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- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 150
०० 'मेरी राधे दिवस' और 'क्रिसमस' ::: आज सारे विश्व में 25 दिसम्बर का दिन 'क्रिसमस डे' या 'मैरी क्रिसमस' के रूप में मनाया जा रहा है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस दिन को एक नया स्वरूप प्रदान करते हुये इसे 'मेरी राधे दिवस' नाम दिया है। वस्तुतः महारानी श्रीराधारानी ही समस्त जीवों की माता हैं तथा जीव की परम हितैषी हैं। यह माया का संसार अपना नहीं है, इस माया की अधीश्वरी श्रीराधारानी ही अपनी हैं। अतः उनके श्रीचरणों में ही अपने भाव, प्रेम तथा शरणागति को दृढ़ करना है। 'मेरी राधे दिवस' की यही भावना है।
आइये आज इस अवसर पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ब्रजभावयुक्त 1008-दोहों से युक्त 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का छठवाँ भाग पढ़ें, इस ग्रंथ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें ::::::
(भाग - 5 के दोहा संख्या 25 से आगे)
तू तो है मायाधीश कह ब्रजबामा।मैं भी तेरा अंश किन्तु मायाधीन श्यामा।।26।।
अर्थ ::: हे श्यामा! माया तुम्हारी दासी है, तुम माया की अधीश्वरी हो। मैं यद्यपि तुम्हारा ही अंश हूँ किन्तु माया के आधीन हूँ।
तेरे मेरे पास माया, कह ब्रजबामा।माया तेरी दासी मैं हूँ माया दासी श्यामा।।27।।
अर्थ ::: हे श्रीराधे! यद्यपि तुम्हारे पास भी माया है और मैं भी माया से युक्त हूँ किन्तु माया तुम्हारी तो दासी है और मुझे उसने अपनी दासी बना रखा है।
तुम भी हम भी दोनों हैं अनादि कह बामा।जो भी हो अनादि वो अनन्त होय श्यामा।।28।।
अर्थ ::: हे श्यामा! तुम और हम दोनों ही अनादि हैं एवं जो अनादि होता है, वह अनन्त भी होता है।
तुम भी अज हम भी अज रहें उर धामा।तुम कर्म लिखो हम कर्म करें श्यामा।।29।।
अर्थ ::: हे श्यामा! तुम भी अज (जन्मरहित) हो और मैं भी अज हूँ। हम तुम दोनों हृदय में रहते हैं किन्तु अन्तर यह है कि मैं तो कर्मों का कर्ता हूँ और तुम कर्मों का हिसाब रखने वाली हो।
कोरे शब्द ज्ञान ते बने ना कछु कामा।मन करो शरणागत पद श्री श्यामा।।30।।
अर्थ ::: केवल पुस्तकीय ज्ञान से कल्याण की आशा करना व्यर्थ है। जब तक यह मन श्रीराधा पद्म-पराग का मत्त मधुप नहीं बन जाता तब तक इसे संसार के विषय विष अपनी ओर आकर्षित करते ही रहेंगे।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जीव की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण आवश्यकता है आहार। आहार से निर्माण और विकास की प्रक्रिया पूरी होती है। आप भले ही खाद्य पदार्थों से आहार न लें, लेकिन कहीं न कहीं से आपको उर्जा लेनी ही होगी। बिना उर्जा के जीवन की लंबे समय तक कल्पना नहीं की जा सकती। आइये जाने कि सात्विक भोजन क्या होता है?किन चीजों को हम सात्विक आहार नहीं कह सकते?- प्याज, लहसुन- सरसों का साग, मशरूम- मांस, मछली, मादक पदार्थ- डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ- बासी खानाक्या है सात्विक आहार?- सभी प्रकार की अनाजें और दाल- दूध और इससे निर्मित पदार्थ- सभी प्रकार की सब्जियां- फल और मेवेकिस प्रकार के स्वभाव के लिए किस तरह का आहार?अगर आप बहुत ज्यादा भावुक हैं तो गुड और मीठी चीजें खाएं, रोटी खाएं, बासी खाने से बचें। अगर आप बहुत ज्यादा क्रोधी हों तो प्याज, लहसुन और मांस मछली से परहेज करें। अगर आपको तनाव रहता है तो दूध और दूध से बनी चीजों का सेवन करें। मशरूम और कंद न खाएं। अगर आप शरीर से परेशान हैं तो ज्यादा से ज्यादा सब्जियां खाएं, अनाज कम खाएं। अगर आप बुरे विचारों से परेशान हैं तो मांस, मछली, प्याज, लहसुन न खाएं, मसूर की दाल खाने से भी परहेज करें।सात्विक शब्द सत्व शब्द से बना है। इसका अर्थ होता है, शुद्ध, प्राकृतिक और ऊर्जावान। सात्विक भोजन शरीर को शुद्ध कर मन को शांति प्रदान करता है। इसमें शुद्ध शाकाहारी सब्जियों, फलों, सेंधा नमक, धनिया, काली मिर्च जैसे मसालों का इस्तेमाल होता है। उपवास के दौरान लोग सात्विक खाना खाते हैं। इसके पीछे धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 149
(आध्यात्म तथा भौतिक, दोनों प्रकार के लोगों के लिये मार्गदर्शन, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी में...)
...नींद जो है वो तमोगुण है। जाग्रत अवस्था में हम सत्वगुण में भी जा सकते हैं, रजोगुण में भी जा सकते हैं, तमोगुण में भी जा सकते हैं। लेकिन नींद जो है, वो प्योर तमोगुण है। बहुत ही हानिकारक है। अगर लिमिट से अधिक सोओगे तो भी शारीरिक हानि होती है और बिल्कुल न सोना भी शरीर के लिये ठीक नहीं है। आपके शरीर के जो पार्ट्स हैं उनको खराब करेगा अधिक सोना या अधिक जागना। रेस्ट की भी लिमिट है। रेस्ट के बाद व्यायाम आवश्यक है। देखिये शरीर ऐसा बनाया गया है कि इसमें दोनों आवश्यक हैं। तुम्हें संसार में कोई जरूरी काम आ जाये, या कोई बात हो जाये, या कोई तुम्हारा प्रिय मिले, तब नींद नहीं आती। इसलिये कोई फिजिकल रीजन नहीं है कि नींद कन्ट्रोल नहीं होती, केवल मानसिक वीकनेस है। लापरवाही है। हर क्षण यही सोचो कि अगला क्षण मिले न मिले, अतएव भगवद-विषय में उधार न करो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। इसे वैकुंठ एकादशी व मुक्कोटी एकादशी भी कहा जाता है। वैकुंठ एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा बहुत ही शुभ और फलदायी मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान श्रीहरि विष्णु के रहने का स्थान यानी वैकुंठ के दरवाजे खुले रहते हैं। इसलिए आज के दिन व्रत करने से मोक्ष की प्राप्त होती है और आज के दिन व्रत करने वाले सीधे स्वर्ग में जाते हैं। केरल में इस तिथि को स्वर्ग वथिल एकादशी कहते हैं।
ये भी कहा जाता है कि मोक्षदा एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था। यही वजह है इस दिन को गीता जयंती के नाम से भी मनाया जाता है।
हिंदू धर्म में माना जाता है कि मोक्ष प्राप्त किए बिना मनुष्य को बार-बार इस संसार में आना पड़ता है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले प्राणियों के लिए मोक्षदा एकादशी व्रत रखने की सलाह दी गई है। इस दिन भगवान विष्णु की आराधना की जाती है।
मोक्षदा एकादशी पर सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर पूरे घर में गंगाजल का छिड़काव करें। भगवान विष्णु की आराधना करें। पूजा में तुलसी के पत्तों को अवश्य शामिल करें। रात्रि में भगवान श्रीहरि का भजन-कीर्तन करें। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा देकर विदा करें। परिवार के साथ उपवास को खोलना चाहिए। मोक्षदा एकादशी से एक दिन पहले दशमी के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए तथा सोने से पहले भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन ही कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था। वैकुंठ एकादशी का दिन तिरुपति के तिरुमला वेन्कटेशवर मन्दिर और श्रीरंगम के श्री रंगनाथस्वामी मन्दिर में काफी धूमधाम से मनाया जाता है।
25 दिसंबर दिन को वैकुंठ एकादशी
