- Home
- आलेख
- हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत से अभिनेता हुए हैं, जिन्होंने एक ही प्रकार का रोल कई फिल्मों में निभाया। ऐसे कलाकारों को टाइप्ड कलाकार कहा जाता था। ऐसे ही एक अभिनेता हुए हैं जगदीश राज खुराना...जिन्होंने पुलिस वाले के रोल में ऐसी जान डाली कि जब कभी किसी फिल्म में पुलिस को दिखाये जाने की बात आती तो डायरेक्टर को अभिनेता जगदीश राज खुराना की ही याद आती। उनका नाम सबसे अधिक बार पुलिसवाले का किरदार निभाने के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्डऱ् रिेकॉड्र्स में भी दर्ज है।उनका एक डॉयलॉग लगभग सभी फिल्मों में सुनाई दे जाता है- 'पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है'. भागने का और कोई रास्ता नहीं है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि खुद को कानून के हवाले कर दो।' बॉलीवुड की फिल्मों में मुजरिम चाहे अमिताभ बच्चन हो या देव आनंद , एक दौर ऐसा था जब पुलिस की वर्दी में सायरन वाली जीप से अक्सर एक ही शख्स उतरता था और वो थे जगदीश राज।करीब 5 दशक तक जगदीश राज ने सिनेमा की दुनिया में पुलिसवाले की भूमिका निभाई। कभी अच्छा, तो कभी बुरा। जगदीश राज हर तरह के पुलिसवाले की भूमिका में नजर आए। सिनेमाई पर्दे पर 50 साल लंबे करियर में जगदीश राज का नाम इतना लोकप्रिय था कि फिल्म की पटकथा लिखते वक्त ही तय हो जाता था कि इस सीन में पुलिस वाले का किरदार तो जगदीश राज ही निभाएंगे। फिर चाहे देव आनंद की 'सीआईडी' हो या 'जॉनी मेरा नाम', अमिताभ बच्चन की 'डॉन' हो या 'दीवार' पुलिस की वर्दी में जगदीश राज ही नजर आए।जगदीश राज का जन्म 1928 में अंग्रेजी हुकूमत के दौर में पंजाब के सरगोढ़ा में हुआ। यह अब पाकिस्तान में है। 85 साल की उम्र में जगदीश राज इस दुनिया को अलविदा कह गए। 28 जुलाई 2013 को मुंबई के जुहू इलाके में अपने घर पर उन्होंने आखिरी सांसें लीं। वह सांस में तकलीफ की बीमारी से जूझ रहे थे।उन्होंने अपने दौर के लगभग सभी टॉप के कलाकारों के साथ काम किया। उनकी प्रमुख फिल्में हैं- 'गैम्बलर', 'काला बाजार', 'दो चोर', 'सिलसिला', 'हम दोनों', 'नसीब', 'बोल राधा बोल', 'बेवफा सनम' सीआईडी, 12 ओ क्लॉक, कानून, वक्त, रोटी, इत्तेफ़ाक, सफर, जॉनी मेरा नाम आदि फि़ल्मों में पुलिस निरीक्षक का अभिनय मिलने के बाद इन्होंने पुलिस की वर्दी सिलवा ली थी और फि़ल्म निर्माता का फोन आते ही वर्दी के साथ शूटिंग पर पहुंच जाते थे।यह दिलचस्प है कि जगदीश राज खुराना का नाम जब गिनीज बुक में दर्ज करवाने के पीछे एक हॉलिवुड के कास्टिंग डायरेक्टर का हाथ है। हॉलिवुड के एक कास्टिंग डायरेक्टर ने उनकी फिल्मों की लंबी लिस्ट देखकर ही गिनीज बुक की टीम को जांच के लिए मुंबई बुलवाया था। जब नाम दर्ज हो गया तो उसके बाद उन्हें 'लोहा' और 'नाइंसाफी' फिल्म में पुलिस कमिश्नर का रोल मिला। इस पर एक्टर ने कहा था, 'चलो, इसी बहाने मेरा प्रमोशन तो हुआ।'जगदीश राज अपने पीछे दो बेटियां और एक बेटा बॉबी राज छोड़ गए हैं। 80 और 90 दशक की एक्ट्रेस अनिता राज, जगदीश राज की ही बेटी हैं। उनकी दूसरी बेटी का नाम रूपा मल्होत्रा हैं। जगदीश राज ने साल 1992 में फिल्मों से संन्यास ले लिया था। जबकि उनकी आखिरी फिल्म साल 2004 में रिलीज हुई। अक्षय कुमार और श्रीदेवी की इस फिल्म में भी जगदीश राज पुलिस वाले की भूमिका में थे। वे इस बार डीआईजी बने थे।
- मदर्स डे 9 मई पर विशेषमां और बच्चों का रिश्ता इस दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता है, जो बगैर किसी शर्त और बगैर किसी उम्मीद के बेपनाह प्यार के साथ पूरा होता है। मां शब्द के लिए दुनियाभर के साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। मां ही दुनिया में ईश्वर द्वारा बनाई गई एक ऐसी कृति है, जो निस्वार्थ भाव में मरते दम तक अपने बच्चों पर प्यार लुटाती रहती है। जानिए मदर्स डे का इतिहास और महत्व------मदर्स डे का इतिहास9 मई 1914 को अमेरिकी प्रेसिडेंट वुड्रो विल्सन ने एक कानून पास किया था और इस कानून के मुताबिक हर वर्ष मई माह के हर दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया गया। इसके बाद ही मदर्स डे अमेरिका, भारत सहित कई दूसरे देशों में भी मनाया जाने लगा।गौरतलब है कि सबसे पहले Mothers Day मनाने की शुरुआत अमेरिका से हुई थी। अमेरिका में एक सामाजिक कार्यकर्ता थी, जिसका नाम एना जार्विस था और अपनी मां से बहुत प्यार करती थीं, यह कारण था कि उन्होंने न कभी शादी की और न कोई बच्चा पाला। मां की मौत होने के बाद प्यार जताने के लिए एना जार्विस ने मई माह के दूसरे रविवार को मदर्स डे के रूप में मनाने की शुरुआत की थी। फिर धीरे-धीरे कई देशों में मदर्स डे मनाया जाने लगा। अब दुनिया के अधिकांश देशों में मदर्स डे मनाया जाता है।मदर्स डे का महत्वअपनी मां के त्याग, बलिदान, करुणा, दया और निःस्वार्थ प्रेम के प्रति आभार प्रकट करने के लिए मदर्स डे मनाया जाता है। बदलते समय के साथ मदर्स डे को मनाने के तरीके भी जरूर बदलते जा रहे हैं, लेकिन इन दिन को मनाने का उद्देश्य आज भी नहीं बदला है। अपनी मां के प्रति प्यार जताने के लिए आजकल कई लोग मां को गिफ्ट्स, कार्ड्स या कुछ खास चीज देते हैं। वैसे तो मां को प्यार करने और तोहफे देने के लिए किसी खास दिन की जरूरत कभी नहीं पड़ती लेकिन फिर भी मदर्स डे के दिन मां को सम्मान दिया जाता है।
- पुण्यतिथि पर विशेषअपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री नरगिस को इंडियन सिनेमा की क्वीन माना जाता है। वह अपनी सौम्यता, अपने आत्मविश्वास और सबसे ज्यादा अपनी आंखों के लिए मशहूर थीं। फिल्मों के जानकार कहते हैं कि शायद ही नरगिस के बाद कोई ऐसी ऐक्ट्रेस हुई हो जिसकी आंखें उनके जितनी सुंदर और बोलने वाली हों। आज ही के दिन वर्ष 1981 में कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हें अपने परिवार और प्रशंसकों से हमेशा के लिए दूर कर दिया।नरगिस का जन्म 1 जून 1929 को कोलकाता में हुआ था और उनका असली नाम फातिमा राशिद था। नरगिस बचपन में अपने भाई अनवर हुसैन और अख्तर हुसैन के साथ फुटबॉल और क्रिकेट खेलती थीं। बात जब कॅरिअर की आई तो उन्होंने फिल्मों का रुख किया।फिल्मों में उनकी जोड़ी सबसे ज्यादा राजकपूर के साथ पसंद की गई। दोनों ने अनेक हिट फिल्में दी जिसके गाने आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। दोनों के अफेयर के किस्से भी खूब उड़े। राजकपूर कहा करते थे कि कृष्णा भले ही उनके बच्चों की मां हैं, लेकिन उनकी फिल्मों की मां तो नरगिस ही है। फ़स्र्ट फ़ैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा- द कपूर्स किताब में लिखा है नरगिस ने अपना दिल, अपनी आत्मा और यहां तक कि अपना पैसा भी राज कपूर की फि़ल्मों में लगाना शुरू कर दिया। जब आर के स्टूडियो के पास पैसों की कमी हुई तो नरगिस ने अपने सोने के कड़े तक बेच डाले। उन्होंने आरके फि़ल्म्स के कम होते खज़़ाने को भरने के लिए बाहरी प्रोड्यूसरों की फि़ल्मों जैसे अदालत, घर संसार और लाजवंती में काम किया। बाद में राज कपूर ने उनके बारे में एक मशहूर लेकिन संवेदनहीन वकतव्य दिया, मेरी बीवी मेरे बच्चों की मां है, लेकिन मेरी फि़ल्मों की मां तो नरगिस ही है। राज कपूर के छोटे भाई शशि कपूर बताते थे- नरगिस आर के फि़ल्म्स की जान थीं। उनका कोई सीन न होने पर भी वो सेट्स पर मौजूद रहती थीं।नरगिस ने मदर इंडिया, आग, बरसात, अंदाज, आधी रात, आवारा, श्री 420 और नया दिन नई रात जैसी तमाम हिट फिल्मों में काम किया। उनकी मदर इंडिया ऐसी भारतीय फिल्म थी जो पहली बार ऑस्कर के नॉमिनेशन तक पहुंची। यही वह फिल्म थी जिसके बाद नरगिस और सुनील दत्त ने शादी का फैसला किया। फिल्म में सुनील दत्त भी अहम रोल में थे।शादी में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि नरगिस मुस्लिम और सुनील हिंदू थे। दोनों का अफेयर काफी सुर्खियों में रहा। कहा जाता है कि इस बात को जानकर मुंबई का एक काफी नामी डॉन नाराज हो गया था। डॉन ने सुनील दत्त को धमकी तक दे डाली मगर सुनील साहस दिखाते हुए डॉन के पास पहुंच गए। डॉन से सुनील दत्त ने कहा, मैं नरगिस से बेहद मोहब्बत करता हूं और शादी करना चाहता हूं। मैं उन्हें जिंदगीभर खुश रखूंगा। अगर आपको यह गलत लगता है तो मुझे गोली मार दीजिए और सही लगता है तो गले लगा लीजिए। सुनील की यह बात सुनकर डॉन काफी खुश हुआ और उन्हें गले लगा लिया। इसके बाद दोनों ने साल 1958 में शादी कर ली। ये शादी तब तक गुप्त रखी गई जब तक मदर इंडिया रिलीज़ नहीं हुई, क्योंकि इस फि़ल्म में सुनील दत्त नरगिस के बेटे का रोल निभा रहे थे।कहा जाता है कि नरगिस की शादी के निर्णय पर राजकपूर फूट-फूट कर रोये थे। यहां तक जब 3 मई 1981 को नरगिस का निधन हुआ, तो उनके जनाने में राज कपूर आम लोगों के साथ सबसे पीछे चल रहे थे। हर कोई उन्हें आगे उनके पार्थिव शरीर के पास जाने के लिए कह रहा था। लेकिन उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। उनकी आँखों पर धूप का चश्मा लगा हुआ था। वो धीमे से बुदबुदाए थे, एक-एक करके मेरे सारे दोस्त मुझे छोड़ कर जा रहे हैं।नरगिस की मौत पैंक्रियाटिक कैंसर की वजह से हुई थी। उस वक्त उनके बेटे संजय दत्त की उम्र 22 साल थी। अगस्त 1980 में नरगिस बीमार हो गई थीं उस वक्त उन्हें पीलिया बताया गया था। उन्हें मुंबई के ब्रीचकैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। जांच के बाद पता चला कि उन्हें कैंसर है। इलाज के लिए नरगिस न्यूयॉर्क भी गई थीं जब वो भारत लौटीं तो उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई। करीब 10 महीने कैंसर से जंग के बाद उनकी मौत हो गई। (छत्तीसगढड़ॉटकॉम विशेष)
- पुण्यतिथि पर विशेष---आलेख- मंजूषा शर्मारायपुर। फिल्म इंडस्ट्री में जब भी चॉकलेटी, रोमांटिक हीरो की बात चलेगी, तो इसमें ऋषि कपूर का नाम भी शुमार होगा। एक साल पहले आज ही के दिन अपने परिवारजनों और प्रशंसकों को गमगीन करके वे हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गए। अब बस रह गई हैं, तो उनकी यादगार फिल्में, उनका मस्तमौला अंदाज, उनके सुपरहिट गाने और उनके डांस का वो अलहदा अंदाज, जिसने अपने दौर में सबको अपना दीवाना बना दिया था।फिल्म बॉबी में जब उनके पिता राजकपूर ने उन्हें एक रोमांटिक हीरो के रूप में प्रस्तुत किया, तो लोग उन्हें देखते ही रह गए। उनका अंदाज, उनकी स्टाइल, डिंपल कपाडिय़ा के साथ उनकी खूूबसूरत जोड़ी, सभी ने इस फिल्म को हिट बना दिया था। सही मायने में इस फिल्म ने राजकपूर को घाटे से उबार दिया था। न सिर्फ राजकपूर बल्कि नासिर हुसैन और न जाने कितने ही निर्माता-निर्देशकों को ऋषि ने आर्थिक संकट से उबारा था। फिल्मों में ऋषि कपूर द्वारा पहने गए स्वेटर्स काफी पसंद किए जाते थे।4 सितम्बर 1952 को जन्मे ऋषि कपूर ने पहली बार अपने पिता की फिल्म श्री 420 में बाल कलाकार के रूप में काम किया था। फिल्म के एक गाने प्यार हुआ इकरार हुआ,... में गोलमटोल ऋषि अपने भाई रणधीर और बहन रीमा के साथ नजर आए थे। इसकी शूटिंग के लिए फिल्म की नायिका नरगिस को ऋषि को बहुत सी चॉकलेट देकर मनाना पड़ा था।उसके बाद उन्होंने मेरा नाम जोकर फिल्म में राजकपूर के बचपन का रोल निभाया था। फिल्म में गोटमटोल ऋषि को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि एक दिन यह बच्चा हैंडसम और चॉकलेटी हीरो के रूप में सबके दिलों पर राज करेगा। इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।बतौर हीरो ऋषि की पहली फिल्म बॉबी है। ऐसा माना जाता है कि राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को लांच करने के लिए बॉबी बनाई थी। इस बात की हकीकत बताते हुए ऋषि कपूर ने कहा था कि मेरा नाम जोकर फिल्म की असफलता के बाद उनके पिता राज कपूर के आर्थिक हालात बिगड़ चुके थे जिसकी वजह से वह एक टॉप स्टार को फिल्म के लिए साइन नहीं कर पाए थे। राज कपूर ने एक टीनएज रोमांटिक फिल्म बॉबी प्लान की और इसके लिए उन्होंने ऋषि को चुना। इस फिल्म के लिए उन्हें पहला फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। बॉबी की जबरदस्त सफलता के बाद ऋषि 90 से ज्यादा फिल्मों में रोमांटिक रोल करते नजर आए। कहा जाता है कि बॉबी की शूटिंग के दौरान डिम्पल को ऋषि पसंद करने लगे थे। उन्हें प्रपोज करना चाहते थे, लेकिन डिम्पल ने अचानक राजेश खन्ना से शादी कर सभी को चौंका दिया। राज कपूर ने फिल्म हिना ऋषि कपूर को लेकर ही प्लान की थी, लेकिन उनकी मृत्यु हो गई। बाद में रणधीर कपूर ने इस फिल्म का निर्देशन किया और हीरो के रूप में ऋषि को ही लिया।नीतू कपूर के साथ ऋषि की जोड़ी को बेहद पसंद किया गया। खासतौर पर युवा इस जोड़ी के दीवाने थे। दोनों ने कई फिल्में की और अधिकांश सफल रही। दोनों के बीच अच्छी बॉडिंग थी और यही बॉडिंग शादी के बाद भी उनके जीवन में बनी रही। फिल्म अमर अकबर एंथोनी के एक सीन में ऋषि ने नीतू कपूर को उनके असली नाम नीतू से बुलाया है। इस गलती को ठीक नहीं किया गया और फिल्म के एक दृश्य को आज भी देखा जा सकता है, जबकि नीतू ने फिल्म में मुस्लिम लड़की का किरदार निभाया था।अपनी कोर्टशिप के समय ऋषि बहुत स्ट्रीक्ट बॉयफ्रेंड थे और नीतू को शाम 8:30 के बाद काम करने के लिए मना करते थे। ऋषि कपूर शूटिंग के समय नीतू सिंह के साथ सेट पर शरारतें कर उन्हें तंग करते थे और नीतू को इससे बेहद चिढ़ थी। अमर अकबर एंथोनी फिल्म के सेट पर ऋषि ने नीतू के चेहरे पर काजल फैला दिया था। इस वजह से नीतू को फिर से मेकअप करना पड़ा था। नीतू सिंह की मम्मी नीतू के ऋषि के साथ घूमने के खिलाफ थीं। जब भी यह जोड़ा डेट पर जाता नीतू की कजिन को भी उनकी मां साथ में लगा देती थीं। ऋषि के साथ रिश्ते की शुरुआत के समय नीतू फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाने की कोशिश में थीं, जबकि ऋषि एक सफल अभिनेता थे। नीतू और ऋषि की पहली फिल्म जहरीला इंसान थी। बाद में उनकी काफी धूमधाम से शादी हुई और यह जोड़ी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे सफल जोडिय़ों में से एक रही।यश चोपड़ा की फिल्म चांदनी से ऋषि के कॅरिअर में एक बार फिर उछाल आया। श्रीदेवी के साथ उनकी जोड़ी काफी पसंद की गई। वहीं जयाप्रदा के साथ उन्होंने सरगम जैसी सुमधुर गीतों से सजी फिल्म की। ऋषि कपूर के साथ 20 से ज्यादा अभिनेत्रियों ने अपना करिअर शुरू किया।पिछले कुछ सालों से उन्होंने अपने किरदारों में विविधता लाने का प्रयास किया था। 2012 में आई फिल्म अग्निपथ में ऋषि ने विलेन की भूमिका निभाई। वे खोज फिल्म में भी नकारात्मक किरदार निभा चुके थे। करण जौहर के बैनर धर्मा प्रोडक्शन के तले बनी फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर में ऋषि कपूर का किरदार गे था। .ऋषि ने एक अंग्रेजी फिल्म भी की है। डोंट स्टॉप ड्रीमिंग (सपने देखना बंद मत कीजिए) को शम्मी कपूर के बेटे आदित्य राज कपूर ने निर्देशित किया था।ऋषि कपूर ने एक फिल्म भी निर्देशित की। ऐश्वर्या राय और अक्षय खन्ना को लेकर उन्होंने आ अब लौट चलें बनाई, लेकिन यह सफल नहीं हो पाई। ऋषि और नीतू कपूर के बेटे रणबीर कपूर के अलावा उनकी एक बेटी रिद्धिमा कपूर साहनी भी है, जो पेशे से फैशन डिजाइनर हैं। वहीं रणबीर कपूर फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं।तीन साल पहले ऋषि की फिल्म मंटो रिलीज हुई थी। उनसे बाद से वे फिल्मों से अलग से हो गए थे। कैंसर की बीमारी से वे जीतकरवे भारत तो आ गए थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया।सोशल मीडिया पर रहते थे एक्टिवऋषि कपूर सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय रहते थे। उन्होंने अपना अंतिम ट्वीट 2 अप्रैल 2020 को किया था। इस दिन उन्होंने अपनी फिल्म सरगम के एक गाने राम जी की निकली सवारी, का वीडियो शेयर किया था।पिछले साल अभिनेत्री निम्मी की मृत्यु पर भी उन्होंने निम्मी को याद करते हुए उनके निधन पर शोक व्यक्त किया था। कभी- कभार उनके ट्वीट से विवाद भी खड़ा हो जाता था। लेकिन उन्हें ट्रोल करने वालों को ऋषि अपने अंदाज में जवाब भी देते थे। ऋषि कभी किसी भी तरह की आलोचना की परवाह नहीं करते थे। अपने पिता की तरह ही वे बिंदास जिदंगी जीने पर विश्वास करते थे और जीवन के अंतिम दिनों तक उनका यह अंदाज कायम रहा।
