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शुरू होगा खरमास
नई दिल्ली। दिसंबर के महीने में भगवान सूर्य धनु राशि में प्रवेश करेंगेष सूर्य के धनु राशि में प्रवेश करने से सभी शुभ कार्य बंद हो जाएंगे और खरमास शुरू हो जाएगा। इसके बाद जनवरी में 14 जनवरी को सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश मकर संक्रांति को होगा। मान्यता है कि धनु संक्रांति पर भगवान सूर्यदेव की पूजा करने से भविष्य सूर्यदेव की तरह चमकता है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्यदेव संचरण करते हुए वृश्चिक राशि से धनु राशि में प्रवेश करेंगे। सूर्य का धनु राशि में प्रवेश ही धनु संक्रांति कहलाता है। इसी के साथ खरमास का आरम्भ हो जाएगा। खरमास में विवाहादि मांगलिक एवं शुभ कर्मों को वर्जित किया गया है। जब सूर्य देव गुरु की राशि धनु या मीन में विराजमान रहते हैं, उस समय को खरमास कहा जाता है। पौष खरमास का मास है, जिसमें किसी भी तरह के मांगलिक कार्य, विवाह, यज्ञोपवित या फिर किसी भी तरह के संस्कार नहीं किए जाते हैं। तीर्थ स्थल की यात्रा करने के लिए खरमास सबसे उत्तम मास माना गया है।
धनु संक्रांति में क्या करें
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार धनु संक्रांति के दिन घरों में सत्यनारायण भगवान की पूजा आदि की जाती है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिलती है। धनु संक्रांति केदिन सूर्य देव की आराधना करनी चाहिए। कहते हैं सूर्य की अराधना आपके भविष्य को भी चमकाती है। धनु ज्योतिषाचार्यों के अनुसार के दिन ओड़ीसा में भगवान जगन्नाथ की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान जगन्नाथ को मीठाभात अर्पित किया जाता है।
राशियों पर कैसा होगा असर
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्क राशि, सिंह राशि, तुला वालों , कुंभ राशि वालों और मीन राशि वालों के यह राशि परिवर्तन बहुत शुभ है। इस राशि परिवर्तन से कई राशियों को सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 133
(संसारी काम करते हुये किस प्रकार मन से ईश्वरीय साधना का लाभ मिल जाय, इस संबंध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन...)
...काम दो प्रकार का होता है, एक बौद्धिक; जिसमें आप दिमाग से विचार करते हैं और दूसरा शारीरिक। आप एक साधारण काम कर रहे हैं, जैसे साइकिल चला रहे हैं। आगे पीछे का भी ध्यान है। आगे कौन जा रहा है, उससे बचाना है। पीछे से कार आ रही है, उससे बचना है।
यद्यपि मन के बिना कोई कार्य नहीं होता। वह आपकी आँख के पास भी है, कान के पास भी है, हाथ पैर से आप साइकिल चला रहे हैं, उनके पास भी है। डॉक्टर से दवा लाना है उधर भी ध्यान है। लेकिन अपने बेटे की दवा लाना है, उसमें आपका अटैचमेन्ट है। वह आपका मेन लक्ष्य है। यह अटैचमेन्ट की सीट आप भगवान को दे दीजिये, बाकी संसार का सब काम कीजिये।
आपके संसारी सम्बन्धी भला यह कैसे जानेंगे कि अमुक काम तुमने क्या सोचकर किया है। उनका काम भगवान का काम सोचकर करो। वह काम भी अधिक अच्छा होगा। संसारी भी खुश रहेंगे और आपका वह सारा कार्य आपकी साधना हो जायेगी। आपके मन का लगाव संसार न होकर श्यामसुन्दर में हो जायेगा। सब काम प्रभु का समझकर करो। हानि में भी परीक्षा और लाभ में भी परीक्षा समझो। अपने को तृण से भी दीन समझो और अपमान में झल्लाओ नहीं, उसको आभूषण समझो।
जब दिमागी काम करना है उसको करने से पूर्व भगवान को याद कर लो। काम खूब मन लगाकर करो। पश्चात फिर उसे (भगवान) याद कर लो। श्यामसुन्दर को अपने पास बैठाये रहो और कार्य करते रहो। कोई आपका दुश्मन भी आ रहा है, रिवाल्वर लेकर। सोचो, मैं आत्मा हूँ, यह मेरा क्या बिगाड़ लेगा। शरीर से अलग होने पर प्रियतम (भगवान) के पास पहुँच जाऊँगा। डरो मत। सोचो कि यह सब प्रभु की लीला हो रही है। परीक्षा के लिये प्रति क्षण तैयार रहो। एक दिन जब यह नैचुरल हो जायेगा तो उसे (भगवान) निकालना चाहोगे तो भी मन से उसे निकाल न पाओगे।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, मार्च 2003 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - धनवान बनना आपकी मेहनत और बहुत कुछ भाग्य पर निर्भर करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कहा जाता है कि कुछ ऐसी राशियां हैं जो बहुत ही जल्दी उम्र में धन हासिल कर लेती है। ज्योतिष शास्त्र में ऐसी 5 राशियों के बारे में बताया गया है जो अपनी कठिन मेहनत से लक्ष्य प्राप्त कर अमीर बन जाते हैं। आइए जानें इन राशियों के बारे में -कन्या राशि- इस राशि के लोग अगर चाहें तो अपनी कठिन मेहनत और बेहतर समझ के जरिए अपने कठिन से कठिन लक्ष्य को पा सकते हैं। इनकी इन्ही खूबियों के कारण कहा जाता है कि ये जल्दी अमीर बनते हैं।इनकी खूबियां-सोच समझकर आगे बढ़ते हैं, मेहनती होते हैं, क्रिएटिव होते हैं, मुश्किल समय में भी धैर्य रखते हैं।वृषभ राशि- इस राशि के लोग बहुत प्रैक्टिकल होते हैं। अगर कहीं से धन कमाते हैं तो उसे इनवेस्ट करने के साथ बचत पर भी खूब ध्यान देते हैं। एक बार ये जो सोच लेते हैं, उसे पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं।इनकी खूबियां- हठी प्रकृति के लोग, बुद्धिमान और हर जिस को वर्तमान से जोड़कर चलना।वृश्चिक राशि-इस राशि के लोगों को पढ़ाई लिखाई में काफी मन लगता है और इसी के बल पर आगे बढ़कर ये धन अर्जित करते हैं। ये किसी भी चीज को बड़े ध्यान से सीखते हैं। यही नहीं आगे बढऩे की चाह इनमें शुरू से ही होती है।इनकी खूबियां- सही जगह दिमाग लगाना, कभी भी किसी चीज से हार नहीं मानते।सिंह राशि- इस राशि के लोग बहुत से लोग को प्रेरित कर अपने साथ मिला लेने में माहिर होते हैं। इनकी लीडरशिप बहुत ही गजब की होती है। इस राशि के लोग पैसे के साथ मान सम्मान पाने भी चाहते हैं। पैसा कमाने के साथ ये खर्चा भी खूब करते हैं।इनकी खूबियां- रचनात्मक किस्म , नेतृत्व क्षमता।मकर राशि- इस राशि के लोग बहुत ही गंभीर होते हैं। भावना बहकर नहीं दिमाग से सोचकर किसी काम को करते हैं । धन को भी इसी तरह कमाते हैं और जनकर बचत भी करते हैं।इनकी खूबियां-सेफ गेम खेलते हैं, लोगों की मदद भी करते हैं।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 132
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 3) ::::::
(1) तीन महाबल होते हैं। भक्त की चरण धूलि, भक्त के चरण का धोवन और भक्त का खाया हुआ उच्छिष्ट जूठन। ये तीन में महाबल होता है, श्रीकृष्ण प्रेम पैदा करने की शक्ति होती है। इसलिये इन तीनों का सेवन करना चाहिये।
(2) भगवान सर्वव्यापक हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वान्तर्यामी हैं, महाचेतन हैं। इसलिये हम कहीं भी भगवान की भावना कर लें भगवान का फल मिल जायेगा। यहाँ तक कि मन की बनाई हुई मूर्ति से भी अनन्त जीवों ने भगवत्प्राप्ति कर ली और मैं भी आप लोगों को मन से बनाई हुई मूर्ति की ही साधना बताता हूँ।
(3) भगवान का रूपध्यान अगर सौ बार बनाया और एक बार बना, बहुत है। हिम्मत करो आगे। दूसरी बार जब सौ बार करोगे तो दो बार होगा, फिर तीन बार होगा, फिर होने लगेगा। पहले करना, फिर होना। पहले प्रैक्टिस फिर हैबिट, नैचुरेलिटी।