-ज्योतिषाचार्यों के अनुसार वैकुंठ एकादशी मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी मोक्षदा एकादशी है। इस बार यह तिथि 25 दिसंबर को पड़ रही है। मोक्षदा एकादशी को दक्षिण भारत में वैकुंठ एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। वैकुंठ एकादशी दिन भगवान विष्णु का व्रत किया जाता है। - रुद्राक्ष एक मनका है, जो काफी पवित्र माना जाता है। यह पेड़ का उत्पाद हैै। यह ऋषियों, ज्योतिषियों और अन्य आध्यात्मिक संस्थाओं द्वारा पहने जाने वाले प्रसिद्ध रत्नों में से एक है। मनके का उपयोग ज्यादातर छोटे या बड़े धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। यह न केवल हिंदू धर्म बल्कि अन्य धर्मों द्वारा भी पूजा जाता है। इस मनके के वैज्ञानिक और ज्योतिषीय लाभ भी हैं।पौराणिक मान्यता है कि रुद्राक्ष का उद्भव भगवान शिव के आंसू से हुआ था। इसे स्वर्ग से पृथ्वी के बीच सेतु माना जाता है। रुद्राक्ष ज्यादातर इंडोनेशिया, नेपाल और भारत में पाया जाता है। दुनिया में 1 से लेकर 21 मुखी तक रुद्राक्ष उपलब्ध हैं। प्रत्येक मनके का एक अलग उद्देश्य और उपाय है। उन्हें मुख के अनुसार विभाजित किया जाता है जिसे मुखी भी कहा जाता है।रुद्राक्ष ऊर्जा से भरा हुआ एक शक्तिशाली आभूषण है, माना जाता है कि कमजोर दिल वाले उसे पहन नहीं सकते हैं। हालांकि, यह व्यापक रूप से स्वास्थ्य मन और आत्मा के लिए जाना जाता है। इसे पहने से पहले किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी से सलाह लेनी चाहिए। ध्यान दें कि इसे अपने मन से पहनने की गलती न करें यह नकारात्मक प्रभाव छोड़ सकता है।कैसे पहनने के लिए रुद्राक्ष ज्योतिषीय लाभ के लिए-रुद्राक्ष पहन रहे हैं, तो इस बात का खास ध्यान रखें कि यह आपके खुद के पैसों से खरीदा गया हो। किसी और के पैसे से खरीदा गया रुद्राक्ष आपको लाभ नहीं देगा।- किसी भी प्रकास का रुद्राक्ष पहनने से पहले किसी अनुभवी ज्योतिषी से इसे अभिमंत्रित जरूर करा लें और जन्मकुंडली के अनुसार रुद्राक्ष को धारण करें ताकि यह मनका आपको प्रभावी लाभ दे सके। इस रुद्राक्ष को ग्रहण करने से पहले, किसी शुभ दिन आपको एक पूजा करवानी होगी और मंत्रोच्चार करते हैं इसे पहनना होगा।-रुद्राक्ष को गंदे हाथों से ना छुए वरना यह अपवित्र हो सकता है।-रुद्राक्ष धारी को मांस और मदिरा का सेवन करना त्याग देना चाहिए।-रुद्राक्ष को धारण करने से पहले हमेशा तेल से साफ करके पहनना चाहिए।-रुद्राक्षधारियों को नियमित रूप से भगवान शिव की प्रार्थना करनी चाहिए।रुद्राक्ष धारण करने के फायदेमानाव जाता है कि जो लोग पापों से मुक्ति चाहते हैं तो उनके लिए यह मनका फायदेमंद है। यह मनका जन्मकुंडली में क्रूर ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने में मदद करता है। यह पहनने वाले को ऊर्जा और शक्ति प्रदान करता है। यह पहनने वाले को तनाव और हाईब्लडप्रेशर को कम करने में मदद करता है।यह रुद्राक्षधारी को ऊर्जा और शक्ति प्रदान करता है। यह चेचक जैसे सभी प्रकार के त्वचा रोगों को ठीक करने में मदद करता है। यह मिर्गी और जहर के घावों को ठीक करने में मदद करता है। यह पहनने वाले के चारों तरफ एक सुरक्षा कवच बना देता है। खासतौर पर खानाबदोश लोगों के लिए, यह निपटान, स्थिरता और सहायता प्रदान करता है।राशि चक्र पर रुद्राक्ष लाभराशि अनुसार रुद्राक्ष पहनने से इसका प्रभाव बढ़ जाता है। यह पहनने वाले को सकारात्मकता देता है और गुस्सा भी कम करता है।पौराणिक रूप से रुद्राक्ष को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है, क्योंकि यह सभी प्रकार के ग्रहों का इलाज करने और अप्रत्याशित घटनाओं को संभालने में मदद करता है। यह एक शक्तिशाली उपाय है जिसने बहुत से लोगों को राशि चक्र, ज्योतिषीय महत्व और स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं का इलाज करने में मदद की है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 148
(क्या है संत-चरणों में शीश झुकाने का तात्पर्य, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु की वाणी में इस प्रकार है...)
अगर तुम एक बार भी संत के चरणों में प्रणाम कर लो तो फिर कुछ करना न रहे, उसके आगे बात खतम, भगवत्प्राप्ति हो गई, माया-निवृत्ति हो गई, सब काम खतम। अगर तुम समझ लो कि ये चरण क्या हैं? इन चरणों की धूलि भगवान चाहता है;
अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभिः।(भागवत 11-14-16)
भगवान पीछे-पीछे चलता है भक्तों के कि उनकी चरण धूलि मेरे ऊपर पड़े और मैं पवित्र हो जाऊँ, उन चरणों पर आज मुझ अभागे का मस्तक पड़ रहा है। अनन्त पाप किये हुये एक नगण्य जीव का, कितना बड़ा सौभाग्य है हमारा। तो उन चरणों पर अगर सिर को झुका दें, छू लें उन चरणों को फिर वो होश में रहेगा नहीं। उसने समझा ही नहीं उन चरणों का महत्व क्या है? हाँ, ठीक है, सब छू रहे हैं तो अपन भी पटक दो। वन परसेन्ट, टू परसेन्ट, टेन परसेन्ट कुछ भावना होगी आप लोगों की लेकिन प्रणाम माने सेन्ट परसेन्ट भावना, बुद्धि का सरेंडर, बुद्धि को दे देना गुरु के चरणों में, इसी का नाम शरणागति है। यही वास्तविक प्रणाम है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, जुलाई 2007 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 147
साधक का प्रश्न ::: भगवान और महापुरुष की ओर मन जल्दी खिंचे, इसके लिये क्या करना होगा?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर :::
भगवान से अनन्य प्रेम करना है। 'अनन्य' माने 'अन्य में नहीं'। सब जगह कर्तव्य-पालन करो। तुम्हारी जो ड्यूटी है, माँ के प्रति, बाप के प्रति, बेटे के प्रति, स्त्री के प्रति, वो करो, लेकिन प्यार भगवान और महापुरुष से करो, क्योंकि वो शुद्ध हैं। अशुद्ध से मन का प्रेम न करो, व्यवहार में करो, एक्टिंग। जैसे दूसरे के बच्चे के गाल में हम हाथ से ऐसे-ऐसे (इशारा) कर देते हैं, पुच-पुच कर देते हैं तो उसकी माँ खुश हो जाती है कि हमारे बच्चे से प्यार कर रहा है। दूसरे के बच्चे से भला कौन प्यार करेगा, वो एक्टिंग करता है, उसके माँ-बाप को खुश करने के लिए और माँ-बाप बेवकूफ भी बन जाते हैं। लेकिन वो प्यार-व्यार तो अपने अपने बच्चे से करता है, दूसरे से क्यों करेगा भला।
तो ऐसे ही अपने परिवार में भी प्यार की एक्टिंग करो, लेकिन खास-तौर से ड्यूटी करो और प्यार हरि-गुरु से करो। तो तुम्हारा मन महापुरुष और भगवान में जल्दी खिंचेगा, बस! उतना ही तुम्हारा मन शुद्ध है, ये पैमाना है और इसी पैमाने को लेकर आगे बढ़ते चलो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, जुलाई 2007 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 146
साधक का प्रश्न ::: मन से बुद्धि को कन्ट्रोल किया जा सकता है क्या?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर :::
उल्टा बोल रहे हो। बुद्धि से मन पर कंट्रोल होता है। वो तो होता ही है, करते ही हो।
अब मन कह रहा है महाराज जी के पास मत जाओ। बुद्धि कह रही है, नहीं जाओगे तो फिर यह नुकसान हो जायेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे, भविष्य क्या होगा? तो बुद्धि से तो मन पर कंट्रोल नैचुरल होता ही है। सब छोटे-छोटे बच्चों का भी होता है।
इस समय देखो! ये बच्चे बोल रहे हैं, चंचल हैं। जब हम लैक्चर देते हैं तो कोई बच्चा जरा सा हिलता नहीं, चुपचाप बैठे रहते हैं, समझते कुछ नहीं। उनकी बुद्धि से ही उनका मन कंट्रोल है। अगर बुद्धि से कंट्रोल न करे मन पर मनुष्य, तो ये सारा संसार लड़-कटकर मर जाये, एक दिन में समाप्त हो जाय।
मन करता है इसको झापड़ लगा दें, मन करता है इसको गाली दे दें, मन करता है ये सामान उठा लें, लेकिन बुद्धि कहती है पिट जाओगे, चुप। चोरी-चोरी जो सोचते हो, उसको बुद्धि काट देती है, ऐसा करोगे तो ये नुकसान हो जायेगा, मन पर कंट्रोल कर लेती है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश पत्रिका, जुलाई 2007 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
ग्रह-नक्षत्रों का व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। सूर्य, केतु से लेकर बुध तक सभी ग्रह अपनी चाल बदलते हैं। हालांकि खास बात यह है साल 2021 में राहु-केतु और शनि अपना राशि परिवर्तन नहीं करेंगे। नए साल पर शनि अपनी स्वराशि मकर, राहु वृषभ राशि में और केतु वृश्चिक राशि में ही रहेंगे। हालांकि सूर्य से लेकर मंगल तक नए साल में अपना राशि परिवर्तन करेंगे। ग्रहों के चाल बदलने से व्यक्ति को कई बार शुभ तो कई बार अशुभ परिणामों की प्राप्ति होती है। राशि परिवर्तन जातकों की लाइफ में तरक्की, नौकरी और अचानक धन प्राप्ति का योग लेकर आता है। जानिए किस दिन कौन-सा ग्रह बदलेगा अपनी चाल-
1. मंगल का राशि परिवर्तन 2021- ऊर्जावान ग्रह मंगल अपनी राशि करीब डेढ़ माह में बदलता है। नए साल में मंगल 7 बार अपना राशि परिवर्तन करेगा।
मंगल का वृषभ राशि में गोचर - 22 फरवरी 2021
मंगल का मिथुन राशि में गोचर - 14 अप्रैल 2021
मंगल का कर्क राशि में गोचर - 2 जून 2021
मंगल का सिंह राशि में गोचर - 20 जुलाई 2021
मंगल का कन्या राशि में गोचर - 6 सितंबर 2021
मंगल का तुला राशि में गोचर - 22 अक्तूबर 2021
मंगल का वृश्चिक राशि में गोचर - 5 दिसंबर 2021
2. बुध का राशि परिवर्तन- बुध का नए साल में पहला राशि परिवर्तन 5 जनवरी होगा। इसके बाद साल का आखिरी राशि परिवर्तन 29 दिसंबर को होगा।
