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- हमारे जीवन में पेड़े-पौधे अहम हिस्सा निभाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें या फिर धार्मिक या फिर वास्तु शास्त्र की नजर से, ये पेड़ पौधे हमारे लिए लाभकारी ही साबित होते हैं। यूं तो पैसे कमाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, मगर कई बार ऐसा होता है कि ऐसा करने के बावजूद घर में तंगहाली ही बनी रहती है। इसके लिए कई वास्तु उपाय हैं। आज हम जानते हैं, ऐसे पांच पौधों के बारे में, जिनके बारे में कहा जाता है कि यह जातक की आर्थिक स्थिति को संबल प्रदान करते हैं।दरअसल वास्तु में कुछ ऐसे पेड़-पौधों के बारे में बताया गया है , जिन्हें घर में लगाना पेड़ों में पैसा उगाने जैसा माना जाता है। जी हां वास्तु में इन पेड़-पौधों को धन और समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है। आइए आज हम आपको बता रहे हैं ऐसे 5 पेड़-पौधे जो आपके घर में कभी भी आर्थिक तंगी नहीं लाने देंगे।मनीप्लांटमनी प्लांट को काफी समय से लोगों के पसंदीदा पौधे के रूप में देखा जाता है। इसकी बेल देखने में भी बेहद खूबसूरत लगती है और साथ ही यह वातावरण को भी शुद्ध करने का काम करता है। मनीप्लांट को आग्नेय कोण में लगाना उचित माना गया है और इस दिशा में यह खूब फलता और फूलता भी है। माना जाता है कि मनी प्लांट को घर में लगाने से घर में कभी पैसों की कमी नहीं होती और पैसों की वजह से आपका कोई काम नहीं रुकता।शमी का पेड़शमी के पेड़ को वास्तु के लिहाज से बेहद खास माना जाता है। शमी का पेड़ शंकरजी को सबसे प्रिय माना जाता है। मान्यता है कि शमी के पेड़ को घर में लगाने से सारी दरिद्रता दूर होती है। कहा जाता है कि सोमवार को शमी के पुष्प और पत्ते शिवजी को चढ़ाने से घर में सुख समृद्धि आती है। इसे भी पैसों का पेड़ कहा जाता है कि क्योंकि यह घर की गरीबी को दूर कर देता है।मनी ट्रीवास्तु में मनी ट्री नाम से एक पौधा आजकल काफी लोकप्रिय हो रहा है। इसकी उत्पत्ति अमेरिका की है और इसे मनी ट्री के नाम से जाना जाता है। चाइनीज फेंगशुई और वास्तु में इस पौधे को बेहद ही खास माना जाता है। आजकल यह कुछ चुनिंदा नर्सरी में या फिर ऑनलाइन यह आपको आसानी से उपलब्ध हो सकता है। इस पौधे को ही क्रासुला कहते हैं और यह एक फैलावदार पौधा है, जिसकी पत्तियां चौड़ी होती हैं, मगर हाथ लगाने से मखमली अहसास होता है। इस पौधे की पत्तियों का रंग ना तो पूरी तरह से हरा होता है और न ही पूरी तरह से पीला। यह दोनों रंगों से मिश्रित होती हैं। मगर अन्य पौधों की पत्तियों की तरह कमजोर नहीं होतीं जो हाथ लगाते ही मुड़ या टूट जाएं। मनी प्लांट की तरह इस पौधे के लिए ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। अगर आप दो-तीन दिन बाद भी पानी देंगे तो यह सूखेगा नहीं। क्रासुला घर के भीतर छांव में भी पनप सकता है। यह पौधा अधिक जगह भी नहीं लेता। आप इसे छोटे से गमले में भी लगा सकते हैं। अब अगर धन प्राप्ति की बात करें तो फेंग शुई के अनुसार क्रासुला अच्छी-ऊर्जा की तरह धन को भी घर की ओर खींचता है। इस पौधे को घर के प्रवेश द्वार के पास ही लगाएं। जहां से प्रवेश द्वार खुलता है, उसके दाहिनी ओर इसे रखें। कुछ ही दिनों में यह पौधा अपना असर दिखाना शुरू कर देगा। घर में हर तरह की सुख-शांति भी बरकरार रहेगी।अश्वगंधावास्तु में अश्वगंधा के पौधे को बेहद समृद्धशाली माना जाता है। घर में अश्वगंधा का पेड़ लगाने से सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। यह एक औषधि के भी काम आता है और इसके कई प्रकार के लाभ हैं। अश्वगंधा के पुष्प भगवान की पूजा में भी काम आते हैं।श्वेतार्कयह एक दूध वाला पौधा होता है और इसे भी सौभाग्य का सूचक माना जाता है। श्वेतार्क नामक इस पौधे को गणेशजी का प्रतीक माना जाता है। भगवान शंकर को भी इसके फूल अति प्रिय हैं। वास्तु के अनुसार कोई भी सफेद पदार्थ निकलने वाले पौधे को घर में नहीं लगाना चाहिए। बेहतर होगा कि आप इसे घर के अंदर के बजाए बालकनी या फिर बरामदे में लगा सकते हैं। इससे घर में सुख शांति और सदैव बरकत बनी रहती है।
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जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 104
श्रीराधाकृष्ण प्रेम संबंधी साधन सामग्रियों से अलंकृत अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने निम्नांकित पद में मन को संबोधित करते हुये कहा है कि इस मन ने अनादिकाल से आनंदप्राप्ति के अपने लक्ष्य के लिये उन द्वारों को खटखटाया जहाँ आनंद था ही नही। कभी उस दरबार में नहीं गया जहाँ नित्य-निरंतर कृपा की वृष्टि होती रहती है। आइये हम इस पद का आधार लेकर उस कृपामय दरबार का पता जानें तथा उसी के द्वार पर जाकर बिगड़ी बनाने की याचना करें :::::::
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थसिद्धान्त माधुरी, पद - 16
अरे मन ! मू रख निपट गँवार।बिगरत आपु बिगारत मो कहँ, नेकु न करत विचार।कोटि-कल्प भटक्यो ज्यो शूकर, विष्ठा-विषय मझार।बिनु सेवा जहँ पाइय मेवा, गयो न तेहि दरबार।दोउ कर-कमल नर देह सुदुर्लभ, मिलत न बारम्बार।साधन बिनुहि 'कृपालु' द्रवत जो, को अस सरल उदार।।
भावार्थ - अरे मन! तू वास्तव में अत्यन्त ही मूर्ख एवं नासमझ है। तू आप अपना भी नाश कर रहा है, साथ ही मेरा भी नाश कर रहा है। तू इस विषय में थोड़ा सा भी विचार नहीं करता। तुझे सांसारिक विषय-वासना रूपी विष्ठा में शूकर की तरह भटकते हुए करोड़ों कल्प बीत गये, फिर भी कुछ भी न पा सका। जिन किशोरी जी के दरबार में बिना साधन के ही तू सब कुछ पा जाता, उस दरबार में तू हठवश कभी न गया। तुझे वृषभानुनंदिनी अपनी दोनों कोमल भुजाओं को पसारे परख रही हैं। ऐसा अवसर एवं देवदुर्लभ मानव-देह तुझे बार-बार न मिल सकेगा। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि वृषभानुनंदिनी के सिवा ऐसा सरल एवं उदार हृदय वाला और तुझे कौन मिलेगा जो बिना साधन के ही शरणागत को सदा के लिए अपना बना ले।
०० रचयिता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 103
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत 'शरणागति' तत्व पर 2 महत्वपूर्ण प्रवचन अंश ::::::::
(1) संत और भगवान दया के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते। अपनी बुद्धि को संत की बुद्धि में जोड़ दो। बस पूर्ण शरणागति यही है। प्रत्येक अवस्था में दया कौन सी है, यह समझ में नहीं आता। कृपालु संत की कृपा का लाभ वही उठा सकता है जो उनकी कृपा के तत्व को समझता है। संत भी ऐसे मनुष्य को पाप से नहीं बचा सकते जो उनके कथनानुसार नहीं चलता।
(2) भटकना भगवद-शरणागति की आवश्यकता जानने तक ही है। पश्चात शरणागत जीव को अपने गुरु द्वारा बताये गये साधन और सिद्धान्त के सिवा अन्य कुछ भी पढऩा, सुनना एक विघ्न ही है और अनन्यता का विरोधी है क्योंकि शरणागति ही साधना और सिद्धि है। इसलिए शरणागति (समर्पण) मार्ग अन्य मार्गों से विलक्षण और विचित्र सा प्रतीत होता है। यहाँ बुद्धि का उपयोग सिर्फ शरणागति के द्वार तक पहुँचाने तक ही सीमित है। बाद में शरण्य की सत्ता मात्र रहती है।
0 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, मार्च 1998 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से उद्धृत आत्मिक कल्याण के लिये 5 सार बातें :::::::
(1) जीव अगर भगवान की चर्चा तथा उनकी लीला का चिन्तन कर ले तो उसका उद्धार हो जायेगा।
(2) साधनाकाल में, भगवान की इच्छा में इच्छा रखकर जो जीव चलेंगे, वे ही शीघ्रता से आगे बढ़ सकेंगे।
(3) बिना भक्ति के कितना ही बड़ा ज्ञान हो, कैसा ही निष्काम कर्म हो, तो भी अंत:करण शुद्ध नहीं होगा।
(4) जहाँ तक उपासना की बात है, या तो गुरु की भक्ति करो अथवा गुरु और भगवान दोनों को बराबर मानों। केवल भगवान की भक्ति नहीं हो सकती।
(5) जो शरीर को 'मैं' मानते हैं वे शारीरिक सुखों का लक्ष्य बनाते हैं और जो आत्मा को 'मैं' मानते हैं वे आत्मा सम्बन्धी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से उद्धृत)
0 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, जुलाई 2001 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।--- -
00 जगदगुरुत्तम अवतरण विशेष - माँ भगवती महोत्सव
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी का अवतरण 1922 में शरद-पूर्णिमा की महारात्रि में इलाहाबाद के निकट मनगढ़ नामक छोटे से ग्राम में उच्च ब्राम्हण कुल में हुआ। वे इस युग के परमाचार्य हैं, भक्तियोगरसावतार हैं, निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य हैं। एक अलौकिक व्यक्तित्व हैं, अपने शरणागतों के लिये उनका स्थान ऐसा है जैसे श्रीराधाकृष्ण तथा गुरु में कुछ भेद रह ही नहीं गया हो। ऐसी विभूति की जननी होने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त हो, उनके सौभाग्य की क्या तुलना हो सकती है। अखंड सौभाग्यवती माँ भगवती! जिनकी गोद में यह विभूति अवतरित हुई, आइये मन के भावराज्य में जाकर उनके श्रीचरणों में वन्दना के कुछ पुष्प अर्पित करें ::::::
हे भगवती मैया!!जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी की जननी होनेका परमातिपरम सौभाग्य प्राप्त करने वाली हे माता!
आपके चरणारविन्दों की बारम्बार वंदना..
आपकी गोद में शरद-पूर्णिमा की रात्रि में 'कृपा-शक्ति' का अवतरण हुआ है, इस युग के पंचम मूल जगदगुरुत्तम और भक्तियोग रस के अवतार श्री कृपालु महाप्रभु जी की जननी होने का परमातिपरम सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ है। आपके ये लाड़ले सुत (पुत्र) उनके हम शरणागतों के लिये 'शरद-चंद्र' हैं। समस्त जगत आज उनके ज्ञान से आलोकित तथा प्रेम से सराबोर है। आज आपके द्वार पर उनके 'जन्म' का अनोखा महोत्सव दर्शनीय है!!