(4) प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है श्रीकृष्ण भक्ति। श्रीकृष्ण को धारण करने के लिये श्रीकृष्ण भक्ति की रस्सी पकड़ो। वह भक्ति की रस्सी श्रीकृष्ण के हाथ में है। उसी रस्सी को पकड़ लो, वे खींच लेंगे। ऐसे ही जम्प करके ऊपर जाने की चेष्टा न करो। गिरोगे, सिर फट जायेगा।
(5) भगवान के अवतार के अनन्त कारण हैं किन्तु सबसे मुख्य कारण जीवों पर करुणावश कृपा करना है। भगवान का सगुण साकार अवतार जब होता है, वे अपना नाम, रूप, लीला, गुण, धाम यहाँ छोड़ जाते हैं, जिनका अवलम्ब लेकर अनंतानंत जीव उनके प्रेमानन्द को प्राप्त करते हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य एवं अध्यात्म सन्देश पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 131
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 2 के दोहा संख्या 10 से आगे)
प्रेम के अधीन श्याम नाम ते न कामा।लाला लाला कहें नित यशुमति भामा।।11।।
अर्थ ::: श्यामसुन्दर तो प्रेम के ही आधीन हैं। उनको किसी विशेष नाम से ही बुलाया जाय ऐसी कोई शर्त नहीं है। यशोदा तो केवल 'लाला' कहकर अपने कन्हैया को पुकारती हैं।
नाम चाहे जो लो करो प्रेम सुखधामा।सखा कहें कनुआ लंगर कहें बामा।।12।।
अर्थ ::: प्रेम मुख्य है। नाम सभी समान हैं। अपनी रुचि के अनुसार कोई भी नाम यदि प्रेमपूर्वक लिया जाता है तो वह नामी से मिलाने में समर्थ है। ग्वाल बाल अपने सखा को कनुआ कहते हैं। ब्रजबालायें लंगर कहकर ही श्यामसुन्दर को बुलाती हैं।
नामी के समान ही हैं नाम अरु धामा।रो के पुकारो जो तो कहें ब्रज बामा।।13।।
अर्थ ::: नामी की समस्त शक्तियाँ नाम एवं धाम में विराजमान हैं। यदि कोई जीव इस बात पर शत प्रतिशत विश्वास करके रो कर हरि को बुलाता है तो श्री हरि दौड़े चले आते हैं।
विधि हरि हर सुर मिलि एक ठामा।रो के पुकारा हरि आए तजि धामा।।14।।
अर्थ ::: जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गये, तब ब्रम्हादि देवताओं ने एक स्थान पर एकत्रित होकर रोकर श्री हरि का आह्वान किया। उस समय सर्वशक्तिमान प्रभु देवताओं के निकट अपना धाम छोड़कर चले आये।
शरणागत हाथ बिके श्याम अरु श्यामा।औरों की लिखा पढ़ी करें उर धामा।।15।।
अर्थ ::: जो सर्वभाव से श्यामा-श्याम के शरणागत हैं, उन जीवों के कर्मों का हिसाब-किताब न रखकर श्यामा-श्याम उनके हाथों बिक जाते हैं, अर्थात सर्वथा उनके दास बन जाते हैं किन्तु जो जीव शरणागत नहीं हैं, उनके हृदय में रहकर उनके प्रतिक्षण के शुभाशुभ कर्मों का हिसाब रखते हैं।
00 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढऩे पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 130
(अनन्यता के पालन तथा साधना की निरंतरता के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा नि:सृत प्रवचन अंश...)
...मेन पॉइन्ट ध्यान में रखो कि अंत:करण गन्दा है, इसको शुद्ध करने के लिये शुद्ध में डुबोना है। तो इतनी चीज शुद्ध हैं - भगवान, भगवान को पा लेने वाला सन्त और भगवाब का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम। इतने में कहीं मन रहे सब ठीक है, वो अनन्य है।
लेकिन इसके नीचे जो चार हैं - सात्विक, राजस, तामस और मायिक सामान - इनमें अटैचमेन्ट कहीं हुआ तो अनन्यता भंग हो गई। जैसे आप संसार में अपनी माँ से प्यार करते हैं, अपने पिता से प्यार करते हैं, अपनी बीवी से प्यार करते हैं, अपने पति से करते हैं, अपने बेटा, भाई, बहन, नाती, पोते से प्यार करते हैं, तो कोई बुरा नहीं मानता। किसी माँ ने कहा कि तुम अपनी स्त्री से क्यों प्यार करते हो जी, खाली हमसे किया करो। अरे हमारे चार बेटे हैं, तो किसी बेटे ने कहा कि और बेटों से प्यार न करना पापा, खाली हम ही से करना।
तो जैसे संसार में अपने ब्लड रिलेशन में प्यार करना मना नहीं। ऐसे ही भगवान कहते हैं कि हमारे परिवार में खूब प्यार करो, हमारे सन्त से, हमारे नाम से, हमारे गुण से, हमारी लीला से, हमारे धाम से। तो हमारा ही प्यार कहलायेगा वो। क्योंकि इनमें भेद नहीं होता। भगवान का नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, सन्त इनमें सबमें सबका निवास है। कोई छोटा बड़ा नहीं है। भगवान में सब रहते हैं, सबमें भगवान रहते हैं। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण सम्बन्धी सब वस्तुओं से कहीं भी मन का अटैचमेन्ट करो तो सही है और मायिक जीव या मायिक सामान में अटैचमेन्ट हुआ तो वो अन्य हो गया, वो अपराध हो गया। उस पर कृपा नहीं होगी। जरा भी कहीं गड़बड़ है, अटैचमेन्ट है, पॉइन्ट वन परसेन्ट भी, तो भगवान कहते हैं कि अभी दूर है।
यदा ह्योवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति।(तैत्तिरियोपनिषद 2-7)
देखो पारस और लोहा अगर मिल जायें तो लोहा सोना बन जाता है। लेकिन अगर पारस लोहे के पास आ गया तो नहीं बनेगा। एक नंगा तार जा रहा है उसमें इलैक्ट्रिसिटी है, हम उसके पास उँगली ले गये, कोई बात नहीं, अभी नहीं बिजली आई तुम्हारे शरीर में, जब छू गया तो उसने पकड़ लिया। ऐसे ही मन केवल भगवान के एरिया वालों में 'ही' रहे, 'भी' नहीं।
अभ्यास करते-करते होगा एक दिन, एक साल में हो, एक जन्म में हो, हजार जन्म में करो। ये तो तुम्हारी स्पीड पर निर्भर है। एक आदमी दो कदम चले आगे और एक कदम पीछे तो वो बहुत दिन में पहुँचेगा मथुरा, एक आदमी लगातार चले तो जल्दी पहुँचेगा। एक दौड़ता हुआ चले तो और जल्दी पहुँचेगा, एक कार से जाय तो वो और जल्दी पहुँचेगा। तो ये तो अपनी अपनी साधना पर निर्भर है। लेकिन एक दिन वहीं पहुँचना होगा कि राधाकृष्ण के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, जन में ही मन लग जाय और कहीं न जाय। उसको कहते हैं अनन्य।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक, प्रवचन संख्या 2300 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 129
(राम कृष्ण में भेद नहीं है - विषय पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन का एक अंश)
...भगवान के अनन्त अवतारों में थोड़ा भी भेदभाव करने वाला नामापराधी है। सबसे बड़ा पापात्मा। इसलिये ये जब आप लोग वेद का मंत्र बोलते हैं कीर्तन करते हैं सब लोग, 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे', ये कलिसंतरिणोपनिषद का मंत्र है। तो राम के उपासक 'हरे राम' तो बोल देते हैं, 'हरे कृष्ण' नहीं बोलते और हरे कृष्ण वाले एक सम्प्रदाय है हमारे देश में तो वो ये 'हरे राम' ऊपर लिखा हुआ है वेद में तो उन्होंने 'हरे कृष्ण' को ऊपर कर दिया।
पहले 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।' ऐसी मूर्खता आप लोग कभी न करेंगे। चाहे राम कहो; चाहे श्याम कहो; सब भगवान के नाम हैं और सब एक फल देने वाले हैं। भगवान में कोई छोटा बड़ा नहीं होता।
देखो हमारे संसार में एक आदमी है। वो किसी का पति है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है, वो कभी ऑफिस में बैठता है बड़े अप टू डेट ढंग से सीरियस तो जब घर में आता है तो लुंगी पहनकर के अपना और ढंग से रहता है। तो क्या वो बदल गया। क्या स्त्री कहेगी कि तुम ऑफिस वाले तो ये नहीं हो। हाँ। कोई माँ ऐसा कहेगी?