बुध का मकर राशि में गोचर - 5 जनवरी 2021
बुध का कुंभ राशि में गोचर - 25 जनवरी 2021
बुध का मकर राशि में गोचर - 4 फरवरी 2021
बुध का कुंभ राशि में गोचर - 11 मार्च 2021
बुध का मीन राशि में गोचर - 1 अप्रैल 2021
बुध का मेष राशि में गोचर - 16 अप्रैल 2021
बुध का वृष राशि में गोचर - 1 मई 2021
बुध का मिथुन राशि में गोचर - 26 मई 2021
बुध का वृष राशि में गोचर - 3 जून 2021
बुध का मिथुन राशि में गोचर - 7 जुलाई 2021
बुध का कर्क राशि में गोचर - 25 जुलाई 2021
बुध का सिंह राशि में गोचर - 9 अगस्त 2021
बुध का कन्या राशि में गोचर - 26 अगस्त 2021
बुध का तुला राशि में गोचर - 22 सितंबर 2021
बुध का कन्या राशि में गोचर - 2 अक्तूबर 2021
बुध का तुला राशि में गोचर - 2 नवंबर 2021
बुध का वृश्चिक राशि में गोचर - 21 नवंबर 2021
बुध का धनु राशि में गोचर - 10 दिसंबर 2021
बुध का मकर राशि में गोचर - 29 दिसंबर 2021
3. गुरु का राशि परिवर्तन- साल 2021 में गुरु ग्रह तीन बार अपनी चाल बदलेंगे। गुरु करीब 13 माह में अपना राशि परिवर्तन करते हैं।
बृहस्पति का कुंभ राशि में गोचर - 6 अप्रैल 2021
बृहस्पति का मकर राशि में गोचर - 14 सितंबर 2021
बृहस्पति का कुंभ राशि में गोचर - 21 नवंबर 2021
4. शुक्र का राशि परिवर्तन- चमकीले ग्रह शुक्र का पहला राशि परिवर्तन 4 जनवरी को होगा। इसके बाद 30 दिसंबर को साल 2021 का आखिरी राशि परिवर्तन करेंगे।
शुक्र का धनु राशि में गोचर - 4 जनवरी 2021
शुक्र का मकर राशि में गोचर - 28 जनवरी 2021
शुक्र का कुंभ राशि में गोचर - 21 फरवरी 2021
शुक्र का मीन राशि में गोचर - 17 मार्च 2021
शुक्र का मेष राशि में गोचर - 10 अप्रैल 2021
शुक्र का वृषभ राशि में गोचर - 4 मई 2021
शुक्र का मिथुन राशि में गोचर - 29 मई 2021
शुक्र का कर्क राशि में गोचर - 22 जून 2021
शुक्र का सिंह राशि में गोचर - 17 जुलाई 2021
शुक्र का कन्या राशि में गोचर - 11 अगस्त 2021
शुक्र का तुला राशि में गोचर - 6 सितंबर 2021
शुक्र का वृश्चिक राशि में गोचर - 2 अक्तूबर 2021
शुक्र का धनु राशि में गोचर - 30 अक्तूबर 2021
शुक्र का मकर राशि में गोचर - 8 दिसंबर 2021
शुक्र का धनु राशि में गोचर - 30 दिसंबर
5. सूर्य का राशि परिवर्तन- सूर्य का पहला राशि परिवर्तन 14 जनवरी को होगा। सूर्य के राशि परिवर्तन के दिन को सूर्य संक्रांति के नाम से भी जानते हैं।
सूर्य का मकर राशि में गोचर - 14 जनवरी 2021
सूर्य का कुंभ राशि में गोचर - 12 फरवरी 2021
सूर्य का मीन राशि में गोचर - 14 मार्च 2021
सूर्य का मेष राशि में गोचर - 14 अप्रैल 2021
सूर्य का वृष राशि में गोचर - 14 मई 2021
सूर्य का मिथुन राशि में गोचर - 15 जून 2021
सूर्य का कर्क राशि में गोचर - 16 जुलाई 2021
सूर्य का सिंह राशि में गोचर - 17 अगस्त 2021
सूर्य का कन्या राशि में गोचर - 17 सितंबर 2021
सूर्य का तुला राशि में गोचर - 17 अक्तूबर 2021
सूर्य का वृश्चिक राशि में गोचर - 16 नवंबर 2021
सूर्य का धनु राशि में गोचर - 16 दिसंबर 2021 -
नए साल को आने में अब कुछ ही दिन बाकी हैं। हर व्यक्ति को नए साल पर नई शुरूआत का इंतजार रहता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, ग्रह-नक्षत्र के कारण हर व्यक्ति को जीवन में अच्छे-बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। ऐसे में हम आपको बता रहे हैं कि 2021 में आपकी राशि के लिए कौन-सा महीना लकी है।
1. मेष- मेष राशि वालों के लिए नए साल का पहला महीना यानी जनवरी माह उत्तम है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, इस माह में करियर से लेकर लव लाइफ तक इस राशि के जातकों को शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
2. वृष- इस राशि वालों के लिए साल 2021 का दिसंबर माह शुभ है। दिसंबर आते ही इस राशि वालों के जीवन की समस्याएं हल होने लग सकती हैं।
3. मिथुन- इस राशि वालों के लिए अगस्त माह बेहद शुभ है। माना जा रहा है कि अगस्त माह में इस राशि के जातकों को शुभ परिणाम प्राप्त होंगे।
4. कर्क- कर्क राशि वालों के लिए सितंबर माह शुभ है। इस माह में आपके कई बिगड़े काम बन सकते हैं। इसके साथ ही आपका उत्साह और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।
5. सिंह- इस राशि वालों के लिए फरवरी माह शुभ है। यह माह आपको भाग्यशाली बनाने का भी योग लेकर आएगा।
6. कन्या- इस राशि वालों के लिए अगस्त माह बेहद शुभ साबित होगा। इस माह में धर्म और आस्था के मामले में भी आगे रहेंगे।
7. तुला- तुला राशि वालों के लिए अप्रैल का महीना शुभ रहने वाला है। अप्रैल माह के आते-आते खुशियां आपके घर आ जाएंगी। इस साल इस राशि वालों को शुभ परिणाम प्राप्त होंगे।
8. वृश्चिक- इस राशि वालों के लिए अक्टूबर माह शुभ रहेगा। इस माह में आपको शुभ परिणाम प्राप्त होंगे। साल के दसवें महीने में आपके सपने पूरे होंगे।
9. धनु- इस साल के जातकों के लिए जनवरी माह बेहद शुभ होगा। नए साल की शुरुआती माह में ही आपकी सभी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं।
10. मकर- मकर राशि वालों के लिए सितंबर माह भाग्यशाली साबित होगा। ग्रह-नक्षत्रों के शुभ संयोग के कारण आपको हर कार्य में सफलता हासिल होगी।
11. कुंभ- इस राशि वालों के लिए नंवबर माह बेहद खास रहने वाला है। इस राशि वालों का उत्साह बढ़ेगा और आपकी योजनाएं लंबे समय तक लाभ देंगी।
12. मीन- मीन राशि वालों के लिए दिसंबर माह शुभ है। साल के आखिरी महीने में आपकी सभी समस्याएं खत्म होना शुरू हो जाएंगी। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 145
(आध्यात्मिक जगत के साथ ही भौतिक जगत के मनुष्यों के लिये भी लाभदायक मार्गदर्शन, यहाँ से पढ़ें..)
..निराशा आने का मतलब ये कि उसने (साधक) सारी भगवत्कृपाओं पर लात मार दिया। जितनी भगवत्कृपा उसके ऊपर हुई, महापुरुष कृपा हुई, उसका बार-बार चिन्तन नहीं किया। निराशा आते ही बुद्धि को फटकारना चाहिए, फिर तुमने अपराध किया, क्या कृपा बाकी है जो तुम्हारे ऊपर नहीं हुई।
प्रतिकूल चिन्तन की धारा चलने न पावे, चिन्तन शुरू होते ही तुरन्त समाप्त करो। जैसे किसी स्त्री के कपड़े में आग लग गई, खाना बनाते समय, वह वहीं दबा देती है उसको। अगर वो लापरवाही करे तो सब कुछ जल जायेगा। अतः हम खाली समय का सदुपयोग नहीं करते, गलत चिन्तन करते हैं। इससे निराशा आती है।
इसका सबसे बढ़िया इलाज ये ही है, मन को खाली न रहने दो। जहाँ जाओ, भगवत चिन्तन में लग जाओ। 'आनुकूलस्य संकल्पः'। याद रखो शरणागति में अनुकूल चिन्तन ही हो, इसी की प्रैक्टिस करो, कुछ और न सुनो, न कुछ और पढ़ो, न कुछ और सोचो और अगर कुछ पढ़ने, कुछ सुनने, कुछ सोचने में आवे, तुरन्त होशियार हो जाओ। तत्काल होशियार हो जाओ, जैसे कोई खाना चबाता है, कंकड़ आया और दाँत से दबाकर आँख को मींचकर कहता है, अरे! कंकड़ आ गया। फेंक दिया उसको। और चबाये ही जाय उसको तो लोग पागल कहेंगे। अरे! कंकड़ आया, दाँत के नीचे कट से हुआ और स्वाद खराब हुआ फिर भी तुम खाये जा रहे हो। बाल आया तुम्हारे खाने के साथ, तुम्हारी समझ में आ गया और फिर भी चबाये जा रहे हो, तो लोग उसको पागल कहेंगे।
तो उसी प्रकार कोई गड़बड़ आये, खोपड़ी में तुरन्त निकालो। जब ये ज्ञान है कि निराशा हानिकारक चीज है और वो आने लगी, होशियार क्यों नहीं हो गये, धिक्कारा क्यों नहीं, अपने आपको। तुरन्त सही चिन्तन शुरू क्यों नहीं किया? जब जानते हो कि चिन्तन में अनन्त शक्ति है, राक्षस बना दे, महापुरुष बना दे। सारा काम चिन्तन का है और कुछ है ही नहीं विश्व में। अधिक चिन्तन जिस चीज का करोगे वैसे ही बन जाओगे। अच्छाई का चिन्तन करो, अच्छे बन जाओगे। बुराई का चिन्तन कुछ दिन करो, कितना भी अच्छा हो, बुरे बन जाओगे।
चिन्तन की लिंक के अनुसार उत्थान-पतन दोनों संभव है। इसलिए मन को खाली नहीं रखो, गलत संग में नहीं डालो। गलत व्यक्तियों से बात न सुनो, न करो और कहीं कान में पड़ जाय तो उसको ऐसे फेंक दो जैसे कंकड़ को खाना खाते समय फेंक देते हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2014 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 144
(संत तथा भगवान का जन्म/अवतार साधारण जीवों के जन्म से कैसे भिन्न है, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी में यहाँ से पढ़ें...)