- - अहिरावण वध की याद दिलाती है वीर हनुमान की प्रतिमा- गोविन्द पटेल, धमधा रायपुरधमधा (दुर्ग)। तुलसीदास कृत रामचरित मानस के लंकाकांड में एक प्रसंग है, अहिरावण वध। जी हां, धमधा के दक्षिणमुखी हनुमान की प्रतिमा उसी अहिरावण वध के प्रसंग पर आधारित है। रावण के सभी वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए, जिसके बाद उसने पाताल लोक के अहिरावण से सहायता मांगी। अहिरावण अपनी माया से विभीषण का भेष धारण कर राम के युद्ध छावनी में पहुंच गए और अपनी शक्ति से अंधेरा करके राम-लक्ष्मण को उठाकर पाताल लोक ले गए।जब छावनी में राम-लक्ष्मण नहीं मिले तो सभी चिंतित हुए। उस समय वीर हनुमान ने बताया कि विभीषण जी रात में राम-लक्ष्मण के पास गए थे। तब विभीषण कहते हैं कि मेरा रूप धरने की कला अहिरावण के पास ही है, वही राम-लक्ष्मण को उठाकर ले गया होगा। उसके बाद वीर हनुमान पाताल लोक जाते हैं, वहां उनके पुत्र मकरध्वज से युद्ध लड़ते हैं फिर अहिरावण के हवन को देखते हैं। उसी समय फूलों के जरिए हनुमान अहिरावण की कुलदेवी के पास पहुंचकर देवीरूप बना लेते हैं और अहिरावण के पूजा में चढ़ाए वस्तुएं ग्रहण कर लेते हैं। जब राम-लक्ष्मण को देवी के पास बलि के लिये लाया जाता है तो अहिरावण कहते हैं कि अपने ईष्टदेव को आखिरी बार याद कर लो। तब राम कहते हैं कि राक्षसों तुम्हारा अंतिम समय आ चुका है, अब तुम्हारा नाश तुम्हारी कुलदेवी ही करेगी। इसके बाद वीर हनुमान सभी राक्षसों पर टूट पड़ते हैं।उस प्रसंग में राक्षस कहते हैं किनिशिचर सकल त्रसित में भारी, कहहिं बचन भय हृदय विचारी।अहिरावण भल कीन्ह न काजू, आने कपट वेष सुरराजू।।अर्थात् पाताल लोक के सभी राक्षस सोचते हैं कि हमारे राजा अहिरावण में कपटवेश धारण कर राम-लक्ष्मण को हर लाये। इसीलिये हमारी देवी रूठ गई है। अहिरावण का वध वीर हनुमान ने इसी देवीरूप में की थी, जिसकी प्रतिमा धमधा के बजरंग चौक स्थित हनुमान मंदिर में प्रतिष्ठित है।इसका अर्थ यह दावा करने का नहीं है कि यह मूर्ति रामायण काल की है, बल्कि यह प्रतिमा उस घटना की याद दिलाती है और वीर हनुमान के देवीरूप को दर्शाता है।इस प्रतिमा को धमधा के अलबख्सा तालाब के पास खेत से प्राप्त की गई थी। आज भी उस खेत को खाली छोड़कर रखा गया है। यहां पहले पुजारी ब्रम्हचारी जी महाराज हुए। उन्होंने इस मंदिर की ख्याति और गरिमा को अनूठी प्रतिष्ठा दिलाई। पुजारी का आकलन है कि पूरे भारत में हनुमान जी की देवीरूपी प्रतिमा कहीं देखने-सुनने को नहीं मिलती, केवल यहीं हनुमान जी देवी रूप में हैं। खड्ग और खप्पर है, जो देवी के भूषण हैं।-
- दास्ताँनें यूं ही खत्म नहीं होती काया चली जाती है,परंतु छाया की माया का वजूद कायम रहता है।डॉ. सुभाष पांडे को उनके जीवन काल में अपनी काया से ऐसी माया मिली जिसकी छाया उनका परिचय बन गई है। जनसेवा के मार्ग के अनुयायी, सच्चे समाज सेवक, प्रेम, निष्ठा, कर्तव्य, क्रांति एवं निडरता की निर्झरिणी के रूप में सुभाष बाबू का परिदृश्य उभरता रहेगा। डॉक्टर पांडे समाज के वह अग्रगण्य व्यक्ति थे, जिनके सिद्धांतों, उदारता एवं जीवंत स्वभाव के आधार पर नए समाज और नई संस्कृति की रचना हो सकती है। अपने कर्तव्यों को पूरा कर डॉ पांडे अनंत यात्रा की ओर, अन्य ग्रह मंडल को आलोकित करने निकल पड़े हैं या फिर आसमान की चादर पर यादों का सितारा बनकर जगमगाने लगे हैं।डॉ पांडे का जीवन वह अफसाना है जिसे अंजाम का मुकाम हासिल नहीं हुआ। हिमालयी वैचारिक ऊंचाइयों और चट्टानी इरादों के पर्याय रहे डॉ सुभाष पांडे की विदाई असामयिक एवं जनमानस की कोरोना जैसे विराट युद्ध के लिए समाज एवं स्वास्थ्य विभाग को पूर्ण भक्ति से समर्पित है। उनका जीवन सम्मोहन एवं किसी फिल्म दृश्य व गीत से परिपूर्ण था, जो सुरीली यादें बनकर यकीनन हमारे मस्तिष्क में चिरस्थाई छवि अंकित कर बाकी की जिंदगानी को खुशगवार रखने का जरिया बन गया।सिलसिला 1956 से आरंभ होता है। साधारण मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे डॉ सुभाष पांडे बाल्यावस्था से ही चंचल स्वभाव, गीत संगीत के कद्रदान, सिने प्रेमी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके पिता प्रो.जय नारायण पांडे राजनीति शास्त्र व अंग्रेजी के अध्यापक रहे। छत्तीसगढ़ अंचल में फ्रीडम मूवमेंट का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रो. जय नारायण पांडे ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में अपनी अविस्मरणीय छवि स्थापित की। मात्र 9 वर्ष की अल्प आयु में पिता की असामयिक मृत्यु ने नन्हे सुभाष को झकझोर कर रख दिया। उनके व्यक्तित्व निर्माण की धारा में उनकी माता स्वर्गीय श्रीमती श्याम कुमारी पांडे जी का परोक्ष योगदान रहा।उनका परिवार तीन पीढिय़ों से नयापारा , रायपुर का स्थायी निवासी है। अद्भुत तार्किक शैली और विषय की गूढता के साथ वाद विवाद प्रतियोगिता एवं गीत संगीत के प्रति उनकी असाधारण रुचि रही। सुभाष पांडे जी की ख्याति रायपुर गवर्नमेंट स्कूल के ऑलराउंडर छात्र के रूप में थी। कालांतर में उन्होंने रायपुर के शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय से एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की। इस दौरान उनके स्नेही कोमल ह्रदय वाले, मासूमियत, शरारती स्वभाव की प्रभावी छाप स्मृति का पर्याय बन आनंद की अनुभूति बनी रही। साथी-संगवारियों के साथ नाटिका में अनारकली की भूमिका हो या अपने सिनेमा के प्रति प्रेम से उपजे आनंद के चरमोत्कर्ष को एकमुश्त बांटने की चाहत, उन्हें अन्य लोगों से एक अलग छवि प्रदान करती थीं।उच्च शिक्षा हेतु डॉ पांडे ने मुंबई नगरी की ओर रुख किया, जहां से वे अपने जीवन काल के उस दौर के संघर्ष, जनमानस के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण एवं वास्तविक जिंदगी में व्यावहारिक भाईचारे की चिंतनधारा के प्रत्यक्षदर्शी बने। विद्यार्थी जीवन में जिस कर्मठता का परिचय उन्होंने दिया, अंत काल तक निष्ठा का बुनियादी गुण, निडरता, समाज सेवा, कर्तव्यपरायणता उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को निर्भरणी के माध्यम से सतत् बहने वाली ज्ञान धारा का प्रवाह निर्वाध गति से जनहित में जारी रखा।डॉ पांडे ने शासकीय सेवा द्वारा अंचल में कुछ ऐसी मिसाल कायम की, जिस पर कलम चलाने पर फक्र महसूस होता है। राज्य विभाजन के पश्चात उन्होंने छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य सेवाओं में टीकाकरण अधिकारी होते हुए 15 वर्षों तक यह जिम्मेदारी संभाली। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने पल्स पोलियो अभियान, शिशु संरक्षण अभियान, इंद्रधनुष अभियान, आयोडीन जनित रोगों से जुड़े अभियान के परिपेक्ष में अपनी उत्कृष्टता को प्रमाणित किया।जब-जब डॉ. पांडे ने मंच पर अपनी वशीकरण मंत्र वाली भाषा का प्रयोग किया उनकी ओजस्वी वाणी, शब्द विन्यास मर्म और उस लहजे ने लोगों को वशीभूत किया। उनका विषय वस्तु पर केंद्रित अध्ययन गूढता लिए हुए थ। अपने कार्यकाल में अनेक बार प्रशस्ति प्राप्त करते हुए डॉ पांडे अलंकृत हुए एवं पदोन्नति प्राप्त कर दुर्ग क्षेत्र के सीएमएचओ के रूप में पदस्थ रहे।कार्यकुशलता का प्रमाण देते हुए डॉ पांडे ने संयुक्त संचालक स्वास्थ्य सेवाएं, छत्तीसगढ़ का कार्य संपादित किया। इसके पश्चात् वे कोरोना नियंत्रण के राज्य नोडल अधिकारी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे। कोरोना से जंग के प्रथम चरण में डॉ सुभाष ने पराक्रम का परचम लहराया एवं निरंतर अपने कार्यों द्वारा जिम्मेदारियों को निभाते हुए दूसरी बार कोरोना से पीडि़त हो गए। डॉ पांडे ने चिकित्सालय में भर्ती होने के उपरांत भी अपनी कार्यालयीन जिम्मेदारियों का निर्वहन किया।डॉ. पांडे की निष्ठा, निडरता, कर्तव्यपरायणता एवं कर्म निश्चिता का खामियाजा उनके परिजनों ने चुकाया। 14 अप्रैल 2021 को 64 वर्ष की आयु में डॉ पांडे के जीवनपट की यवनिका गिरने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी लोक में फरिश्ते इंसानी शक्ल लिए समाज को इंसानी इबारतें सिखलाने आते हैं। डॉ सुभाष पांडे उन्हीं फरिश्तों में से एक रहे हैं। यथार्थवादी पथप्रदर्शक की यशस्वी गाथा, डॉ. सुभाष पांडे चंद्रमणि की तरह चमकती रहेगी।आलेख- डॉ. यथार्थ पांडे
- जाने-माने अभिनेता मनोज कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, 60 के दशक में बॉलीवुड के सुपरस्टार रह चुके इस एक्टर ने अपने दौर में लगभग सभी टॉप की नायिकाओं के साथ फिल्में की। भारत कुमार के रूप में उन्होंने देशभक्ति पूर्ण फिल्मों की एक श्रंृखला शुरू की और इन्हीं फिल्मों से उन्होंने लोकप्रियता भी हासिल की। आज हम उनकी लव लाइफ के बारे में चर्चा कर रहे हैं।मनोज कुमार ने बॉलीवुड को एक से बढ़कर एक कई हिट फि़ल्में दी थी। उनकी गिनती सिनेमा के दिग्गज अभिनेताओं में होती है। बेहतरीन अभिनय के लिए मनोज कुमार को 'पद्मश्री' और 'दादा साहब फाल्के' पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। लेकिन इनकी निजी लाइफ के बारे में कम ही लोगों को पता होगा। मनोज कुमार की चाची ने उनका नाम 'हरिकृष्ण गोस्वामी' रखा था। कॉलेज के दिनों में उन्होंने अपना नाम बदलकर मनोज कुमार रख लिया। दरअसल, वह सिनेमा के महान अभिनेता दिलीप कुमार के बहुत बड़े फैन थे और उन्होंने उनकी फिल्म 'शबनम' को देखने के बाद उनके अभिनय से प्रेरित होकर खुद का नाम 'मनोज कुमार' रख लिया।साल 2013 में, महान अभिनेता मनोज कुमार और उनकी पत्नी, शशि गोस्वामी का दैनिक जागरण के साथ एक इंटरव्यू हुआ था। ये पहला मौक़ा था, जब उन्होंने अपनी प्रेम कहानी के बारे में खुलकर बात की थी। इंटरव्यूवर ने मनोज कुमार से उनकी पत्नी शशि के साथ हुई पहली मुलाकात के वक्त क्या कुछ हुआ था? उस पर थोड़ा प्रकाश डालने के लिए कहा, जिसके बाद एक्टर मनोज कुमार ने अपनी प्रेम कहानी के बारे में तमाम बातों का खुलासा किया।मनोज कुमार ने बताया- ''मैं पढ़ाई के लिए अपने एक दोस्त के घर पुरानी दिल्ली जाया करता था, और उसी वक्त मैंने शशि को अपने जीवन में पहली बार देखा था। भगवान की कसम, मैंने अपने पूरे जीवन में कभी किसी लड़की को बुरी नीयत के साथ नहीं देखा था। लेकिन शशि के अंदर एक अलग सा जादू था। जो बार-बार मेरी आंखों को खींचकर उसके चेहरे की तरफ ले जाता था। तकरीबन डेढ़ साल तक हम दोनों एक-दूसरे को दूर से ही निहारते रहे, क्योंकि उस वक्त हम दोनों में से किसी एक की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि एक-दूसरे से कुछ बात कर सकें।मनोज कुमार ने आगे कहा-, ''हम अपने कुछ दोस्तों की मदद से शशि के साथ दिल्ली के एक चर्चित सिनेमाघर, 'ओडियन सिनेमा' में एक बार एक फिल्म देखने के लिए गए थे। उस मूवी का नाम 'उडनखटोला' था। अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने के बाद, हमने आगे चलकर और जल्दी-जल्दी मिलना शुरू कर दिया था। उस वक्त मेरे घरवालों को भी हमारे रिश्ते से कोई एतराज नहीं था। जबकि शशि की मां और उसके भाई इस रिश्ते के खिलाफ थे।'' ,'' हम दोनों में से कोई भी पकड़ा न जा सके, इसलिए मैं अपने स्कूल की छत और शशि अपने घर की छत पर खड़ी हुआ करती थी, ताकि हम दोनों एक दूसरे को देख सकें।'' आखिर प्रेम की जीत हुई और शशि जीवन भर के लिए उनकी संगिनी बन गईं।मनोज कुमार ने बताया कि- ''शादी के बाद मेरी फिल्म 'हरियाली और रास्ता' ब्लॉकबस्टर साबित हुई है। मुझे अपने जीवन में ये सबसे बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है। इस फिल्म ने मुझे और मेरी पत्नी दोनों को सुपरस्टार बना दिया था। लेकिन शशि हर समय इसका क्रेडिट ले लेती हंै।"
- बंगाल मूल के फिल्मकार सत्यजीत राय विश्व के महान फिल्मकारों में निर्विवाद रूप से गिने जाते हैं। उन्होंने जिंदगी में अधिकतर बंगाली भाषा में ही फिल्में बनाईं, लेकिन प्रतिष्ठा के मामले में उनकी फिल्में हिंदी भाषा की कमर्शियल बॉलीवुड फिल्मों से बहुत ऊपर रखी जाती थीं। जानते हैं वो किस्सा बॉलीवुड की सुपरस्टार एक्ट्रेस वहीदा रहमान को जब बंगाल के इस डायरेक्टर ने अपनी छोटी सी फिल्म करने के लिए विनम्र होकर फोन किया, तो वहीदा का क्या जवाब था?दरअसल, 1962 में रिलीज हुई सत्यजीत राय की फि़ल्म अभिजान में वहीदा रहमान ने गुलाबी का रोल किया था। ये फि़ल्म वहीदा ने तब चुनी जब वो प्यासा (1957), कागज़ के फूल (1959)और चौदहवीं का चांद (1960) जैसी फि़ल्मों से बहुत बड़ी स्टार बन चुकी थीं। इसमें उनकी कास्टिंग यूं हुई, कि सत्यजीत राय ने किसी के ज़रिए वहीदा के घर पत्र भिजवाया जिसमें लिखा था, "मेरे लीडिंग मैन सौमित्र चैटर्जी और मेरी यूनिट का मानना है कि मेरी अगली फि़ल्म की हीरोइन गुलाबी के रोल में आप सबसे उपयुक्त हैं। अगर आप ये रोल करने को हां कहती हैं तो मुझे बड़ी खुशी होगी।"पत्र पाकर वहीदा बहुत खुश हुईं कि सत्यजीत राय जैसे फि़ल्मकार ने उन्हें इस रोल में सोचा। कुछ दिन बाद वहीदा ने सत्यजीत राय को फोन किया जो सामने से बोले, "वहीदा, आप हिंदी फि़ल्मों में बहुत सारा पैसा कमाती हो। मैं छोटे बजट वाली छोटी फि़ल्में बनाता हूं।" इस पर वहीदा ने जवाब दिया, "साहब, मुझे क्यों लज्जित कर रहे हैं? मेरे लिए ये गर्व की बात है। आपने अपने साथ काम करने की बात करके मुझे इतना सम्मान दिया है। पैसे की कोई समस्या नहीं है। आप आगे से इसका जिक्र नहीं करना।"इस तरह से वहीदा ने सत्यजीत राय के हिसाब से ही यह फिल्म की। इस फिल्म में मशहूर किशोर कुमार की पहली पत्नी रुमागुहा ठाकुरदा और सौमित्र चटर्जी जैसे कलाकारों ने भी अभिनय किया था। फिल्म की कहानी ताराशंकर बंध्योपाध्याय ने लिखी थी।