तो भगवान के समस्त अवतारों की लीलायें अलग-अलग होती हैं। देश काल के अनुसार इसलिए उनकी लीलाओं में रस लेना चाहिये। हाँ आपको मर्यादा की लीला में रस नहीं मिलता, प्रेम लीला में रस लो। मर्यादा में रस मिलता है उसमें लो, दोनों में लो। हर अवतार का रस लो। भगवान के अवतारों में भेदभाव नहीं होना चाहिये। सब अवतार एक हैं। उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके जन ये सब एक हैं। इनमें कहीं भी मन का अटैचमेंट हो तो अनन्य ही रहेगा। अन्य नहीं हो जायेगा। माया के एरिया में गये बस अन्य हो गये। अब अनन्य नहीं रहे।
जो मायाबद्ध हैं देवता स्वर्ग के, मनुष्य जिन्होंने भगवत्प्राप्ति नहीं की, मायाबद्ध हैं। राक्षस मायाबद्ध हैं। यानी सात्विक राजस तामस, ये तीन लोग जो हैं ये माया के अण्डर में हैं। इनमें मन का अटैचमेंट नहीं होना चाहिये। ड्यूटी। अजी अपनी माँ से प्यार कर रहे हैं। कोई पाप है? हाँ पाप है। भगवान ने कहा है तुमसे केवल मुझसे प्यार करो। केवल, अनन्य। अनन्य का मतलब क्या? लक्ष्मण ने क्या कहा था;
गुरु पितु मातु न जानहु काहू।मोरे सबहि एक तुम स्वामी।त्वमेव सर्वं मम देवदेव।
भगवान ही हमारी असली माँ है। ये संसार की माँ संसार के पिता तो हर जन्म में बदलते रहते हैं। कितने पिता हो चुके हम लोगों के, गिनती है? कुत्ते भी पिता बने, गधे भी पिता बने, हर योनि में हम लोग गये। अनन्त पिता बन चुके, अनन्त माँ, अनन्त बीवी, अनन्त पति, अनन्त बेटा-बेटी। कहाँ हैं वो? सब बदलते रहते हैं लेकिन भगवान जो हमारा माता पिता है वो सदा एक था, एक है, एक रहेगा। इसलिये भगवान राम-कृष्ण में भेदभाव न करके जिसमें भी मन का झुकाव हो उसमें प्यार करो वो बात अलग है लेकिन दो न मानो। भेद न मानो, बुद्धि को समझा दो। ये बहुत बड़ा अपराध है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2015 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ऋग्वैदिक काल में लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया है। इस समय 'बहुदेववाद' का प्रचलन था। वैदिक धर्म पूर्णत: प्रतिमार्गी हैं और वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की आराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की आराधना पशु के रुप में की जाती थी। अज एकपाद और अहितर्बुध्न्य दोनों देवताओं परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना चितकबरी गाय के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला सरमा (कुत्तिया) स्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य को अश्व के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं के पूजा प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक आर्यों की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन्, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत्, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृत्ति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्याय संगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है। ऋग्वेद के कऱीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं और अग्नि उसका यमज भाई है तथा मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान् विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है। वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद में दूसरा महत्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियां दी जाती थीं। ऋग्वेद में कऱीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हें 'अथर्वन' कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्ज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियां जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दांव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रात: काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है।तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हे ऋतस्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद मे वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हे असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वां मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। माना जाता है कि वरुण देवता दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीडि़त करते थे।--
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 128
साधक का प्रश्न : महाराज जी! महापुरुषों को प्रारब्ध क्यों भोगना पड़ता है?
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :::
भगवान का कानून है -
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभं। (महाभारत)
ताकि भगवान के ऊपर लांछन न लगे कि क्यों जी, अपने जन के लिये तो रियायत हो गई और हमको ये भोगना पड़ेगा। ये भगवान के ऊपर न दोषारोपण हो इसलिये भक्त कहता है, अरे हमको उसकी फीलिंग तो होनी नहीं है, हमारा पिता मरेगा, बेटा मरेगा, धन लुटेगा, शरीर में रोग होगा, हमें उसकी फीलिंग तो होना नहीं है फिर ये क्यों हम भगवान को बदनाम करने के लिये प्रारब्ध को काटें। वैसे काटने का अधिकार ज्ञानी को नहीं है, भक्त को है।
00 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2015 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 127
(नीचे का उद्धरण अंश जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित 103-प्रवचनों की ऐतिहासिक श्रृंखला 'मैं कौन? मेरा कौन?' के 56-वें प्रवचन से है, जो कि उन्होंने 11 अगस्त सन 2010 को श्री बरसाना धाम में दी थी।)
...प्राचीनकाल में ऐसे अंजन बनाये जाते थे कि जो मोतियाबिंद के मरीजों को आँख में देने से उसी अंजन से धीरे धीरे मैल कटता था। आजकल उसे काटकर निकाल देते हैं, पहले वो अंजन से कटता था, धीरे धीरे। तो जैसे जैसे वो कटता था वैसे वैसे पहले मोटी चीज दिखाई पडऩे लगी फिर और पतली चीज फिर और पतली चीज फिर एकदम ठीक हो गई।
(भगवान कहते हैं) ऐसे ही जो मेरी भक्ति करता है तो ज्यों-ज्यों भक्ति करता जाता है त्यों-त्यों संसार से वैराग्य और मुझमें प्यार नैचुरल, नैचुरल स्वाभाविक प्यार, होने लगता है, रहा नहीं जाता। आज कुछ भगवान संबंधी बात नहीं हुई दिन भर, खराब हो गया, बेचैनी हो रही है। वो आ गया था, खोपड़ा खाता रहा, वो आ गई थी ए दिमाग खराब हुआ और सबसे अन्त में भगवान ने उद्धव से कहा कि देखो मैं सारांश बताता हूँ अब और सब ज्ञान भुला दो तो भी चलेगा। क्या सारांश?