जैसा आनन्द ब्रम्ह श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव में 'नन्द-महामहोत्सव' में बरसा था, वैसा ही आनंदोल्लास आज आपके आँगन में बरस रहा है। इस 'भगवती-महामहोत्सव' के हम भी साक्षी बनने की याचना करते हैं।
वेद और शास्त्रों ने न जाने कहाँ उन पुण्यों का वर्णन किया है, जिसका सुफल यह होता है कि ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो। लगता तो ऐसा है कि वेदादि श्रुतियाँ भी स्वयं आपके सौभाग्य की स्तुति करती होंगी!! आपने तथा पूजनीय पिता (श्री लालता प्रसाद त्रिपाठी जी) ने अपने 'कृपालु' सुपुत्र का आनंद और मस्ती से भरा बालपन देखा और जीया है।
संस्मरण :::::: एक दिन गाँव के ही एक प्रसिद्ध पंडित श्री नागेश्वर जी आपके (भगवती मैया) पास आये थे। आपने 'कृपालु' की जन्मपत्री उनके सामने रखी और अपने सुपुत्र का भविष्य पूछा। वे बड़ी देर तक गणना करते रहे फिर बोले :
'माँ जी! इसके नक्षत्र तो कहते हैं, यह कोई देव-पुरुष है. संसार का उद्धार करने आया है...'
आज विश्वविदित है कि आपका वह 'लाड़ला' सारे जगत का पूज्यनीय बना और सारे जगत पर अपनी दया, कृपा और प्रेम की वृष्टि की. वह 'जगदगुरुत्तम' कहलाया!!
आपके सुपुत्र सदैव आपके आज्ञाकारी रहे। आपने अपने लाड़-दुलार से सदैव उनका पालन किया है। हे भगवती मैया! हम भी आपके पुत्र-पुत्रियाँ ही तो हैं, हम भी आपका दुलार पाने और आपके 'लाड़ले' की सेवा करने को व्याकुल हैं। हे माँ! हम पर कृपा करो, हमें अपनी चेरी (दासी) बना लो और अपने 'कृपालु' की सेवा करने का सौभाग्य दे दो, हम सदा-सदा आपके ऋणी बने रहेंगे!!
आज आपके द्वार पर हर्षोल्लास है!! बधाईयाँ गाई जा रही हैं। सब एक-दूसरे को 'बधाई हो, बधाई हो' कह-कहकर प्रसन्नता बाँट रहे हैं। क्या स्त्री, क्या पुरुष? आपके दुआर पर तो देवी-देवता भी वंदन कर रहे हैं। ऐसे दुआर पर हम विश्व के प्रेम-पिपासु व्याकुल जीव याचना करते हुये आपको बधाई देने आये हैं। टूटे-फूटे शब्दों में आपकी तथा आपके सुपुत्र की स्तुति गाने का प्रयास करते हुये हे माँ! आपके चरणों पर हम सभी बारम्बार बलिहारी जाते हैं। आपको बहुत सारी बधाई, हमारा हृदय आपके 'कृपालु' की कृपाओं का चिरयुगी ऋणी है, आभारी है, कृतज्ञ है।
उनके द्वारा प्रदत्त, प्रगटित प्रवचन-साहित्यों, स्मृतियों तथा प्रेम, भक्ति तथा कीर्ति मन्दिर जैसे दिव्योपहारों के दर्शन, सँग करते-करते निश्चय ही हम सभी अपने कल्याण के पथ पर अग्रसर करेंगे और उनकी दिव्य सन्निधि का अनुभव कर-करके श्यामा-श्याम की सेवा प्राप्त कर लेंगे।
समस्त विश्व-परिवार को 'माँ भगवती-महोत्सव' की अनंत शुभकामनायें!! - तुलसी के पौधे को हिंदू धर्म में पूजा के लिए बहुत ही ज्यादा पवित्र माना गया है, जो अपने औषधीय गुणों के लिए भी जानी जाती है। । हिंदू पुराणों के अनुसार तुलसी को देवी के रूप में पूजा जाता है साथ ही पूजा-पाठ , अनुष्ठान, व्रत-त्योहार में तुलसी का इस्तेमाल करना बहुत ही ज्यादा शुभ माना जाता है। वैसे तो प्रकृति ने हमें अलग-अलग प्रकार के पौधे और उनकी सुंदरता दी है लेकिन इन सभी के बीच तुलसी के पौधे को सबसे ज्यादा महत्ता दी जाती है। तुलसी का पौधा केवल धार्मिक महत्व नहीं रखता बल्कि यह एक चमत्कारी औषधि भी है। यदि आपके घर में तुलसी का पौधा लगा हुआ है और उसके पास से या उससे होकर आपको जो हवा मिल रही है तो वह आपके स्वास्थ्य के लिए बहुत ही ज्यादा लाभकारी है। तुलसी के पौधे की हवा बहुत ही ज्यादा फायदेमंद होती है।घर में तुलसी का पौधा घर के आंगन में या फिर छत पर लगाकर उस में प्रतिदिन जल चढ़ाना चाहिए। साथ ही शाम के समय तुलसी के पौधे के पास घी का दीपक जलाना मंगलकारी माना जाता है। माना जाता है कि जिस घर में इस तरह से तुलसी की पूजा होती है, वहां सुख समृद्धि का आगमन होना निश्चित है। साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है। भगवान विष्णु को तुलसी बहुत ही ज्यादा प्रिय है। तुलसी को देवी लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है, इसी वजह से भगवान विष्णु को तुलसी से अधिक प्रेम है। जब भी आप भगवान विष्णु की पूजा करें तो उनकी पूजा की सामग्री में तुलसी को अवश्य शामिल करें। भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा तुलसी से करने से व्यक्ति के जीवन में कभी भी धन और सुख की कमी नहीं रहती। साथ ही दांपत्य जीवन भी बहुत ही ज्यादा खुशहाल रहता है।वास्तु शास्त्र के अनुसार तुलसी के पत्ते को एकादशी , रविवार और मंगलवार के दिन बिल्कुल भी नहीं तोडऩा चाहिए यह काफी अशुभ होता है। वास्तु शास्त्र शास्त्र के अनुसार घर में तुलसी का पौधा लगाने से वास्तु संबंधित सभी तरह के दोष दूर हो जाते हैं। उत्तर- पूर्व दिशा को धन के देवता यानी कुबेर की दिशा मानी जाती है। इसीलिए घर की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए या वृद्धि लाने के लिए वास्तु शास्त्र के अनुसार तुलसी के पौधे को उत्तर पूर्व दिशा में लगाना चाहिए या फिर ईशान कोण में । यानी तुलसी के पौधे के लिए उत्तर, उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा का चुनाव करना चाहिए. इससे घर में सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है और नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। बहुत से लोग तुलसी के पौधे को घर के आंगन के सेंटर में रख देते हैं, लेकिन वास्तु के अनुसार तुलसी के पौधे को हमेशा घर के किसी कोने में रखना चाहिए।किस दिन जल न चढ़ाएं?लोग वैसे तो हर दिन तुलसी जी को चल चढ़ाते हैं लेकिन शास्त्रों में माना गया है की रविवार, एकादशी और सूर्य व चंद्र ग्रहण के समय तुलसी को जल नहीं चढ़ाना चाहिए। इसके साथ ही इस दिन तुलसी के पत्तों को भी नहीं तोडऩा चाहिए। रविवार के दिन आप जल की बजाय दूध चढ़ा सकते हैं और साथ ही घी का दीपक जलाएं, ऐसा करने से हमेशा लक्ष्मी जी का वास रहेगा। ध्यान रहे घर पर कभी भी सूखा हुआ तुलसी का पौधा ना लगाएं।वास्तु दोष से छुटकारातुलसी को रसोई के पास लगाने से कई सारे फायदे होते हैं। ऐसा कहते हैं कि इससे पारिवारिक कलह कम होती है। इसके साथ ही घर में वास्तु दोष को दूर करने के लिए तुलसी के पौधे को अग्नि कोण यानि की दक्षिण-पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक के किसी भी खाली जगह पर लगाएं।इन चीजों के लिए लें तुलसी का सहाराअगर आपकी लड़की की शादी में देरी हो रही है तो ऐसे में तुलसी को अग्नि कोण में रखकर अपने बेटी से रोज उसमें जल अर्पण करवाएं, फल जल्द मिलेगी। इसके अलावा अगर बिजनेस सही नहीं चल रहा है तो ऐसे में तुलसी जी को दक्षिण-पश्चिम में रखें और हर शुक्रवार को सुबह कच्चा दूध चढ़ाएं साथ ही मिठाई का भोग लगाएं।तुलसी देती है मुसीबत का संकेततुलसी का पौधा आपको बुरी चीजों से पहले ही सतर्क कर देता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जब भी कोई मुसीबत आने वाली होती है तो तुलसी चली जाती है, क्योंकि दरिद्रता, अशांति या क्लेश के बीच में उनका निवास नहीं होता है। इसलिए तुलसी का पौधा सूखने लगा है, तो उसे विसर्जित कर उसके स्थान पर हराभरा पौधा लगाकर उसकी पूजा करें।----
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का अवतरण-दिवस
समस्त पाठक-समुदाय सहित समस्त विश्व को परमाचार्य भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अवतरण-दिवस की अनंत-अनंत शुभकामनायें, आइये आज उनके माहात्म्य के विषय में कुछ स्मरण करते हुये अपने मन की पावन भावनाओं को उनके श्रीचरणों में अर्पित करते हुये उनसे कृपा की याचना करें कि वे अपने ज्ञान, अपनेपन, प्रेम की छाया हम पर रखें, जिससे अज्ञान के अंधकार से निकलकर हम भगवत्प्रेम तथा रस के समुद्र में अवगाहन के अधिकारी बन सकें। आप सभी पाठकों के साथ उनके दिव्य सिद्धान्तों को साझा करते हुये आज यह श्री कृपालु महाप्रभु जी सम्बन्धी 100-वाँ शीर्षक भी है। हरि-गुरु इच्छा-पर्यन्त आप सबकी इसी तरह सेवा करने के संकल्प सहित आप सबके प्रति शुभेच्छा.......
...शरद-पूर्णिमा की मध्यरात्रि..जिनका पावन अवतरण-दिवस है!!
'शरद पूर्णिमा 7 7 जगदगुरुत्तम जयंती'
अलौकिक विभूति :::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज!!!
...1922 की शरद-पूर्णिमा की मध्यरात्रि में उत्तर-प्रदेश में इलाहाबाद के निकट 'मनगढ़' नामक छोटे से ग्राम में माँ भगवती की गोद में प्राकट्य, वही रात्रि, जब श्रीराधारानी की अनुकंपा से श्रीकृष्ण ने अनंतानंत गोपियों को महारास का रस प्रदान किया था। यही 'मनगढ़' आज 'भक्तिधाम' के नाम से सुविख्यात है!
...बाल्यावस्था से अलौकिक गुणों से सम्पन्न, चित्रकूट के सती अनुसुइया आश्रम तथा शरभंग आश्रमों के बीहड़ जंगलों में परमहंस अवस्था में वास। निरंतर 'हा राधे!' 'हा कृष्ण' का क्रंदन एवं प्रेमोन्मत्त विचित्र अवस्था। चित्रकूट; जो आपके विद्यार्थी, साधक, सिद्ध अवस्था तीनों की साक्षी और 'जगदगुरुत्तम' बनने की भी आधार बनी।
...परमहंस अवस्था से सामान्यावस्था में आकर जीव-कल्याण के लिये 'श्रीराधाकृष्ण भक्ति' का प्रचार प्रारंभ किया और अपने भीतर छिपे ज्ञान के अगाध भंडार को प्रगट किया।
...1957 में 34 वर्ष की आयु में भारतवर्ष की 500 मूर्धन्य विद्वानों की सर्वमान्य सभा 'काशी विद्वत परिषत' द्वारा 'पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम' की उपाधि से विभूषित हुये। आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य एवं माध्वाचार्य जी के बाद पंचम मौलिक जगद्गुरु हुये।
...श्रीराधाकृष्ण प्रेम के जो स्वयं ही मूर्तिमान स्वरुप हैं, दिव्य महाभावधारी; आपके विलक्षण प्रेमोन्मत्त स्वरुप जिन्हें स्वयं ही 'भक्तियोगरसावतार' सिद्ध करता है। श्री गौरांग महाप्रभु द्वारा प्रचारित संकीर्तन पद्धति का अपूर्व विस्तार करते हुये जिन्होंने समस्त प्रेमपिपासुओं को 'राधाकृष्ण' के मधुर नाम, धाम, गुण एवं लीला के संकीर्तनों एवं पदों के रस में सराबोर कर दिया।
...ज्ञान का ऐसा अगाध समुद्र जिसमें कोई जितना अवगाहन करे, पर थाह नहीं पा सकता। बिना खंडन के जिन्होंने समस्त शास्त्रों एवं अन्यान्य धर्मग्रंथों के सिद्धांतों का समन्वय कर दिया और अंधविश्वासों एवं कुरुतियों का उन्मूलन/सुधार किया। आप समस्त विद्वानों द्वारा 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' के रुप में सुशोभित हुये। और आपके लिये संत-समाज ने कहा है 'न भूतो न भविष्यति!!'