- पुण्यतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्माअंग्रेजी कवि लार्ड बायरन ने कहा था - ईश्वर जिन्हें प्यार करता है, वे जवानी में मर जाते हैं। नूतन के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। नूतन अभी सक्रिय ही थीं, कि ऊपर से बुलावा आ गया। वे बॉलीवुड में हर तरह की भूमिकाएं निभा रही थीं। फिल्मकार और अभिनेता विजय आनंद उन्हें सबसे अच्छी अभिनेत्री मानते थे। वे उन अभिनेत्रियों में थीं, जिन्हें अभिनय जन्मजात मिला हुआ था।---वर्ष 1956 में नूतन स्टार बनीं और उसी वर्ष उन्हें फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार फिल्म सीमा (1956) के लिए मिला। उसके बाद पांच बार उन्होंने यह पुरस्कार जीता। बिमल राय की सुजाता और बंदिनी, सुब्बा राव की मिलन और राजखोसला की फिल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की, के साथ ही फिल्म मेरी जंग में शानदार काम के लिए विशेष प्रशस्ति पत्र मिला।युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोसनूतन की युवा दिलीप कुमार की नायिका न बन पाने का अफसोस हमेशा रहा। उनकी मौसी नलिनी जयवंत फिल्म शिकस्त में दिलीप कुमार की नायिका थीं। नूतन फिल्म शिवा में उनकी नायिका बनने जा रही थी, पर रमेश सहगल की इन दो फिल्मों से केवल शिकस्त बन पाई और नूतन की इच्छा अधूरी रह गई। हालांकि इस फिल्म के लिए दो गीत लता मंगेशकर की आवाज में रिकॉर्ड भी किए जा चुके थे। बाद में फिर नूतन को कोई भी फिल्म दिलीप साहब के साथ नहीं मिली, जबकि वे उस दौर की लोकप्रिय और सफल नायिका थीं। जब सुभाष घई की फिल्म कर्मा में उन्हें दिलीप कुमार की पत्नी का रोल निभाने का मौका मिला, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसके बाद दोनों ने फिल्म कानून अपना अपना में भी साथ काम किया।अनारकली न बन पाईं नूतनबहुत कम लोगों को यह मालूम है कि मधुबाला ने अनारकली की जिस भूमिका से लोगों के दिलों में जो अमिट जगह बनाई , उसकी हकदार पहले नूतन ही थीं। के. आसिफ जब मुगल-ए-आजम फिल्म की योजना बना रहे थे, तब उन्होंने अनारकली की भूमिका के लिए नूतन का ही चयन किया था, लेकिन आखिरकार यह रोल मधुबाला को मिला और मधुबाला ने इस भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। इसमें कोई शक नहीं कि मधुबाला बेहद खूबसूरत थीं। पर इसका ये मतलब नहीं है कि फिल्म में मोहे पनघट पर नंद लाल ,.. गीत गाती नूतन भी कहीं से बुरी लगती। यह भूूमिका तो नूतन को मात्र 15 साल की उम्र में मिली थी। दरअसल अगर नूतन ने अनारकली (मुगल-ए-आजम फिल्म का उस समय यही नाम था) की भूमिका 1951 में निभाई होती, तो वे पांच वर्षों के अंदर गीतों पर बेहतरीन अभिनय करने वाली यह अभिनेत्री रुपहले परदे की अनारकली, लैला और हीर बन जाने का कीर्तिमान स्थापित कर लेती। पर नूतन ने जवानी में अनारकली की उस भूमिका को हाथ से जाने दिया।फिल्मकार के. आसिफ ने सबसे पहले 1944 में नरगिस को अनारकली की भूमिका के लिए चुना था। तब नौशाद नहीं , अनिल बिश्वास इसके संगीतकार थे। पर यह फिल्म बीच में ही अटक गई , क्योंकि उसके लेखक शिराज अली हकीम पाकिस्तान में जाकर बस गए थे। 1951 में जब के. आसिफ ने फिर से अनारकली बनाने का विचार किया तो अनिल बिश्वास की जगह नौशाद और नरगिस की जगह नूतन को चुना। नूतन के लिए यह शानदार मौका था , क्योंंिक अगर नूतन ने यह भूमिका स्वीकार कर ली होती तो उनकी तुलना बीना राय से की जाती। बीना राय एस. मुखर्जी की फिल्म अनारकली में अनारकली की भूूमिका निभा रही थीं। उस समय एक ही साथ तीन फिल्में अनारकली के नाम से शुरू हो रही थीं। के.आसिफ की अनारकली , मीनाकुमारी-कमाल अमरोही की अनारकली और बीना राय -एस. मुखर्जी की अनारकली। पर शायद नूतन में अभी वह आत्मविश्वास नहीं आया था जो अमिय चक्रवर्ती की फिल्म सीमा के साथ स्टार बनने के बाद आया। इसलिए उन्होंने जोर दिया कि वे इस भूमिका के लिए ठीक नहीं रहेंगी और चाहा कि यह भूमिका फिर से नरगिस को ही मिले। जब तक कमाल अमरोही अनारकली पर अपना पहला सेट लगाते, तब तक एस. मुखर्जी ने अपने प्रसिद्ध फिल्मस्तान बैनर के तले बीना राय को अनारकली के रूप में परदे पर पेश कर दिया।कॅरिअर की शुरूआत में ही पीछे जाने से नूतन को नुकसान तो हुआ। लेकिन बाद में वे फिल्म लैला मजनूं में शम्मी कपूर के साथ लैला बनकर आई। फ्लिमकार के. आसिफ के उच्च स्तर से सीधे उतरकर उन्हें एन. अरोड़ा के स्तर तक आना पड़ा।बीना राय को -ये जिंदगी उसी की है, जैसा खूबसूरत गीत देने वाले एस. मुखर्जी ने नूतन की प्रतिभा को महसूस किया और अनारकली के हीरो प्रदीप कुमार के साथ फिल्म हीर में लिया। पर लैला मजनूं और हीर , दोनों ही असफल फिल्में साबित हुईं। इस तरह नूतन के हाथ से परदे पर अमर होनेे के दो मौके फिसल गए। इससे यही साबित होता है कि नूतन को सजा सजाया सौभाग्य नहीं मिलना था। उन्हें मेहनत और कड़ी मेहनत करके ही खुद को श्रेष्ठï अभिनेत्री के रूप में साबित करना था। अनिल बिश्वास ने हीर में नूतन के लिए अनेक खूबसूरत रचनाएं रची। पर फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के दस साल प्रदर्शित हुई और अनिल बिश्वास के कॅरिअर की शुरूआत भी इसी के साथ हुई।फिल्म सीमा में बलराज साहनी के गीत -पंख हैं कोमल , आंख हैं धुंधली , जाना है सागर पार (मन्ना डे) गीत में नूतन ने किस कदर गहरे भाव दिए हैं। यह गीत संगीतकार शंकर ने राग दरबारी में तैयार किया था।सुजाता का रोमांटिक गीतनूतन के अभिनय के विस्तार को 1956 में आई फिल्म सुजाता में भी देखा जा सकता है। इस फिल्म में सुनील दत्त फोन पर अपना प्रेम - जताते हैं और दूसरी तरफ नूतन की खामोश प्रतिक्रियां हैं।इस फिल्म में शुरू में बिमल राय को एक साधारण से अभिनेता सुनील दत्त पर फोन पर गाए रोमांटिक गीत को फिल्माने का खयाल बिल्कुल पसंद नहींं आया। जबकि एस. डी. बर्मन परेशान हो गए थे। वे उम्र में बड़े थे और उन्होंने बिमल राय को लगभग डांटते हुए कहा था- कैसे निर्देशक हो तुम। तुम में इतना आत्मविश्वास नहीं है कि अपने हीरो से एक कोमल गीत को फोन पर गाते हुए नहीं दिखा सकते। क्या तुम प्यार समझते हो? तुम नहीं जानते, क्योंकि तुमने कभी प्यार नहीं किया है। तुम जीवन के सुंदर अनुभव से वंचित हो। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि कोई लड़का किसी लड़की को फोन पर प्रेम गीत सुनाए। शेक्सपियर ने कहा था - प्यार आंखों से नहीं दिखता। पर शेक्सपियर की यह बात तुम नहीं समझ सकते हो।बर्मन दा ने मजरूह के इस गीत को इतना सुंदर तैयार किया कि यह गीत तलत महमूद के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से माना जाता है। वैसे दादा चाहते थे कि यह गीत रफी साहब गाए, लेकिन बिमल राय ने साफ कह दिया कि फोन वाला गीत वे फिल्म में तभी रखेंगे, जब उसे सुनील दत्त के लिए तलत गाएंगे। बर्मन दादा तब भी रफी को ही चाहते थे, पर उनकी जिद टल गई और बर्मन दादा अंत तक तलत के प्रति अनिश्चय की भावना लिए रहे। यहां तक उन्होंने रिकॉर्डिंग के समय भी कह दिया कि तलत मेरे इस गीत को बरबाद मत करना।तलत ने यह गीत दिल लगाकर गाया और गीत लोगों के दिलों में बस गया। आज भी जब फोन पर गीत फिल्माए जाते हैं, तो लोगों के दिलों में सुनील दत्त पर और नूतन पर फिल्माए इस गीत की ही याद ताजा हो जाती है। सचिन दा को इस गीत को फिल्माने की ज्यादा चिंता नहीं थी, क्योंकि वे जानते थे कि इसमें वह अभिनेत्री है, जिसे भावपूर्ण भूमिकाएं करने के लिए कभी ग्लिसरीन की जरूरत नहीं पड़ी।नूतन के सूक्ष्म अभिनय ने जादू किया और इसी फिल्म मेेंं नूतन ने काली घटा छाए , मेरा जिया तरसाए गाने में भी कितना सुंदर अभिनय किया है। हो सकता है कि इस गीत के लिए बिमल दा को अपनी प्रिय गायिका लता की कमी महसूस हुई हो, लेकिन आशा भोंसले ने भी अपनी आवाज का वो जादू दिखाया कि लोगों ने इसे केवल आशा का ही गीत माना। नूतन के अभिनय ने जो इसे सजीव बना दिया था।---------
- आलेख-मंजूषा शर्मागुजरे जमाने के सदाबहार गीतों में एक गीत था- मेरे पिया गए रंगून.....आज भी लोगों को पसंद आता है। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में टेलीफोन पर बहुत कम गाने फिल्माए गए हैं। फिल्म पतंगा का यह गीत उस दौर का गीत है जब टेलीफोन खास लोगों तक ही सीमित था।सन् 1949 में एक फिल्म आई थी पतंगा जिसका एक बड़ा ही खूबसूरत गीत है- मेरा पिया गए रंगून , जहां से किया है टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है जिया में आग लगाती है...। इस गीत को ऑल टाइम फेवरिट कहा जा सकता है, क्योंकि आज रिमिक्स के जमाने में भी इस गीत को प्रमुखता से लोगों ने गाया है।1949 में एच. एस. रवैल पहली बार फि़ल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे वर्मा फि़ल्म्स के बैनर तले बनी इसी फि़ल्म, यानी कि पतंगा के साथ। फि़ल्म शहनाई की सफलता के बाद संगीतकार सी. रामचन्द्र और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण की जोड़ी जम चुकी थी। इस फि़ल्म में भी इसी जोड़ी ने गीत-संगीत का पक्ष संभाला। पतंगा के मुख्य कलाकार थे- श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप, जिन्हें भारत का लॉरेन और हार्डी कहा जाता था, इस फि़ल्म में शानदार कॅामेडी की।टेलीफ़ोन पर बने गीतों का जि़क्र करना इस गीत के बिना अधूरा समझा जाएगा। बल्कि यूं कहें कि टेलीफ़ोन पर बनने वाला यह सब से लोकप्रिय गीत रहा है । शमशाद बेग़म और स्वयं चितलकर यानी संगीतकार सी. रामचंद्र का गाया हुआ यह गीत उस वक्त फि़ल्म संगीत के लिए एक नया कॉन्सेप्ट था । भले इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि नायक और नायिका एक दूसरे से टेलीफ़ोन पर बात करे हैं, लेकिन असल में यह गीत एक स्टेज शो का हिस्सा है। उन दिनों बर्मा में काफ़ी भारतीय जाया करते थे, शायद इसीलिए इस गाने में रंगून शहर का इस्तेमाल हुआ है। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का रंगून से गहरा नाता था)।आज के दौर में शायद ही रंगून का जि़क्र किसी फि़ल्म में आता होगा। फि़ल्म पतंगा के दूसरे हल्के फुल्के हास्यप्रद गीतों में शामिल है शमशाद बेग़म का गाया गोरे गोरे मुखड़े पे गेसू जो छा ग..., दुनिया को प्यारे फूल और सितारे, मुझको बलम का ना...., शमशाद और रफ़ी का गाया डुएट बोलो जी दिल लोगे तो क्या क्या दोगे... और पहले तो हो गई नमस्ते नमस्ते...., शमशाद और चितलकर का गाया एक और गीत -ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी....। इस फिल्म में लता मंगेशकर ने भी कुछ गीत गाए। एक गाना था शमशाद बेग़म के साथ -प्यार के जहान की निराली सरकार है.., और तीन दर्द भरे एकल गीत भी गाए, जिनमें जो सब से ज़्यादा हिट हुआ था वह था -दिल से भुला दो तुम हमें, हम ना तुम्हे भुलाएंगे...। लेकिन फिल्म का केवल एक गीत ही- मेरे पिया गए रंगून... आज भी बजता है। आज नए अंदाज और आवाज के बाद भी इस गाने की मूल आत्मा में कहीं न कहीं संगीतकार सी. रामचंद्र जीवित हैं।
- पुण्यतिथि पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माहिन्दी फिल्म एक्ट्रेस की ये काफी पुरानी तस्वीर है और इसे देखकर अंदाज लगाना जरा मुश्किल है कि आखिर ये कौन हैं, पर ये अपने दौर में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का काफी लोकप्रिय चेहरा हुआ करता था। ये हैं फिल्मी परदे की सबसे लोकप्रिय मौसी यानी लीला मिश्रा। जिसने भी फिल्म शोले देखी है उसे धर्मेंद्र का टंकी पर चढ़कर मौसी को धमकी देने वाला सीन याद तो होगा ही और वो अमिताभ बच्चन का धर्मेन्द्र की खासियत बताते हुए मौसी को उनकी बेटी हेमामालिनी के लिए शादी का प्रपोजल देना...लोग भूले नहीं हैं। बरसों बीत गए हैं, लेकिन शोले फिल्म का आज भी अपना क्रेज बना हुआ है।1975 में रिलीज हुई इस फिल्म का निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था और इस फिल्म की कहानी, कलाकार, डायलॉग और गाने सब कुछ अमर हो गए. फिल्म का हर छोटा बड़ा किरदार, सीक्वेंस, गाने और डायलॉग आज भी लोग दोहराते हैं। इसी फिल्म में एक किरदार था मौसी का जिसे निभाया था एक्ट्रेस लीला मिश्रा ने। आज (17 जनवरी) ही के दिन 1988 में लीला मिश्रा का 80 साल की आयु में हार्ट अटैक से निधन हो गया था।उनकी पुण्यतिथि पर कुछ उनकी बातें....लीला मिश्रा की शादी प्रपातगढ़ के जमींदार घराने के रामप्रसाद मिश्रा के साथ मात्र 12 साल में हो गई थी और 17 साल की उम्र तक वे दो लड़कियों की मां भी बन गई थीं। उनके पति को अभिनय का शौक था। वे कश्मीरी नाटकों में काम किया करते थे। उन्हीं दिनों बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ था और कलाकारों के लिए नए दरवाजे खुले थे। लीला के पति राम प्रसाद बनारस से मुंबई आते-जाते रहते थे और उन्हें मुंबई में एक फिल्म कंपनी में काम मिल गया।इसी दौरान दादा साहेब फाल्के के लिए काम करने वाले मामा शिंदे ने लीला को देखा और उनके पति को रोल ऑफर कर दिया। मामा शिंदे और रामप्रसाद में अच्छी दोस्ती भी थीं। पहले तो मिश्रा जी ने इंकार कर दिया लेकिन फिर मान गए...दोनों की पहली फि़ल्म एक साथ आई जिसका नाम था ''सती सलोचना''। इस फिल्म में मिश्रा जी का रोल था रावण का और लीला का रोल था रावण की पत्नी मंदोदरी का...लेकिन कमाल की बात ये रही कि इस फि़ल्म की फ़ीस के तौर पर लीला जी को मिले 500 रुपए और उनके शौहर मिश्रा जी को मिले 150 रुपए...। दरअसल उस वक्त अच्छे घराने की बहू बेटियों को फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। फिर उन्हें होनहार फिल्म का प्रस्ताव मिला जिसमें उन्हें अभिनेता साहू मोडक की नायिका का रोल निभाना था। लीला मिश्रा ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके लिए लीला मिश्रा की दलील थी कि जिस माहौल में उनकी परवरिश हुई है , वो उन्हें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि वो किसी ग़ैर मर्द के समीप जाएं। कंपनी को जब लीला के इंकार की वजह पता चली, तो एक नया रास्ता निकाला गया और उन्हें मोडक की मां का रोल करने का प्रस्ताव दे दिया। यकीन मानिए मात्र 18 साल की उम्र में लीला मिश्रा ने नायक की मां बनना स्वीकार कर लिया। फिर ये जैसे एक सिलसिला चल पड़ा....कभी मां, कभी मौसी, कभी चाची तो कभी नानी... दादी... लीला मिश्रा ने एक के बाद एक फिल्में करनी शुरू कर दी। किसी फिल्म में तो वे नायक की उम्र से भी छोटी रहती, लेकिन मां के रोल में नजर आती।लीला मिश्रा की उल्लेखीय फिल्म में अनमोल घड़ी (1946), आवारा (1951), नर्गिस-बलराज साहनी की फिल्म लाजवंती (1958), शीशमहल, दाग, शिकस्त, सेहरा, कॉलेज गर्ल, उम्मीद, छोटी छोटी बातें, दोस्ती, राम और श्याम, रात और दिन, धरती कहे पुकार के, तुम से अच्छा कौन है, सुहाना फल, दुश्मन, लाल पत्थर, शोले, गीत गाता चल, महबूबा, पलकों की छांव में , किनारा, दुल्हन वही तो पिया मन भाये, शतरंज के खिलाड़ी, सावन को आने दो, चश्मे बद्दूर, अबोध आदि। उनकी आखिरी फिल्म 1986 में आई तन बदन थी।लीला मिश्रा एक सहज अभिनेत्री थी और अपने किरदार से पूरी तरह से जुड़ जाती थीं, चाहे उनका रोल ग्रे शेड्स लिए ही क्यों न हो। यही कारण है कि उन्होंने काफी लंबे समय तक काम किया। अपने मिलनसार स्वभाव के कारण वे कलाकारों , निर्माता, निर्देशकों के बीच काफी लोकप्रिय भी थीं। फिल्म इंडस्ट्री में उन्होंने कई रोल निभाए, लेकिन लोग उन्हें आज भी मौसी नाम से ही याद किया करते हैं।------