एष आत्मापहृतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको।विजिघत्सोपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः।।(छांदोग्योपनिषद, 8-1-5)
वह ब्रम्ह पापरहित है, जरारहित है, उसकी मृत्यु नहीं होती, वह शोकरहित है, उसे भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती, वह सत्यकाम है, सत्यसंकल्प है।
ब्रम्ह अथवा भगवान के ये आठ गुण भगवत्प्राप्ति के पश्चात जीव में भी आ जाते हैं। तत्पश्चात वह जीव महापुरुष अथवा भगवत्प्राप्त संत के नाम से अभिहित होता है।
किन्तु जब भगवान अथवा महापुरुष, मनुष्य रूप में इस धरा पर हमारे बीच अवतरित होते हैं, उनका तो जन्म भी देखा जाता है, जरा भी होती है, मृत्यु भी देखी जाती है। वे पाप अथवा पुण्य के कार्य करते दिखाई देते हैं। भूख लगने पर खाना भी खाते हैं तथा प्यास लगने पर पानी भी पीते हैं। फिर कैसे मानें कि वे आठ गुणों से युक्त हैं?
यों तो साधारण जीवों की आत्माओं के लिये भी कहा जा सकता है कि आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु होती है, उसे न आग जला सकती है और न पानी ही गला सकता है। इत्यादि। फिर भगवान, महापुरुष अथवा साधारण जीव में हम भेद कैसे मानें?
कारागार में एक ही वेशभूषा में तीन व्यक्ति खड़े हैं। आप कहेंगे कि तीनों ही जेल में हैं, अवश्य कैदी हैं तीनों। किन्तु ऐसा नहीं है। उनमें एक कैदी है, दूसरा जेल का अधीक्षक है और तीसरा देश का राजा अथवा मिनिस्टर है। देखने में तीनों एक समान कैदी लगते हैं किन्तु कैदी को न्यायाधीश द्वारा उसके कुकृत्य की सजा देकर जेल में भेजा गया है। जबकि राजा अथवा मिनिस्टर जेल का निरीक्षण करने आया है, अधीक्षक जेल में प्रबंध करने आया है। ये दोनों स्वयं आये हैं और स्वयं जा सकते हैं किन्तु कैदी जेल में लाया गया है और सजा पूरी करने तक बंधन में रहेगा।
इसी प्रकार साधारण व्यक्ति (जीव) कर्मबन्धन में बंधकर प्रारब्धवश संसार में लाये जाते हैं किन्तु भगवान अथवा महापुरुष का कोई कर्मबन्धन नहीं है, वे स्वयं लोकहितार्थ संसार में स्वयं अवतरित होते हैं।
साधारण जीव अपने पूर्व निश्चित प्रारब्ध को भोगकर निश्चित समय पर मृत्यु को प्राप्त होता है किन्तु भगवान अथवा महापुरुष अपने निश्चित कार्यक्रम के पूरा होने पर, जब चाहें तब अपनी लीला संवरण करके, अपने लोक को प्रस्थान कर सकते हैं। वे आवश्यकतानुसार अपने समय में कमी अथवा वृद्धि करने में भी समर्थ हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, नवम्बर 1998 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
:जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 143
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 5) ::::::
(1) संसार में सबको एक ही वस्तु में सुख नहीं मिलता, जो व्यक्ति जिस व्यक्ति या वस्तु में बार-बार सुख की भावना बनाता है, उसी में आसक्ति हो जाती है। फिर उसी की ही कामना उत्पन्न होती है, फिर उसी कामनापूर्ति में क्षणिक सुख मिलता है।
(2) जब आत्मा दिव्य नित्य तत्व है, तो उसका विषय भी दिव्य ही होगा। संसार आत्मा का विषय हो ही नहीं सकता। वस्तुतः प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही चाहता है। अतः आत्मा भी जगत में व्याप्त परमात्मा का ही नित्य दिव्य सुख चाहता है।
(3) सर्वोत्तम भक्त वही है जो संसार में रहकर, संसार के विषयों का सेवन करते हुये भी मन को कृष्ण में रखे। न तो कहीं द्वेष करे, न राग करे। संसार को अपने प्रभु का खेल माने, तथा संसार में सर्वत्र अपने शरण्य को ही देखे। यही कर्मयोग है।
(4) अपने स्वरूप को, जीवन के मर्म को जानना होगा। एतदर्थ दीनता ही प्रथम सोपान है। इसके अवलम्ब के बिना यह मन उस प्रभु को धारण कर ही नहीं सकता, असम्भव है। यही तो आधार है, इसके बिना तो पात्र, बर्तन ही नहीं बनेगा।
(5) प्रत्येक जीव जो जीवित रहता है, वह इसलिये कि वह समझता है कि कुछ चीजों में मैं सबसे आगे हूँ। अगर प्रत्येक बात में कोई सबसे अच्छा हो जाय तो उसका खुशी से हार्ट फेल हो जायेगा बशर्ते कि वह भगवान या महापुरुष न हो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 142
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 4 के दोहा संख्या 20 से आगे)
मायाधीन जीव है अनादि कह बामा।माया ते मुक्ति दिलावें श्याम श्यामा।।21।।
अर्थ ::: जीव अनादि-काल से मायाधीन है। श्यामा श्याम की कृपा से ही जीव को इस अनादिकालीन माया के बंधन से छुटकारा प्राप्त होता है।
ब्रम्ह की ही शक्ति जीव, माया कह बामा।सब हैं सनातन माया, जीव, श्यामा।।22।।
अर्थ ::: जीव ब्रम्ह की शक्ति है। माया भी ईश्वरीय शक्ति है। माया, जीव एवं ब्रम्ह स्वरूपा श्रीराधा तीनों ही सदा से थे, सदा हैं, सदा रहेंगे।
माया है मिथ्या ऐसा बको आठु यामा।किन्तु माया जाय जब कृपा करें श्यामा।।23।।
अर्थ ::: ज्ञान-मार्ग के अनुयायी कहते हैं केवल ब्रम्ह ही सत्य है, माया मिथ्या है। 'ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या'। परन्तु ज्ञानियों का यह कथन उनका भ्रम है। माया को मिथ्या कहने मात्र से माया से पीछा नहीं छूट सकता। श्री राधा-कृपाकटाक्ष के बिना करोड़ों उपाय भी इस माया से मुक्ति दिलाने में असमर्थ है।
साधना किये न मिलें श्याम पूर्णकामा।पिया जिसे चाहे सोइ सुहागिनि बामा।।24।।
अर्थ ::: साधना करने मात्र से पूर्णकाम श्यामसुन्दर की प्राप्ति असम्भव है। प्रियतम स्वयं रीझकर जिसे स्वीकार कर लें वही सुहागिन स्त्री है। 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुगं-स्वाम्।'
तुम भी चित हम भी चित कह ब्रजबामा।तुम विभुचित हम अणुचित श्यामा।।25।।
अर्थ ::: हे श्रीराधे! तुम भी चित् स्वरूप हो और तुम्हारा अंश होने के कारण हम भी चित् हैं किन्तु अन्तर इतना ही है कि तुममें अनन्त मात्रा की चित् शक्ति है, हममें अणु मात्र की चित् शक्ति है। (अर्थात किशोरी जी का ज्ञान अनन्त है, उनके अंश स्वरूप जीव में अल्प ज्ञान है।)
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 141
(किस कर्म में उधार करें, किस कर्म को तत्काल करें, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से...)