...समस्त विश्व को जिसने श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च माधुर्यमयी ब्रजरस अर्थात गोपीप्रेम का रस प्रदान किया, जिन्होंने उस रस की प्राप्ति का सरल, सुगम एवं अत्यंत व्यवहारिक सिद्धान्त दिया। समस्त साधनाओं के प्राण 'ध्यान' को जिन्होंने 'रुपध्यान' नाम देकर अधिक सुस्पष्ट किया। और अपने आचरणों से स्वयं भक्ति साधना का मार्गदर्शन किया। इस महादान में क्या जाति-पाति, क्या देश-धर्म, क्या छोटे-बड़े - सब ही भागी बने हैं।
...जिनके कोई गुरु नहीं, फिर भी स्वयं जगदगुरुत्तम हैं। जिन्होंने कभी कोई शिष्य नहीं बनाया परन्तु जिनके लाखों करोड़ों अनुयायी हैं। सुमधुर 'राधा' नाम को विश्वव्यापी बनाया और पहले ऐसे जगद्गुरु जो विदेशों में भक्ति के प्रचारार्थ गये।
...अपने शरणागत जीवों के सँग जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से सदैव सँग हैं और अबोध जानकर जो हमेशा सुधार की 'महान आशा' लिये अपराधों पर निरंतर क्षमादान देते रहे हैं। पल भर को जिनका विछोह कभी अनुभूत नहीं हुआ। आज भी उनकी शरण आने वालों को उनके नित्य सँग की अनुभूति सहज है।
...समस्त विश्व पर जिनका अनंत उपकार है। वृन्दावन का 'प्रेम मंदिर', बरसाना का 'कीर्ति मैया मंदिर' और भक्तिधाम मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर'; इसके अलावा इन्हीं तीनों धामों में 'प्रेम भवन', 'भक्ति भवन' एवं 'रँगीली महल' के साधना हॉल जिनकी कीर्ति और उपकार का चिरयुगीन यशोगान करेंगे और अनंतानंत प्रेमपिपासु जीवों को भक्तिरस का पान कराते रहेंगे। उनके द्वारा रचित एवं प्रगटित ब्रजरस साहित्य एवं प्रवचन हृदयों में भगवत्प्रेम की सृष्टि करते रहेंगे।
........और अधिक क्या कहें? संत के उपकार कहने का सामथ्र्य किस वाणी में है? स्वयं भगवान तक तो असमर्थ हैं, फिर कोई जीव क्या गिनावे? सत्य तो यही है कि 'जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु' न केवल नाम से अपितु अपने रोम-रोम से 'कृपालु' रहे, हैं और रहेंगे!
वही श्री गौरांग महाप्रभु, वही श्री कृपालु महाप्रभु!! यह भी कहना अतिश्योक्ति न होगी। कह सकते हैं;
...अद्यापिह सेइ लीला करे गौर राय,.....कोन कोन भाग्यवान देखिवारे पाय..
'शरद-पूर्णिमा' (30 अक्टूबर) उनका अवतरण दिवस है। जिन्होंने भी उनकी शरण ग्रहण की है, वे अपने ऊपर उड़ेले गये उनके प्रेम, कृपा, अपनेपन, सान्निध्य और मार्गदर्शन के साक्षी हैं। फिर वे तो समस्त विश्व के गुरु हैं। समस्त विश्व इतना ही तो कर सकता है कि 'उनके द्वारा दिये गये सिद्धान्त को आत्मसात कर ले और उनकी बताई साधना द्वारा भगवत्प्रेम बढ़ाते हुये अंत:करण शुद्ध करके अपने प्राणाराध्य राधाकृष्ण के प्रेम और सेवा को पाकर धन्य हो जाय'....
....यही देने और दिलाने तो वे आये, हम वह प्राप्त कर लें, अथवा प्राप्त करने के लिये तैयार हो जायँ, व्याकुल हो जायँ तो उनको कितनी ही प्रसन्नता होगी!! आओ, शरद-पूर्णिमा पर क्रंदन करें, उनकी कृपाओं के लिये, उनके परिश्रम के लिये, उनके क्षमादान के लिये.. उनकी सेवा, सँग और मार्गदर्शन पाने के लिये।
हे जगदगुरुत्तम!! अनंतानंत हृदयों में आप सदैव विराजमान हो। आपकी सन्निधि प्राप्त कर यह धरा अत्यन्त पावनी बन गई है. आपको कोटिश: प्रणाम!!!
000 शुभकामनाएं :::: जगद्गुरु कृपालु परिषत, छत्तीसगढ़ राज्य। - 30 अक्तूबर शुक्रवार को शरद पूर्णिमा है। हिंदू धर्म में हर महीने आने वाली पूर्णिमा का विशेष महत्व होता है। इन सभी में शरद पूर्णिमा का स्थान सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से परिपूर्ण होता है और अपनी किरणों से अमृत की बूंदे पृथ्वी पर गिराते हैं। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को खुले आसमान के नीचे चावल की खीर रखे जाने की परंपरा है, ताकि आसमान से बरसता अमृत उस पर गिरे और इसका लाभ आम इंसान भी उठा सकें। शरद पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की तिथि पर चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक रहता है और रात को चंद्रमा की किरणों में औषधीय गुण की मात्रा सबसे ज्यादा होती है जो मनुष्य को तरह बीमारियों से छुटकारा पाने में मदद होती है।भगवान श्रीकृष्ण ने रचाया था महारासऐसी मान्यता है कि भगवान कृष्ण शरद पूर्णिमा की तिथि पर ही वृंदावन में सभी गोपियों संग महारास रचाया था। इस वजह भी शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। शरद पूर्णिमा के दिन मथुरा और वृंदावन सहित देश के कई कृष्ण मंदिरों में विशेष आयोजन किए जाते हैं। रासोत्सव का यह दिन वास्तव में भगवान कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए निर्धारित किया है, क्योंकि कहा जाता है इस रात्रि को चंद्रमा की किरणों से सुधा झरती है। इस दिन श्रीकृष्ण को 'कार्तिक स्नान' करते समय स्वयं (कृष्ण) को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को चीर हरण के अवसर पर दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरली वादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था। इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा-पूजन किया जाता है।देवी लक्ष्मी की भी होती है आराधनावहीं ये भी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात को देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं और घर-घर जाकर यह देखती हैं कि कौन रात को जग रहा है। इस कारण इसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहते हैं। कोजागरी का अर्थ होता है कि कौन-कौन जाग रहा है। मान्यता है कि इसी दिन देवी लक्ष्मी घर-घर जाकर भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। शरद पूर्णिमा पर रात भर जागकर माता लक्ष्मी की स्तुति की जाती है। शरद पूर्णिमा पर माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के उपाय किए जाते हैं। भक्त देवी लक्ष्मी का प्रिय भोग और वस्तुएं अर्पित करते हैं। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार शरद पूर्णिमा पर देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए कमल गट्टे की माला से इस मंत्र का जाप करना चाहिए। मंत्र- ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्मयै नम:। शास्त्रों में शरद पूर्णिमा को कोजागर व्रत यानी कौन जाग रहा है व्रत भी कहते हैं। कहा जाता है कि इस दिन की लक्ष्मी पूजा सभी कर्जों से मुक्ति दिलाती हैं इसीलिए इसे कर्जमुक्ति पूर्णिमा भी इसी लिए कहते हैं। इस रात्रि को श्रीसूक्त का पाठ,कनकधारा स्तोत्र ,विष्णु सहस्त्र नाम का जाप करना चाहिए। ज्योतिषियों के मुताबिक इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने और पूर्णिमा का व्रत रखने से योग्य वर-वधु के अलावा संतान प्राप्ति की कामना भी पूरी होती है।पवित्र कार्तिक स्नान का होगा प्रारंभकार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारम्भ होता है। विवाह होने के बाद पूर्णिमा (पूर्णमासी) के व्रत का नियम शरद पूर्णिमा से लेना चाहिए।शरद पूर्णिमा पर क्या करेंइस दिन प्रात: काल स्नान करके आराध्य देव को सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन, आसान, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए। रात्रि के समय गौदुग्ध (गाय के दूध) से बनी खीर में घी तथा चीनी मिलाकर अद्र्धरात्रि के समय भगवान को अर्पण (भोग लगाना) करना चाहिए। पूर्ण चंद्रमा के आकाश के मध्य स्थित होने पर उनका पूजन करें तथा खीर का नैवेद्य अर्पण करके, रात को खीर से भरा बर्तन खुली चांदनी में रखकर दूसरे दिन उसका भोजन करें तथा सबको उसका प्रसाद दें। पूर्णिमा का व्रत करके कथा सुननी चाहिए। कथा सुनने से पहले एक लोटे में जल तथा गिलास में गेहूं, पत्ते के दोनों में रोली तथा चावल रखकर कलश की वंदना करके दक्षिणा चढ़ाएँ। फिर तिलक करने के बाद गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें। फिर गेहूं के गिलास पर हाथ फेरकर मिश्राणी के पांव स्पर्श करके गेहूं का गिलास उन्हें दे दें। लोटे के जल का रात को चंद्रमा को अध्र्य दें।शरद पूर्णिमा की कथाएक साहूकार की दो पुत्रियां थीं। वे दोनों पूर्णमासी का व्रत करती थीं। बड़ी बहन तो पूरा व्रत करती थी पर छोटी बहन अधूरा। छोटी बहन के जो भी संतान होती, वह जन्म लेते ही मर जाती। परन्तु बड़ी बहन की सारी संतानें जीवित रहतीं। एक दिन छोटी बहन ने बड़े-बड़े पण्डितों को बुलाकर अपना दु:ख बताया तथा उनसे कारण पूछा। पण्डितों ने बताया- 'तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती हो, इसीलिए तुम्हारी संतानों की अकाल मृत्यु हो जाती है। पूर्णिमा का विधिपूर्वक पूर्ण व्रत करने से तुम्हारी संतानें जीवित रहेंगी।' तब उसने पण्डितों की आज्ञा मानकर विधि-विधान से पूर्णमासी का व्रत किया। कुछ समय बाद उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन वह भी शीघ्र ही मर गया। तब उसने लड़के को पीढ़े पर लेटाकर उसके ऊपर कपड़ा ढंक दिया। फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और उसे वही पीढ़ा बैठने को दे दिया। जब बड़ी बहन बैठने लगी तो उसके वस्त्र बच्चे से छूते ही लड़का जीवित होकर रोने लगा। तब क्रोधित होकर बड़ी बहन बोली- 'तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। यदि मैं बैठ जाती तो लड़का मर जाता।' तब छोटी बहन बोली- 'यह तो पहले से ही मरा हुआ था। तेरे भाग्य से जीवित हुआ है। हम दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती हैं तू पूरा करती है और मैं अधूरा, जिसके दोष से मेरी संतानें मर जाती हैं, लेकिन तेरे पुण्य से यह बालक जीवित हुआ है।' इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज से सभी पूर्णिमा का पूरा व्रत करें, यह संतान सुख देने वाला है।