- जन्मदिवस पर विशेष- आलेख मंजूषा शर्माफिल्म इंडस्ट्री की सबसे खूूबसूरत एक्ट्रेस रही मधुबाला के साथ इस हीरो को बहुत कम लोग पहचान पाएंगे। यह फिल्म सैंया का दृश्य है और यह 1951 में बनी थी। फिल्म में दो हीरो थे अजित और दूसरे थे सज्जनलाल पुरोहित। जी हां, मधुबाला के साथ बतौर हीरो सज्जन नजर आए थे जिन्होंने फिल्म जॉनी मेरा नाम में हेमामालिनी के पिता का रोल निभाया था। आज ही के दिन वर्ष 1921 में राजस्थान के जयपुर में अभिनेता सज्जन का जन्म हुआ था। उनके जन्मदिन के मौके उनसे जुड़ी कुछ ऐसी बातों की हम चर्चा कर रहे हैं जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। अभिनेता सज्जन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। फिल्म अभिनेता, थियेटर कलाका, संवाद लेखक, डायरेक्टर और गीतकार.. सज्जन के कितने ही रूप देखने को मिले।अभिनेता सज्जन ने 40-50 के दशक में कई फिल्मों में हीरो का रोल निभाया। उन्होंने अपने दौर की टॉप की एक्ट्रेस नर्गिस, मधुबाला, नलिनी जयवंत और नूतन के हीरो बनकर फिल्में की।बात करें फिल्म सैंया की। वैसे तो मधुबाला के साथ दो-तीन फिल्मों में सज्जन ने काम किया, लेकिन फिल्म सैंया में वो मधुबाला के प्रेमी बने हैं। यह लव-ट्राएंगल मूवी थी, जिसमें मधुबाला एक अनाथ लड़की की भूमिका में हैं, जिनसे दो भाइयों को प्रेम हो जाता है। इनमें से एक भाई बने हैं सज्जन, तो दूसरे भाई की भूमिका अजीत ने निभाई है। यह फिल्म अंग्रेजी फिल्म 'डुअल इन द सन' की हिन्दी रीमेक थी, जिसमें सज्जन नेगेटिव भूमिका में थे। फिल्म की शूटिंग महाबलेश्वर में हुई थी। इस फिल्म के बारे में उन्होंने कहा था, 'मुझे फिल्म में कास्ट करके निर्माता-निर्देशक सादिक बाबू ने बड़ा रिस्क लिया था, लेकिन फिल्म कामयाब हो गई। मुझे इस तरह के किरदार दोबारा नहीं मिले। मैं किसी खास किरदार को लेकर टाइपकास्ट नहीं हुआ। हालांकि, फिल्म की सफलता के बाद मैंने अपने घर का नाम बदल कर 'सैंया' ही रख लिया।' हालांकि बाद में उन्होंने यह घर ही छोड़ दिया।इसके एक साल बाद सज्जन फिल्म 'निर्मोही' में नूतन के हीरो के रूप में नजर आऐ। मदन मोहन के संगीत में इंदीवर के गीतों को लता मंगेशकर ने आवाज दी। हालांकि, फिल्म ने कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन इसके संगीत ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं।सज्जन लाल पुरोहित ने अपने करिअर में 150 से अधिक फिल्मों में काम किया, लेकिन उनकी यादगार भूमिकाओं में सस्पेंस थ्रिलर मूवी बीस साल बाद भी है। पूरी फिल्म में वे बैसाखी लिए एक आम इंसान की तरह घूमते नजर आते हैं। साल 1962 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए डिटेक्टिव मोहन त्रिपाठी के किरदार को लोग आज तक याद करते हैं।साल 1964 के दौरान दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, 'अपने पिछले प्रोजेक्ट्स को याद करूं, तो मुझे ऐसा रोल चुनने में मुश्किल होती है, जिसे मैं 'उत्कृष्ट' कहूं। ईमानदारी से कहूं, तो मैंने कभी भी ऐसा कलात्मक प्रदर्शन नहीं किया है, जिसे 'सर्वोत्कृष्टÓ की श्रेणी में रखा जा सके।' उन्होंने तलाक', 'काबुलीवाला' और 'बीस साल बाद' जैसी फिल्मों का हिस्सा होने पर खुशी भी जाहिर की थी। उनका कहना था कि इन फिल्मों में काम करने की वजह से मेरा नाम स्क्रीन पर हमेशा के लिए दर्ज हो गया, वरना मैं तो भूला दिया जाता और सिर्फ थिएटर के मंच तक ही सिमटा रह जाता।आज़ादी से पहले भारत में 'बैरिस्टर' बनने का एक अलग ही चार्म था। लिहाजा, सज्जन ने भी बैरिस्टर बनने की ठान ली। ग्रेजुशन कर पहुंच गए कलकत्ता। यहां उन्हें 'ईस्ट इंडिया कंपनी' में नौकरी भी मिल गई। यहीं से उन्हें अभिनय का चस्का लगा और फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी मिलने लगी। इसी दौरान 'गल्र्स स्कूल' में उन्हें शशिकला के हीरो का रोल मिल गया। साल 1949 में रिलीज़ हुई इस फिल्म के गाने कवि प्रदीप ने लिखे थे। इस फिल्म के बारे में सज्जन ने कहा था, 'काश इस तरह के दमदार किरदार वाली फिल्में मुझे और मिली होतीं।' उन्होंने जब मुंबई की राह पकड़ी। रात में फुटपाथ उनका आशियाना होता और दिन में स्टुडियो। काफी मुफलिसी के दिन उन्होंने काटे। इसी दौरान उन्हें मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के सहायक का काम मिल गया। तब राज कपूर भी केदार शर्मा के असिस्टेंट हुआ करते थे। गजानन जागीरदार और वकील साहिब के असिस्टेंट का काम भी सज्जन ने पकड़ लिया। इस तरह से वो महीने के 35 रूपये महीना कमा लिया करते थे। इसी दौरान फिल्म धन्यवाद में उन्हें हीरो बनने का मौका मिला। फिल्म में उनकी नायिका हंसा वाडकर थीं।अभिनेता सज्जन को लिखने का भी शौक था और उन्हें कई फिल्मों के संवाद और गाने लिखे। जब हीरो के रूप में उनकी फिल्में असफल होने लगी तो उन्होंने इसे अपनी किस्मत मानकर चरित्र भूमिकाएं निभाने से परहेज नहीं किया।साल 1968 में आई मल्टीस्टारर मूवी 'आंखेंÓ में सज्जन ने एक छोटा सा रोल किया था। वहीं से वो रामानंद सागर के करीब आ गए। बाद में रामानंद सागर ने 'विक्रम और बेतालÓ में उन्हें विलेन 'बेतालÓ की भूमिका में लिया। उस वक्त 'बेताल' का डायलॉग तब बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया था और वो था, 'तू बोला, तो ले मैं जा रहा हूं. मैं तो चला!'बाद में उनका एक महत्वपूर्ण काम उनकी एक अद्भुत पुस्तक "रस भाव दर्शन ' के रूप में सामने आया। मशहूर फोटोग्राफर ओ.पी. शर्मा के साथ मिलकर उन्होंने लगभग दो हजार साल पुराने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित इस पुस्तक की रचना की। इसमें शृंगार रस, करुणा रस जैसे रसों और 49 भावों को सज्जन ने अपनी मुख मुद्रा से दिखाया है। 17 मई 2000 को उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहा। उन्हेें आज लोग भले ही याद न करें... क्योंकि जब जमाना तेजी से रुख बदलता है, तो या तो बहुत सी चीजें धुंधली पड़ जाती हैं या भुला दी जाती हैं। अभिनेता सज्जन भी इनमें से एक हैं।
-
स्वामी विवेकानंद की आज जयंती है। जानते हैं एक रोचक कथा, जिसमें स्वामी स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा की मुलाकात हुई और स्वामी विवेकानंद के आइडिया से बदल गई भारत की तस्वीर बदल गई।
1893 में एक ही जहाज पर स्वामी विवेकानंद और जमशेदजी टाटा यात्रा कर रहे थे। वैंकुवर जा रहे इस जहाज में इन दो महान हस्तियों ने काफी समय बिताया। इस दौरान विवेकानंद ने जमशेदजी को एक ऐसा आइडिया दिया जिसने भारत की तकदीर ही बदल दी। जमशेदजी टाटा देश में औद्योगिक क्रांति के लिए पूरी कोशिश में जुटे थे। वह भारत में स्टील इंडस्ट्री की नींव रखना चाहते थे। यात्रा के दौरान विवेकानंद ने उन्हें ज्ञान से प्रभावित किया। जमशेदजी ने इसके बाद उस भगवाधारी संत से कई मुद्दों पर राय ली और उसे अमल में लाया।
विवेकानंद से बातचीत के दौरान जमशेदजी टाटा ने जापान के विकास और तकनीक की चर्चा की और भारत में एक स्टील उद्योग लगाने की बात कही। उन्होंने कहा कि वह ऐसे उपकरण और तकनीक की खोज में हैं जो भारत को एक मजबूत औद्योगिक राष्ट्र बनाने में मदद करे। उस वक्त महज 30साल के रहे विवेकानंद ने अपने से 24साल बड़े 54 साल के जमशेदजी टाटा को गरीबों और भारतीयों को मदद करने का आइडिया दिया। टाटा के जीवटता की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की असली उम्मीद यहां के लाखों लोगों की संपन्नता से जुड़ी है। उन्होंने टाटा से कहा कि वह जापान से माचिस का आयात करने की बजाए उसे भारत में ही बनाएं इससे ग्रामीण इलाके में रहने वाले गरीबों की मदद होगी। स्वामी विवेकानंद के विज्ञान का ज्ञान और कूट-कूटकर भरी देशभक्ति ने जमशेदजी टाटा को काफी प्रभावित किया। उन्होंने विवेकानंद से अपने अभियान में मदद करने और भारत में एक रिसर्च संस्थान की स्थापना के लिए मदद मांगी। विवेकानंद ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह कितना ही सुंदर होगा कि आप पश्चिम के विज्ञान और तकनीक तथा भारत के अध्यात्म से लेकर मानवतावाद की पढ़ाई हो।
विवेकानंद की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर जमशेद जी टाटा ने 23नवंबर 1898 को उन्हें एक पत्र लिखा और उनके साथ बातचीत की याद दिलाई और विश्वस्तरीय संस्थान खोलने की अपनी प्रतिबद्धता भी बताई। १८९८ में टाटा ऐसे संस्थान खोलने के लिए उचित जगह की तलाश में थे। वह उस समय मैसूर के दीवान शहयाद्री अय्यर से मिले और दोनों ने मिलकर उस वक्त के मैसूर के शासक कृष्णाराजा वडयार-ढ्ढङ्क को बेंगलूर में करीब 372एकड़ जमीन देने के लिए राजी किया। विवेकानंद का तो जुलाई 1902में निधन हो गया और ठीक उसके दो साल बाद जमशेदजी टाटा का भी निधन हो गया। लेकिन दोनों विभूतियों का सपना उनके निधन के बाद पूरा हुआ। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस का 1909 में जन्म हुआ जिसका 1911 में नाम बदलकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस कर दिया गया। - - 6 वें इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में व्याख्यानअंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष व नेत्र विशेषज्ञ डॉ. दिनेश मिश्र ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 2020 में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अंधविश्वास विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास अत्यंत आवश्यक है, जिसके लिए समाज के हर जागरूक नागरिक को आगे आना चाहिए । 6 वें इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल का आयोजन वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) बायोटेक्नोलॉजी विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय संयुक्त रूप से किया गया।इस वर्ष 6 वां इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 22 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक आयोजित किया गया जिनमें प्रथम दिवस देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने सम्बोधित किया। 25 दिसम्बर को समापन समारोह के मुख्य अतिथि देश के उपराष्ट्रपति वेंकटैया नायडू थे । इस साइंस फेस्टिवल में 60 से अधिक देशों के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। छत्तीसगढ़ से डॉ. दिनेश मिश्र ने इस आयोजन में भाग लिया एवम आलेख पढ़ा।डॉ. दिनेश मिश्र ने अपने व्याख्यान में कहा-अंधविश्वास का शाब्दिक अर्थ आंख मूंद कर विश्वास करना, या किसी भी बात, सूचना ,तथ्य पर बिना जाने समझे पूरी तरह विश्वास करना है। जबकि वहीं दूसरी ओर विज्ञान सीखने की एक प्रक्रिया है एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमें अपने परिवेश को समझने और परखने का अवसर देता है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करता है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की एक शर्त है, बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर विश्वास न करना या उपस्थित प्रमाण के अनुसार ही किसी बात पर विश्वास करना। आपसी चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग हैवैज्ञानिक दृष्टिकोण मूलत: एक ऐसी सोच है ,जिसका मूल आधार किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित मूल कारण को जानने की प्रवृत्ति है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करता है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करता है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तात्पर्य है कि हम तार्किक रूप से सोचे विचारेंडॉ. दिनेश मिश्र ने कहा जनसामान्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना हमारे संविधान के अनुच्छेद 51, ए के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों में से एक है। इसलिए हम में से प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रयास करे।हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया है कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतनासम्पन्न समाज का निर्माण हो।वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। गौरतलब है कि मानवता और समानता के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है।डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कि कुछ लोग अंधविश्वास के कारण हमेंशा शुभ-अशुभ के फेर में पड़े रहते है। यह सब हमारे मन का भ्रम है। शुभ-अशुभ सब हमारे मन के अंदर ही है। किसी भी काम को यदि सही ढंग से किया जाये, मेहनत, ईमानदारी से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। उन्होंने कहा कि 18वीं सदी की मान्यताएं व कुरीतियां अभी भी जड़े जमायी हुई है जिसके कारण जादू-टोना, डायन,टोनही, बलि व बाल विवाह जैसी परंपराएं व अनेक अंधविश्वास आज भी वजूद में है। जिससे प्रतिवर्ष अनेक मासूम जिन्दगियां तबाह हो रही है। उन्होंने कहा कि ऐसे में वैज्ञानिक सोच को अपनाने की आवश्यकता है।