। धार्मिक पुराणों के अनुसार राधा और कृष्ण की ही पूजा का विधान है।