विषयान् ध्यायतश्चित्तम् विषयेषु विषज्जते।मामनुस्मरतश्चित्तम् मय्येव प्रविलीयते।।(भागवत 11-14-27)
जैसे संसारी पदार्थों में सुख मान मान करके तुमने उसमें अटैचमेंट किया था, मान मान करके, जबरदस्ती और मैं तो आनन्दसिन्धु हूँ फैक्ट में। जो मुझमें सुख मानकर के बार बार बार बार बार बार चिन्तन करेगा उसका मुझमें अटैचमेंट हो जायेगा। हो गई भक्ति, बस। बार बार चिन्तन से अटैचमेंट होता है। संसार में भी ऐसे ही होता है।
दो भाई बैठे थे, एक लड़की जा रही थी। दोनों ने देखा। एक ने कहा कि बड़ी सुन्दर लड़की है, दूसरे ने कहा, हाँ हाँ। दूसरा भाई चला गया अपना कहीं। इस भाई ने सोचा कि इससे मिलना चाहिये। कौन है? कहाँ रहती है? इसका पिता क्या करता है? लग गया पीछे। एक दिन हुआ, दो दिन हुआ, मौका नहीं लगा बात करने का। मिलना है, कैसे नहीं करेगी बात? कोई तरकीब कोई बहाना। एक दिन ऐसा चांस आ गया। आप कहाँ रहती हैं? बहन जी! पहले बहन जी कहता है और भावना है श्रीमती जी बनाने की। वो भी भोली भाली लड़की है। उसने कहा भाई साहब! मैं वहाँ रहती हूँ। तुम्हारे डैडी क्या करते हैं? हमारे डैडी इंसपेक्टर हैं। मैं यहाँ रहता हूँ। मेरे डैडी अरबपति हैं। झूठ बोला। अब लड़की को, सोचने को मजबूर कर दिया। अरबपति है, शकल वकल तो ठीक है। लेकिन अब इससे बात कैसे करें? हटाओ। फिर वो पीछे पड़ा।
अब वो चिन्तन चिन्तन चिन्तन चिन्तन, रात दिन। उसका भाई कहे कि तू कहाँ खोया रहता है, आजकल। कुछ नहीं भइया ऐसे ही। झूठ बोल रहा है ऐसे ही ऐसे ही। आखिरकार एक दिन ऐसा मौका आ ही गया कि साफ साफ उसने कह दिया, 'मुझसे शादी करोगी?' तो उसने एक झापड़ लगाया। लौट कर आया, उसने खरीदा पॉइजऩ और खाकर सो गया, सदा को छुट्टी। ये क्यों हुआ? चिन्तन से, लगातार चिन्तन से।
ऐसे ही लगातार चिन्तन करने से तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु लोग, भगवान के पास पहुँचे थे। और कुछ नहीं। ये शास्त्र वेद तो केवल विश्वास के लिये और वैराग्य के लिये जरूरी है। यहाँ नफरत हो जाय इससे। ये संसार क्या है? फैक्ट इसका मालूम हो जाय कि ये धोखा देने वाला है। ये मन दुश्मन है, इसको हम दोस्त माने बैठे हैं। ये सब ज्ञान के लिये, गुरु की आवश्यकता है। भगवान को पाने के लिये मेहनत नहीं है। बस वो (भगवान) 'मेरा' है, वो 'मेरा' है, वो 'मेरा' है। ये संसार 'मेरा' है, ये एबाउट टर्न हो जाओ, वो 'मेरा' है, वो 'मेरा' है। ये चिन्तन जितना तेज होगा, उतने ही पास पहुँचते जायेंगे आप (भगवान के)।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: 'मैं कौन? मेरा कौन?' प्रवचन श्रृंखला, 56-वाँ प्रवचन00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 126
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें ::::::
(1) दिव्य प्रेमास्पद का दिव्य प्रेम ही सर्वोत्कृष्ट तत्व है। प्रेम का तात्पर्य तत्सुख सुखित्वं अर्थात प्रेमास्पद के सुख में ही सुख मानना है।
(2) आँसू बहाओ तब अंतःकरण शुद्ध होगा। जब अंतःकरण शुद्ध होगा तब गुरु उस अंतःकरण को, इन्द्रियों को दिव्य बनायेगा। तब दिव्य भगवान का दर्शन आप इन आँखों से कर सकेंगे।
(3) ब्रम्हलोक पर्यन्त के सुखों की कामना एवं पाँचों मुक्तियों की कामनाओं का त्याग करके ही विशुद्धा भक्ति सरोवर में अवगाहन करो। अन्यथा प्रेम के उज्ज्वल स्वरूप पर कामनाओं का काला धब्बा लग जायेगा।
(4) गुरु को अपना इष्टदेव, अपनी आत्मा मानो। अर्थात आत्मा से भी आराध्य है गुरु, ऐसा मानकर जो उपासना करेगा, उसी को भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
(5) अपने अशुद्ध मन को गुरु के निर्देशन में रहकर शुद्ध करना चाहिये। गुरु द्वारा बताई हुई साधना द्वारा अंतःकरण शुद्ध कर लेने पर ही जीव दिव्य भगवद्धाम में जाने का अधिकारी बनता है।
०० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारतीय इतिहास अति प्राचीन है। भगवान श्री राम की पीढ़ी 65वीं है जबकि कृष्ण की 94वीं है। कृत युग से द्वापर के अन्त तक की वंशावली यहाँ दी जा रही है। भारत के प्राचीन सप्तर्षि पंचांग के अनुसार यह कालक्रम 6676 ईपू से आरम्भ होता है।पुराणों में उपलब्ध वंशावलीउपलब्ध वंशावली मनु (प्रथम मानव) से आरम्भ होती हैं और भगवान कृष्ण की पीढ़ी पर समाप्त होती है। पूरी वंशावली जो पुराणों मे उपलब्ध है, नन्द वंश तक की ही है।अयोध्याकुल इस प्रकार हैमनु , इक्ष्वाकु , विकुक्षि-शशाद ,कुकुत्स्थ ,अनेनस, पृथु , विष्टराश्व, आद्र्र, युवनाश्व, श्रावस्त, बृहदश्व, कुवलाश्व, दृढाश्व, प्रमोद, हरयश्व, निकुम्भ , संहताश्व, अकृशाश्व, प्रसेनजित् , युवनाश्व 2 , मान्धातृ, पुरुकुत्स, त्रसदस्यु , सम्भूत, अनरण्य, त्रसदश्व , हरयाश्व 2, वसुमत , त्रिधनवन्, त्रय्यारुण ,सत्यव्रत,,हरिश्चन्द्र, रोहित , हरित , विजय , रुरुक, वृक, बाहु, सगर ,असमञ्जस् ,अंशुमन्त् , दिलीप 1 , भगीरथ ,श्रुत ,नाभाग ,अम्बरीश, सिन्धुद्वीप ,अयुतायुस् ,ऋतुपर्ण ,सर्वकाम ,सुदास, मित्रसह, अश्मक, मूलक, शतरथ , ऐडविड, विश्वसह 1 ,दिलीप 2 ,दीर्घबाहु ,रघु ,अज, दशरथ, राम, लव-कुश, अतिथि, निषध , नल ,नभस् ,पुण्डरीक , क्षेमधन्वन् ,देवानीक ,अहीनगु, पारिपात्र ,बल , उक्थ ,वज्रनाभ ,शङ्खन् , व्युषिताश्व , विश्वसह 2 , हिरण्याभ ,पुष्य , ध्रुवसन्धि,सुदर्शन , अग्निवर्ण ,शीघ्र ,मरु, प्रसुश्रुत ,सुसन्धि ,अमर्ष , विश्रुतवन्त्, बृहद्बल , बृहत्क्षय।पौरवकुल इस प्रकार हैमनु , इला, पुरुरवस्, आयु , नहुष ,ययाति ,पूरु , जनमेजय , प्राचीन्वन्त् ,प्रवीर, मनस्यु, अभयद , सुधन्वन् , बहुगव ,संयति, अहंयाति, रौद्राश्व ,ऋचेयु , मतिनार, तंसु।यादवकुल इस प्रकार हैमनु , इला , पुरुरवस् ,आय, नहुष ,ययाति ,यदु ,क्रोष्टु , वृजिनिवन्त् , स्वाहि , रुशद्गु , चित्ररथ ,शशबिन्दु , पृथुश्रवस् , अन्तर , सुयज्ञ ,उशनस् ,शिनेयु , मरुत्त ,कम्बलबर्हिस् ,रुक्मकवच ,परावृत् , ज्यामघ , विदर्भ , क्रथभीम ,कुन्ति , धृष्ट , निर्वृति , विदूरथ ,दशार्ह ,व्योमन् , जीमूत , विकृति , भीमरथ, रथवर, दशरथ ,एकादशरथ, शकुनि , करम्भ ,देवरात, देवक्षत्र, देवन , मधु , पुरुवश , पुरुद्वन्त ,जन्तु, सत्वन्त् , भीम, अन्धक, कुकुर , वृष्णि ,कपोतरोमन , विलोमन् ,नल , अभिजित् ,पुनर्वसु ,उग्रसेन ,कंस , ,कृष्ण , साम्ब।श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों चन्द्रवंशी थेसमय के साथ श्रीकृष्ण यदुवंशी बने। वहीं अर्जुन पुरुवंशी हुए। बाद में कौरव और पांडव दोनों भरतवंशी या कुरुवंशी कहलाए। कथाओं के अनुसार ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि अत्री और सती अनसूया से चंद्र जन्मे। इसके बाद देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा और चंद्रमा के मेल से बुध पैदा हुए। बुध और इला से ही पुत्र पुरुरवा का जन्म हुआ। इसके बाद पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के विवाह से छह पुत्रों का जन्म हुआ। जिनमें आयु नाम के पुत्र से नहुष और नहुष के बेटे ययाति हुए। ययाति के देवयानी और शर्मिष्ट से मिलन से क्रमश: यदु और पुरु जन्मे। इसी यदु और पुरुवंश में श्रीकृष्ण और अर्जुन पैदा हुए।