डॉ. मिश्र ने कहा प्राकृतिक आपदायें हर गांव में आती है, मौसम परिवर्तन व संक्रामक बीमारियां भी गांव को चपेट में लेती है, वायरल बुखार, मलेरिया, दस्त जैसे संक्रमण भी सामूहिक रूप से अपने पैर पसारते है। ऐसे में ग्रामीण अंचल में लोग बैगा-गुनिया के परामर्श के अनुसार विभिन्न टोटकों, झाड़-फूंक के उपाय अपनाते हैं। जैसा कि कोरोना काल में भी होने लगा था । विश्व स्वास्थ्य संगठन ,स्वास्थ्य मंत्रालय ,प्रशासन की लगातार दी जा रही गाइड लाइन के बाद भी अनेक स्थानों से ,झाड़ फूंक,ताबीज,बलि अनुष्ठान के मामले सामने आए, जबकि चिकित्सा विज्ञान के अनुसार प्रत्येक बीमारी व समस्या का कारण व उसका समाधान अलग-अलग होता है, जिसे विचारपूर्ण तरीके से ढूंढा व समाधान निकाला जा सकता है। उन्होंने कहा कि जैसे एक बिजली का बल्ब फ्यूज होने पर उसे झाड़-फूंक कर पुन: प्रकाश नहीं प्राप्त किया जा सकता न ही मोटर सायकल, ट्रांजिस्टर बिगडऩे पर उसे ताबीज पहिनाकर नहीं सुधारा जा सकता। रेडियो, मोटर सायकल, टी.वी., ट्रेक्टर की तरह हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसमें बीमारी आने ,समस्या होने पर उसके विशेषज्ञ के पास ही जांच व उपचार होना चाहिए।डॉ. मिश्र ने कहा -कुछ अंधविश्वास, रूढि़वादिता एवं कुपरम्पराओं से जन्म लेते हैं और कुछ स्वास्थ्य और बीमारियों के कारण ,लक्षण ,उपचार की वास्तविक जानकारी न होने के कारण बढ़ते हंै । उन्होंने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों एवं अंधविश्वासों की चर्चा करते हुए कहा कि बच्चों को भूत-प्रेत, जादू-टोने के नाम से नहीं डराएं क्योंकि इससे उनके मन में काल्पनिक डर बैठ जाता है जो उनके मन में ताउम्र बसा होता है, बल्कि उन्हें आत्मविश्वास, निडरता, के वास्तविक किस्से कहानियां सुनानी चाहिए। जिनके मन में आत्मविश्वास व स्वभाव में निर्भयता होती है। उन्हें न ही नजर लगती है और न कथित भूत-प्रेत बाधा लगती है। यदि व्यक्ति कड़ी मेहनत, पक्का इरादा का काम करें तो कोई भी ग्रह, शनि, मंगल, गुरू उसके रास्ता में बाधा नहीं बनता।सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ वैज्ञानिक विनय गद्रे, ने की । व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर स्तर हुआ जिसमें प्रतिभागियों के प्रश्नों के उत्तर दिये गए।डॉ. दिनेश मिश्रनेत्र विशेषज्ञअध्यक्ष अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
- नौशाद साहब के जन्मदिन पर विशेष, आलेख -मंजूषा शर्माभारतीय सिनेमा जगत में जब भी क्लासिक फिल्मों के नाम लिए जाएंगे, उसमें बैजू बावरा भी शामिल की जाएगी। फिल्म के लिए संगीतकार नौशाद ने ऐसी प्यारी प्यारी धुनें तैयार की, कि इतने बरसों के बाद आज भी इस फिल्म के गाने सुनो, तो दिल झूम उठता है। संगीतकार नौशाद साहब के जन्मदिन 25 दिसंबर के मौके पर उनकी इस फिल्म के बारे में हम आज चर्चा कर रहे हैं।वर्ष 1952 में ब्लैक एंड व्हाइट में बनी फिल्म बैजू बावरा में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वह दौर था, जब ज्यादातर फिल्म की कहानियों में या तो देशभक्ति की बात की जाती थी, या फिर जमींदारों या डाकूओं की। गांवों के परिवेश पर बनने वाली फिल्मों की कमी नहीं थी।उस वक्त की फिल्मों में रिश्तों में गहनता, मर्यादा को ज्यादा अहमियत दी जाती थी। बैजू बावरा फिल्म को यदि आज याद किया जाता है, तो नौशाद साहब के खूबसूरत क्लासिकल गानों, भारत भूषण और मीना कुमारी की क्यूट जोड़ी के कारण। कहानी के फिल्मांकन की दृष्टि से भले ही आज के डिजिटलाइज्ड दौर में यह फिल्म कमतर लगे, लेकिन 50 के दशक में ऐसी फिल्में बनना भी बड़ी बात थी। उस वक्त रीमेक या सीक्वल का दौर नहीं थी, कि एक ही कहानी को मसाला डालकर दो या फिर तीन- तीन फिल्में बना ली जाएं। बल्कि फिल्मों के गाने से लेकर कहानी, कलाकारों के अभिनय और दृश्यों के फिल्मांकन ,सभी में मौलीकता और इससे जुड़े लोगों की कड़ी मेहनत नजर आती थी।बैजू बावरा जैसा की फिल्म के नाम से जाहिर है कि यह फिल्म पुराने जमाने में शास्त्रीय गायक रहे बैजू बावरा के जीवन पर आधारित है। हालांकि फि़ल्म की कहानी और बैजू बावरा पर प्रचलित दन्तकथाओं में काफ़ी असमानताएं हैं। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी मुख्य भूमिकाओं में थे। यह वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की संगीत दुनिया में पहचान बनी। फिल्म 1952 में बनी थी और इसी फिल्म के लिए नौशाद साहब ने पहला फिल्म फेयर अवार्ड जीता था।ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपना अलग महत्व रखती है खासकर शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल में। इसका मशहूर भजन मन तरपत हरि दर्शन.. को आज भी सबसे बढिय़ा भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखें हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने, जो यह साबित करता है कि संगीत की दुनिया किसी भी मजहब से नहीं बंधी है।फिल्म के अन्य मशहूर गानों में शामिल है राग दरबारी पर आधारित -ओ दुनिया के रखवाले.. जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। झूले में पवन के , गीत को लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी, में राग पीलू का इस्तेमाल किया गया। राग भैरवी में तू गंगा की मौज.. को कौन भूल सकता है... जिसके सुंदर बोल,कोरस एफैक्ट और ओर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक नया रूप देते हैं। फिल्म में कुल 13 गाने थे। आज गावत मन मेरो झूम के.. गीत राग देसी पर आधारित था और इसमें नौशाद साहब ने उस्ताद आमिर खान और डी. वी. पल्सुकर जैसे ढेढ शास्त्रीय गायकों का इस्तेमाल किया। वहीं दूर कोई गाये गीत राग देस पर आधारित था। मोहे भूल गए सावरिया गीत लता ने गाया और इसमें नौशाद ने राग भैरवी और राग कालिन्गदा का मिला जुला रूप पेश किया। बचपन की मोहब्बत गीत-राग मान्द, इंसान बनो... और लंगर कन्हैया जी ना मारो-राग तोड़ी, घनन घनन घना गरजो रे - राग मेघ और एक सरगम में नौशाद साहब ने राग दरबारी का प्रयोग किया। एक प्रकार से नौशाद साहब ने फिल्म के पूरे ही गानों में शास्त्रीय रागों का बड़ी खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया, इसलिए ये गाने आज भी लोकप्रिय हैं। आवाज की मिठास साथ हो तो शास्त्रीय रागों की कठिनता भी सहजता बन जाती है, इसके सभी गानों में ये बात स्पष्ट नजर आती है। नौशाद साहब ने साबित किया कि शास्त्रीय राग के साथ यदि लोकसंगीत का मेल हो जाए, तो जो संगम सामने आता है, वह कालजयी बन जाता है। उस वक्त शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का ऐसा मधुर मिश्रण किसी भी फिल्म में नहीं हुआ।विजय भट्ट की इस फिल्म ने मीना कुमारी को स्टार बना दिया था। यह बतौर नायिका पहली फिल्म थी। इससे पहले मीना कुमारी बाल कलाकार के रूप में मजहबी नाम से फिल्मों में काम किया करती थीं। निर्देशक विजय भट्ट ने ही उन्हें मीनाकुमारी नाम दिया और अपनी फिल्म बैजू बावरा में नायिका के रूप में कास्ट किया। गौरी की भूमिका में मीना कुमारी ने सबका दिल जीत लिया। वहीं भारत भूषण भी बैजू बावरा की भूमिका में खूब जमे। इस फिल्म के संगीत के लिए नौशाद को पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और मीना कुमारी ने भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल किया। एक प्रकार से 1952 का साल बैजू बावरा के लिए समर्पित रहा। फिल्म के निर्माता थे प्रकाश और निर्देशन विजय भट्ट का था। फिल्म में भारत भूषण और मीना कुमारी के अलावा सुरेन्द्र और अभिनेत्री कुलदीप ने भी काम किया था। अभिनेता सुरेन्द्र ने तानसेन की भूमिका निभाई थी, तो डाकू रूपमती के रोल में अभिनेत्री कुलदीप कौर थीं। मीना कुमारी के बचपन का रोल बेबी तबस्सुम ने निभाया था। फिल्म के अंत में दिखाया गया है कि नायक बैजू और नायिका गौरी की नदी में डूबने से मौत हो जाती है। कुल मिलाकर बैजू बावरा 1952 की श्रेष्ठतम संगीतमय फिल्म रही।कुछ बातें विजय भट्ट के बारे में। वे अपने दौर के जाने-माने फिल्म निर्माता , संवाद लेखक और निर्देशक रहे हैं। विजय भट्ट ने कुल 65 फिल्में बनाई जिसमें रामराज्य (1943), बैजू बावरा (1952), गूंज उठी शहनाई (1959) और हिमालय की गोद में (1965) प्रमुख थी। विजय भट्ट ने प्रकाश पिक्चर प्रोडक्शन कंपनी और प्रकाश स्टुडियो की स्थापना की थी। उन्होंने ही फिल्म एंड टेलीविजन प्रोड्यूसर गिल्ड ऑफ इंडिया संस्था की स्थापना की। उनके पोते विक्रम भट्ट आज हॉरर फिल्मों के निर्माण-निर्देशन के लिए जाने जाते हैं।---
- जयंती पर विशेष- आलेख-मंजूषा शर्मामोहम्मद रफी, संगीत की दुनिया का वो नाम है, जिनके गाए गाने आज भी हर पीढ़ी की पसंद बने हुए हैं। वे न केवल एक अच्छे गायक बल्कि एक अच्छे इंसान भी थे। दरअसल वे महज़ एक आवाज़ नहीं;गायकी की पूरी रिवायत थे। पिछले करीब कई दशक से लोग उनकी आवाज सुन रहे हैं। आज उनकी जयंती पर कुछ उनकी बातें.....पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का एक किशोर बरसो पहले मुंबई आता है। साथ में न कोई जमींदारी जैसी रईसी या पैसों की बरसात, न कोई गॉड फ़ादर सिर्फ एक प्यारी सी आवाज, जो हर तरह के गीत गाने की हिम्मत रखता था। फिर वह चाहे किसी भी स्केल का हो। सा से लेकर सा तक यानी सात स्वरों के हर स्वर में । कोई ख़ास पहचान नहीं ,सिफऱ् संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी पत्र और । किस्मत ने पलटा खाया और अपनी आवाज, इंसानी संजीदगी के बूते पर यह सीधा सादा युवक मोहम्मद रफ़ी पूरी दुनिया में छा गया। संघर्ष का दौर काफी लंबा था और मुफलिसी भी साथ चल रही थी। संगीत का यह साधक किसी भी परिस्थिति में रुकना नहीं चाहता था। उस दौर का एक वाकया सुनने में आया जिसका जिक्र आज यहां कर रहे हैं।मोहम्मद रफी साहब मुंबई में संघर्ष के दिनों में मायूस भी हो गए थे, लेकिन दिल में कुछ कर दिखाने का जज्बा उन्हें पंजाब लौटने नहीं दे रहा था। संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हें कोरस में गाने का मौका दिया। मुंबई में रिकॉर्डिंग हुई और रफी साहब ने सबको प्रभावित किया। काम खत्म हो चुका था, तो सभी लोग स्टुडियो से बाहर निकल गए। लेकिन रफ़ी साहब स्टुडियो के बाहर देर तक खड़े रहे। तकऱीबन दो घंटे बाद तमाम साजि़ंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टुडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए । पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिये लोकल ट्रेन के किराये के पैसे नहीं है। नौशाद साहब अवाक रह गए और बोले- अरे भाई भीतर आकर मांग लेते ...रफ़ी साहब का जवाब -अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे मांगूं ? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब। सीधा- सरल जवाब सुनकर नौशाद साहब की आंखें छलछला उठीं। रफी साहब ने कहा- उन्हें लगा था रिकॉर्डिंग हो जाएगी तो उसके मेहताने से वो घर पहुंच जाएंगे। नौशाद ने तब रफी को 1 रुपये का सिक्का दिया था ताकि वो घर पहुंच जाएं। रफी ने नौशाद से वो सिक्का लिया और पैदल ही चल पड़े। इसके कई सालों बाद रफी शहंशाह-ए-तरन्नुम बन गए। उनके पास खूब दौलत और शोहरत हो गई। तब एक दिन नौशाद साहब मोहम्मद रफी के घर आए। उन्होंने देखा कि मोहम्मद रफी ने 1 रुपये का सिक्का फ्रेम कराकर दीवार पर टांग रखा है। नौशाद ने इसका कारण जानना चाहा। तब रफी साहब ने बताया कि सालों पहले नौशाद ने जिस लड़के को घर जाने के लिए 1 रुपये का सिक्का दिया था वो और कोई नहीं, बल्कि खुद रफी ही थे। रफी ने कहा, 'मैं उस दिन पैदल ही गया था। ये सिक्का मुझे मेरी सच्चाई याद दिलाता है और ये कि उन दिनों किस नेक इंसान ने मेरी मदद की थी।' मो. रफी साहब की बातें सुनकर एक बार फिर नौशाद की आंखें नम हो गई थीं।न कोई छलावा न कोई दिखाया और न ही ज्यादा पाने की चाहत। बस जो मिल गया उसे को मुकद्दर समझ लिया, ऐसे थे रफी साहब।सही मायने में सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे। उन्होंने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को मांजा था। उन्हें देखकर लोग सहसा विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि शम्मी कुमार साहब के लिए याहू ,.... जैसे हुडदंगी गाने वे ही गाया करते हैं।उनके बारे में संगीतकार वसंत देसाई कहते थे -रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नहीं थे...वह तो एक शापित गंधर्व थे जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया। कई बार उनके पैसे इसी वजह से डूब गए, क्योंकि उन्होंने संकोच की वजह से पैसे मांगे नहीं। रफी साहब कभी काम मांगने भी नहीं गए। जो मिल गया, गा लिया। मोहम्मद रफी फिल्म इंडस्ट्री में मृदु स्वभाव के कारण जाने जाते थे। मोहम्मद रफी ने लता मंगेशकर के साथ सैकड़ों गीत गाये थे, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया था जब रफी ने लता से बातचीत तक करनी बंद कर दी थी। लता मंगेशकर गानों पर रायल्टी की पक्षधर थीं जबकि रफी ने कभी भी रॉयल्टी की मांग नहीं की।रफी साहब मानते थे कि एक बार जब निर्माताओं ने गाने के पैसे दे दिए तो फिर रायल्टी किस बात की मांगी जाए। दोनों के बीच विवाद इतना बढा कि मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच बातचीत भी बंद हो गई और दोनों ने एक साथ गीत गाने से इंकार कर दिया हालांकि चार वर्ष के बाद अभिनेत्री नरगिस के प्रयास से दोनों ने एक साथ एक कार्यक्रम में ज्वैलथीफ का गीत...दिल पुकारे गीत गाया।अपने कॅरिअर में रफ़ी साहब को श्यामसुंदर, नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीकारों का सान्निध्य मिला जो उनके लिए फायदेमंद भी रहा। रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्युजि़क का दामन कभी न छोड़ा। बैजूबावरा में उन्होंने राग मालकौंस (मन तरपत)और दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया , उसे गाने की हिम्मत आज भी बहुत कम लोग कर पाते हैं। उस दौर की फिल्मों में जब भी क्लासिकल म्यूजिक की बात चलती थी, तो संगीतकार रफी साहब और मन्ना डे के पास ही जाते थे। रफी साहब की आवाज नायकों के लिए ज्यादा सूट करती थी, इसीलिए उन्हें मन्ना दा की तुलना में लीड गाने ज्यादा मिले।मो. रफी साहब के गाए 10 लोकप्रिय गाने, जो आज भी पसंद किए जाते हैं....1. तुम मुझे यूं भुला न पाओगे - फिल्म पगला कहीं का2. मैंने पूछा चांद से - फिल्म अब्दुल्लाह3. चौदहवीं का चांद हो.... फिल्म चौदहवीं का चांद4. बहारों फूल बरसाओ.... फिल्म सूरज5. बदन पे सितारे लपेटे हुए- फिल्म प्रिंस6. गुलाबी आंखें... फिल्म द ट्रेन7. ये चांद सा रोशन चेहरा... फिल्म कश्मीर की कली8. सुहानी रात ढल चुकी....फिल्म - दुलारी9. बाबुल की दुआएं लेती जा... फिल्म नीलकमल10. आज कल तेरे मेर प्यार के चर्चे- फिल्म ब्रह्मचारी