- धन और अवसर के दिशा क्षेत्र उत्तर में जब कूड़ेदान को रखा जाता है तो यह कॅरिअर में नए विकल्पों की प्राप्ति में रोड़े अटकता है। नौकरी ढूंढऩे वाले नए लोगों के रास्ते में भी यह बाधा उत्पन्न करता है।वास्तु शास्त्र में दिशाएं वैसे ही महत्वपूर्ण होती है जैसे योग और ध्यान में श्वास के प्रति जागृति। 'क्या मैं सही दिशा में हूं?' दिन में कितनी बार यह प्रश्न आप अपने आप से पूछते हैं- शायद कई बार। किस दिशा में क्या रखना चाहिए? उदाहरण के लिए एक अच्छी और चैन की नींद प्राप्त करने के लिए सोने की आदर्श दिशा कौन-सी है? बच्चों को किस दिशा में बैठकर पढ़ाई करनी चाहिए? किस दिशा में धन रखने से अधिक धन को आकर्षित किया जा सकता है।उदाहरण- दक्षिण दिशा मंगल ग्रह की है। मंगल ग्रह अग्नि, जोश, लाल रंग, सुरक्षा, पुलिस कस्टम एवं कर वसूली विभाग को दर्शाता है। यदि नीले कलर का पानी का टैंक आपके घर या ऑफिस में दक्षिण दिशा में है तो दुर्घटनाओं (वाहन या अग्नि के द्वारा), पुलिस या अन्य विभागों द्वारा उत्पीडऩ के रूप में संकटों को झेलना पड़ सकता है।वास्तु शास्त्र में दिशाओं के अनुसार सफलता और उन्नति सुनिश्चित की जा सकती है। इसी आधार पर वास्तु शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए भवनों को डिजाइन किया जाता है। एक बार जब आपके लिए ऐसा कर दिया जाता है तब आप कभी भी अपने जीवन में दिशाहीन या भटका हुआ महसूस नहीं करते। अन्यथा आप दुविधाओं और भ्रम में रहते हैं। कर्मों के इच्छित परिणाम प्राप्त करने के लिए अपने समय, पैसे और मानसिक ऊर्जाओं की बर्बादी करते हैं।आज से कई हजार वर्ष पहले एक आदमी का जीवन जिस प्रकार संचालित होता था उसके आधार पर इन दिशा क्षेत्रों की गतिविधियां वास्तु शास्त्र में लिखी गई हैं। जो कुछ भी आपके जीवन में घटित हो रहा है उसका संबंध किसी न किसी दिशा से है। और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब दिखता है जब आपको समस्या होती है और समस्या से संबंधित दिशा में आप ठीक वही कारण पाते हैं। जैसे ही आप इन कारणों को वहां से हटा देते हैं तो आपके जीवन में भी यह समस्या दूर हो जाती है।उदाहरण के लिए- धन और अवसर के दिशा क्षेत्र उत्तर में जब कूड़ेदान को रखा जाता है तो यह कॅरियर में नए विकल्पों की प्राप्ति में रोड़े अटकता है। नौकरी ढूंढऩे वाले नए लोगों के रास्ते में भी यह बाधा उत्पन्न करता है। व्यापारियों के लिए इस दिशा में रखा कूड़ादान पुराने ग्राहकों के साथ रिश्ते को बाधित करता है, नए ऑर्डर को रोकता है और पेमेंट रिकवरी में भी कांटे उगाता है। यनी घर में रखे जाने वाले कूड़ेदान को कभी भी उत्तर दिशा में नहीं रखना चाहिए। ऐसा करने पर घर के लोगों को शरीर से जुड़ी कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही उत्तर दिशा को लक्ष्मी की दिशा भी कहते हैं। ऐसी जगह पर कूड़ा रखने से परेशानी आती है और धन की हानि भी होती है। वास्तु कहता है कि अगर आप नौकरी की तलाश कर रहे हैं और बार-बार निराशा हाथ लग रही है, दतो घर में रखे कूड़ेदान की दिशा जरूर देख लें। उत्तर दिशा में रखा कूड़ेदान से पेमेंट रिकवरी में बाधा आती है।घर के पूर्वी भाग में रखे गए कूड़ेदान से हम घर में सफाई करने के लिए प्रेरित रहते हैं व घर से कूड़े की निकासी भी जल्द हो जाती है।घर के दक्षिण दिशा में रखा हुआ कूड़ेदान नियंत्रण से बाहर रहेंगे। जिसके कारण घर बिखरा रह सकता है, वहां सफाई में विघ्न आता है। जिससे घर में गंदगी को बढ़ावा मिलता है।
- 'शरद पूर्णिमा' का महत्त्व- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
हमारे देश में, हमारे सनातन धर्म में साल का प्रत्येक दिन ही कोई न कोई पर्व होता है। किसी न किसी देश में, किसी न किसी जाति में, यदि सबका हिसाब लगाया जाय तो साल का प्रत्येक दिन ही पर्व है। क्योंकि हमारे यहाँ भगवान् के सब अवतार हुए और अनतानंत महापुरुष भी हमारे देश ने ही आये इसलिए पर्वों की भरमार है। किन्तु जितने भी पर्व मनाये जाते हैं उन सबमें सर्वश्रेष्ठ पर्व है : शरत्पूर्णिमा। वैसे कुछ लोग जन्माष्टमी को कहते हैं, कुछ होली को, अनेक लोग अपनी अपनी भावना से पर्वों की इम्पोर्टेंस बताते हैं किन्तु माधुर्य भाव से श्रीकृष्ण की उपासना करने वालों के लिए शरत्पूर्णिमा ही सबसे बड़ा पर्व है क्योंकि शरत्पूर्णिमा के दिन ही लगभग 5000 वर्ष पूर्व पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रम्ह श्रीकृष्ण ने भाग्यशाली जीवात्माओं के साथ 'महारास' किया था अर्थात् आनंद की जो अंतिम सीमा है, उस अंतिम सीमा वाले आनंद को राधाकृष्ण ने जीवों को दिया था।
'रस' शब्द से बना है 'रास'। 'रसानां समूहो रासः'। रस ही अनंतमात्रा का होता है फिर दिव्यानंदो में सबसे उच्च कक्षा का रस, समर्था रति वालों का, उसका कहना ही क्या है ! उस रस का भी जो समूह है उसको रास कहते हैं। वैसे तो भगवान् का एक नाम है रस -
'रसो वै सः. रसङ्होवायं लब्ध्वानन्दी भवति।' (तैत्तिरियोपनिषद् 2-7)
उसी का पर्यायवाची है - 'आनन्दो ब्रम्हेति व्यजानात्।'
'आनंदाद्धेयव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।' (तैत्तिरियोपनिषद् 3-6)
लेकिन रस में भी कई कक्षाएँ होती हैं इसलिए पुनः वेद कहता है -
'स एष रसानां रसतमः।' (छान्दोग्योपनिषद् 1-1-3)
यहाँ पर कहा है रसतम: परम:। पहले तो कह दिया 'रसो वै सः' वो रस है। ठीक है लेकिन वह परम रसतम भी है। देखो यह रस ब्रम्हानंद वाले भी पा चुके इसलिए ये लोग कहते हैं 'रसो वै सः'। आनंद मिल गया इनको, आनन्दो ब्रम्ह। लेकिन जिनको महारास मिला, वो 'रसो वै सः' से संतुष्ट नहीं है तो उनके लिए वेद की ऋचा ने कहा 'स एव रसानां रसतम: परम:'। वही ब्रम्ह जो रसरूप है, आनंद रुप है वही रस का समूह, एक 'तम' प्रत्यय होता है संस्कृत में, उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। गुह्य, गुह्यतर, गुह्यतम। तो तम जहाँ आ जाए उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। आगे और कुछ नहीं। जैसे पुरुषोत्तम। पुरुष जीव भी है, पुरुष ब्रम्ह भी है. पुरुष सब अवतार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम हैं, उत्तम, अंतिम। उच्च में तम् प्रत्यय हुआ 'उत्' ऊँचाई में, 'तम्' सर्वश्रेष्ठ। सर्वोच्च। तो ये रास का अर्थ हुआ।
आनंद में भी अनेक स्तर हैं। जैसे माया के क्षेत्र में अनेक स्तर हैं - तमोगुण, रजोगुण, सत्वगुण। ऐसे ही आनंद के क्षेत्र में भी अनेक स्तर हैं - जैसे ज्ञानियों का ब्रम्हानंद। आनंद जो है वह अनंत मात्रा का होता है दिव्य होता है, सदा के लिए होता है। तो वो आनंद जिसे परमानंद, दिव्यानंद, ईश्वरीय आनंद कहते हैं, वह ज्ञानियों को मिलता है। वो सबसे निम्न कक्षा का आनंद है। आनंद और निम्न कक्षा ये दो विरोधी बातें लगती हैं। ईश्वरीय आनंद अनंत मात्रा का होता है, अनिर्वचनीय होता है, शब्दों में उसका निरुपण नहीं हो सकता। न कोई कल्पना कर सकता है मन, बुद्धि से। इन्द्रिय, मन, बुद्धि की वहाँ गति नहीं है। वो भूमा है। फिर भी आनंद के जितने स्तर हैं उनमे सबसे निम्न स्तर है ज्ञानियों का ब्रम्हानंद - निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रम्हानंद। इसके बाद फिर सगुण साकार का आनंद प्रारम्भ होता है। उसमें भी अनेक स्तर हैं - शान्त भाव का प्रेमानंद, उससे ऊँचा दास्य भाव का प्रेमानंद, उससे ऊँचा सख्य भाव का प्रेमानंद, उससे अधिक सरस वात्सल्य भाव का प्रेमानंद, उससे अधिक सरस माधुर्य भाव का प्रेमानंद।
माधुर्य भाव में भी 3 स्तर हैं। सकाम माधुर्यभाव के प्रेमानंद का स्तर उन तीनों में निम्न कक्षा का है। उसे साधारणी रति (जिसमें श्रीकृष्ण से अपने ही सुख के लिए प्यार किया जाय, उन्हें मिलने वाला आनंद) का प्रेमानंद कहते हैं और समञ्जसा रति (जिसमें अपने और श्रीकृष्ण दोनों के सुख का ध्यान रखा जाय, उन्हें मिलने वाला आनंद) का प्रेमानंद उससे उच्च कक्षा का है और समर्था रति (जिसमें एकमात्र श्रीकृष्ण के सुख के लिए उनसे प्यार किया जाय, जैसे बृज की गोपियाँ, उन्हें मिलने वाला आनंद) का आनंद सर्वोच्च कक्षा का है। तो समर्थारति का प्रेमानंद जिनको मिलता है, सिद्ध महापुरुषों में भी अरबों खरबों में किसी एक को मिलता है वो। उस रस को महारास के रुप में 'शरत्पूर्णिमा' के दिन 5000 हजार वर्ष पहले राधाकृष्ण ने जीवों को वितरित किया था। इसलिए यह पर्व सर्वोत्कृष्ट पर्व है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