श्री कृष्ण चंद्रवंशी या यदुवंशी?श्रीकृष्ण जी का जन्म चन्द्रवंश में हुआ। इस वंश में सातवीं पीढ़ी में राजा यदु हुए थे। यदु की 49वीं पीढ़ी में कृष्णजी हुए। यदु की पीढ़ी में होने के कारण इनको यदुवंशी बोला गया। भाटी, चुडसमा, जाडेजा, जादौन, जादव और तवणी को आज कृष्ण का ही वंशज माना जाता है। कहा जाता है कि कृष्णजी का छत्र और सिंहासन आज भी जैसलमेर के भाटी राजपरिवार के संग्रहालय में रखा है। उन्हें भी श्रीकृष्ण का वंशज कहा जाता है। मत्स्य पुराण के श्लोक 14 से 73 में वर्णित है- ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णि वंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे।मत्स्य पुराण (64-73) के अनुसार -वसुदेव-देवकीबुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन! पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। 9 उन आहुक के प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।'
- (स्मृति-लेख)
'जगदगुरुत्तम-महाप्रयाण दिवस'(जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी का गोलोकगमन-दिवस)
क्या लिखें....?
..हृदय आज नतमस्तक है और मौन है। उनके शरणागत की लेखनी और उसकी वाणी में आज किंचित भी क्षमता नहीं हो सकती है, तथापि नित्य सदा सर्वदा सर्वत्र उनकी दिव्य उपस्थिति तथा उनके दिव्य मार्गदर्शन की अनुभूति करते हुये कुछ शब्द उनके प्रति प्रेम तथा कृतज्ञ भाव से लिखे जाते हैं।
आज कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि है। यह तिथि जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी का 'लीला संवरण' अथवा 'गोलोक महाप्रयाण दिवस' (जगद्गुरुत्तम्-महाप्रयाण दिवस) है। आज ही की तिथि में 15 नवम्बर 2013 को उन्होंने नित्य निकुंज लीला में प्रवेश कर लिया था।
स्वयं श्रीराधाकृष्ण अथवा भक्ति महादेवी ने ही 'जगद्गुरुत्तम्' रूप में अवतार लेकर इस विश्व को आध्यात्मिक रूप से पुनः संगठित किया, भक्ति के विकृत स्वरूप को सुधारकर उसका समस्त विश्व में प्रसार किया। सर्वोत्तम रस ब्रजभक्ति (माधुर्य भाव/ गोपी भाव) का श्री कृपालु महाप्रभु ने उन्मुक्त भाव से दान किया और अनधिकारी जनों को भी उस रस का अधिकारी बनाया। आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में उनके किये उपकार कभी भी भुलाए ना जा सकेंगे, और ना ही उन उपकारों का ऋण उतारा जा सकेगा..
एक बात और है कि महापुरुष भौतिक दृष्टि से तो ओझल हो सकते हैं किंतु अपने शरणागत को कभी भी वे त्यागते नहीं हैं। हे कृपालु महाप्रभु ! साधक समुदाय का यह अनुभव है कि आज यद्यपि भौतिक दृष्टि से आप दिखाई नहीं देते, परंतु आपकी अनुभूति सदैव आपके शरणागतों हृदय में क्षण क्षण रहती है, आपकी कृपा से ही उनका अस्तित्व है, आप सदैव उनके साथ हो...
अपने प्रवचनों में, अपने ब्रज-साहित्यों के अक्षर-अक्षर में, श्री प्रेम मंदिर, भक्ति तथा कीर्ति मन्दिर आदि के रूप में आप अप्रकट होकर भी प्रकट रूप में विराजमान हैं। ये सभी आपकी कृपाओं तथा महानोपकारों की अलौकिक गाथा चिरयुगों तक गाते रहेंगे।
०० जगद्गुरुत्तम् कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिया गया शास्त्रों का सारांश ::::::
1. ब्रम्ह, जीव, माया तीनों सनातन हैं।
2. ब्रम्ह की पराशक्ति जीव एवं अपराशक्ति जड़ माया है. दोनों का शासक ब्रम्ह है।
3. मायाशक्ति जीव पर सदा से अधिकार किये है, क्योंकि जीव भगवान् से विमुख है।
4. भगवान् की प्राप्ति से ही जीव को दिव्य आनन्द को प्राप्ति होगी एवं माया से छुटकारा मिलेगा।
5. भगवान् की प्राप्ति एवं माया निवृत्ति भगवान् की कृपा से ही होगी।
6. भगवान् की कृपा मन से अनन्य भाव से भक्ति करने पर ही मिलेगी।
7. भक्ति में निष्काम भाव, भगवत्सेवा तथा निरंतरता आवश्यक है।
8.रूपध्यान युक्त निष्काम आँसुओं से ही अंतःकरण शुद्ध होगा।
9. अंतःकरण शुद्ध होने पर गुरुकृपा से स्वरूप शक्ति मिलेगी. तब मायानिवृत्ति एवं भगवत्प्राप्ति होगी. तभी भगवत्सेवा रूपी चरम लक्ष्य प्राप्त होगा।
आज उनके 'महाप्रयाण दिवस' पर समस्त विश्व द्वारा उनके कोमल पादपद्मों में कोटिशः नमन... - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 124
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 1 के दोहा संख्या 5 से आगे)
रसना की भक्ति ते ना बने कछु कामा।शून्य का करोड़ गुना शून्य आवे बामा।।6।।
अर्थ ::: केवल रसना आदि इन्द्रियों की भक्ति से जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। शून्य में करोड़ का गुणा करने से शून्य ही प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि अन्त:करण शुद्धि तो इष्ट में मन के संयोग से ही होगी. मन का योग ही वास्तविक भक्ति है। इन्द्रियाँ भी मन के साथ लगी रहें तो ठीक है परन्तु इन्द्रियों की क्रिया का महत्व नहीं है।
देह सम कीर्तन नाम गुन धामा।प्रान समान रूप-ध्यान श्याम श्यामा।।7।।
अर्थ ::: भगवन्नाम, लीला, गुणादि का कीर्तन शरीर के समान है। श्यामा-श्याम का रुपध्यान प्राण के समान है। प्राण के बिना जिस प्रकार शरीर मृत है, उसी प्रकार रुपध्यान से रहित नाम, लीला, गुणादि का कीर्तन लाभप्रद नहीं होगा।
श्यामा श्याम नाम जपो चाहे आठु यामा।बिना प्रेम रीझें नहिं कभू श्याम श्यामा।।8।।
अर्थ ::: श्यामा-श्याम प्रेम से ही रीझते हैं अत: प्रेम रहित नाम भले ही आठों याम क्यों न लिया जाय, श्यामा-श्याम की प्रसन्नता की प्राप्ति नहीं करा सकता।
प्रेम ही है सब साधन परिणामा।प्रेम में भी भान रहे सदा निष्कामा।।9।।
अर्थ ::: समस्त साधनों का फल प्रेम ही है। 'ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय'। प्रेम में भी निष्कामता का सदा ध्यान रहे।
रिद्धि मिले सिद्धि मिले मिले मोक्षधामा।सब हैं अज्ञान ज्ञान प्रेम श्याम श्यामा।।10।।
अर्थ ::: रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति या मोक्ष की प्राप्ति तो अज्ञान ही है। सच्चा ज्ञान तो वही है जिससे श्यामा-श्याम के प्रेम की प्राप्ति हो।
00 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढऩे पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 123
(अनन्यता एवं शरणागति का रहस्य, जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी यहाँ से पढ़ें..)