- पुण्यतिथि पर विशेष, आलेख- मंजूषा शर्माआवाज दें कहां है दुनिया मेरी जवां है.... फिल्म अनमोल घड़ी का यह गीत बरसों से लोग सुन रहे हैं। इसकी गायिका मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां को लोग भला कैसे भूल सकते हैं। अल्ला वसई, मैडम नूरजहां जैसे नामों से जानी जाने वाली अभिनेत्री, गायिका नूरजहां को इस दुनिया से विदा हुए बीस साल हो गए हैं। उनके गाने आज भी भारत और पाकिस्तान में गूंजते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन नहीं हुआ होता और उनके पति उन्हें लेकर लाहौर नहीं गए होते तो शायद आज भारत में नूरजहां की लोकप्रियता लता मंगेशकर से कम नहीं होती।दुनिया में नूरजहां, भले ही पाकिस्तान की मशहूर गायिका के नाम से जानी जाती हों, पर वे कभी दोनों मुल्कों की साझी धरोहर थीं। लता मंगेशकर और नूरजहां की मैत्री काफी प्रसिद्ध रही। लता ने हमेशा यह स्वीकार किया है, मैं नूरजहां की सबसे बड़ी प्रशंसक हूं। वह मलिका-ए-तरन्नुम थीं और रहेंगी? हर किसी का कोई न कोई आदर्श होता है और मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि नूरजहां मेरी रोल मॉडल थीं।वहीं मंटो नूरजहां को लेकर कहते थे, 'मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई थ। इतनी साफ़-ओ-शफ्फ़़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाजि़ह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग्जि़श के खड़े रहते हैं।भारत छोड़ पाकिस्तान जा बसने की उनकी मजबूरी के बारे में उन्होंने 'विविध भारती' में बताया था कि- "आपको ये सब तो मालूम है, ये सबों को मालूम है कि कैसी नफ़सा-नफ़सी थी, जब मैं यहां से गई। मेरे मियां मुझे ले गए और मुझे उनके साथ जाना पड़ा, जिनका नाम सैय्यद शौक़त हुसैन रिज़वी है। उस वक़्त अगर मेरा बस चलता तो मैं उन्हें समझा सकती, कोई भी अपना घर उजाड़ कर जाना तो पसन्द नहीं करता, हालात ऐसे थे कि मुझे जाना पड़ा। और ये आप नहीं कह सकते कि आप लोगों ने मुझे याद रखा और मैंने नहीं रखा, अपने-अपने हालात ही की बिना पे होता है किसी-किसी का वक़्त निकालना, और बिलकुल यकीन करें, अगर मैं सबको भूल जाती तो मैं यहां कैसे आती?'मल्लिका-ए-तरन्नुम' नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। नूरजहां अपनी आवाज़ में नित्य नए प्रयोग किया करती थीं। अपनी इन खूबियों की वजह से ही वे ठुमरी गायिकी की महारानी कहलाने लगी थीं। उनकी गाई गजलें भी काफी मशहूर हुई, जिसमें से एक गजल काफी पसंद की जाती है- मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूूब न मांग....जिसे कई लोगों ने गाया है, लेकिन नूरजहां की बराबरी आज तक कोई नहीं कर पाया।नूरजहां का जन्म 21 सितम्बर, 1926 ई. को पंजाब के 'कसूर' नामक स्थान पर एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मदद अली' था और माता 'फ़तेह बीबी' थीं। नूरजहां के पिता पेशेवर संगीतकार थे। माता-पिता की ग्यारह संतानों में से नूरजहां एक थीं। संगीतकारों के परिवार में जन्मी नूरजहां को बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने बाल कलाकार के रूप में कई फिल्में कीं।वर्ष 1943 में नूरजहां लाहौर से मुम्बई चली आईं। महज चार साल की संक्षिप्त अवधि के भीतर वे अपने सभी समकालीनों से काफ़ी आगे निकल गईं। भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के पुरानी पीढ़ी के लोग उनकी क्लासिक फि़ल्मों 'लाल हवेली'Ó 'जीनत', 'बड़ी मां', 'गांव की गोरी' और 'मिर्जा साहिबां' फि़ल्मों के आज भी दीवाने हैं। फि़ल्म 'अनमोल घड़ी' का संगीत ख्यातिप्राप्त संगीतकार नौशाद ने दिया था। उसके गीत 'आवाज दे कहां है', 'जवां है मोहब्बत' और 'मेरे बचपन के साथी' जैसे गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं।नूरजहां देश के विभाजन के बाद अपने पति शौक़त हुसैन रिज़वी के साथ बंबई छोड़कर लाहौर चली गईं। लाहौर में रिजवी ने एक स्टूडियो का अधिग्रहण किया और वहां 'शाहनूर स्टूडियो' की शुरुआत की। 'शाहनूर प्रोडक्शन' ने फि़ल्म 'चन्न वे' (1950) का निर्माण किया, जिसका निर्देशन नूरजहाँ ने किया। यह फि़ल्म बेहद सफल रही। इसमें 'तेरे मुखड़े पे काला तिल वे' जैसे लोकप्रिय गाने थे। उनकी पहली उर्दू फि़ल्म 'दुपट्टा'Ó थी।पाकिस्तान जाने से पहले भारत में नूरजहां के अभिनय व गायन से सजी दो फि़ल्में 1947 में प्रदर्शित हुई थीं- 'जुगनू' और 'मिर्जा साहिबां'। 'जुगनू' शौक़त हुसैन रिज़वी की कंपनी 'शौक़त आर्ट प्रोडक्शन्स' के बैनर तले निर्मित थी, जिसमें नूरजहां के नायक दिलीप कुमार थे। संगीतकार फिऱोज़ निज़ामी ने मोहम्मद रफ़ी और नूरजहां से एक ऐसा डुएट गीत इस फि़ल्म में गवाया, जो इस जोड़ी का सबसे ज़्यादा मशहूर डुएट सिद्ध हुआ। गीत था "यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है, मोहब्बत करके भी देखा, मोहब्बत में भी धोखा है"। इस गीत की अवधि कऱीब 5 मिनट और 45 सेकण्ड्स की थी, जो उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी लम्बी थी। कहते हैं कि इस गीत को शौक़त हुसैन रिज़वी ने ख़ुद ही लिखा था, पर 'हमराज़ गीत कोश' के अनुसार फि़ल्म के गीत एम. जी. अदीब और असगर सरहदी ने लिखे थे। नूरजहां अभिनेता प्राण की भी नायिका बनकर सिने परदे पर आईं।नूरजहां ने मल्लिका-ए-तरन्नुम बनने के लिए बहुत मेहनत की थी और अपनी शर्तों पर जिंदगी को जिया था। उनकी जिंदगी में अच्छे मोड़ भी आए और बुरे भी! उन्होंने दो शादियां की, तलाक दिए, नाम कमाया और अपनी जिंदगी के अंतिम क्षणों में बेइंतहा तकलीफ़ भी झेली। 1954 में शौक़त हुसैन रिज़वी से तलाक के बाद 1959 में नूरजहां ने अपने से नौ साल छोटे अभिनेता एजाज़ दुर्रानी से दूसरी शादी की। शादी के चार साल बाद ही नूरजहां ने अपने अभिनय से संन्यास ले लिया क्योंकि दुर्रानी के अभिनय करिअर की दिनों दिन बढ़ती मांग के सामने घर संभालने की जि़म्मेदारी केवल उन पर ही थी। यह शादी भी 1979 तक चली । इन दोनों ही शादियों से हुए छह बच्चों के पालन-पोषण की जि़म्मेदारी नूरजहां ने एक अकेली मां के रूप में बखूबी निभाई।अपनी दिलकश आवाज़ और अदाओं से दर्शकों को मदहोश कर देने वाली नूरजहां का दिल का दौरा पडऩे से 23 दिसम्बर, 2000 को निधन हुआ। जब वर्ष 2000 में नूरजहां को दिल का दौरा पड़ा, तो उनके एक मुरीद और नामी पाकिस्तानी पत्रकार ख़ालिद हसन ने लिखा था- "दिल का दौरा तो उन्हें पडऩा ही था। पता नहीं कितने दावेदार थे उसके, और पता नहीं कितनी बार वह धड़का था, उन लोगों के लिए जिन पर मुस्कराने की इनायत उन्होंने की थी।"
- --शो मैन राजकपूर की जयंती पर जाने ऐसे ही कुछ किस्से'शोमैन' के खिताब से नवाजे गए एक्टर और निर्देशक राज कपूर की आज जयंती है। राज कपूर को बचपन से एक्टिंग करने का शौक था। जैसे जैसे वो बड़े होते गए उनकी रूचि और बढ़ती गयी। 14 दिसंबर 1924 को जन्मे राज कपूर ने अपने फिल्मी कॅरिअर में 3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किए।- राज कपूर का असली नाम रणबीर राज कपूर था। अभिनेता का नाम उनके पोते रणबीर कपूर ने साझा किया है। राज कपूर ने भारतीय सिनेमा में अपनी शुरुआत 1945 में आई फिल्म 'इंकलाब' के साथ की, जब वो सिर्फ 10 साल के थे। मात्र 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना स्टूडियो - आरके फिल्म्स बनाया था। इस स्टूडियो में बनी पहली फिल्म 'आग' कमर्शियल फ्लॉप थी।- राज कपूर की पहली जॉब क्लैपर बॉय की थी। इस नौकरी से उन्हें 10 रुपये प्रति महीना मिलते थे।- फिल्म 'बॉबी' का एक सीन जब ऋषि कपूर डिम्पल कपाडिय़ा से उनके घर पर मिलते हैं। यह राज कपूर की रियल लाइफ पर आधारित था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात ऐसे ही हुई थी। किसी दौर में राज कपूर नरगिस दत्त के प्यार में पागल थे। कहा जाता है वो नरगिस को पहली नजर में दिल दे बैठे थे।-राज कपूर ने म्यूजिक डायरेक्टर जोड़ी शंकर-जयकिशन के साथ करीब 20 फिल्मों में काम किया। मुकेश और मन्ना डे जैसे मशहूर गायक की हमेशा राज कपूर को आवाज़ देते थे। इनमें से भी मुकेश ने उनके लिए कई गाने गाए। कहा जाता है, जब मुकेश का निधन हुआ, तब राज कपूर ने कहा, 'मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया'।- राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद को भारतीय सिनेमा की पहली तिकड़ी माना जाता है। उनके बीच किसी प्रकार की स्पर्धा नहीं थी, बल्कि वे काफी अच्छे दोस्त थे। दिलीप कुमार साहब की शादी उस वक्त की सबसे भव्य शादियों में से एक थी। राज कपूर से उनके रिश्ते ऐसे थे, कि राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और देव आनंद के साथ बारात में सबसे आगे गए थे। असल जिदंगी में राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की जो गहरी दोस्ती थी, लेकिन उसे परदे पर उतारा न जा सका। फिल्म निर्माता विजय आनंद ने एक फिल्म इन तीनों के साथ शुरू ज़रूर की, लेकिन डेट्स की दिक्कतों और अहम के टकराव के कारण यह फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी।-'मेरा नाम जोकर' फिल्म राजकपूर ने काफी लंबी बनाई थी और इसमें दो इंटरवेल थे। इस मूवी को अद्वितीय इसलिए कहा जाता है कि यह हर दौर में नई ही लगती है। यह भारत की सबसे आइकॉनिक फिल्मों में से एक है। कहा जाता है कि फिल्म का सब्जेक्ट इतना गहरा है, कि यह पहली हिंदी फिल्म थी जिसमें दो इंटरवल किए गए और यह फिल्म साढ़े 4 घंटे लंबी है।-जब राज कपूर 'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म के लिए ऐक्ट्रेस फाइनलाइज़ कर रहे थे। तभी, ज़ीनत एक गांव की लड़की की तरह कपड़े पहनकर और जले हुए चेहरे का मेकअप कर उनके ऑफिस पहुंच गईं। राज कपूर उनके डेडिकेशन से इतने खुश हुए कि तुरंत उन्हें फाइनल कर दिया।- इसे लकी चार्म कह लीजिए या राज की चाहत, उनकी हर हीरोइन ने एक बार सफेद साड़ी ज़रूर पहनी है। कहा जाता है, राज कपूर ने अपनी पत्नी कृष्णा को एक सफेद साड़ी गिफ्ट की थी। उन्हें वह इतनी भाई कि आगे उनकी हर ऐक्ट्रेस ने फिल्म के कम-से-कम एक सीन में वह साड़ी ज़रूर पहनी। कहा जाता है कि राजकपूर की खातिर नरगिस शादी से पहले अक्सर सफेद साड़ी पहना करती थीं।-राज कपूर की बिगड़ती सेहत और अपने जिगरी दोस्त को खो देने के डर ने ऋषिकेश मुखर्जी को इस कदर ख़ौफज़़दा कर दिया कि उन्होंने राज के लिए 'आनंद' बनाई। राज कपूर को अक्यूट ऐस्थमा था।- राज कपूर अस्थमा के मरीज थे। राज कपूर जब दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आये थे, वहीं उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ गया और उनका निधन हो गया था।--
- आलेख-मंजूषा शर्मायूसुफ़ ख़ान यानी दिलीप कुमार,एक अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने भी कभी गायकी में हाथ आजमाना चाहा था। उन्हें सुरों का ज्ञान भी काफी है।ज्यादातर लोग दिलीप साहब को एक अभिनेता के रूप में ही जानते हैं, पुराने फि़ल्म संगीत में रुचि रखने वाले रसिकों को मालूम होगा दिलीप साहब के गाये कम से कम एक गीत के बारे में, जो है फि़ल्म मुसाफिऱ का, लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये । लता मंगेशकर के साथ गाया यह एक युगल गीत है, जिसका संगीत तैयार किया था सलिल चौधरी नें।फि़ल्म-ग्रुप के बैनर तले निर्मित इसी फि़ल्म से ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी निर्देशन की पारी शुरु की थी। 1957 में प्रदर्शित इस फि़ल्म के मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार, उषा किरण और सुचित्रा सेन। पूर्णत: शास्त्रीय संगीत पर आधारित बिना ताल के इस गीत को सुन कर दिलीप साहब को सलाम करने का दिल करता है। एक तो कोई साज़ नहीं, कोई ताल वाद्य नहीं, उस पर शास्त्रीय संगीत, और उससे भी बड़ी बात कि लता जी के साथ गाना, यह हर किसी अभिनेता के बस की बात नहीं थी। वाक़ई इस गीत को सुनने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब बेहतर अभिनेता हैं या बेहतर गायक।यह गीत 6: 30 मिनट लंबा है और यह एक पारम्परिक ठुमरी है राग पीलू पर आधारित, जिसका सलिल दा ने एक अनूठा प्रयोग किया इसे लता और दिलीप कुमार से गवा कर। लता जी पर राजू भारतन की चर्चित किताब लता मंगेशकर - ए बायोग्राफ़ी में इस गीत के साथ जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का जि़क्र हुआ है। इस गीत की रिकॉर्डिंग से पहले दिलीप साहब को एक के बाद एक तीन ब्रांडी के ग्लास पिलाये गये थे? ताकि वे बिना किसी झिझक के लता जैसी बड़ी गायिका के सामने गाने की हिम्मत जुटा सकें।एक मुलाक़ात में लता जी ने दिलीप साहब से कहा था, दिलीप साहब, याद है आपको, 1947 में, मैं, आप और मास्टर कम्पोजऱ अनिल बिस्वास, हम तीनों लोकल ट्रेन में जा रहे थे। अनिल दा ने मुझे आप से मिलवाया एक महाराष्ट्रियन लड़की की हैसियत से और कहा कि ये आने वाले कल की गायिका बनेगी। आपको याद है दिलीप साहब कि आप ने उस वक्त क्या कहा था? आप ने कहा था, एक महाराष्ट्रियन, इसकी उर्दू ज़बान कभी साफ़ नहीं हो सकती! इतना ही नहीं, आप नें यह भी कहा था कि इन महाराष्ट्रियनों के साथ एक प्राब्लम होती है, इनके गाने में दाल-भात की बू आती है। आपके ये शब्द मुझे चुभे थे। इतने चुभे कि अगले ही सुबह से मैंने गंभीरता से उर्दू सीखना शुरु कर दिया सिफऱ् इसलिए कि मैं दिलीप कुमार को ग़लत साबित कर सकूं। और दिलीप साहब ने 1967 में लता जी के गायन कॅरिअर के सिल्वर जुबिली कनसर्ट में इस बात का जि़क्र किया और अपनी हार स्वीकार की थी।राजू भारतन ने सलिल दा से एक बार पूछा कि फि़ल्म मुसाफिऱ के इस गीत के लिए दिलीप साहब को किसने सिलेक्ट किया था। उस पर सलिल दा का जवाब था, दिलीप ने खुद ही इस धुन को उठा ली; वो इस ठुमरी का घंटों तक सितार पर रियाज़ करते और इस गीत में मैंने कम से कम मुरकियां रखी थीं। मैंने देखा कि जैसे जैसे रिकॉर्डिंग पास आ रही थी, दिलीप कुछ नर्वस से हो रहे थे। और हालात ऐसी हुई कि दिलीप आखिरी वक्त रिकॉर्डिंग से भाग खड़े होना भी चाहा। ऐसे में हमें उन्हें ब्रांडी के पेग पिलाने पड़े उन्हें लता के साथ खड़ा करवाने के लिए।इस रिकॉर्डिंग के बाद दिलीप कुमार और लता मंगेशकर में बातचीत करीब 13 साल तक बंद रही। कहा जाता है कि दिलीप साहब को पता नहीं क्यों ऐसा लगा था कि इस गीत में लता जी जानबूझ कर उन्हें गायकी में नीचा दिखाने की कोशिश कर रही हैं, हालांकि ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह नहीं थी। फिर दोनों कलाकारों ने सुलह की और आज भी उनके बीच के संबंध काफी मधुर हैं। दिलीप साहब आज भी लता मंगेशकर को लता दीदी कहते हैं और अपनी बहन मानते हैं।