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…..........और हमारा यह सौभाग्य भी !!!!!जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु अवतरण दिवस ::: जगदगुरुत्तम दिवस
हम बड़भागी जीवों के लिए इस पर्व का महत्त्व और बढ़ गया है क्योंकि सन् 1922 शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में ही एक ऐसे अलौकिक महापुरुष का अवतरण इस धराधाम पर हुआ जिसने भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को अपनी दिव्य प्रतिभा एवं स्नेहमय व्यक्तित्त्व से आश्चर्यचकित किया है। यह परमाचार्य जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही हैं जिन्होंने विश्व में धार्मिक क्रान्ति लाई। भारत की अमूल्य सम्पदा शास्त्रों वेदों के दुर्लभ ज्ञान को साधारण भाषा में जन जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने अहर्निश प्रयत्न किया है। भारत जिन कारणों से सदा से विश्वगुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है उसके मूलाधार में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ही हैं। राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप गुरुवर ने अपने दिव्य सन्देश द्वारा दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से तप्त भगवद् बहिर्मुख जीवों को श्रीकृष्ण सन्मुख करने का भरसक प्रयास किया है जिससे वे श्रीकृष्ण भक्ति द्वारा उस सर्वोच्च रस के अधिकारी बन सकें जो शरत्पूर्णिमा के दिन श्रीकृष्ण ने सौभाग्यशाली अधिकारी जीवों (बृजगोपियों) को प्रदान किया था।
ऐसे परम कृपामय, प्रेममय भक्तिरस के अवतार जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का यह प्राकट्य दिवस शरत्पूर्णिमा ही 'जगद्गुरुत्तम् जयंती' के रुप में मनाया जाता है। शरत्पूर्णिमा तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है ही, आचार्य श्री ने इस दिन अवतार लेकर इसकी महत्ता को अनंताधिक कर दिया है।
० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - "तस्मात् अज्ञान सर्व हुत: ऋचा सामानि अज्ञिरे ।।छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्समाद जायत ॥ (यजु: 31- 7)-अर्थात् उस यज्ञ का रूप परम ब्रह्म परमात्मा द्वारा चारों वेद ऋक्, यज्, साम, अथर्व सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत हुए ।।(1) ऋग्वेद- में ज्ञान की बातें हैं अत: इसे ज्ञान काण्ड कहते हैं ।। इसमें कुल 10 मण्डल हैं ।। 85 अनुवादक हैं ।। 10522 मंत्र हैं । इसके दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं- ऐतरेय और और कौषीतकी तथा इसकी 28 शाखाएँ हैं और इसका 'आयुर्वेद' उपवेद है । गायत्री मंत्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है। इस में कुल 62 सूक्त हैं जो इंद्रदेव और अग्निदेव को समर्पित हैं। इसकी रचना महर्षि विश्वामित्र ने की।(2)यजुर्वेद- में यज्ञ सम्बन्धी विशेष बातें हैं अत: इसे कर्मकाण्ड प्रधान कहते हैं ।। इसमें कुल 40 अध्याय हैं ।। 1975 मंत्र हैं ।। इसमें 1230 गुङ्कार (वैदिक अनुस्वार चिन्ह) ,, इस प्रकार के हैं । इसकी 101 शाखाएं हैं और इसका धनुर्वेद उपवेद हैं ।। शतपथ इसका ब्राह्मण है ।। यजुर्वेद में गायत्री गुरुमंत्र अध्याय 3 मंत्र 35 अध्याय 22 मंत्र 9, अध्याय 30 मंत्र 2 तथा अध्याय 36 मंत्र 3 में व्याहृति सहित आया है । यह सब से अधिक चार बार इसी में आया है ।(3) सामवेद- सरस्वर ग्राम गेय (गानात्मक) होने से इसे 'उपासना काण्ड' कहते हैं ।। इसमें 1875 मंत्र हैं ।। इनके 8 ब्राह्मण ग्रन्थ हैं ।। इसकी 1000 शाखाएं हैं । इसका 'गान्धर्ववेद' उपवेद है ।। गायत्री गुरु मंत्र -सामवेद प्रपाठक 6 अ. 13 खं. 14 सूक्त 10 में आया है ।(4) अथर्ववेद- में कला कौशल (शिल्प शास्त्र) और औषधादि मंत्र- तंत्र निर्माण की (सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान सम्बन्धी) विशेष बातें हैं ।। अत: इसे 'विज्ञान- काण्ड' भी कहते हैं ।। इसके कुल 20 काण्ड 111 अनुवादक 731 सूक्त तथा 5977 मंत्र हैं ।। इसका गोपथ ब्राह्मण हैं ।। इसकी 9 शाखाएँ हैं और इसका 'अथर्ववेद उपवेद है ।'अथर्व वेद में एक बार भी गायत्री का पाठ नहीं परन्तु फल द्युति आवश्यक है और वह किसी भी वेद में नहीं है।स्तुता मया वरदा वेद माता प्रचोदयन्ताम पावमानी द्विजानाम आयु: प्राणं प्रजानां पशुं, कीर्ति, द्रविणं ब्रह्मवर्चेस।। मह्यम दत्वा ब्रजव ब्रह्म लोकम (अथर्व 19-17)इसमें गायत्री को 3 विशेषणों से विभूषित किया गया है। पहला वरदा, वर देने वाली अर्थ यत यत वृणीने तत तत ददालीनि वरदा- इस व्युत्पति के आधार पर शुभ कामनाओं की पूर्ति करने वाली परिलक्षित हैं। साधकों की इच्छाओं को पूर्ण करने के कारण इसे कल्पवृक्ष कहते हैं।गायत्री माता को वेदमाता कहा जाता है। चूंकि इस महाशक्ति के आवाहन से ही वेद-मंत्रों का अवतरण हुआ इसलिए इसे वेदमाता कहते हैं। इसलिए गायत्री मंत्र की दृष्टा महिर्षि विश्वामित्र का कहना है कि गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री की एक कला के समान ही हैं।वेद भगवान की घोषणा है कि गायत्री माता आशीर्वाद के रूप में अपने पुत्रों को आयु, प्राण, प्रज्ञा, पशु , कीर्ति, द्रविणं, ब्रह्म, वर्चस प्रदान करती हैं। यही विश्व की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इनकी प्राप्ति से अभाव, अशक्ति और अज्ञान के तीनों प्रकार के दुखों की निवृत्ति हो जाती है।
- वास्तुशास्त्र के अंतर्गत दिशाओं के विज्ञान को बड़ी जी सहजता और खूबसूरती के साथ पिरोया गया है... इस विज्ञान के अनुसार यह माना जाता है कि हर दिशा की अपनी एक ऊर्जा और खूबी होती है... अगर उसी के आधार पर उस विशिष्ट दिशा का उपयोग किया जाए तो वह मानव जीवन को सफलता और खुशियों से भर सकती है। साथ ही साथ वास्तुशास्त्र में ऊर्जाओं के सकारात्मक और नकारात्मक स्वभाव की बात कोई भी बखूबी समझाया गया है।सामान्यत: चार दिशाओं के विषय में जाना जाता है... उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम... अन्य सभी दिशाएं इन्हीं से इर्द-गिर्द घूमती है। जहां तक बात है दक्षिण दिशा की तो अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बाद भी इसे अशुभ ही माना गया है। प्राय: यही देखा जाता है कि लोग दक्षिण मुखी वाले प्लॉट या मकान खरीदने से बचते हैं...ऐसी मान्यता है कि दक्षिण मुख वाले मकान में रहने से जीवन में समस्याएं आनी शुरू हो जाती है। वास्तुशास्त्र के अनुसार घर का मुख्य दरवाजा कभी भी दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए। साथ ही तिजोरी का दरवाजा भी दक्षिण की ओर न खुले, अगर आपकी तिजोरी इस दिशा में हैं, तो उसे उत्तर दिशा में रखें।ज्योतिषशास्त्र में दक्षिण दिशा का संबंध मंगल देव के साथ संबंधित बताया गया है... साथ ही यह यम और पितरों से भी संबंध रखती है।वास्तुशास्त्र विशेषज्ञों के अनुसार दक्षिण दिशा हर किसी के लिए अशुभ नहीं होती। यह जातक को धन, शक्ति अर साहस प्रदान करने वाली है। मंत्र शक्ति और साधना के लिए यह दिशा विशेष फलदायी साबित होती है... घर के मुखिया का इस दिशा में रहना शुभ साबित होता है। दक्षिण दिशा तीन हिस्सों में विभाजित हैं ... हर भाग अपना एक विशेष महत्व रखता है।दक्षिण-पूर्व दिशा का महत्वइसे अग्नि कोण या आग्नेय कोण भी कहा जाता है... इस दिशा में रसोई बनाना या अग्नि के उपकरण रखना शुभ होता है। आप इस दिशा में बच्चों के कमरे भी बना सकते हैं...लेकिन शादीशुदा जोड़े को इस दिशा में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए।दक्षिण-पश्चिम दिशा का महत्वइस दिशा को पृथ्वी तत्व की दिशा माना जाता है... इसका एक नाम नैऋत्य कोण भी है। यह दिशा धन के माममे लें सबसे ज्यादा फलदायी साबित होती है। इस स्थान पर घर के मुखिया का स्थान रहना अच्छा होता है... इस दिशा में आप अपने तिजोरी या अलमारी रख सकते हैं।ऐसे उठाएं दक्षिण दिशा का लाभअगर आप अपने घर की दक्षिण दिशा का लाभ उठाना चाहते हैं तो इसे हमेशा भारी रखें। इस दिशा में आप अपने बिजली के उपकरण रख सकते हैं... साथ ही कुछ कीमती सामान भी आप इस दिशा में रख सकते हैं। जिन जातकों की कुंडली में मंगल ठीक है वे इस दिशा का मकान ले सकते हैं। अगर आपका मकान दक्षिण मुखी है तो घबराएं नहीं हनुमंत आराधना आपके लिए विशेष फलदायी साबित हो सकती है। आप कोशिश करें आपके मकान का रंग नीला या सफेद हो।
- - जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक की साधना में बाधा पहुँचाने वाले अनेक बाधक तत्वों के विषय में अनेक बार समझाया है, यथा परदोष दर्शन, लोकरंजन, परनिन्दा आदि। इसी में एक बाधक तत्व है भक्ति के विषय में वाद-विवाद करना। यह कृत्य एक बहुत बड़ा कुसंग है जो कि साधक की साधना में, उसके चिन्तन में महान हानि और मन में क्षोभ, उद्विग्नता उत्पन्न कर देता है। स्वयं श्री भरत जी ने एक समय इस महापराध का उल्लेख किया था। आइये इस भयंकर कुसंग के विषय में श्री कृपालु महाप्रभु जी के ही शब्दों में समझने का प्रयास करें :::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से पढ़ें....)
..अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधनादि के विषय में वाद विवाद करना भी कुसंग है, क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ महापुरुष भी आसानी के साथ बोध नहीं करा सकता, तब वह साधक भला किस खेत की मूली है? यदि कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है तब भी उसे ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होता है, साथ ही उस अश्रद्धालु के न मानने पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है। शास्त्रानुसार भी भक्तिमार्ग को लेकर वाद विवाद करना घोर पाप है।
भरत जी कहते हैं :
भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यतः ।तेन पापेन युज्येत यस्यार्योनु रमते गताः ।।(वाल्मीकि रामायण)
अर्थात् भक्तिमार्ग को लेकर वाद विवाद कर्म सरीखा महान पाप मुझे लग जाय यदि राम के वन जाने के विषय में मेरी राय रही हो। अतएव न तो वाद विवाद सुनना चाहिए, न तो स्वयं ही करना चाहिए। यदि अनधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता तो इसमें आश्चर्य या दुःख भी नहीं होना चाहिए क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे। यह तो परम सौभाग्य महापुरुष एवं भगवान् की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव भगवद् विषय को समझकर उसकी ओर उन्मुख हो।
अनधिकारी को भगवद् विषयक कोई अंतरंग रहस्य भी न बताना चाहिए क्योंकि वर्तमान अवस्था में अनुभवहीन होने के कारण अनधिकारी उन अचिन्त्य विषयों को नहीं समझ सकता, उलटे अपराध कमाकर अपनी रही सही आस्तिकता को भी खो बैठेगा। साथ ही अंतरंग रहस्य बताने वाले साधक को भी अशांत करेगा।
(प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज विरचित ब्रज-रस-साहित्य से
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज विरचित 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ में कुल 21 माधुरियाँ अर्थात खंड हैं। श्रीकृष्ण की मधुर, मनमोहक लीलाओं से अलंकृत अनेक पद आचार्यवर द्वारा इस ग्रन्थ में रचे गये हैं, जो कि विशुद्ध प्रेम रस से ओतप्रोत हैं। प्रस्तुत पद इस ग्रंथ की 'श्रीकृष्ण बाल लीला माधुरी' खण्ड से है, जिसमें बालकृष्ण अपनी मैया यशोदा जी से हठपूर्वक माखन-रोटी माँग रहे हैं। पद में उनकी अनेक भाव-भंगिमाओं का बड़ा सरस चित्रण हुआ है। आइये स्वयं पठन कर उस लीला में मानसिक रुप से प्रवेश करें ::::::
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रंथ मेंश्री कृष्ण की बाल-लीला
मैया मोहिं, दै दे माखन रोटी।पग पटकत झगरत झकझोरत, कह गहि यशुमति चोटी।'आँ, आँ, करत मथनिया पकरत, जात धरणि पर लोटी।लै निज गोद मातु दुलरावति, कहति 'बात यह खोटी'।बिनु मुख धोये हौं नहिं दैहौं, नवनी रोटी मोटी।खाय 'कृपालु' धोइहौं मुख कह, हरि पीताम्बर ओटी।
भावार्थ - छोटे से कन्हैया अपनी मैया से मक्खन रोटी मांग रहे हैं। अपना पैर पटकते जाते हैं एवं यशोदा मैया की चोटी को हाथ से पकड़ कर पीठ की ओर से झकझोरते हुए वात्सल्य प्रेमयुक्त झगडा कर रहे हैं। बाल स्वाभावानुसार आँ आँ करते हुए मथानी पकड़ लेते हैं। इतने पर भी जब मैया नहीं सुनती तो मान करते हुए पृथ्वी पर लोट जाते हैं। यह देखकर मैया बालकृष्ण को अपनी गोद में लेकर दुलार करती हुई प्यार से शिक्षा देती है कि पृथ्वी पर लोटना बुरी बात है। फिर मैया कहती है पहले मुंह धो आओ तब मक्खन रोटी दूंगी। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि श्यामसुंदर भोरेपन में पीताम्बर की ओट से मैया को यह उत्तर देते हैं कि प्रतिदिन की भांति मक्खन रोटी खाकर मुंह धो लूँगा।
० ग्रन्थ ::: प्रेम रस मदिरा (श्री कृष्णा-बाल लीला-माधुरी, पद संख्या 43)० रचयिता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारत में चार प्रमुख सूर्य मंदिर हैं। उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान और कश्मीर में। उड़ीसा का कोणार्क सूर्य मंदिर, गुजरात के मेहसाणा को मोढेरा सूर्य मंदिर, राजस्थान के झालरापाटन का सूर्य मंदिर और कश्मीर का मार्तंड मंदिर। उड़ीसा, गुजरात और राजस्थान के सूर्य मंदिर तो फिर भी बेहतर स्थिति में हैं लेकिन कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर के सिर्फ अवशेष ही बचे हैं। जम्मू- कश्मीर के अनंतनाग जिले से केवल 9 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है मार्तंड सूर्य मंदिर। इस मंदिर का निर्माण कर्कोटक वंश से संबंधित राजा ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा करवाया गया था। यह मंदिर सातवीं-आठवीं शताब्दी पूर्व का है। यह मंदिर सन् 725-756 ई. के मध्य बना था।यह मंदिर अपनी अद्भुत आर्यन संरचना के लिए काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर कश्मीरी हिंदुओं की कुशल कला का परिचय देता है और यह पवित्र स्थान भास्कर या सूर्य देव को समर्पित है। वर्गाकार आकार का ये मंदर चूना पत्थर से बना है। आपको बर्फ से ढंके पहाड़ों के करीब मंदिर के खंडहर मिलेंगे। अपनी उत्कृष्ट कला, डिजाइन और सुंदरता के मामले में ये मंदिर ताजमहल, पार्थियन और सेंट पीटर्स का मुकाबला करता है।ॉयहां पर सूर्य की पहली किरण के साथ ही मंदिर में पूजा अर्चना का दौर शुरू हो जाता है। मंदिर की उत्तरी दिशा से ख़ूबसूरत पर्वतों का नज़ारा भी देखा जा सकता हैं। यह मंदिर विश्व के सुंदर मंदिरों की श्रेणी में भी अपना स्थान बनाए हुए है। मार्तण्ड सूर्य मंदिर का प्रांगण 220 फुट & 142 फुट है। यह मंदिर 60 फुट लम्बा और 38 फुट चौड़ा था। इस के चतुर्दिक लगभग 80 प्रकोष्ठों के अवशेष वर्तमान में हैं। इस मन्दिर के पूर्वी किनारे पर मुख्य प्रवेश द्वार का मंडप है। इसके द्वारों पर त्रिपाश्र्वित चाप (मेहराब) थे, जो इस मंदिर की वास्तुकला की विशेषता है। द्वारमंडप तथा मंदिर के स्तम्भों की वास्तु-शैली रोम की डोरिक शैली से कुछ अंशों में मिलती-जुलती है। मार्तण्ड मंदिर अपनी वास्तुकला के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध है। यह मंदिर कश्मीरी हिंदू राजाओं की स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना है। कश्मीर का यह मंदिर वहां की निर्माण शैली को व्यक्त करता है। इसके स्तंभों में ग्रीक संरचना का इस्तेमाल भी किया गया है।माना जाता है कि 7वीं-8वीं शताब्दी में बने इस मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों ने खासा नुकसान पहुंचाया था। पहले ये मंदिर काफी समृद्ध और सूर्य उपासकों के लिए आस्था का केंद्र हुआ करता था। लेकिन, कहा जाता है मुगल काल में इस मंदिर पर कई बार आक्रमण हुए। इसलिए, आज ये मंदिर अब सिर्फ अवशेष जैसी अवस्था में है।----
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा तथा व्यक्तित्व-माहात्म्य से जुड़ी सामग्री :::::
00 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज :: व्यक्तित्व-दर्शन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शरणागतों को भगवत-मार्ग पर चलाने के अनेक उपाय किये। उन्होंने विश्व को अपने अलौकिक प्रवचनों के माध्यम से आध्यात्म जगत के गूढ़तम रहस्यों से तो परिचित कराया ही, लेकिन कभी-कभी बड़े ही विलक्षण ढंग से अपने पास बैठे जीवों को साधना और सिद्धान्त की शिक्षा भी दे देते थे। उनके भक्तजन उनके अत्यंत समीप ही बैठकर उनका प्रेम, अपनापन और सान्निध्य प्राप्त करते थे। नीचे श्री कृपालु महाप्रभु जी के अवतारकाल के कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं, जो उन्होंने अपने सत्संगियों के साथ बिताये।
0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 18 अप्रैल 2012
श्री कृपालु महाप्रभु जी 18 अप्रैल को मनगढ़ में 'जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय' गये, वहाँ चेस्ट का एक्सरे हुआ। डॉक्टर ने जब कहा कि महाराज जी जब मैं 'राधे' बोलूँगा तब आप साँस को जोर से लीजियेगा। ये सुनते ही श्री महाराज जी अत्यधिक खुश हो गये कि सबको मैंने यहाँ तक तो पहुँचा दिया है कि सोते-जागते, खाते-पीते, हँसते-रोते 'राधे' नाम लेते हैं।
किसी-किसी प्रवचन में वे ऐसा भी कहते थे कि मैंने आप लोगों को इतना तो अवश्य सिखा दिया है कि जब आप लोग ट्रेन वगैरह में सफर करते हैं और कोई 'राधे' अथवा 'राधे राधे' बोल भर दे तो आप लोगों की निगाह उस ओर घूम जाती है कि ये 'राधे' बोला। आपको वह अपना जान पड़ता है, क्योंकि उसने 'राधे' बोला। सचमुच ही उनके व्यक्तित्व और उनके सान्निध्य में ऐसी विलक्षणता थी कि उसका नित्य सँग पा-पाकर मन में बरबस ही भगवान का चिंतन बैठने लगता था। सब स्वाभाविक, अपने-आप होता था।
0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 30 अप्रैल 2012
भक्तिधाम मनगढ़ के 'भक्ति-मंदिर' में 30 अप्रैल 2012 को 'श्री जानकी जयंती' के शुभ दिन मंदिर के प्रथम तल में श्री सीताराम जी के सच्चिदानंद स्वरुप (श्रीविग्रह) की स्थापना श्री कृपालु महाप्रभु जी के पावन करकमलों से हुई। शंख, मृदंग, ढोल, ढप, झाँझ, मंजीरे, घंटाल इत्यादि के मध्य सियावर रामचंद्र की जयकार गूँजती थी। सीताराम के युगल विग्रह का अभिषेक स्वयं श्री कृपालु महाप्रभु जी ने वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुये किया।
तत्पश्चात उन्होंने सीताराम मंदिर का द्वार खोलते हुये कहा : '..इतनी प्रतीक्षा के बाद आज प्रकट हो रहे हैं..'
इस अवसर पर अनेक सत्संगी बच्चे वानर सेना का रुप धरकर जय-जयकार एवं हर्षोल्लास के नृत्य कर रहे थे। कृपालु महाप्रभु जी ने उन्हें उपहार दिये. पश्चात उपस्थित जनों से बोले कि '..कितनी सुन्दर मूर्ति है..'
मूर्तिकार के भी ये शब्द थे कि '..मैंने तो इतनी सुन्दर मूर्ति बनाई नहीं थी, कैसे इतनी सुन्दर बन गई..'
इसी दिन शाम को एक महिला भक्त श्री कृपालु महाप्रभु जी के पहली बार दर्शन पाने मनगढ़ आई थी। उसने श्री महाराज जी से कहा कि '..श्री महाराज जी, मैं अकेले ही आपके दर्शन के लिये आ गई..' श्री महाराज जी ने तब उससे कहा कि '..अरे तू अकेली नहीं आई है, तेरे साथ ठाकुर जी भी आये हैं. तेरे हृदय में बैठे हैं वो। अपने को कभी अकेला नहीं मानना, हरि गुरु सदा साथ रहते हैं..'
..इस प्रकार वे अनेक प्रकार से व्यवहार जगत में ही अपने साधकों को सिद्धान्त की याद दिलाकर उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास करते थे। सिद्धान्त ज्ञान को उन्होंने सदैव महत्त्वता दी. उनके सान्निध्य में सदैव सिद्धान्त, प्रेम, सरसता और ब्रजरस की धार बहती रहती थी। 'जगदगुरुत्तम' की सीट पर विराजमान होकर भी वे अपने शरणागतों के लिये अत्यंत सरल थे, हर किसी को बस वे अपने से ही प्रतीत होते थे।
0 सन्दर्भ ::: साधन-साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - मुकाम्बिका कर्नाटक के उडुपी जिले के कोल्लूर में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है, जिसकी गिनती दक्षिण भारत के चुनिंदा प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में होती है। कोल्लूर पश्चिमी घाट की तलहटी में बसा है और धार्मिक महत्व के साथ-साथ प्राकृतिक खूबसूरती के लिए भी जाना जाता है। यह मंदिर शक्ति को समर्पित है, जिनकी पूजा श्री मुकाम्बिका के नाम से की जाती है। कोल्लूर मंदिर आम तौर पर केरल और तमिलनाडु में मुकाम्बी या मूगंबिगाई के नाम से संबोधित किया जाता है। हालांकि कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर कर्नाटक में है, लेकिन मुकाम्बिका मंदिर जाने वाले अधिकांश भक्त केरल या तमिलनाडु से होते हैं। श्री मुकाम्बिका अन्य हिंदू देवी-देवताओं के बीच अद्वितीय है क्योंकि देवी मुकाम्बिका महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की शक्तियों का एक रूप है।मंदिर में मौजूद उधम लिंग पुरुष और शक्ति रूप को प्रदर्शित करता है। श्री मुकाम्बिका सभी दिव्य शक्तियों का एक अवतार मानी जाती हैं और उनकी पूजा किसी भी रूप में की जा सकती है। स्कंद पुराण में कहा जाता है कि श्री मुकाम्बिका का ज्योतिर्लिंगम पुरुष और प्रकृति का एकीकरण है। माना जाता है कि यहां प्रार्थना करना मतलब हजारों मंदिरों में प्रार्थना करने के बराबर है। यहां कई महान संतों ने तपस्या की है। सरस्वती के रूप में मुकाम्बिका शिक्षा और कला की देवी है। रवि वर्मा और स्वाथि थिरूनल आदि जैसे महान कलाकार श्री मुकाम्बिक के भक्त थे।इस मंदिर से कई पौराणिक किवदंतियां भी जुड़ी है। माना जाता है कि प्राचीन समय में कोला नाम के महर्षि किसी राक्षस के दुराचार का शिकार हो गए थे। वह राक्षस अधिक शक्ति प्राप्त करने के लोभ में तपस्या कर रहा था। तब श्री मुकाम्बिका ने देवी सरस्वती के रूप में उस राक्षस को गूंगा बना दिया था, ताकि वो भगवान के सामने दुराचारी इच्छा न प्रकट कर सके। मूक हो जाने की वजह से उस राक्षस का नाम मुकासुर पड़ा यानी गूंगा राक्षस। गूंगा हो जाने के बाद गुस्से में उसका आतंक और बढ़ गया, वो ऋषि-मुनियों को परेशान करने लगा। तब कोला महर्षि के अनुरोध पर मां पार्वती ने शक्ति का रूप धारण कर उस राक्षस का वध किया। जिसके बाद देवी नाम मुकाम्बिका पड़ा। महर्षि कोला के नाम पर गांव का नाम कोल्लूर रखा गया।