..हम लोग अनन्यता पर ध्यान नहीं देते। अनन्य शब्द का अर्थ है अन्य नहीं अर्थात् केवल एक श्यामसुन्दर से प्रेम होना ही अनन्यता है। साधक के अन्त:करण में यदि श्यामसुन्दर के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व आ जायगा तो अनन्यता में बाधा पड़ जायेगी और प्रेमास्पद उसका न बन सकेगा। देखिये, द्रौपदी के उद्धार का रहस्य।
जब द्रौपदी दु:शासन के द्वारा सभा में लायी गयी, तब द्रौपदी के समक्ष एक भयानक परिस्थिति थी। भरी सभा में एक भारत की प्रमुख नारी इस प्रकार अपमानित हो, यह अनुभवी की अन्तरात्मा ही समझ सकती है। अस्तु, द्रौपदी ने प्रथम यह सोचा कि मेरे पांच-पांच पति हैं (युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव) ये हमारी रक्षा करेंगे, अब क्या डर है! किन्तु पांचों पति जुए में हार जाने के कारण चुपचाप बैठे रहे तो द्रौपदी के अन्त:करण से पतियों का बल निकल गया। अब द्रौपदी ने सोचा कि भीष्मपितामह, द्रोणाचार्यादि बड़े बड़े धर्माचार्य रक्षा करेंगे। जब वे भी चुप रहे, तब उनका भी बल निकल गया। अब द्रौपदी के अन्त:करण से समस्त विश्व का बल निकल गया, किन्तु अपना बल रह गया अर्थात् मैं स्वयं अपनी रक्षा करूँगी। भला एक अबला का बल ही क्या है जो 10-हजार हाथी के बल वाले दु:शासन का मुकाबला कर सके। द्रौपदी ने दाँत से साड़ी दबायी। उस समय भगवान् द्वारिका में भोजन कर रहे थे। एक ग्रास मुँह में था, उसे न निगल सके, न उगल सके, एक हाथ मुँह की ओर जा रहा था, उसे न मुँह में डाल सके, न पात्र में तथा आँखें निर्निमेष खुली रह गयीं। ऐसी विलक्षण स्थिति देखकर रुक्मिणी ने पूछा, क्या बात है? भगवान ने कहा, बड़ी गंभीर बात है, एक भक्त पर कष्ट आ पड़ा है। रुक्मिणी ने कहा, तो फिर जाकर बचाओ। भगवान् ने कहा, मैंने हजार बार कहा है-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
अर्थात् मैं उसी का योगक्षेम वहन करता हूँ जो अनन्य शरणागत हो, किन्तु वह भक्त अभी अपने बल का विश्वास कर रहा है। अस्तु, दु:शासन ने जैसे ही साड़ी को झटका दिया, वैसे ही द्रौपदी के हाथ से साड़ी खिसक गयी।
अब द्रौपदी ने अपने बल का परित्याग कर दिया। अब केवल श्यामसुन्दर के ही बल पर निर्भर हो गयी। बस, अनन्य हो गयी। अम्बरावतार हो गया अर्थात् चीर बढ़ाने के लिये भगवान् तत्क्षण पहुँच गये। भावार्थ यह है कि उपासना में अनन्यता प्रमुख वस्तु है, जिस पर लोगों का विशेष दृष्टिकोण नहीं रहता।
कुछ लोग भगवान् से भी प्रेम करते हैं किन्तु साथ ही अन्य देवताओं या संसारियों से भी प्रेम करते हैं, अतएव भगवत्प्राप्ति नहीं हो पाती। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक मन है, उसमें एक श्यामसुन्दर सम्बन्धी ही विषय रहे, अन्य मायिक सत्त्व, रज, तम सम्बन्धी तत्त्व न आने पायें। आजकल प्राय: उपासक लोग अनेक देवी-देवताओं की उपासना साथ-साथ करते रहते हैं। भगवान् की भी करते हैं, और यदि अवसर देखा तो कब्रिस्तान की भी कर लेते हैं। यह सब धोखा है। जब समस्त मायिक एवं अमायिक शक्तियों का मूल अधिष्ठान भगवान् ही है तो पृथक्-पृथक् उपासना क्यों की जाये? यह सिद्धान्त समझ लेना चाहिये कि सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना करने पर भी भगवान् की उपासना नहीं मानी जायगी, किन्तु एक भगवान् की उपासना कर लेने पर सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना मान ली जायगी।
येनार्चितो हरिस्तेन तर्पितानि जगंत्यपि।रज्यंते जन्तवस्तत्र स्थावरा जंगमा अपि॥(भ0र0सि0)
अर्थात् जिसने हरि की उपासना कर ली, उसने सबकी कर ली, सबकी तृप्ति हो गयी। वेदव्यास जी कहते हैं-
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा:।प्राणोपहाराच्चं यथेन्द्रियाणां तथैवं सर्वार्हणमच्युतेज्या॥(भागवत 4-31-14)
अर्थात् जैसे वृक्ष के मूल में जल देने से वृक्ष की शाखा, उपशाखा एवं उसके पत्र, फूल, फल सब को जल पहुँच जाता है, पृथक्-पृथक् जल देने की आवश्यकता नहीं रहती, वैसे ही समस्त शक्तियों के आधारभूत भगवान् की उपासना कर लेने पर समस्त शक्तियों की उपासना स्वयंमेव हो जाती है, तदर्थ पृथक् से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। किन्तु, जिस प्रकार समस्त पत्र, पुष्प, फलादि में जल देने से भी मूल को जल नहीं प्राप्त होता, यहाँ तक कि उस फल-फूलादि को भी जल भीतर से नहीं मिलता, उसी प्रकार समस्त देव दानव-मानव की उपासना से न उनकी तृप्ति ही होती है और न भगवान् की उपासना कहलाती है। अतएव उपासना केवल असीम दिव्य ईश्वर की ही करनी चाहिये, अन्य में आदरभावमात्र रखना चाहिए, जैसे एक पतिपरायणा स्त्री अपने पति में एकानुराग रखती है, किन्तु अपने अन्य देवर, ज्येष्ठ, सास, ससुर, नौकर आदि के प्रति आदर की बुद्धि रखती है।
(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति के आधीन। - हिंदू धर्म में सबसे शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष को मनाई जाती है। यह देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को है, जिसे हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।पौराणिक मान्यता के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से सभी शास्त्रों इस एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है। देवउठनी एकादशी दिवाली के बाद आती है। इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा जाता है।मान्यता है कि भगवान विष्णु के चार महीने के लिए क्षीर सागर में निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य थम जाते हैं। फिर देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। इसके अलावा इस दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है।देवउठनी एकादशी का शुभ मुहूर्तज्योतिषाचार्य डॉ.दत्तात्रेय होस्केरे ने बताया कि हिन्दी पंचाग के अनुसार मंगलवार 24 तारीख की मध्य रात्रि 2.42 मिनट से बुधवार 25 तारीख की रात्रि 5.10 मिनट तक एकादशी तिथि है। 25 तारीख को शाम 6.20 मिनट से रात्रि 8.00 तक तुलसी विवाह के लिए शुभ मुहुर्त है।डॉ.दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार जब भी द्वादशीयुक्त एकादशी होती है, तो उसी दिन देवउठनी एकादशी मनाने का प्रावधान है। यह योग 25 तारीख को बन रहा है। इसीलिए 25 तारीख को भी प्रबोधिनी एकादशी मनाई जाएगी।कैसे करें तुलसी पूजनतुलसी के पौधे के चारों तरफ गन्ने से स्तंभ बनाएं। फिर उस पर तोरण सजाएं। रंगोली से अष्टदल कमल बनाएं। शंख,चक्र और गाय के पैर बनाएं। तुलसी के साथ आंवले का गमला लगाएं। तुलसी की पंचोपचार सर्वांग पूजा करें। दशाक्षरी मंत्र से तुलसी का आवाहन करें। तुलसी का दशाक्षरी मंत्र-श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा। घी का दीप और धूप दिखाएं। सिंदूर,रोली,चंदन और नैवेद्य चढ़ाएं। तुलसी को वस्त्र अंलकार से सुशोभित करें। फिर लक्ष्मी अष्टोत्र या दामोदर अष्टोत्र पढ़ें। तुलसी के चारों ओर दीपदान करें।