- जन्मदिन पर विशेष60 के दशक की मशहूर अभिनेत्री माला सिन्हा ने हिन्दी फिल्मों में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया। नेपाली, बंगाली होने के बाद भी उन्होंने हिन्दी फिल्मों में काफी काम किया। बाल कलाकार से लेकर नायिका की भूमिकाओं में उन्होंने अपने अभिनय से लोगों को प्रभावित किया। माला सिन्हा ने अपने दौर के तमाम टॉप के नायकों के साथ काम किया और अनेक हिट फिल्में दीं।11 नवंबर, 1936 को जन्मी माला सिन्हा के पिता बंगाली और माँ नेपाली थी। उनके बचपन का नाम "आल्डा" था। स्कूल में बच्चे उन्हें "डालडा" कहकर चिढ़ाते थे जिसकी वजह से उनकी मां ने उनका नाम बदलकर "माला" रख दिया। उन्हें बचपन से ही गायिकी और अभिनय का शौक़ था। उन्होंने कभी फि़ल्मों में पाश्र्व गायन तो नहीं किया पर स्टेज शो के दौरान उन्होंने कई बार अपनी कला को जनता के सामने रखा।माला सिन्हा ने ऑल इंडिया रेडियो के कोलकाता केंद्र से गायिका के रूप में अपना कॅरिअर शुरू किया और जल्दी ही बांग्ला फि़ल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर पहुंच गई। उन्होंने बंगाली फि़ल्म "जय वैष्णो देवी" में बतौर बाल कलाकार काम किया। उनकी बांग्ला फि़ल्मों में "लौह कपाट" को अच्छी ख्याति मिली। माला एक बंगाली फिल्म के सिलसिले में मुंबई पहुंची थीं। यहां उनकी मुलाकात अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री गीता बाली से हुई। उन्होंने माला को निर्देशक केदार शर्मा से मिलवाया। कहा जाता है कि माला के करियर को आगे बढ़ाने में केदार शर्मा ने बहुत मदद की। उन्होंने अपनी फिल्म रंगीन रातें में बतौर अभिनेत्री काम दिया। जब माला सिन्हा हिंदी फि़ल्मों में काम करने मुंबई आईं तब रुपहले पर्दे पर नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी प्रतिभाएं अपने जलवे बिखेर रही थीं। माला के लगभग साथ-साथ वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी आ गईं। इन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बेहद कठिन काम था। इसे माला का कमाल ही कहना होगा कि वे पूरी तरह से कामयाब रहीं। उन्होंने किशोर कुमार, अशोक कुमार, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, जैसे कलाकारों के साथ फिल्में कीं। उनकी शूटिंग से पहले सेब खाने की आदत काफी मशहूर थी। इस आदत के कारण उन्होंने फिल्म गीत की शूटिंग के दौरान एक दिन फिल्म निर्देशक रामानंद सागर को काफी घंटे इंतजार कराया था। वे बिना सेब खाए सेट पर नहीं जाती थीं।फि़ल्म "बादशाह" के जरिए माला सिन्हा हिंदी फि़ल्म के दर्शकों के सामने आईं। शुरू में कई फि़ल्में फ्लॉप हुईं। फि़ल्मी पंडितों ने उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाए. कुछ यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि यह गोरखा जैसे चेहरे-मोहरे वाली युवती ग्लैमर की इस दुनिया में नहीं चल पाएगी। इन फब्तियों की परवाह न कर माला सिन्हा ने अपने परिश्रम, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने लिए विशेष जगह बनाई।1957 में आई गुरुदत्त की फिल्म प्यासा ने माला सिन्हा की किस्मत बदल दी। इस फि़ल्म में उनकी अदाकारी को आज भी लोग याद करते हैं। इस फिल्म के बाद माला सिन्हा को ए ग्रेड के कलाकारों के साथ फिल्में मिलने लगीं। फि़ल्म 'जहांआरा' में माला सिन्हा ने शाहजहां की बेटी जहांआरा का किरदार ख़ूबसूरती से निभाया। फि़ल्म मर्यादा में उन्होंने दोहरी भूमिका की थी। माला सिन्हा की एक बेटी प्रतिभा सिन्हा हैं। प्रतिभा ने बॉलीवुड में बहुत धूम धड़ाके साथ एंट्री की थी। फिल्म राजा हिंदुस्तानी में उनके ऊपर फिल्माया गया गाना परदेसी परदेसी आज भी लोगों को याद है। हालांकि प्रतिभा का करिअर कुछ खास आगे नहीं बढ़ पाया। माला सिन्हा अब सार्वजनिक रूप से कम ही नजर आती हैं। उन्होंने साल 1994 में आखिरी फिल्म जिद की थी। आजकल वे अपने बेटी के साथ मुंबई में गुमनामी की जिदंगी बसर कर रही हैं।60 के दशक में तो उन्होंने कई हिट फि़ल्में दीं। उनकी यादगार फि़ल्मों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं- प्यासा (1957), फिर सुबह होगी (1958), उजाला (1959),धर्मपुत्र (1961), अनपढ़ (1962), आंखें (1968), गीत (1970), गुमराह (1963), गहरा दाग़ (1963), जहांआरा (1964), अपने हुए पराये (1966), संजोग (1971), नई रोशनी (1967), मेरे हुज़ूर (1969), देवर भाभी (1958), हरियाली और रास्ता (1962), हिमालय की गोद में (1965), धूल का फूल (1959), दिल तेरा दीवाना (1962)।
- --नया दौर, हमराज, बागवान जैसी कई फिल्मों के अलावा सीरियल महाभारत का निर्माण कियापुण्यतिथि पर विशेषनया दौर, गुमराह, वक्त, धर्मपुत्र, निकाह, धूल का फूल, बागबान जैसी यादगार फिल्में बनाने वाले निर्माता- निर्देशक बी आर चोपड़ा यानी बलदेवराज चोपड़ा आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बनाई इन फिल्मों और महाभारत जैसे धारावाहिकों को लोग आज तक याद रखे हुए हैं।बी. आर. चोपड़ा और यश चोपड़ा सगे भाई हैं, लेकिन दोनों ही फिल्मकारों का फिल्म बनाने का अंदाज हमेशा अलग रहा और दोनों ने ही अपार सफलता देखी। बी. आर. हिंदी सिने जगत की उन हस्तियों में से थे जिन्होंने सिनेमा के सशक्त माध्यम का उपयोग न सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन के लिए किया बल्कि कई सामाजिक मुद्दों को भी बहस के मुद्दों में शामिल कर दिया।उनकी अधिकतर फिल्मों को जहां बाक्स आफिस पर अच्छी कामयाबी मिली वहीं समीक्षकों ने भी उनकी कृतियों की सराहना की। बी. आर. चोपड़ा का फिल्मी सफर करीब 50 साल का रहा और इस दौरान उन्होंने एक के बाद एक कामयाब फिल्में बनायी। साथ ही दूरदर्शन के लिए उन्होंने कई धारावाहिकों का निर्माण किया। उन धारावाहिकों में महाभारत सर्वाधिक चर्चित रही जिसे अपार कामयाबी मिली। धारावाहिक महाभारत की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम के प्रसारण के समय में सड़कों पर वाहनों की संख्या कम हो जाती थी और गलियां वीरान हो जाती थी। उनके धारावाहिकों में महाभारत के अलावा बहादुर शाह जफर काफी लोकप्रिय हुए। इस साल लॉकडाउन के दौरान डीडी नेशनल पर पुन: इस सीरियल का प्रसारण किया गया और इस बार भी इस सीरियल ने सफलता की ऊंचाइयों को छुआ।बी. आर. चोपड़ा की फिल्मों में जहां हमेशा कोई न कोई संदेश रहता था वहीं गीत और संगीत भी मधुर एवं कर्णप्रिय होते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों में गायक महेंद्र कपूर की आवाज का बेहतरीन इस्तेमाल किया और महेंद्र कपूर ने उनकी फिल्मों में कई यादगार गाने गाए जिसे बाद की पीढिय़ां भी पसंद करती हैं।अविभाजित पंजाब में 22 अप्रैल 1914 को पैदा हुए बी. आर. चोपड़ा के कॅरिअर की शुरूआत फिल्मी पत्रकार के रूप में हुई। विभाजन के बाद वह मुंबई चले गए। उन्होंने फिल्मी सफर की शुरूआत सिने हेराल्ड जर्नल से की। यहां से उन्हें फिल्मी माहौल में रहने का मौका मिला और वो फिल्मकार बन गए। 1949 में उन्होंने पहली फिल्म करवट बनाई जो नाकाम रही। लेकिन धुन के पक्के बी. आर. चोपड़ा ने हार नहीं मानी और 1951 में उन्होंने अफसाना फिल्म बनायी।इस फिल्म में अशोक कुमार ने दोहरी भूमिका निभायी थी। यह फिल्म कामयाब रही और उनके पांव फिल्म जगत में जम गए। बी. आर. चोपड़ा ने 1955 में बीआर फिल्म्स की स्थापना की जिसकी पहली फिल्म नया दौर थी। यह फिल्म बेहद कामयाब रही और इसके गीत तो आज भी संगीतप्रेमियों को आकर्षित करते हैं।इसके बाद उन्होंने एक ही रास्ता, साधना, कानून जैसी फिल्में बनायीं। अपने दौर में कानून ऐसी फिल्म थी जिसमें गाने नहीं थे, जबकि उस वक्त फिल्म के लिए गीत-संगीत बहुत महत्वपूर्ण माने जाते थे। 1970 और 80 के दशक में उनका फिल्मी सफर कामयाबी के साथ आगे बढ़ता रहा। इस दौरान उन्होंने इंसाफ का तराजू, निकाह जैसी बेहद चर्चित फिल्में बनायीं।उनकी फिल्मों की सूची में गुमराह, वक्त, धर्मपुत्र, बागबान आदि शामिल हैं जो स्वस्थ मनोरंजन करने के अलावा सार्थक सामाजिक व उद्देश्यपरक थीं। फिल्म बागवान ने अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी की जोड़ी को एक बार फिर नई ऊंचाइयां दीं। बागवान और बाबुल जैसी फिल्मों ने आज के बदलते समाज का चित्रण बखूबी पेश किया।भारत में फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बी आर चोपड़ा ने अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए। लंबे समय तक दर्शकों को बेहतरीन फिल्में देने वाले फिल्मकार बी. आर. चोपड़ा का पांच नवंबर 2008 को निधन हो गया। अपने पिता की गौरवशाली परंपरा को कायम रखने का प्रयास बी. आर. चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा कर रहे हैं और इस समय बी. आर. बैनर के तले फिल्मों के अलावा धारावाहिकों का भी निर्माण हो रहा है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉमविशेष)
- जन्मतिथि पर विशेषआलेख-मंजूषा शर्माइस कलाकार ने मूक फिल्मों से लेकर रंगीन फिल्मों तक का सफर बखूबी तय किया और खूब नाम कमाया। उन्हें फिल्म इंडस्ट्री का शेर और भीष्म पितामह कहा जाता है। उनकी चार पीढिय़ों ने भी फिल्म इंडस्ट्री में अपना नाम कमाया। ये हैं पृथ्वीराज कपूर। आज की पीढ़ी के लिए राजकपूर, शम्मी कपूर और शशिकपूर के पिता और रणबीर कपूर के परदादा।भारतीय फिल्मों के आदिकाल से रंगीन सिनेमा तक के सफर का हिस्सा रहे पृथ्वीराज कपूर के अभिनय और दमदार आवाज को आज भी याद किया जाता है। अभिनय के ऊंचे पैमाने तय कर गए पृथ्वीराज कपूर के कालजयी किरदार आज भी उतने ही जीवंत और अनोखे हैं कि कोई भी उन्हें देखकर उनके मोहपाश में बंधे बगैर नहीं रह पाता। मुगले आजम फिल्म में मुगल सम्राट अकबर के रोल में उनकी दमदार आवाज और संवाद अदायगी को भला कौन भूल सकता है।पाकिस्तान के मौजूदा फैसलाबाद में 3 नवम्बर 1906 को पुलिस उपनिरीक्षक दीवान बशेश्वरनाथ कपूर के घर जन्मे पृथ्वीराज कपूर ने फिल्म जगत में अलग मुकाम हासिल करने वाले कपूर खानदान की नींव रखी और उनकी विरासत को अगली कई पीढिय़ों ने पूरी शिद्दत के साथ जिया। पृथ्वीराज अपने जमाने के सबसे पढ़े-लिखे अभिनेताओं में से थे। उन्होंने पेशावर के एडवर्ड्स कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की और फिर वकालत की पढ़ाई की। हालांकि उनका दिल रंगमंच के लिए ही धड़कता था। उसी दौरान वह प्रोफेसर जयदयाल के सम्पर्क में आए जिन्होंने पृथ्वीराज में अपने नाटकों के अनेक पात्रों को बखूबी निभाने की क्षमता देखी।वर्ष 1928 में पृथ्वीराज मायानगरी बम्बई चले आए। उस वक्त मूक फिल्मों का दौर था और उन्होंने ऐसी करीब नौ फिल्मों में काम भी किया। वर्ष 1931 में बनी देश की पहली बोलती फिल्म 'आलमआराÓ में किरदार अदा करके उन्होंने भारतीय सिनेमा जगत में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया। फिल्म में उन्होंने 24 साल की उम्र में अलग-अलग आठ दाढिय़ां लगाई और जवानी से बुढ़ापे तक की भूमिका निभाकर अपने अभिनय की लाजवाब मिसाल पेश की।पृथ्वीराज कपूर ने करीब 70 बोलती फिल्मों में काम किया जिनमें विद्यापति '1937, पागल '1940, सिकंदर '1941, आवारा '1951 और आनन्द मठ '1952 में उनकी शीर्ष और सहायक भूमिकाओं को खूब तारीफ मिली। साल 1960 में आई फिल्म 'मुगल-ए-आजम में उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के किरदार को जीकर अमर बना दिया। उस फिल्म में उन्होंने हिन्दुस्तान के सम्राट के रूप में अपने कर्तव्य और पिता के सीने में भड़कते जज्बात के द्वंद्व को बेहद पुरअसर ढंग से जिया। मुगल-ए-आजम से पहले और उसके बाद भी अकबर के किरदार वाली कई फिल्में बनीं, लेकिन अभिनय के लिहाज से कोई दूसरा अभिनेता मुगल-ए-आजम में दिखे जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की बराबरी नहीं कर सका। इस फिल्म में काम करने के लिए उन्होंने केवल एक रुपया में अनुबंध किया था।हिन्दी रंगमंच और फिल्मों की महान हस्ती का दर्जा हासिल कर चुके पृथ्वीराज कपूर का 29 मई 1972 को निधन हो गया। पृथ्वीराज ने अभिनय के अलावा अपनी विरासत से भी हिन्दी सिनेमा जगत को काफी कुछ दिया। वे हिन्दी फिल्म कलाकारों के पहले परिवार यानी कपूर खानदान के मुखिया हैं और अपनी अगली चार पीढिय़ों के रूप में उनकी विरासत आज भी हिन्दी फिल्म जगत में जिंदा है।पृथ्वीराज के बेटे राजकपूर ने हिन्दी फिल्मों के पहले शोमैन का रुतबा हासिल किया था। राजकपूर ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अनेक बेहतरीन फिल्मों में काम किया और कई यादगार फिल्में बनाईं। कई फिल्मों में उन्होंने अपने पिता की मदद भी ली।पृथ्वीराज की अन्य संतानों शशि कपूर और शम्मी कपूर ने भी फिल्मों में अपना अलग मुकाम बनाया। पृथ्वीराज के पौत्र रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर, करण कपूर और कुणाल कपूर ने भी फिल्मों में काम किया। इनमें से विशेषकर ऋषि कपूर को बतौर अभिनेता खासी सफलता हासिल हुई। रणधीर की बेटी करिश्मा के रूप में कपूर खानदान की पहली लड़की ने अभिनय जगत में कदम रखा। उसके बाद करिश्मा की बहन करीना भी फिल्मों में आ गईं और इस वक्त की शीर्ष अभिनेत्रियों में शुमार हैं। ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर ने वर्ष 2007 में आई फिल्म सांवरिया से अभिनय क्षेत्र में कदम रखा। इस तरह पृथ्वीराज द्वारा शुरू की गई अभिनय की समृद्ध परम्परा अब भी बरकरार है और फलफूल रही है।पृथ्वी थियेटरसफलता की सीढिय़ां चढऩे के दौरान उन्होंने साल 1944 में अपना थियेटर ग्रुप खोला और नाम रखा पृथ्वी थियेटर। यह पहला आधुनिक, पेशेवर और शहरीकृत हिन्दुस्तानी थियेटर था। इस थियेटर ने अपने दौर में ढाई हजार से ज्यादा शो पेश किये जिनमें से ज्यादातर में पृथ्वीराज ने ही प्रमुख भूमिका अदा की। पहले यह कंपनी घूम-घूमकर नाटकों का मंचन किया करती थीं बाद में मुंबई में एक जानी-मानी थियेटर कंपनी बन गई। पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थिएटर में उन्होंने आधुनिक और शहरी विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के फारसी और परंपरागत थिएटरों से काफ़ी अलग था। धीरे-धीरे दर्शकों का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्योंकि उन दिनों दर्शकों के ऊपर रुपहले पर्दे का क्रेज कुछ ज़्यादा ही हावी हो चला था। सोलह वर्ष में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाया। पृथ्वी थिएटर के प्रति पृथ्वीराज इस क़दर समर्पित थे कि तबीयत खऱाब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा लिया करते थे। वह शो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विदेश में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश की, लेकिन पृथ्वीराज ने पंडित नेहरू से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दी कि वह थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते। पृथ्वी थिएटर के बहुचर्चित कुछ प्रमुख नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा 1954 शामिल है। पृथ्वीराज ने अपने थिएटर के जरिए कई छुपी हुई प्रतिभा को आगे बढऩे का मौक़ा दिया, जिनमें रामानंद सागर और शंकर-जयकिशन जैसे बड़े नाम शामिल हैं। संगीतकार शंकर -जय किशन ने बाद में राजकपूर के साथ खूब काम किया।अपने पिता के जाने के बाद शशिकपूर ने उनकी विरासत पृथ्वी थियेटर की जिम्मेदारी संभाली और अपनी बेटी संजना के साथ मिलकर इसका काफी विस्तार भी किया। शशि कपूर के निधन के बाद अब संजना ही पृथ्वी थियेटर को संभाल रही हैं।फिल्म जगत में पृथ्वीराज कपूर के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें मरोणपरांत दादा साहेब फाल्के अवार्ड से भी नवाजा गया। इसके अलावा वे पद्मभूषण से भी सम्मानित किए गए। वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