..दो प्रकार का कर्म होता है क्योंकि आपके पास दो चीजें हैं; एक शरीर, एक आत्मा। तो आत्मा के कर्म के लिये उधार न करो, शरीर के कर्म को भले ही उधार कर दो और हम लोग उल्टा करते हैं। शरीर के कर्म को पहले करते हैं और अगर टाइम मिला, बचा फालतू वाला तो उसको परमार्थ में लगाते हैं। इसी प्रकार तन, मन, धन तीनों का संसार में उपयोग तो तुरन्त करते हैं और भगवान के एरिया में उपयोग करने में कतराते हैं, उधार कर देते हैं और उधार ही चलता जाता है।
अनन्त जन्म क्यों बीते? अनन्त बार भगवान को हमने देखा है, अनन्त संत हमको मिले हैं, उन्होंने समझाया है और हमने समझा भी है, लेकिन शरणागति में उधार कर दिया, भक्ति में उधार कर दिया, कल करेंगे और कल आने के पहले ही चल दिये। यमराज तो अपना बहीखाता लिये बैठा है ताक में, आपका समय हो गया, बस चलिये। अरे, मैं हट्टा-कट्टा हूँ, अभी जवान हूँ। अरे, जवान-ववान कुछ नहीं। टाइम, टाइम, मैं काल हूँ। काल के अनुसार काम करता हूँ। जाना पड़ेगा। अरे, मैं राजा हूँ, प्राइम मिनिस्टर हूँ, गवर्नर हूँ। अरे, तुम चाहे इन्द्र हो, सबको जाना पड़ेगा। काल के आगे किसी की दाल नहीं गलती। सबको उसकी बात माननी पड़ती है, सीधे नहीं तो टेढ़े। एक सेकण्ड का समय दे दो, काम महाराज! साइन कर दूँ प्रॉपर्टी का। न न एक बटे सौ सेकण्ड नहीं। इट इज ऐज़ श्योर ऐज़ डेथ। बस, उसी क्षण जाना पड़ेगा।
इसलिये उधार बन्द करो। परमार्थ का काम तुरन्त करो, साधना तुरन्त करो। एक क्षण का भरोसा नहीं। अगर ये फार्मूला याद रखो तो लापरवाही न होगी। हम लोग लापरवाही करते हैं न। हमारे पास आधा घण्टे का समय है। अब क्या करें? आधा घण्टा है, अब बीबी बैठी है, उसी से गप्पे हो रही हैं। आधा घण्टे का समय कैसे कटे? निरर्थक बातें हो रही हैं, वो ऐसा है, वो ऐसी है, वो ऐसा है, कुछ तुमको मिलना-जुलना है इन बातों से। नहीं जी, मिलना-जुलना तो नहीं है लेकिन फालतू बैठे थे तो एन्जॉयमेंट हो रहा है। ये एन्जॉयमेंट है? यानी हम लोग समय को बरबाद करने पर तुले हैं। किसी प्रकार ये मानव देह का अमूल्य समय समाप्त हो।
हम बोलते भी हैं, अरे बेटा! हम तो अस्सी वर्ष के हो गये, पिचासी के हो गये, हमारी तो बीत गई, तुम अपनी सोचो। क्या बीत गई? अरे, मतलब हम जाने वाले हैं। कहाँ जाओगे, गोलोक? अपने कर्म की सोचो। तुमने ऐसा कौन सा साधन किया है जो बड़े रुआब में कह रहे हो, हमारी तो बीत गई। बीत गई नहीं, हमने तो बरबाद कर दिया मानव देह को, ऐसे बोलो। अपना सर्वनाश कर लिया।
'आतमहन गति जाय'। आत्म-हत्यारा है वो जिसने भगवत्प्राप्ति नहीं किया, मरने के पहले। अरे, अगर भगवत्प्राप्ति नहीं किया तो कुछ कमी रह गई, तो भी डरो मत, अगले जन्म में पूरा कर लेना। लेकिन करो तो। उधार नहीं।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 140
('गुरु सेवा' संबंधी एक महत्वपूर्ण सावधानी, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी से समझें...)
..गुरु सेवा करते हुये गुरु सेवाभिमान न लाओ। सेवाभिमान न आने पावे। तब वो असली त्यागी है।
एक राजा था। उसको वैराग्य हुआ तो वो एक महात्मा के पास गया जंगल में। जैसे जिस पोज में वो बैठा हुआ था राजा उसी पोज में भाग पड़ा। और महात्मा जी को प्रणाम किया और कहा कि हम आपके शिष्य बनना चाहते हैं। उन्होंने देखा। प्राचीनकाल में महात्माओं की ऐसी परम्परा थी तपस्वियों की, उन्होंने कहा कि भाग यहाँ से, सब छोड़कर तब आ हमारे पास। उसने कहा कि महाराज! सब छोड़ आये।
ए झूठ बोलता है! अब वो चला गया बेचारा। उन्होंने जाकर स्वयं सोचा, अरे! राजा के भेष में ही मैं आ गया। महात्मा के पास मुकुट पहन करके मैं आया, ये मुझसे गलती हो गई। एक लँगोटी लगाकर के सब फेंक-फांक करके तब गया कि महाराज! गलती हो गई। फिर देखा उन्होंने और कहा कि मैंने कहा न कि सब छोड़ कर आ। तुमने सुना नहीं। अब वो हैरान, सब कुछ तो छोड़ दिया मैंने, तो लँगोटी भी फेंककर आया, दिगम्बर।
तो अब की बार और जोर से डाँटा। उन्होंने कहा कि देख अब अगर बिना छोड़े मेरे पास आया तो दण्ड दूँगा। तूने तीन बार आज्ञा का उल्लंघन किया। ऋषि मुनि तपस्वी का दण्ड क्या? शाप। कोई भक्ति मार्ग के महापुरुष तो थे नहीं। तो राजा जाकर दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि महात्मा जी क्या चीज छोड़ने के लिये कह रहे हैं? शरीर छोड़ा नहीं जा सकता और क्या है मेरे पास? रोने लगे। उन्होंने सोचा कि अब गुरुजी नहीं अपनायेंगे तो अब शरीर रखना भी बेकार है। संसार में कुछ नहीं है, ये तो समझ ही लिया और अब छोड़ भी आये अब दोबारा जाना भी गलत है और ये शरणागति नहीं स्वीकार रहे हैं हमारी। तो फिर अब देह ही छोड़ देते हैं।
तीन चार दिन बाद गुरुजी उधर से निकले और उन्होंने कहा क्यों राजन! यहाँ कैसे बैठे हो? चुप। ओ त्यागी जी! अब भी चुप। उन्होंने कहा कि हाँ, अच्छा आजा आजा। अब तूने त्याग दिया सब कुछ। राजा होने का अभिमान भी त्यागने का मेरा आदेश था और त्यागने का भी अहंकार छोड़ो। 'मैंने सब छोड़ दिया है' - ये अहंकार भी छोड़ो। तब वो त्याग असली हुआ।
तो जो सत्कर्म करे कोई व्यक्ति, उस सत्कर्म का अहंकार न होने पावे उसको गुरुकृपा माने। उनकी कृपा से इतना हमने भगवन्नाम ले लिया, इतनी सेवा कर ली, वरना मुझसे होता भला? एक भिखारी भी अगर मुझसे माँगता कभी पैसा तो मैंने कभी एक रुपया भी नहीं दिया लाइफ में। उन्होंने कैसे करा लिया हमसे? ये कृपा रियलाइज करना। सब कुछ त्यागो और त्यागने के अहंकार को भी त्यागो। और कुछ मत त्यागो और त्यागने का या आसक्ति का अहंकार छोड़ दो तो भी त्याग है। दोनों प्रकार का त्याग है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'गुरुसेवा' पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद एक उपनिषद है जिसमें 'श्रीसूक्त' के वैभव-सम्पन्न अक्षरों को आधार मानकर देवी मन्त्र और चक्र आदि को प्रकट किया गया है। इसमें देवसमूह और श्री नारायण के मध्य हुए वार्तालाप को इस उपनिषद का आधार बताया गया है। यह उपनिषद तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में सौभाग्यलक्ष्मी विद्या की जिज्ञासा, ध्यान, चक्र, एकाक्षरी मन्त्र का ऋषि, लक्ष्मी मन्त्र, श्रीसूक्त के ऋषि आदि का निरूपण किया गया है। दूसरे खण्ड में ज्ञानयोग, प्राणायामयोग, नाद के आविर्भाव से पूर्व की तीन ग्रन्थियों का विवेचन, अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति, निर्विकल्प भाव तथा समाधि के लक्षण बताये गये हैं। तीसरे खण्ड में नवचक्रों का विस्तृत वर्णन और उपनिषद की फलश्रुति का उल्लेख किया गया है।प्रथम खण्डएक बार समस्त देवताओं ने भगवान श्री नारायण से सौभाग्य लक्ष्मी विद्या के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। तब श्री नारायण ने श्रीलक्ष्मीदेवी के विषय में उन्हें बताया कि यह देवी स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूप, तीनों अवस्थाओं से परे तुरीयस्वरूपा, तुरीयातीत, सर्वोत्कट-रूपा (कठिनाई से प्राप्त) समस्त मन्त्रों को अपना आसन बनाकर विराजमान है। वह चतुर भुजाओं से सम्पन्न है। उन श्री लक्ष्मी के श्रीसूक्त की पन्द्रह ऋचाओं के अनुसार सदैव स्मरण करने से श्री-सम्पन्नता आने में विलम्ब नहीं लगता है।ऐसा है श्रीमहालक्ष्मी का दिव्य-रूपऋषियों ने श्रीमहालक्ष्मी को कमलदल पर विराजमान चतुर्भुजाधारिणी कहा है। यह मन्त्र दृष्टव्य हैं-अरुणकमलसंस्था तद्रज: पुञ्जवर्णा करकमलधृतेष्टाऽमितियुग्माम्बुजा च।मणिकटकविचित्रालंकृताकल्पजालै: सकलभुवनमाता संततं श्री श्रियै न:॥अर्थात श्री लक्ष्मी अरुण वर्णा (हलके लाल रंग के) निर्मल कमल-दल पर आसीन, कमल-पराग की राशि के सदृश पीतवर्ण, चारों हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अभयमुद्रा तथा दोनों हाथों में कमल पुष्प धारण किये हुए, मणियुक्त कंकणों द्वारा विचित्र शोभा को धारण करने वाली तथा समस्त आभूषणों से सुशोभित एवं सम्पूर्ण लोकों की माता, हमें सदैव श्री-सम्पन्न बनायें। इस देवी की आभा तप्त स्वर्ण के समान है। शुभ्र मेघ-सी आभा वाले दो हाथियों की सूंड़ों में ग्रहण किये कलाशों के फल से जिनका अभिषेक हो रहा है, लाल रंग के माणिम्यादि रत्नों से जिनका मुकुट सिर पर शोभायमान हो रहा है, जिन श्री देवी के परिधान अत्यधिक स्वच्छ हैं, जिनके नेत्र पद्म के समान हैं, ऋतु के अनुकूल जिनके अंग चन्दन आदि सुवासित पदार्थों से युक्त हैं, क्षीरशायी भगवान विष्णु के हृदयस्थल पर जिनका वास हा, हम सभी के लिए वे श्रीलक्ष्मीदेवी ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हों। ईश्वर से यही हमारी प्रार्थना है। कहा भी है—'निष्कामानामेव श्रीविद्यासिद्धि: । न कदापि सकामानामिति॥12॥'