दिव्य तुलसी मंत्र -देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरै: । नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये ।।(1) ओम श्री तुलस्यै विद्महे।विष्णु प्रियायै धीमहि।तन्नो वृन्दा प्रचोदयात।।(2) तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।धम्र्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत।तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।मां तुलसी की स्तुतिनमो नमो तुलसी महारानीनमो नमो हरि की पटरानीजाको दरस परस अघ नासेमहिमा वेद पुराण बखानीसाखा पत्र, मंजरी कोमलश्रीपति चरण कमल लपटानीधन्य आप ऐसो व्रत किन्होंसालिग्राम के शीश चढ़ानीछप्पन भोग धरे हरि आगेतुलसी बिन प्रभु एक ना मानीप्रेम प्रीत कर हरि वश किन्हेंसांवरी सूरत ह्रदय समानीमीरा के प्रभु गिरधर नागरभक्ति दान दीजै महारानी।
- - देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन आपको सूर्योदय से पहले उठ जाना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन भी करना चाहिए।- देवउठनी एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखना चाहिए।एकादशी पर किसी भी पेड़-पौधों की पत्तियों को नहीं तोडऩा चाहिए।- एकादशी वाले दिन पर बाल और नाखून नहीं कटवाने चाहिए।-एकादशी वाले दिन पर संयम और सरल जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। इस दिन कम से कम बोलने की किसी कोशिश करनी चाहिए और भूल से भी किसी को कड़वी बातें नहीं बोलनी चाहिए।- हिंदू शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। एकादशी वाले दिन पर किसी अन्य के द्वारा दिया गया भोजन भी नहीं करना चाहिए।- एकादशी पर मन में किसी के प्रति विकार नहीं उत्पन्न करना चाहिए ।- इस तिथि पर गोभी, पालक, शलजम आदि का सेवन न करें।-देवउठनी एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्ति को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए- दक्षिणावर्ती शंख से करें विष्णु जी की पूजा- देवउठनी एकादशी के दिन दक्षिणावर्ती शंख से भगवान विष्णु की पूजा जरूर करनी चाहिए और शंख में गंगाजल भरकर भगवान विष्णु जी का अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से आपके ऊपर भगवान विष्णु की कृपा बनी रहेगी।- प्रबोधिनी एकादशी के दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु जी को पीले रंग का प्रसाद जरूर चढ़ाना चाहिए। मान्यता है कि भगवान विष्णु को पीले रंग का प्रसाद और फल चढ़ाने पर जल्दी खुश होते हैं और अपना आशीर्वाद देते हैं।- अगर आप भगवान विष्णु का आशीर्वाद चाहते हैं तो देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की पूजा जरूर करें ऐसा करने से धन लाभ होता है और आर्थिक जीवन आ रही समस्याएं दूर हो जाती हैं।- तुलसी विवाह का करें आयोजन- देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह की प्रथा है। इस एकादशी को तुलसी के पौधे और भगवान शालीग्राम का विधि अनुसार विवाह करें। संध्याकाल में तुलसी के पौधे पर एक घी का दीपक जरूर जलाएं। ऐसा करने से जीवन में सुख-संपत्ति और वैभव का आगमन होता है।- कच्चे दूध से करें विष्णुजी का अभिषेक-माना जाता है कि देवउठनी एकादशी के दिन एक लोटा जल में गाय के कच्चे दूध को मिलाकर भगवान विष्णु का अभिषेक करने से सारे पाप धुल जाते हैं। साथ ही यह उपाय शरीर के रोग-दोष को दूर सकता है।- तुलसी विवाह की पूजा में मूली, शकरकंदी, आंवला, सिंघाड़ा, सीताफल, बेर, अमरूद और अन्य मौसमी फल चढ़ाएं। इसके अलावा तुलसी के पौधे को आंगन के बीचों-बीच चौकी पर रखें और तुलसी जी को मेहंदी, फूल, चंदन, मौली धागा और सिंदूर जैसी सुहाग की चीजें अर्पित करें।- एकादशी के दिन श्रीहरि को तुलसी चढ़ाने का फल दस हज़ार गोदान के बराबर है। जिन दंपत्तियों के यहां संतान न हो वो तुलसी नामाष्टक पढ़ें। तुलसी नामाष्टक के पाठ से न सिर्फ शीघ्र विवाह होता है बल्कि बिछुड़े संबंधी भी करीब आते हैं। नए घर में तुलसी का पौधा, श्रीहरि नारायण का चित्र या प्रतिमा और जल भरा कलश लेकर प्रवेश करने से नए घर में संपत्ति की कमी नहीं होती।-नौकरी पाने, कारोबार बढ़ाने के लिये गुरुवार को श्यामा तुलसी का पौधा पीले कपड़े में बांधकर, ऑफिस या दुकान में रखें। ऐसा करने से कारोबार बढ़ेगा और नौकरी में प्रमोशन होगा।-जिन दंपत्तियों के यहां संतान नही है उन्हें देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी नामाष्टक का पाठ अवश्य करना चाहिए।-देवउठनी एकादशी के व्रत में नमक का प्रयोग बिल्कुल भी न करें हो सके तो इस दिन फलाहार से ही अपने व्रत का पारण करें।- देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को जगाने के लिए घंटा बजाया जाता है। इसलिए इस दिन व्रत करने वाले व्यक्ति को पूजन के घंटा बजाकर भगवान विष्णु को जगाना चाहिए।-देवउठनी एकादशी पर गाय को भोजन अवश्य कराएं और किसी निर्धन व्यक्ति या ब्राह्मण को भी इस दक्षिणा अवश्य दें।
- झाड़ू हर जगह पर इस्तेमाल होती है फिर चाहे वो घर हो या फिर ऑफिस हर जगह लोग इसे साफ-सफाई के दौरान इसका इस्तेमाल करते है। वास्तु के मुताबिक, यदि झाड़ू लगाने में या रखने में सावधानी न बरती जाए तो घर की पूरी बरकत चली जाती है। इसलिए झाड़ू का इस्तेमाल करते समय कुछ सावधानियां अवश्य बरतें, जैसे कि -टूटी झाड़ू का न करें इस्तेमालअगर घर में इस्तेमाल की गई झाड़ू टूट गई है तो ऐसे में उसका इस्तेमाल नहीं करें। कई बार लोग झाड़ू टूट जाने पर उसकी तीलियों को जोड़कर फिर से उसका इस्तेमाल करते हैं, जो कि गलत है। वास्तु के हिसाब से ऐसा करना अशुभ होता है।यहां कभी नहीं रखें झाड़ूझाड़ू रखने के लिए एक खास जगह निर्धारित कर लें। वहां पर कभी भी झाड़ू ना रखें जहां पर जेवरात या कीमती सामान हो या फिर तिजोरी है। इन स्थानों पर झाड़ू रखने से कारोबार-संपत्ति पर बुरा असर पडऩे लगता है।झाड़ू खड़ी करके ना रखेंघर में झाड़ू का इस्तेमाल करने के बाद उसे खड़ा रखने की बजाए लेटा दें। झाड़ू को कभी भी खड़ा करके न रखें। इस अवस्था में झाड़ू बड़ी अपशगुन मानी जाती है। झाड़ू को हमेशा जमीन पर लेटाकर ही रखें। इससे जेब या बैंक बैलेंस कभी खाली नहीं रहेगा।शाम के वक्त ना लगाए झाड़ूअगर आपने सुना होगा मां या दादी से की शाम के वक्त झाड़ू नहीं लगाना चाहिए औऱ ये सही भी है क्योंकि ऐसा करने से मां लक्ष्मी बुरा मान जाती है। इसलिए शाम या रात के समय घर या ऑफिस में झाड़ू न लगाएं। यदि मजबूरन ऐसा करना पड़ रहा है तो कम से कम कचरा बाहर न निकालें।झाड़ू पर पैर ना लगाएंझाड़ू को लक्ष्मी के समान माना जाता है। इसलिए हमेशा ध्यान रखें कि किसी भी इंसान का पैर झाड़ू पर न लगे। इससे लक्ष्मी का अपमान होता है। इसका अनादर होने से घर में कई तरह की आर्थिक परेशानियां आ सकती हैं।शनिवार के दिन बदलें झाड़ूयदि आप घर या ऑफिस में इस्तेमाल होने वाली झाड़ू को बदलना चाह रहे हैं तो इसके लिए शनिवार का दिन बेहतर होता है। शनिवार को नई झाड़ू का उपयोग करना शुभ माना जाता है।