- जन्मदिन पर विशेषमुंबई। बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान आज अपना 55 वां जन्मदिन मना रहे हैं। शाहरुख खान हर साल 2 नवम्बर के दिन अपने घर की बालकनी में आकर फैंस से मुलाकात करते हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। कोरोना वायरस महामारी के कारण शाहरुख खान ने अपने फैंस को घर में ही रहने की हिदायत दी है और वर्चुअली उनका जन्मदिन सेलीब्रेट करनी की सलाह दी है।शाहरुख खान के फैंस ने उनकी बात मानी है और रात 12 बजे से ही इंटरनेट पर किंग खान के फैंस का जलवा देखने को मिल रहा है। शाहरुख खान के फैंस लगातार इंटरनेट के माध्यम से यह जानकारी दे रहे हैं कि वो 2 नवम्बर को किस अंदाज में सेलीब्रेट कर रहे हैं। किंग खान के एक फैन ग्रुप ने ट्विटर के माध्यम से जानकारी दी है कि उन्होंने जरूरतमंदों को 5,555 कोविड किट्स बांटी हैं। इन किट्स से लोग कोरोना से अपने आपको बचा पाएंगे।वहीं दूसरी तरफ पेरू में शाहरुख खान के फैंस ने सड़क पर उनके नाम का केक काटा है। इसके साथ-साथ शाहरुख खान के कुछ फैंस ने वृक्षारोपण करके भी अपने पसंदीदा स्टार का जन्मदिन सेलीब्रेट किया है।शाहरुख ने 90 के दशक में अपना करिअर शुरू किया था। इस दौरान कई ऐसी फिल्में बन रही थीं, जिन्हें ए-लिस्ट एक्टर्स साइन नहीं करना चाह रहे थे। इन एक्टर्स की ठुकराई हुई फिल्में लेकर निर्माता-निर्देशक नए कलाकारों के पास जा रहे थे। इन नए कलाकारों में से एक कलाकार ऐसा था, जिसने इन छोड़ी हुई फिल्मों को करने का फैसला किया और धीरे-धीरे ये सभी फिल्में सफल होती चली गईं। इन फिल्मों के दम पर आगे चलकर इस कलाकार को बॉलीवुड के किंग का खिताब दिया गया। आइये देखें कि ऐसी कौन-कौन सी फिल्में हंैं, जिन्हें 90 के दशक में ए-लिस्ट एक्टर्स ने छोड़ दिया था और यही फिल्में शाहरुख के लिए लकी साबित हुईं।दीवाना90 के दशक में आई दीवाना शाहरुख खान की पहली सुपरहिट फिल्म थी। बताया जाता है कि यह फिल्म सबसे पहले सनी देओल के पास गई थी। हालांकि उन्होंने इसे करने से इनकार कर दिया और फिर इसमें शाहरुख खान की एंट्री हुई। फिल्म में ऋषि कपूर, दिव्या भारती लीड रोल में थे।डरयश चोपड़ा अपनी फिल्म डर में सबसे पहले आमिर खान को साइन करना चाहते थे लेकिन उन्होंने निगेटिव किरदार के कारण डर से अपने हाथ पीछे खींच लिए और फिर इसमें शाहरुख खान की एंट्री हुई। फिल्म में सनीदेओल और जुही चावला लीड रोल में थे।बाजीगरबहुत कम लोगों को मालूम है कि बाजीगर के लिए सलमान खान पहली च्वाइस थे लेकिन इस फिल्म की किस्मत शाहरुख खान के साथ जुड़ी थी। फिल्म में काजोल और शिल्पा शेट्टी नायिकाएं थीं।करण अर्जुनफिल्म करण अर्जुन के लिए सनी देओल और अजय देवगन पहली च्वाइस थे , लेकिन इन दोनों ने आखिरी समय पर फिल्म से अपने हाथ पीछे खींच लिए, जिसके बाद राकेश रोशन ने शाहरुख खान और सलमान खान को इसके लिए साइन किया। इस फिल्म के बाद शाहरुख फिल्मकार राकेश रोशन के फेवरेट हीरो बन गए।चक दे इंडियायशराज बैनर की चक दे इंडिया के लिए सलमान खान को अप्रोच किया गया था, लेकिन उन्हें फिल्म की स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई। इसके बाद मेकर्स ने शाहरुख खान को चक दे इंडिया के लिए साइन किया। फिल्म में शाहरुख का अंदाज आज भी हॉकी के शौकीनों को लुभाता है। फिल्म में भले ही उन्हें नायिका के साथ रोमांस करने का मौका नहीं मिला और न ही इसमें कोई रोमांटिक गाना ही था, इसके बाद भी फिल्म आखिरी तक लोगों को बांधे रखती है तो केवल शाहरुख खान की वजह से।
- जन्मदिन पर विशेषऐश्वर्या राय बच्चन आज अपना 47 वां जन्मदिन मना रही हैं। ऐश्वर्या ने कम उम्र से ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी। 1994 में विश्व सुंदरी के खिताब ने उनके लिए फिल्मों के दरवाजे खोल दिए। लुक्स की बात करें तो मॉडलिंग के दिनों से लेकर अब तक उनके लुक्स में काफी बदलाव आ गए हैं।ऐश्वर्या राय पहले एक आर्किटेक्ट बनना चाहती थीं। उन्होंने इसके लिए एडमिशन भी ले लिया था लेकिन मॉडलिंग में कॅरिअर बनाने के लिए उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। ऐश्वर्या ने पांच साल तक क्लासिकल डांस की ट्रेनिंग भी ली है।स्कूली दिनों से ऐश्वर्या को मॉडलिंग के ऑफर मिलने लगे थे। जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ रही थीं तब उन्होंने पहली विज्ञापन फिल्म की थी। यह एक पेंसिल का विज्ञापन था। 1993 में ऐश्वर्या ने पेप्सी के लिए एक विज्ञापन किया था जिसमें उनके साथ आमिर खान और महिमा चौधरी थे। इस विज्ञापन फिल्म से उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। 1994 में ऐश्वर्या राय ने मिस वल्र्ड का खिताब जीता। इसके बाद उन्होंने मॉडलिंग की ओर अपना कॅरिअर आगे बढ़ाया और फिर फिल्मों की ओर रुख किया। उन्होंने 1997 में अपने फिल्मी कॅरिअर की शुरुआत तमिल फिल्म इरुवर से की। इसी साल हिंदी में ऐश्वर्या की पहली फिल्म -और प्यार हो गया, रिलीज हुई।ऐश्वर्या ने अपने कॅरिअर में एक से बढ़कर एक हिट फिल्में दीं। उन्होंने हम दिल दे चुके सनम, ताल, मोहब्बतें, देवदास, उमराव जान, धूम 2, गुरु, जोधा अकबर, जज्बा और ऐ दिल है मुश्किल सहित अनेक फिल्म कीं।फिल्म गुरु की शूटिंग के दौरान अभिषेक बच्चन ने ऐश्वर्या को शादी के लिए प्रपोज किया था। 2007 में ऐश्वर्या ने अभिषेक बच्चन के साथ शादी के बंधन में बंध गईं। दोनों की एक बेटी आराध्या बच्चन हैं। अभिषेक बच्चन के साथ उनकी जोड़ी फिल्मी इंडस्ट्री की सबसे लोकप्रिय जोडिय़ों में से एक मानी जाती है।परिवार में सबसे अच्छी बॉन्डिंग वह ससुर अमिताभ बच्चन संग शेयर करती हैं। सास जया बच्चन ने इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू के दौरान किया था। जया बच्चन का कहना था कि ऐश्वर्या बच्चन परिवार की लाडली बहू हैं। अमिताभ, उन्हें बिलकुल अपनी बेटी की तरह ट्रीट करते हैं। जया कहती हैं कि घर में उनकी बेटी श्वेता की जगह ऐश्वर्या ने ले ली है। वह अमिताभ को कभी भी बेटी की कमी महसूस होने नहीं देती हैं। ऐश्वर्या सबसे अच्छी बॉन्डिंग ससुर जी के साथ शेयर करती हैं। बता दें कि पब्लिक प्लेस पर ऐश्वर्या और अमिताभ की बॉन्डिंग बखूबी नजर आती रही है। कई अवॉर्ड शोज में ऐश्वर्या को अमिताभ के पैर छूकर आशीर्वाद लेते देखा गया है।अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय की शादी के बाद जया बच्चन करण जौहर के चैट शो में पहुंची थीं, जहां उन्होंने ऐश्वर्या की जमकर तारीफ की थी। यह साल 2007 की बात है। जया ने कहा था कि ऐश्वर्या एक बड़ी स्टार हैं। परिवार में वह घुल-मिल गई हैं। वह बेहद प्यारी हैं। ऐश्वर्या ने उनके घर में बेटी श्वेता की कमी को पूरा किया है। अमिताभ तो ऐश्वर्या को देखकर बहुत खुश होते हैं। उनकी आंखों में एक अलग चमक आ जाती है। वह खिल उठते हैं।शादी के बाद ऐेश्वर्या ने फिल्मों में काम करना कम कर दिया है। लेकिन विज्ञापनों में वे सक्रिय हैं। वे कई ब्यूटी प्रोडक्ट्स की ब्रांड एंबेसडर हैं और मॉडलिंग के जरिए भी उनकी अच्छी कमाई होती है। इसके अलावा ऐश्वर्या बच्चन ने स्टार्टअप में भी निवेश करने के लिए ख़बरों में रह चुकी हैं।
- पुण्यतिथि पर विशेषआलेख मंजूषा शर्मामासूम से इस बाल कलाकार को देखकर अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है कि आखिर ये कौन है। बड़े होने पर हीरो के रूप में इस कलाकार ने काफी नाम कमाया। अपने अभिनय से एक अलग मुकाम हासिल किया, तो निजी जिंदगी को लेकर भी खूब चर्चा में रहे। ये हैं विनोद मेहरा जिनकी आज पुण्यतिथि हैं। मात्र 45 साल की उम्र में इस हीरो का आज ही के दिन 1990 में देहावसान हो गया था।विनोद मेहरा का जन्म- 1& फरवरी, 1945 को अमृतसर में हुआ था। उन्होंने 100 से अधिक फि़ल्मों में अभिनय किया था। वर्ष 1958 फि़ल्म रजनी में उन्होंने एक कलाकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। इस फिल्म में उन्होंने किशोर कुमार के बचपन का रोल निभाया था। बड़े होने पर अभिनय के शौक ने उन्हें ऑल इंडिया टैलेंट कॉन्टेस्ट तक पहुंचाया। यह वर्ष 1965 की बात थी। विनोद मेहरा इस प्रतियोगिता के फाइनलिस्ट बने थे। प्रतियोगिता का आयोजन यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर के द्वारा किया गया था। लेकिन फाइनल में विनोद मेहरा को राजेश खन्ना के हाथों शिकस्त खानी पड़ी थी और उन्हें रनर अप बनकर ही संतोष करना पड़ा था। राजेश खन्ना फिल्म इंडस्ट्री के सुपर स्टार बने और विनोद खन्ना सोलो हीरो के रूप में एक छोटी पारी ही खेल पाए और बी ग्रेड फिल्मों तक सीमित होकर रह गए। राजेश खन्ना के साथ उन्होंने कुछ फिल्में की, लेकिन साइड हीरो के रूप में। फिल्म एक थी रीटा में विनोद मेहरा पहली बार तनुजा के हीरो के रूप में नजर आए थे। दरअसल मुम्बई के चर्चगेट इलाके में गेलार्ड नामक एक रेस्तरां पचास-साठ के दशक में संघर्ष कर रहे फिल्मी कलाकारों का अड्डा हुआ करता था। वहां रूप के. शोरी नामक फिल्म डायरेक्टर अक्सर आया-जाया करते थे। एक दिन उनकी निगाह विनोद मेहरा पर ऐसी ठहरी कि उन्होंने अपनी फिल्म में उन्हें नायक की भूमिका सौंप दी और इस तरह से वे तनूजा के हीरो के रूप में नजर आए।निजी जिंदगी रही काफी चर्चितविनोद मेहरा जितने हैंडसम हीरो थे, दिलफेंक भी माने जाते थे। फिल्म अभिनेत्री रेखा के साथ उनके इश्क के चर्चे काफी उड़े। कहा जाता है कि उन्होंने शादी भी कर ली थी, लेकिन विनोद मेहरा की मां को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। स"ााई क्या है ये दोनों कलाकार ही बता सकते थे। न तो रेखा ने और न ही विनोद मेहरा ने इस शादी का खुलासा किया। विनोद मेहरा और रेखा की फिल्म घर, भारतीय सिने जगत की एक कालजयी फिल्म मानी जाती है। घोषित रूप में विनोद मेहरा ने अपनी मां की पसंद की लड़की मीना ब्रोका से शादी की। इसी दौरान बिंदिया गोस्वामी के साथ फिल्म करते -करते वे उन्हें दिल दे बैठे। बिंदिया उम्र में उनसे 16 साल छोटी थीं। यह अफेयर विनोद मेहरा और मीना की तलाक की वजह बना। विनोद मेहरा ने बाद में बिंदिया गोस्वामी के साथ शादी भी कर ली, लेकिन चार साल में यह शादी भी टूट गई। बिंदिया ने विनोद मेहरा से तलाक लेने के बाद निर्देशक जे. पी. दत्ता से शादी कर घर बसा लिया जिनकी आज दो बेटियां हैं। विनोद मेहरा ने तीसरी शादी किरण से की और उनका यह साथ बना रहा। उनकी एक बेटी सोनिया और बेटा रोहन मेहरा हैं। विनोद मेहरा की मौत के बाद किरण अपने ब"ाों को लेकर केन्या चली गईं। बेटा रोहन बड़ा हो चुका है और अब बॉलीवुड में काम तलाश रहा है। हाल ही मे रोहन ने उन्होंने फिल्ममेकर निखिल आडवाणी की फिल्म 'बाजार' से डेब्यू किया है । कई शार्ट फिल्में भी उन्होंने लिखी हैं।मौसमी चटर्जी का साथ लकी साबित हुआविनोद मेहरा के सफल फि़ल्मी करिअर में अभिनेत्री मौसमी चटर्जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। शक्ति सामंत की फि़ल्म अनुराग (1972) में मौसमी चटर्जी और विनोद मेहरा पहली बार साथ आए, जिसमें मौसमी ने एक दृष्टिहीन युवती का रोल संजीदगी के साथ किया था। विनोद एक आदर्शवादी नायक थे और अपने पिता की इ'छा के विरुद्ध वह मौसमी से शादी करना चाहते थे। इसके बाद फि़ल्म उस पार (बसु चटर्जी), दो झूठ (जीतू ठाकुर) तथा स्वर्ग नरक (दसारी नारायण राव) में मौसमी के नायक बने।निर्देशक के रूप में काम कियाकहा जाता है कि अपने कॅरिअर के ढलान में वे अपने काम को लेकर काफी परेशान रहा करते थे। उन्होंने निर्देशन में हाथ आजमाना चाहा और ऋषि कपूर, श्रीदेवी ,अनिल कपूर को लेकर फिल्म गुरुदेव शुरू की। कहा जाता है कि इन कलाकारों ने डेट्स को लेकर उन्हें काफी परेशान किया और वे तनाव में रहने लगे थे। इसी दौरान अचानक दिल का दौरा पडऩे से मात्र 45 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद यह फिल्म रिलीज हुई।प्रमुख फि़ल्मेंविनोद मेहरा ने भारतीय सिनेमा में 100 से अधिक फि़ल्मों में अभिनय किया है। बाल कलाकार के रूप में विनोद मेहरा ने फि़ल्मों में शुरुआत की। इनकी फि़ल्म लाल पत्थर (1972), अनुराग (1972), सबसे बड़ा रुपैया (1976), नागिन (1976), अनुरोध (1977), साजन बिना सुहागन (1978), घर (1978), दादा (1979), कर्तव्य (1979), अमर दीप (1979), जानी दुश्मन (1979) आदि।विनोद मेहरा पर फिल्माये गए मशहूर गाने1. गीत गाता हूं मैं गुनगुनाता हूं मैं...2. फिर वही रात है&. तेरे बिना जिया जाये ना4. अजनबी कौन हो तुम5. दिल के टुकड़े टुकड़े करके मुस्कुरा के चल दिए6. आप की आंखों में कुछ महके हुए राज है7. वादा करो जानम8. कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है9. साथी तेरे नाम एक दिन जीवन कर जाएंगे10. तेरे नैनो के मैं दीप जलाऊंगा