अर्थात निष्काम (कामनाविहीन) उपासकों को ही श्रीलक्ष्मी और विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है। सकाम उपासकों को इसकी सिद्धि किंचित मात्र भी प्राप्त नहीं होती।दूसरा खण्डइस खण्ड में प्राणायाम विधि का विस्तार से वर्णन है तथा षट्चक्रभेदन और समाधि पर प्रकाश डाला गया है। इस समाधि द्वारा मन का विलय आत्मा में उसी सप्रकार हो जाता है, जैसे जल में नमक घुल जाता है। 'प्राणायाम' के अभ्यास से प्राणवायु पूरी तरह से कुम्भक में स्थित हो जाती है तथा मानसिक वृत्तियां पूर्णत: शिथिल पड़ जाती हैं। उस समय तेल की धारा के समान आत्मा के साथ चित्त का एकात्म भाव 'समाधि' कहलाता है। 'जीवात्मा' और 'परमात्मा' का साथ इस समाधि तथा प्राणायाम विधि द्वारा ही सम्भव है। ऐसा होने पर समस्त भवबन्धन और कष्ट नष्ट हो जाते हैं।तीसरा खण्डतीसरे खण्ड में कुण्डलिनी जागरण द्वारा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर व विशुद्ध आदि नवचक्रों का विवेचन किया गया है। नारायण ने देवताओं को बताया कि मूलाधारचक्र में ही ब्रह्मचक्र का निवास है। वह योनि के आकार के तीन घेरों में स्थित हैं। वहां पर महाशक्ति कुण्डलिनी सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहती है। उसकी उपासना से सभी भोगों को प्राप्त किया जा सकता है। यह कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर स्वाधिष्ठानचक्र, नाभिचक्र, हृदयचक्र, विशुद्धाख्यचक्र, तालुचक्र, भ्रूचक्र (आज्ञाचक्र) से होती हुई निर्वाणचक्र, अर्थात 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचती है। ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर उठकर नवम 'आकाशचक्र' में पहुँचकर परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करती है। यहाँ पहुंचकर साधक को समस्त कामनाओं की सिद्धि हो जाती है। इन पन्द्रह ऋचाओं का कम-से-कम पन्द्रह दिन तक निष्काम भाव से ध्यान करने पर श्री लक्ष्मी की सिद्धि हो जाती है।---
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 139
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से निःसृत साधना-स्मरण सम्बन्धी 5-सार बातें (भाग - 4) :::::
(1) सत्य पदार्थ हरि एवं हरिजन ही हैं, अतएव केवल हरि, हरिजन का मन बुद्धि युक्त सर्वभाव से संग करना ही सत्संग है।
(2) जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद्विषय में मन-बुद्धियुक्त लगाव हो वही सत्संग है। इसके अतिरिक्त समस्त विषय कुसंग है।
(3) जीव तो सदा ही अपने को अच्छा समझता है। वह भले ही पराकाष्ठा का मूर्ख क्यों न हो, उसे यह कथन बिलकुल ही प्रिय नहीं है कि तुम मूर्ख हो।
(4) अच्छा कर्म भी पाप है, बुरा कर्म भी पाप है, केवल भगवान और महापुरुष का चिन्तन बस ये ही सही है, बाकी सब पाप है क्योंकि बाँधने वाले हैं वो, उन कर्मों का बंधन होता है। अच्छा कर्म करोगे, स्वर्ग मिलेगा। खराब कर्म करोगे, नरक मिलेगा। अच्छा-बुरा कम्बाइन्ड मिक्सचर करोगे, मृत्युलोक मिलेगा। तीनों का परिणाम माया का, बन्धनकारक, 84-लाख में घुमायेगा वो।
(5) भक्तों के लिये भक्त और भगवान की पदरज, उनका चरणामृत और उनके मुख के उच्छिष्ट का बहुत अधिक महत्व है। इन तीनों का लगातार सेवन करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है और एक दिन श्रीकृष्ण में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है। ये अमूल्य रस गुरु की विशेष कृपा से ही मिलता है।
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - कुरुक्षेत्र की (युद्ध/धूर्त)पृष्ठभूमि में 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया जो श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह कौरवों व पांडवों के बीच युद्ध महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबन्ध। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं। इसलिए भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और धर्मसूत्रों का है। इस ग्रंथ में जीवन का पूरा सर दिया गया है। साथी ग्रंथ में जीवन की हर परेशानी का समाधान बेहद शांतिपूर्ण और समाज ढंग से समझाया गया है । आज हम आपको भगवत गीता के 18 अध्याय के कुछ बातें बताएंगे जो कि बेहद अहम हैं।गीता की 15 खास बातों1 - श्रीमद भगवत गीता महाभारत में छंदों का सबसे महत्वपूर्ण संग्रह माना जाता है।2- विश्व भर में हिंदू भगवत गीता से परिचित और इसे पढ़े सभी लोगों ने इसे हर पीढ़ी के लिए बेहद महान बताया है। साथ ही इस के हर पड़ाव को जिंदगी के हर उतार-चढ़ाव से भी जोड़ा है।3 - गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा युद्ध और जीवन के अर्थ को समझाने के लिए अर्जुन को दिए गए उपदेशों की श्रृंखला पर आधारित है।4 - महाभारत इस बात की पुष्टि करता है कि भगवान श्री कृष्ण ने 3137 ईसवी पूर्व कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। विशेष जोशी संदर्भ के मुताबिक 35 साल की लड़ाई के बाद वर्ष 3102 ईस वी पूर्व के कलयुग में इसकी शुरुआत हुई थी।5 - श्रीमद्भगवद्गीता पांडव राजकुमार अर्जुन और उसके सारथी बने श्री कृष्ण के बीच का एक महाकाव्य संवाद है।6 - भगवत गीता में कुल 18 अध्याय हैं, जिनमें 700 छंद है। तीन हिस्सों में विभाजित है, जिसमें प्रत्येक हिस्से में 66 अध्याय को लिखा गया है।7 - नंबर 18 महाभारत में कई जगह प्रयोग होता है। दरअसल नंबर 18 का मतलब संस्कृत में जया होता है, जिसका शाब्दिक अर्थ बलिदान से है। भारतीय संस्कृति में इसका बेहद महत्व है। 18 त्यौहार, गीता में 18 अध्याय अक्षौहिणी अर्थात अ_ारह जरासंघ का 18 बार आक्रमण और कहा जाता है कि पांडवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के पास 7 अक्षौहिणी सेना था तो कुल मिलाकर 18 हुए। इस प्रकार गीता के 18 अध्यायों में 18 अंक का भारतीय संस्कृति में बेहद गहरा महत्व हैं।8 - श्रीमद भगवत गीता के श्लोक में मनुष्य जीवन की हर समस्या का हल छिपा है। गीता के 18 अध्याय और 700 गीता श्लोक में कर्म, धर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, सत्य, असत्य आदि जीवन से जुड़े प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं।9 -सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है।10 - यह बात बेहद गौर करने वाली है कि भगवत गीता का सार बेहद कम लोगों को पता होता है। दरअसल कृष्ण वाणी अनुसार धर्म की सभी कस्मों को त्याग कर मुझे और सिर्फ मुझे-अपने आप को आत्मा समर्पित करते है। बहुत कम लोग इस निष्कर्ष को समझ पाते हैं। इसलिए तथ्य बहुत से कम लोगों को ही पता होता है।11 - दरअसल भगवत गीता को गीता क्यों कहा गया है इसके पीछे भी एक उपदेश जुड़ा है। क्योंकि यह एक ऐसे स्केल पर बोला गया जिससे ्रअनुस्कल्प कहा जाता है। यानी प्रत्येक छंद में 32 अक्षर है। मूलत यह चार-चार पंक्तियों में विभाजित है, जिसमें 8 अक्षर है एक विशेष छंद त्रिशत्प स्केल का प्रयोग किया गया है, जिसमें हर प्रकार से हर 4 पंक्तियों में 11-11 अक्षर है।12 - सिर्फ अर्जुन ने ही नहीं बल्कि युद्ध से जुड़े और तीन ने सीधे कृष्ण वाणी में गीता के उपदेश सुने थे। इनमें संजय, हनुमान और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का नाम भी शामिल है।13 - भगवत गीता मूल्य तय शास्त्रीय संस्कृत में लिखा गया है। परंतु इसे अब तक 175 भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है।14 - गीता में योग की दो परिभाषाएं पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें 'समत्वं योग उच्यतेÓ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है 'योग: कर्मसु कौशलमÓ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।15 - गीता के असल मायने में मानसिक शांति, सौभाग्य, मौत से डरना बेकार है, मौत का असल मायने में अर्थ, आत्मा का भौतिक संसार से आध्यात्मिक संसार में जाना, कर्म, भगवान और सत्य के बीच जुड़ाव, साथ ही एक प्राणी का दूसरी प्राणी के प्रति भावनाओं का जुड़ाव इन सब के बारे में जानकारी दी गई है।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 138
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 3 के दोहा संख्या 15 से आगे)
समदर्शिनी बनि रहें उर श्यामा।जो जैसा करे वैसा फल पाये बामा।।16।।
अर्थ ::: सभी के हृदय में समदर्शिनी बनकर श्रीराधा निवास करती हैं। अपने अपने कर्मानुसार जीव सुख-दुःख प्राप्त करता है।
पूर्व जन्म कर्म नाहिं जाने कोउ बामा।जाने और बिना कहे फल देवें श्यामा।।17।।
अर्थ ::: पूर्व जन्मों के कर्मों को कोई भी नहीं जानता। श्रीराधा जानती हैं एवं बिना कहे ही फल प्रदान करती हैं।
जो मन बुद्धि दै के भजे आठु यामा।वाकी सँभार करें शिशु जनु श्यामा।।18।।