- - जगदगुरुत्तम कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन ::: पर्वादिक महात्म्य खण्ड
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दशहरा अर्थात विजया दशमी के सम्बन्ध में दिया गया प्रवचन नीचे उद्धृत है :::::
भगवान का अवतार क्यों होता है, अधिकतर लोग यही समझते हैं कि भगवान का अवतार राक्षसों का संहार करने के लिये और धर्म की संस्थापना के लिये होता है,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।(गीता 4-6, 7)
किन्तु जो सर्वशक्तिमान है, सबके हृदय में बैठा है, चाहे राक्षस हो चाहे साधु हो तो क्या वह राक्षसों का संहार अपने दिव्य धाम में रहकर नहीं कर सकता, वह तो सर्वसमर्थ है, सत्यसंकल्प है। बस संकल्प कर ले, सब काम अपने आप ही जाये। फिर यहाँ अवतार लेकर आने की क्या आवश्यकता है? इसका मतलब है कोई और कारण है।
केवल एक कारण है - जीव कल्याण। अवतार लेने से पहले मीटिंग हुई भगवान के सब पार्षदों की भगवान के साथ। तो भगवान ने कहा कि भई पृथ्वी पर जाना है, वहाँ अपना नाम, रुप, लीला, गुण छोड़कर आना है जिसका सहारा लेकर जीव मुझे आसानी से प्राप्त कर सकें। 'दशरथ का रोल (अभिनय) कौन करेगा', कौशल्या, सुमित्रा, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सबका निश्चित हो गया। 'अरे रावण का रोल कौन करेगा, कैकेयी का रोल कौन करेगा, बदनामी होगी लोग गाली देंगे।' 'कोई बात नहीं हमारे प्रभु का काम होना चाहिये बस हमें उनकी इच्छा में इच्छा रखना है।' (उनके भक्तों की सोच इस प्रकार होती है, वे उनकी लीला की पूर्ति के लिये बदनामी भी मोल लेने को तैयार हो जाते हैं।) यानी भगवान अपने परिकरों, पार्षदों को लेकर आते हैं और यहाँ लीला करते हैं। जितने भी उस लीला में सम्मिलित होते हैं, वे सब महापुरुष ही होते हैं अर्थात सब मायातीत होते हैं। उनके समस्त कार्यों का कर्ता भगवान ही होता है अत: उन्हें अपने कर्म का फल नहीं मिलता।
रावण भी भगवान का पार्षद ही था। भगवान ने सोचा लडऩा चाहिये, लेकिन लड़ें किससे? सब तो हमसे कमजोर हैं और कमजोर से लडऩा ये तो मजा नहीं आयेगा। अपने बराबर वाले से लडऩा चाहिये। भगवान के बराबर कौन है? महापुरुष में भगवान की सारी शक्तियाँ होती हैं। लेकिन कोई महापुरुष भगवान से क्यों लड़ेगा? अगर भगवान कहते भी हैं लडऩे के लिये तो कह देगा महाराज मैं तो शरणागत हूँ, अगर आप शरीर चाहते हैं तो मैं पहले ही दे रहा हूँ। फिर क्या किया जाये, तो भगवान ने कहा कि भई ऐसा करो कि किसी महापुरुष का श्राप दिलवाओ और उसको राक्षसी कर्म के लिये मृत्युलोक भेजो, फिर मैं वहाँ जाऊँ और उसको मारूँ तो जमकर युद्ध होगा।
तो गोलोक के दो पार्षद थे नित्य सिद्ध सदा से महापुरुष, भगवान के गेट कीपर, उनको श्राप दिला दिया सनकादि परमहंसों से जबरदस्ती। उनको प्रेरणा किया तुम हमसे मिलने आओ और गेट कीपर्स को आर्डर दे दिया कि कोई अन्दर न आने पाये। सनकादि चल पड़े भगवान से मिलने तो जय विजय ने रोक दिया, इन्होंने कहा आज तक तो किसी ने रोका नहीं था, आज क्या हो गया, श्राप दे दिया, जाओ मृत्युलोक में जाओ राक्षस बन जाओ। फिर प्रेरणा किया सनकादि को कि हमेशा के राक्षस न बनाओ बस तीन जन्म के लिये राक्षस बनकर पृथ्वी पर रहें, फिर यहाँ आ जायें। हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकर्ण, कंस-शिशुपाल ये थे जय-विजय। अत: रावण वास्तव में भगवान का पार्षद था, राक्षस नहीं था, भगवान की इच्छा से ही उसने यह सब किया। अत: दुर्भावना नहीं करना उसके प्रति। हमारी रावण से कोई दुश्मनी नहीं है और न राम की दुश्मनी रावण से थी। वो तो राम को केवल ये जनता को दिखाना था कि जो भी गलत काम है उससे ऐतराज करो, गलत काम करो उसका परिणाम हानिकारक है।
मायिक जो भी वर्क है चाहे सात्विक हो चाहे राजसिक हो चाहे तामसिक हो तीनों हानिकारक हैं। सात्विक भी निन्दनीय है, उससे अधिक निन्दनीय राजस है और तामस सबसे अधिक निन्दनीय है। केवल राम की भक्ति करने वाला ही तीनों गुणों से परे होकर परमानन्द प्राप्त कर सकता है इसलिये रावण दहन का अर्थ ये नहीं है कि रावण नाम का जो राक्षस था वो जला दिया गया, छुट्टी मिली। रावण जलाने से तात्पर्य है कि रावण से जो गलत काम कराया गया था उस कर्म को छोडऩा है। भले ही हम शास्त्र वेद के ज्ञाता हो जायें, निन्दनीय कर्म किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं है जब तक उस अवस्था पर न पहुँच जायँ कि हमारा कर्ता भगवान हो जाय अर्थात भगवत्प्राप्ति से पहले कोई भी आचरण जो शास्त्र-विरुद्ध है, वह निन्दनीय है। दशहरे वाले दिन जो रावण का पुतला जलाया जाता है वह इसी बात का द्योतक है कि सात्विक, राजसिक, तामसिक सब कर्म बन्धन कारक हैं, निन्दनीय हैं। केवल भगवान की भक्ति ही वन्दनीय है। भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम, जन में ही निरंतर मन को लगाना, यही दशहरे पर्व का मनाने का मुख्य उद्देश्य है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
0 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2008 अंक0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - आरती करने से मिलते हैं ये लाभ......आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे 3, 5 या 7) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं , जैसे कि-कलश- कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। मान्यतानुसा इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।जल- जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।नारियल-आरती के समय कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में उपस्थित ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।स्वर्ण- ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण धातु अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। इसीलिए सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही कारण है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडऩे का माध्यम भी माना जाता है। तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त में सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।सप्तनदियों का जल- सप्तनदियों का जल-गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि अधिकतर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।पान-सुपारी- यदि जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं। नागबेल को भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडऩे वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।तुलसी- आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है। (छत्तीसगढ़आजडॉटकॉम विशेष)
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मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। नवरात्र में यह अंतिम देवी हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है।
माना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवियों कि उपासना भी स्वयं हो जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से संभव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। कहते हैं भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव जी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अद्र्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।मंत्र- सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।सेव्यमाना सदा भूयाात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।। - मां दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णत: गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा गया है। इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है।पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया, लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं। यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।एक और मान्यता के अनुसार एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती है। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होंने दया भाव से उसे अपना वाहन बना लिया क्योंकि वह उनकी तपस्या पूरी होने के प्रतीक्षा में स्वयं भी तप कर बैठा। कहते है जो स्त्री मां की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं।मंत्र- श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचि:।महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥अन्य नाम- इन्हें अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी भी कहा जाता है।
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-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
भक्तिमार्ग में दीनता की परम आवश्यकता है। किन्तु हम मायाधीन हैं, और माया के तमाम विकारों से घिरे हुये हैं। तथापि तत्व को समझना चाहिये कि यद्यपि हर बुराई हमारे भीतर है, फिर भी उसको स्वीकार कर अब उसके सुधार के लिये प्रयास करना चाहिये। इस सुधार के लिये हम क्या करें, विशेषकर आध्यात्ममार्गी पथिक के लिये परमावश्यक सुझाव जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा निःसृत प्रवचन के इस अंश में है। आइये इस महत्वपूर्ण विषय को समझें तथा साँप-बिच्छू और हितैषी शब्द के सांकेतिक अर्थ लेकर विचार करें ::::::
(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)
..देखो! एक सिद्धांत सदा समझ लो, जब तक हमको भगवत्प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक हम पर माया का अधिकार रहेगा। जब तक माया का अधिकार रहेगा, तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। इसके अतिरिक्त पिछले अनन्त जन्मों के पाप भी रहेंगे क्योंकि भगवत्प्राप्ति पर ही समस्त पाप भस्म होते हैं। यथा,
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥(गीता 18-66)
अब सोचो यदि कोई मुझे कामी, क्रोधी, लोभी, पतित, नीच, अनाचारी, दुराचारी, पापाचारी कहता है तो गलत क्या है? सच को सहर्ष मानकर उस दोष को ठीक करना चाहिये।
एक कॉन्स्टेबल को हम जब कॉन्स्टेबल कह के परिचय कराते हैं तो वह यह नहीं कहता हमें एस.पी. कहो, आई.जी. कहो। फिर हम क्यों बुरा मानते हैं? तुलसीदास तो कहते हैं,
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।
वह निंदक तो हमारा हितैषी है। किसी के शरीर पर साँप, बिच्छू चढ़ रहा है और कोई बता दे तो वह तो हमारा हितैषी है। जितने मायातीत भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं वे तो लिख कर दे रहे हैं,
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
और हम सचमुच हैं, तो बुरा मानकर अपनी घोर हानि कर रहे हैं। एक सिद्धांत और समझे रहना चाहिये। हम जितने क्षण मन को भगवान में रखते हैं बस, उतने क्षण ही हमारे सही हैं। शेष सब समय पाप ही तो करेंगे। इस प्रकार 24 घण्टे में कितनी देर हमारा मन भगवान में रहता है, सोचो। बार बार सोचना है कि मेरे पूर्व जन्मों के अनन्त पाप संचित कर्म के रूप में मेरे साथ हैं। पुन: इस जन्म के भी अनन्त पाप साथ हैं फिर भी हम भगवान के आगे आँसू बहा कर क्षमा नहीं माँगते। धिक्कार है, मेरी बुद्धि को।