अर्थ ::: जो जीव मन-बुद्धि का समर्पण कर निरंतर श्रीराधा का स्मरण करता है उसका योगक्षेम वह उसी प्रकार वहन करती है जिस प्रकार नवजात शिशु की देखभाल माँ करती है।
भक्तों का योगक्षेम वहन करें श्यामा।पतितों का पाप लिखें बैठि उर धामा।।19।।
अर्थ ::: स्वामिनी श्रीराधा भक्तों के हृदय में बैठकर उनका योगक्षेम (जो प्राप्त है उसकी रक्षा एवं अप्राप्त को देना) वहन करती हैं किंतु पापियों के हृदय में बैठकर उनके पाप-कर्मों का हिसाब लिखती हैं।
सब तजि जोइ भज श्याम अरु श्यामा।श्यामा श्याम भी भजें वाको आठु यामा।।20।।
अर्थ ::: जो समस्त आश्रयों का त्यागकर अनन्य भाव से एकमात्र श्यामा-श्याम का ही आश्रय ग्रहण कर उनका निरंतर स्मरण करता है, श्यामा श्याम भी निरंतर उसका स्मरण करते हैं।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 137
(किस प्रकार की साधना से लाभ होगा, किससे नहीं, आइये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के इस प्रवचन-अंश से जानें, यह अंश उनके द्वारा प्रगटित प्रवचन-श्रृंखला 'दिव्य-स्वार्थ' से लिया गया है, जो उन्होंने 8-प्रवचनों में सन 1992 में दी थी, यह अंश 5-वें प्रवचन का है, जो उन्होंने 28 जनवरी 1992 में दी थी।)
...गौरांग महाप्रभु ने दो प्रकार की साधना बताया है। एक अनासंग साधना, एक सासंग साधना। तो अनासंग साधना माने आसंग रहित और सासंग साधना माने आसंग सहित और आसंग माने मन का चिन्तन भगवान का हो। मन का संग भगवान के रूपध्यान में हो, वो साधना सासंग साधना है।
अनासंग साधना के लिये उन्होंने कहा, करोड़ों कल्प किये जाओ इससे कुछ नहीं मिलेगा। अब ये अलग बात है कि कोई कहे साहब नथिंग से समथिंग अच्छा है, ठीक है, गधा-गधा कहने से राम-राम कहना अच्छा ही है, लेकिन यह साधना नहीं है। फिर आप जब बहुत दिन हो जाते हैं, तो कहते हैं, महाराज जी! हमको तो बहुत दिन हो गये कुछ लड्डू -पेड़ा मिला नहीं। जब साधना ही गलत हो रही है, तो माइलस्टोन तुम्हें कहाँ मिल जायेगा कि हम दस मील चले आये, बीस मील चले आये, अरे मार्ग से आगे बढ़ो। तुम तो एक ही जगह पर खड़े-खड़े मार्चिंग कर रहे हो।
तो सासंग साधना यानी स्मरण भक्ति सबसे प्रमुख है, और स्मरण भक्ति कहीं भी किसी भी पोजिशन में सदा की जा सकती है, ये भी रियायत दे दिया भगवान ने। लैट्रिन में बैठे हैं दस मिनिट बैठना है उसमें, रूपध्यान करो। फालतू टाइम न खराब करो। कहीं भी जाओ, ट्रेन में बैठे हैं, सफर कर रहे हैं, बारह घंटे ट्रेन में चलना है। हाँ यहाँ से वहाँ पहुँचने तक बीच में कोई काम खास है। अरे एक जगह चाय पीना है। कब? दो घंटे बाद पीयेंगे, अच्छा! अब दो घंटे तो कोई काम नहीं? नहीं। स्मरण करो। आँख खोलकर स्मरण करो, नहीं तुम्हारा सामान उठा ले जाय, कोई और कहो कृपालु ने कहा है, आँख बंद करके रूपध्यान करो। हाँ, यानी तुम्हारे मस्तिष्क में पहले यह खूब भरना चाहिये कि स्मरण भक्ति ही वास्तविक भक्ति है।
स्मरण भक्ति के बिना कोई भी साधना, साधना कैसे कहलायेगी, साधना का मतलब, हम दास वो स्वामी। जब स्वामी ही नहीं आया हमारे अंत:करण में, तो हम भक्ति कहाँ कर रहे हैं? किसकी कर रहे हैं?
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'दिव्य-स्वार्थ' प्रवचन-श्रृंखला00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 136
(स्वरचित पद 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' की व्याख्या का अंश, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने यह व्याख्या सन 1981 में 10-प्रवचनों में की थी...)
गौरांग महाप्रभु ने पहला शब्द यही लिखा है;
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक - 3)
...अगर किसी को ईश्वर की कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो। है क्या? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम? और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्यों जी ऐ नीम के पेड़! तुम डि. लिट्. प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में?
हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो, दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्धविश्वासी नहीं हैं, डि. लिट्. हैं। अब क्या हाल है, नीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। श्यामसुन्दर के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।
एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। वह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे (भगवत्प्रेम/स्मृति का नशा) में तो चलते ही हैं, इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से नैचुरेलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रक्खा था मक्कारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे।
अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे, फील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे, अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं;
कर्मावलम्बका: केचित् केचित् ज्ञानावलम्बका:।
कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और,
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।
और हम तो भगवान के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता, सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा, हम क्यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है;
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।
यह दीनता है, यह आदर्श है, ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो, ऐसे बनना पड़ेगा।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' स्वरचित पद की व्याख्या00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 135
प्रश्न ::: महाराज जी! आमदनी का कितना परसेन्ट दान करना चाहिये?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर :::
परसेन्ट का सवाल नहीं है।
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।(भागवत 7-14-8)
वेदव्यास ने कहा है कि जितने पैसे से तुम्हारा शरीर चल जाये। चल जाये। 'भ्रियेत' पेट भर जाये 'तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्', ये भगवान की सृष्टि है, भगवान का संसार है। अगर जैसे बैंक में किसी को बना दिया गया कोषाध्यक्ष तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो रुपया लेकर चला जाये अपने घर। उसका रुपया कुछ नहीं है। उसको तो पे (वेतन) मिलेगी केवल।
वो रुपया जो है, कैश जो है बैंक का वो तो बाँटने के लिये है जिसका जितना-जितना जमा है, पब्लिक का, उसको दो। उसको छुओ मत। ऐसे ही वेदशास्त्र कहता है कि जितने में तुम्हारे शरीर का, तुम्हारे परिवार के शरीर का पालन हो जाये। इच्छाओं की पूर्ति नहीं, पालन। जैसे एक मकान है। हमने एक अपने रहने के लिये मकान लिया और एक दस अरब का मकान बनाया। हमने एक मामूली कपड़ा पहन लिया हमारा काम चल रहा है शरीर का और एक वो सबसे महँगा वाला कपड़ा लिया। वो इच्छा की बात है। वो इच्छा वाली बात नहीं कह रहा है।
शास्त्र वेद कह रहा है कि जितने में तुम्हारा काम चल जाये। रोटी, दाल, चावल, तरकारी जो कुछ खाने का सामान आवश्यक है शरीर को वो दो, जो कपड़ा पहनना जरूरी है वो कपड़ा पहनो, मकान में रहो। ये जो रोटी, कपड़ा, मकान आदि का विषय है शरीर का, इसके बाद जो भी बचे दान करो। वो तो तुम्हारा नहीं है। मरने के बाद भी नहीं रहेगा। मरने के पहले ही उसको तुम अपना मत मानो, उसको दान करो, तो तुम्हें भगवत्कृपा का जो फल है वो मिलेगा। भगवान के निमित्त करो। उसको किसी सांसारिक स्वार्थ के लिये दान न करो। हम वहाँ दान कर दें तो मिनिस्टर खुश हो जायेगा। तो हमारी आमदनी बढ़ जायेगी। आजकल ये होता है न टाटा, बिरला आदि बड़े बड़े उद्योगपतियों के यहाँ दान बिजनेस हो गया है।
जहाँ तुमसे दान करने की बात करता है कोई महात्मा तो कहते हो कि ये तो पैसे के लोभी हैं, तुरन्त खोपड़ी में आप लोगों के आता है ये। अरे वो पैसे के लोभी नहीं हैं। तुमसे पैसे की जो आसक्ति है तुम्हारी वो निकलवाना चाहते हैं, कृपा है उनकी। जब कोई फोड़ा हो जाता है बच्चे को तो माँ डॉक्टर के पास ले जाती है, जोर से पकड़ती है उसके हाथ को, पैर को, हाँ डॉक्टर साहब चीर दो। वो चिल्लाता है कैसी माँ है ये, मारता है छोटा बच्चा माँ को। वो कहती है मार ले कुछ कर ले, गाली दे ले, लेकिन मैं तेरे इस रोग को समाप्त करवाऊंगी।