बार-बार प्रतिज्ञा करना है कि अब पुन: किसी के सदोष कहने पर बुरा नहीं मानेंगे। अभ्यास से ही सफलता मिलेगी। प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये। दूसरे दिन सावधान होकर अपराध से बचो। ऐसे ही अभ्यास करते-करते बुरा मानना बन्द हो जाएगा। यह भी सोचो कि श्रीकृष्ण हृदय में बैठकर हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं। यदि हम फ़ील करेंगे तो वे कृपा कैसे करेंगे। सदा सर्वत्र यह महसूस करने से दोष कम होंगे और इष्टदेव का बार बार चिन्तन भी होता रहेगा। निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्रीकृष्ण हैं । निन्दनीय से उदासीन भाव रहे, दुर्भावना न हो। यह प्रार्थना बार-बार करो,
यदि दैन्यं त्वत्कृपाहेतुर्न तदस्ति ममाण्वपि।तां कृपां कुरु राधेश ययाते दैन्य माप्नुयाम्॥
अर्थात् 'हे श्री कृष्ण! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ी भी नहीं है। अत: पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ।' - ऐसा कह कर आंसू बहाओ। यह करना पड़ेगा। मानवदेह क्षणिक है। जल्दी करो, पता नहीं कब टिकट कट जाय। यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी)
० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - कल्चुरी शासक ने नागर शैली में कराया था मंदिर का निर्माणआलेख-सुस्मिता मिश्राछत्त्तीसगढ़ के तीनों महामाया मंदिर रतनपुर, अंबिकापुर और रायपुर, प्राचीन काल से लोगों की आस्था का केंद्र रहे हैं। नवरात्रि पर्व के दौरान यहां पर खूब रौनक हुआ करती है।रियासतकालीन राजधानी व संभाग मुख्यालय अंबिकापुर में मां महामाया व विंध्यवासिनी देवी विराजमान हैं। मां महामाया को अंबिका देवी भी कहा गया है। मान्यता है कि इनके नाम पर ही रियासतकालीन राजधानी का नामकरण विश्रामपुर से अंबिकापुर हुआ।प्रचलित दंत कथा के अनुसार अंबिकापुर में मां महामाया का धड़ जबकि बिलासपुर के रतनपुर में उनका सिर स्थापित है। सरगुजा महाराजा बहादुर रघुनाथशरण सिंहदेव ने जहां विंध्यासिनी देवी की मूर्ति को विंध्याचल से लाकर मां महामाया के साथ स्थापित कराया, तो वहीं मां महामाया की मूर्ति की प्राचीनता के संबंध में अलग-अलग दंत कथा प्रचलित हंै। कहा जाता है कि आदिकाल से ही यह क्षेत्र सिद्ध तंत्र कुंज के नाम से विख्यात था। यहां पर भी असम की कामाख्या देवी के मंदिर जैसी तंत्र पूजा हुआ करती थी।कहा जाता है कि मंदिर के निकट ही श्रीगढ़ पहाड़ी पर मां महामाया व समलेश्वरी देवी की स्थापना की गई थी। समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को उड़ीसा के संबलपुर से श्रीगढ़ के राजा साथ लेकर आए थे। उसी दौरान सरगुजा क्षेत्र में मराठा सैनिकों का आक्रमण हुआ। दहशत में आए दो बैगा में से एक ने महामाया देवी तथा दूसरे ने समलेश्वरी देवी की प्रतिमा को कंधे पर उठाया और भागने लगे। इसी दौरान घोड़े पर सवार सैनिकों ने उनका पीछा किया। एक बैगा महामाया मंदिर स्थल पर तथा दूसरा समलाया मंदिर स्थल पर पकड़ा गया। इस कारण महामाया मंदिर व समलाया मंदिर के बीच करीब 1 किलोमीटर की दूरी है। वहीं प्रदेश के जिन स्थानों पर महामाया मां की मूर्ति स्थापित की गई है उसके सामने ही समलेश्वरी देवी विराजमान हैं। इसके बाद मराठा सैनिकों ने दोनों की हत्या कर दी। दंत कथा के अनुसार मराठा सैनिकों ने माता रानी की मूर्तियों को अपने साथ ले जाना चाहा, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए। अंत में उन्होंने मूर्ति का सिर काट लिया और रतनपुर की ओर चल पड़े, लेकिन दैवीय प्रकोप से उन सब सैनिकों का संहार हो गया। इसलिए अंबिकापुर में माता का धड़ और रतनपुर में माता का सिर विराजमान है।ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 17वीं सदी तक मराठों का अभ्युदय हो चुका था। सन् 1758 में बिंबाजी भोसले के नेतृत्व में सरगुजा में मराठा आक्रमण का उल्लेख है। मराठों की सेना गंगा की तरफ जाते हुए इस राज्य में आई। मराठों का उद्देश्य केवल नागपुर से काशी और गया के तीर्थ मार्ग को निष्कंटक बनाना था। संभावना व्यक्त की जाती है कि आक्रमण अंबिकापुर के श्रीगढ़ में भी हुआ हो।शारदीय नवरात्र पर सिर होता है प्रतिस्थापितअंबिकापुर स्थित मां महामाया देवी व समलेश्वरी देवी का सिर हर वर्ष परंपरानुरूप शारदीय नवरात्र की अमावस्या की रात में प्रतिस्थापित किया जाता है। नवरात्र पूजा के पूर्व कुम्हार व चेरवा जनजाति के बैगा विशेष द्वारा मूर्ति का जलाभिषेक कराया जाता है। अभिषेक से मूर्ति पूर्णता को प्राप्त हो जाती है और खंडित होने का दोष समाप्त हो जाता है। आज भी यह परंपरा कायम है। माता का सिर बनाकर उस पर मोम की परत चढ़ाई जाती है और फिर माता के धड़ के ऊपर इसे स्थापित किया जाता है। बाद में पुराने सिर का विसर्जन कर दिया जाता है। वहीं पुरातन परंपरा के अनुसार शारदीय नवरात्र को सरगुजा महाराजा महामाया मंदिर में आकर पूजा अर्चना करते हैं। जागृत शक्तिपीठ के रूप में मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की अंगरक्षिका के रूप में पूजनीय हैं।महामाया मंदिर का वर्तमान स्वरूपवर्ष 1879 से 1917 के मध्य में कल्चुरीकालीन शासक बहादुर रघुनाथ शरण सिंहदेव ने नागर शैली में ऊंचे चबूतरे पर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। चारों तरफ सीढ़ी और स्तंभ युक्त मंडप बना है। बीचो बीच एक कक्ष है जिसे गर्भगृह कहते हैं। यहीं पर मां महामाया विराजमान हैं। गर्भगृह के चारों ओर स्तंभयुक्त मंडप बनाया गया है। मंदिर के सामने एक यज्ञशाला व पुरातन कुआं भी है। समय के साथ यहां पर भक्तों के लिए काफी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।मां महामाया, विंध्यवासिनी व समलेश्वरी देवी की कृपा इस अंचल के लोगों को पुरातन समय से ही प्राप्त हो रही है। मां महामाया के दर्शन के बाद समलेश्वरी देवी की के दर्शन से ही पूजा की पूर्णता होती है। इसलिए श्रद्धालु महामाया मंदिर के बाद समलाया मंदिर में भी मां के दर्शन करते हैं। वहीं अंबिकापुर में यहां मां महामाया के दर्शन करने के पश्चात रतनपुर-बिलासपुर मार्ग पर स्थापित भैरव बाबा के दर्शन करने पर ही पूजा पूर्ण मानी जाती है।
- -किस उम्र की कन्या के पूजन से मिलता है लाभमां शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र में व्रत और उपवास करने को शुभकारी माना गया है। इन नौ दिनों में भक्तगण यथाशक्ति माता की उपासना में लगे रहते हैं। नवरात्र में वैसे तो हर दिन का अपना अलग महत्व है, लेकिन अष्टमी और नवमीं तिथि को खास तौर से शुभ माना जाता है और इस दिन नौ कन्याओं का पूजन और उन्हें भोजन कराने की परंपरा रही है। हवन के पश्चात नौ कन्याओं को माता का प्रतीक स्वरूप मानकर उनका पूजन किया जाता है।नवरात्रि की अष्टमी तिथि के दिन हवन और उसके बाद नवमी तिथि को कन्या पूजन करने के बाद माता रानी को विदा करके व्रत का पारण किया जाता है। कुछ लोग हवन के बाद अष्टमी तिथि को ही कन्या पूजन कराते हैं। अष्टमी तिथि को मां महागौरी और नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री की पूजा करने का विधान है। नवमी तिथि को मां सिद्धिदात्री के पूजन के साथ कन्या भोजन कराने विशेष महत्व है। नौ कन्याओं के साथ एक बालक को भी बटुक भैरव या लांगुर का रुप मानकर पूजन किया जाता है। 2 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन कराने का विशेष महत्व माना गया है।क्या खिलाएंवैसे तो कन्याओं को यथाशक्ति अनुसार भोजन कराना चाहिए। मां भगवती को खीर, मिठाई, फल, हलवा, चना, मालपुआ प्रिय है इसलिए कन्यापूजन के दिन कन्याओं को खाने के लिए पूरी, चना और हलवा दिया जाता है। कन्याओं को केसर युक्त खीर, हलवा, पूड़ी का खिलाना चाहिए। ध्यान रखें कि उनके लिए बनाए खाने में लहसुन, प्याज का इस्तेमाल न हो।उम्र के अनुसार देवी तक पहुंचेगा अंशदुर्गा शप्तशती में कन्या भोजन के लिए दो वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्याओं को भोजन करने की बात कही गयी है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दो वर्ष की कन्या कुमारी होती, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा होती है। आप जिस उम्र की कन्या को भोजन करावाते हैं उससे सम्बन्धित देवी तक कन्या के माध्यम से उनका अंश पहुंच जाता है।भोजन कराने के साथ यह आवश्यक है कि आपके जरिए किसी भी कन्या का निरादर न हो। दस वर्ष तक की कन्या में मां का अंश मौजूद रहता और वह मां की तरह ही शुद्ध और निश्छल होती हैं। जो भक्त श्रद्धा भाव से कन्याओं में उनका अंश मानकर भोजन करवाता है उस भक्त पर सदा मां अनुकम्पा बनी रहती है। मान्यता है कि जो व्यक्ति कन्याओं का निरादर करते हैं उसके घर वे कभी नहीं जाती हैं और वह व्यक्ति मां के क्रोध का भागी बनता है।किस उम्र की कन्या पूजन से क्या है लाभ-2 वर्ष की कन्या गरीबी दूर करती है।-3 वर्ष की कन्या धन प्रदान करती है।-4 वर्ष की कन्या अधूरी इच्छाएं पूरी करती है।-5 वर्ष की कन्या रोगों से मुक्ति दिलाती है।-6 वर्ष की कन्या विद्या, विजय और राजसी सुख प्रदान करती है।-7 वर्ष की कन्या ऐश्वर्य दिलाती है।-8 वर्ष की कन्या शांभवी स्वरूप से वाद-विवाद में विजय दिलाती है।-9 वर्ष की कन्या दुर्गा के रूप में शत्रुओं से रक्षा करती है।-10 वर्ष की कन्या सुभद्रा के रूप में आपकी सभी इच्छाएं पूरी करती है।अष्टमी, नवमी और दशमी तिथि मुर्हुतहिन्दू पंचाग की गणना के अनुसार 23 अक्तूबर शुक्रवार सुबह 06:57 से अष्टमी तिथि आरंभ हो गई जो 24 अक्तूबर सुबह 6:58 तक रहेगी। उसके बाद नवमी तिथि 06:58 से आरंभ होकर 25 अक्तूबर सुबह 7:41 तक रहेगी। इसी तरह 25 अक्तूबर को 7:41 से दशमी तिथि आरंभ होगी जो 26 अक्तूबर सुबह 9:00 बजे तक रहेगी। इस तरह से 25 अक्तूबर को ही दशमी तिथि लगने के कारण इसी दिन दशहरा मनाया जाएगा।
- मां दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है।इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। यह ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।मंत्र- एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥कथापौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुंड और रक्तबीज नाम राक्षसों ने भूलोक पर हाहाकार मचा दिया था तब देवी दुर्गा ने चण्ड - मुंड का संहार किया परन्तु जैसे ही उन्होंने रक्तबीज का संहार किया तब उसका रक्त जमीन पर गिरते ही हज़ारों रक्तबीज उतपन्न हो गए। तब रक्तबीज के आतंक को समाप्त करने हेतु मां दुर्गा ने लिया था मां कालरात्रि का स्वरुप। मां कालरात्रि काल की देवी हैं। मां दुर्गा यह स्वरुप बहुत ही डरावना है।मां कालरात्रि की पूजा विधिनवरात्रि के सप्तम दिन मां कालरात्रि की पूजा करने से साधक के समस्त शत्रुओं का नाश होता है। हमे माता की पूजा पूर्णतया नियमानुसार शुद्ध होकर एकाग्र मन से की जानी चाहिए। माता काली को गुड़हल का पुष्प अर्पित करना चाहिए। कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष दीपक जलाकर रोली, अक्षत से तिलक कर पूजन करना चाहिए और मां काली का ध्यान कर वंदना श्लोक का उच्चारण करना चाहिए। तत्पश्चात मां का स्त्रोत पाठ करना चाहिए। पाठ समापन के पश्चात माता जो गुड़ का भोग लगा लगाना चाहिए। तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।माता को गुड़हल का फूल करें अर्पितमाता काली एवं कालरात्रि को गुड़हल का फूल बहुत पसंद है। इन्हें 108 लाल गुड़हल का फूल अर्पित करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। साथ ही जिन्हें मृत्यु या कोई अन्य भय सताता हो, उन्हें अपनी या अपने सम्बन्धी की लंबी आयु के लिए मां कालरात्रि की पूजा लाल सिन्दूर व ग्यारह कौडिय़ों से सुबह प्रथम पहर में करनी चाहिए। मां कालरात्रि की इस विशेष पूजा से जीवन से जुड़े समस्त भय दूर हो जाएंगे।