तो महात्मा लोग भी सब सह लेते हैं, इनके दुर्वचन, इनकी दुर्भावनायें, लेकिन पीछे लगे रहते हैं। अरे कुछ तो करेगा, चलो नथिंग से समथिंग अच्छा है। ये सब दान नहीं करेगा, थोड़ा तो करेगा। कुछ तो कल्याण हो। इतना तो हो जाय कि फिर ये मानव देह मिले।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'द द द' पुस्तक (दान-विज्ञान पर आधारित)00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हिंदू धर्म में हर छोटे-बड़े आयोजन या फिर कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से मुहूर्त देखा जाता है। शुभ मुहूर्त के बिना किसी भी तरह का आयोजन नहीं रखा जाता। ऐसे में हिंदू धर्म में मुहूर्त का खास महत्व है। लोग शादी-ब्याह, नौकरी, विदेश यात्रा से लेकर कुछ नया खरीदने और पुराना बेचने तक के लिए खास मुहूर्त निकलवाते हैं। दरअसल, इसके पीछे सोच है कि हर काम करने का एक खास समय होता है और अच्छे मुहूर्त में उसे करने से कार्य सफल होता है।क्या होता है ब्रह्म मुहूर्तज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि दिन के 24 घंटों में कुल 30 मुहूर्त होते हैं। इनमें से सूर्योदय से पहले के दो मुहूर्त खास होते हैं। इनमें से एक विष्णु मुहूर्त होता है तो दूसरा ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। ज्योतिष शास्त्र में इसका महत्व बहुत महत्व बताया गया है।ब्रह्म मुहूर्त कब होता है?दिन-रात के 30वें भाग को ब्रह्म मुहूर्त कह जाता है यानी 2 घंटा या 48 मिनट का कालखंड मुहूर्त होता है। माना जाता है कि रात्रि के अंतिम प्रहर के तुरंत बाद के वक्त को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। यानी सुबह के 4.24 बजे से 5.12 के बीच का समय ब्रह्म मुहूर्त माना जाता है।ज्योतिष शास्त्र में ब्रह्म मुहूर्त का महत्वज्योतिष शास्त्र के मुताबिक, इस मुहूर्त में उठने वालों की अच्छी बुद्धि, बल, सौंदर्य और स्वास्थ्य का लाभ होता है। वातावरण में इस मुहूर्त में ऑक्सीजन का लेवल सबसे अच्छा होता है, ऐसे में अगर कोई इस समय उठकर व्यायाम करें तो उसके शरीर को शुद्ध ऑक्सीजन का फायदा पहुंचेगा। इसके फलस्वरूप फेफड़ों की शक्ति में इजाफा होता है। इससे रक्त शुद्ध होने जैसे कई फायदे मिलते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने भी इस वक्त को उठने के लिए सबसे अच्छा बताया है। शास्त्रों में भी इस वक्त को नींद से उठने के लिए उत्तम बताया गया है।ब्रह्म मुहूर्त में करने चाहिए ये कामब्रह्म मुहूर्त में कुछ कार्यों को करने के लिए विशेष सलाह दी जाती है। इससे कई तरह के लाभ होते हैं। लाभ जानने से पहले जानते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त में क्या करना चाहिए-संध्या वंदन, प्रार्थना, ध्यान, और अध्ययन।इस प्रहर में वैदिक रीति से की गई संध्या वंदन सबसे उचित मानी जाती है। इसके बाद ध्यान करें और फिर प्रार्थना। जबकि विद्यार्थी वर्ग को इस बेला में संध्या वंदन के बाद अध्ययन करना चाहिए। हर दृष्टि से इस समय को अध्ययन यानि पढ़ाई-लिखाई के लिए सबसे उत्तम माना जाता है।ब्रह्म मुहूर्त में नहीं करने चाहिए ये कामवैसे तो कई कामों के लिए ब्रह्म मुहूर्त की बेला सबसे अच्छी है, लेकिन फिर कुछ कार्यों को इस मुहूर्त में बिल्कुल नहीं करना चाहिए।कहा जाता है कि इस समय मन में किसी प्रकार के नकारात्मक विचार नहीं लाने चाहिए। इसके अलावा बहस, वार्तालाप, संभोग, नींद, भोजन, यात्रा, किसी भी प्रकार का शोर जैसे कार्यों को भी इस मुहूर्त में करने से बचना चाहिए।कई लोग इस पहर में जोर-जोर से आरती और पूजन-पाठ की विधि करते हैं। कुछ हवन भी करते हैं, लेकिन ज्योतिषशास्त्र में इसे अनुचित ठहराया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा करने से अपने साथ-साथ दूसरों को संकट में डाल देंगे। सिख धर्म में इसे अमृत वेला माना गया है। कहा जाता है कि ईश्वर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है।ब्रह्म मुहूर्त में उठना वैज्ञानिक दृष्टि से लाभकारीब्रह्म मुहूर्त में उठना वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है। दिनभर हर काम के लिए ऊर्जा और फूर्ति बनी रहती है। इससे शांत और तन पवित्र होता है।ब्रह्म मुहूर्त में 41 फीसदी ऑक्सीजन होती है वातावरण मेंवैज्ञानिक शोधों में दावा किया जाता है कि ब्रह्म मुहुर्त में वातावरण प्रदूषण रहित होता है। इसी समय हवा में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक होती है। कहा जाता है कि ब्रह्म मुहूर्त की बेला में हवा में 41 प्रतिशत ऑक्सीजन होता है। यह फेफड़ों की शुद्धि के लिए काफी लाभदायक है। यही नहीं, शुद्ध हवा जब शरीर के अंदर जाती है तो मन, मस्तिष्क सब स्वस्थ रहते हैं।आयुर्वेद में ब्रह्म मुहूर्त बहुत लाभकारीआयुर्वेद में ब्रह्म मुहूर्त को लाभकारी बताया गया है। इसमें जिक्र मिलता है कि इस अवधि में उठकर व्यायम करने से शरीर में संजीवनी शक्ति का प्रवाह होता है। इस समय बहने वाली हवा को अमृत समान माना जाता है।आर्थिक दृष्टि से ब्रह्म मुहूर्त के फायदेआर्थिक दृष्टि से भी ब्रह्म मुहूर्त का विशेष लाभ है। इस समय उठने वाले विद्यार्थी परीक्षा में सफल होते हैं और अपने अच्छे भविष्य का निर्माण करते हैं। वहीं, बिजनेसमैन को भी अच्छी कमाई का फायदा हो सकता है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 134
('नाम-महिमा' के सम्बन्ध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन का एक अंश...)
...कुछ काम ऐसे हैं जो श्यामसुन्दर नहीं कर सकते और नाम (भगवन्नाम) कर देगा, इसलिये कई स्थानों पर नाम का अधिक महत्व है। यानी नाम को भगवान से बड़ा बताया गया है;
ब्रह्म राम ते नाम बड़ वरदायक वरदानि।
ब्रह्म राम से नाम बड़ा है।
राम भालु कपि कटक बटोरा।सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरा।।नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।करहु विचार सुजन मन माहीं।।
अर्थात एक छोटे से पुल के बनाने में कितना बड़ा परिश्रम किया राम ने और कितनी बड़ी गुलामी की वानरी सेना की, खुशामद की। खुशामद से काम नहीं चला तो डराया लक्ष्मण जी से जाकर सुग्रीव को - ऐ! कहाँ है? अपने राज्य में हूँ और कहाँ हूँ? अरे, कुछ होश है, ये राज्य किसने दिलाया है? उठाऊँ बाण? लगाऊँ धनुष में? होश में ला दूँ? उसने कहा - हाँ महाराज! वो ठीक है, ठीक है, याद आ गया। वो आप भगवान राम की बात कर रहे हैं, मैं तो भूल ही गया था।
संसार के वैभव में बड़े बड़े भूल जाते हैं, सुग्रीव सरीखे एकमात्र सखा;
न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमा:।मद्विधा वा पितु: पुत्रा: सुहृदो वा भवद्विधा:।।
भगवान राम जिन सुग्रीव के लिये कहते हैं, सुग्रीव! तुम्हारे समान विश्व में न कोई मित्र हुआ, न होगा, चैलेन्ज है। वो सुग्रीव भूल गया जो एक्जाम्पिल माना गया। राम ने अपने श्रीमुख से कहा है, किसी और की बात नहीं है कि भई, जरा बढ़ा के बोल दिया ह्यो, अपने दोस्त के लिये। मेरे समान कोई बेटा नहीं हो सकता, राम ने कहा, और भरत के समान कोई भाई नहीं हो सकता, सुग्रीव के समान कोई मित्र नहीं हो सकता। ये सब एक्जाम्पिल हैं, उदाहरण हैं अद्वितीय। इसका कोई दूसरा ऐसा उदाहरण नहीं हो सकता कि हाँ साहब, सुग्रीव के समान एक दोस्त और हुआ है। श्रीकृष्ण का अर्जुन सखा हुआ है। अरे, क्या अर्जुन होगा? वो सुग्रीव, इतने बड़े मित्र को भूल गया।
नहिं कोउ अस जनमा जग माँहिं।प्रभुता पाहि जाहि मद नाँहिं।।श्री मद वक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि।।
तो देखो! राम ने एक छोटे से पुल बनाने में सुग्रीव की खुशामद की, तमाम वानरी सेना लिया। अगर नल-नील को ये वरदान न होता कि पत्थर तैरने लगें पानी में तो एक और प्रॉब्लम खड़ी होती कि सारी फौज खड़ी है, राम भी खड़े हैं, पुल कैसे बने? समुद्र में पुल बाँधना कोई खिलवाड़ थोड़े ही है। कोई नदी थोड़े ही है कि पुल बाँध दो। आज के वैज्ञानिक युग में भी समुद्र में पुल नहीं बन पाया तो त्रेतायुग में समुद्र में पुल कैसे बनता? इतनी सारी सहायता ले करके छोटा-सा एक पुल बनाया और देखो भगवन्नाम का कमाल;
जासु नाम सुमिरत इक बारा।उतरहिं नर भव सिन्धु अपारा।।नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।करहु विचार सुजन मन माहीं।।
नाम भवसागर से पार करा देता है। विचार करो! राम और उनके नाम में क्या अन्तर है?
तो भगवन्नाम भगवान से बड़ा है, ये बात सभी एक स्वर से बोलते हैं। चाहे भागवत पढ़ लो, चाहे जो ग्रन्थ पढ़ लो, सबमें एक-सी बात है। नाम बड़ा है, श्यामसुन्दर छोटे हैं। लेकिन सभी नाम के प्रेमी अंत में श्यामसुन्दर को प्राप्त करते हैं, श्यामसुन्दर से उनका पहले कोई मतलब नहीं है, जो भी मतलब है उनके नाम से है, सीधी-सी बात।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'नाम-महिमा' प्रवचन पुस्तक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।