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कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आंवला नवमी का त्योहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। 23 नवंबर यानी सोमवार को आंवला नवमी का पावन पर्व मनाया जाएगा।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, आंवला नवमी के दिन भगवान विष्णु और शिवजी आंवले में वास करते हैं। इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करने से आरोग्यता और सुख-समृद्धि बनी रहती है। मान्यता यह भी है कि इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करने से दरिद्रता दूर होती है। साथ ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
अनूठा है यह पूजन
आंवला नवमी पर आंवले के पेड़ के नीचे पूजा और भोजन करने की प्रथा की शुरुआत माता लक्ष्मी ने की थी। कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण पर आईं। रास्ते में उनके मन में भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा करने की इच्छा हुई। धरती पर आकर मां लक्ष्मी सोचने लगीं कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा एक साथ कैसे की जा सकती है। तभी उन्हें याद आया कि तुलसी और बेल के गुण आंवले में पाए जाते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को और बेल शिवजी को प्रिय है।
उसके बाद मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ की पूजा करने का निश्चय किया. मां लक्ष्मी की भक्ति और पूजा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी साक्षात प्रकट हुए. मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाया और दोनों को श्रद्धापूर्वक खिलाया. उसके बाद उन्होंने खुद भी वहीं भोजन ग्रहण किया। मां लक्ष्मी की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जो भी महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर यहां भोजन ग्रहण करेगी, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। मान्यताओं के अनुसार, आंवला नवमी के दिन अगर कोई महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण करती है तो भगवान विष्णु और शिवजी उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करते हैं।
आंवला नवमी पूजा विधि
आंवला नवमी के दिन विशेष तौर पर आंवले के पेड़, भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा की जाती है। उस दिन इस विधि-विधान से पूजा करें।
1. आंवला नवमी के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके आंवले की पेड़ की पूजा करें
2. उसके बाद आंवले के पेड़ की जड़ में दूध चढ़ाएं और रोली, अक्षत, फूल, गंध आदि से पवित्र पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना करें
3. फिर आंवले की पेड़ की सात बार परिक्रमा करें और दीये जलाएं
4. इस दिन अगर आप किसी वजह से आंवले के पेड़ की पूजा या उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर पाएं तो इस दिन आंवला जरूर खाएं
आंवले के लाभ
आंवला एकमात्र ऐसा फल है, जिसे उबालने पर भी विटामिन सी जस-का-तस रहता है। आंवले का सेवन करने से त्वचा स्वस्थ होती है, साथ ही सिरदर्द, ब्लड प्रेशर, पेचिस, बुखार और शुगर जैसी कई बीमारियों में आंवले का सेवन लाभकारी होता है। -
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी मनाई जाती है। 22 नवंबर को गोपाष्टमी मनाई जा रही है। गोपाष्टमी के दिन गाय और बछड़ों की उपासना की जाती है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, इस दिन गाय की पूजा करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार वैसे तो गोपाष्टमी शनिवार, 21 नवंबर को रात 9 बजकर 48 मिनट से शुरू हो चुकी है, लेकिन उदया तिथि 22 नवंबर होने की वजह से गोपाष्टमी 22 नवंबर को ही मनाई जाएगी. इसका समापन 22 नवंबर को रात 10 बजकर 51 मिनट पर होगा। गोपाष्टमी के दिन गौ माता को स्वच्छ जल से नहलाएं। इसके बाद रोली और चंदन से गौ माता का तिलक करें। उनके पैर छूएं और आशीर्वाद लें। पूजा में फूल, मेहंदी, अक्षत् और धूप का विशेष रूप से इस्तेमाल करें। पूजा के बाद ग्वालों को दान-दक्षिणा दें और उनका आदर सम्मान करें। इसके बाद गौमाता को प्रसाद का भोग लगाएं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन गौमाता की परिक्रमा करने के बाद उन्हें कुछ दूर तक टहलाने के लिए लेकर जाना चाहिए। ऐसा करने से आपको मनोवांछित फल प्राप्त होंगे। उनके चरण रज को माथे पर लगाने से सुख-सौभाग्य में वृद्धि होती है। -
आज गोपाष्टमी पर विशेष
आज गोपाष्टमी मनाई जा रही है। आज के दिन गौ-माता की पूजा अर्चना की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार में गाय में देवी-देवताओं का वास होता है। गाय की सेवा से पुण्यफल की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि इस दिन पूरे मन से गौ-माता की आराधना करने से जातकों की हर मनोकामना पूरी होती है। गोपाष्टमी पर पढ़ें गोपाष्टमी की व्रत कथा-
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान ने जब छठे वर्ष की आयु में प्रवेश किया तब एक दिन भगवान माता यशोदा से बोले - मैया अब हम बड़े हो गए हैं।
मैया यशोदा बोली - अच्छा लल्ला अब तुम बड़े हो गए हो तो बताओ अब क्या करें?
भगवान ने कहा - अब हम बछड़े चराने नहीं जाएंगे, अब हम गाय चराएंगे।
मैया ने कहा - ठीक है बाबा से पूछ लेना मैय्या के इतना कहते ही झट से भगवान नन्द बाबा से पूछने पहुंच गए
बाबा ने कहा - लाला अभी तुम बहुत छोटे हो अभी तुम बछड़े ही चराओ
भगवान ने कहा - बाबा अब मैं बछड़े नहीं गाय ही चराऊंगा
जब भगवान नहीं माने तब बाबा बोले- ठीक है लाल तुम पंडित जी को बुला लाओ- वह गौ चारण का मुहूर्त देख कर बता देंगे
बाबा की बात सुनकर भगवान् झट से पंडित जी के पास पहुंचे और बोले -पंडित जी, आपको बाबा ने बुलाया है, गौ चारण का मुहूर्त देखना है, आप आज ही का मुहूर्त बता देना मैं आपको बहुत सारा माखन दूंगा।
पंडित जी नंद बाबा के पास पहुंचे और बार-बार पंचांग देख कर गणना करने लगे तब नंद बाबा ने पूछा, पंडित जी के बात है? आप बार-बार क्या गिन रहे हैं? पंडित जी बोले, क्या बताएं नंदबाबा जी, केवल आज का ही मुहूर्त निकल रहा है, इसके बाद तो एक वर्ष तक कोई मुहूर्त नहीं है। पंडित जी की बात सुन कर नंदबाबा ने भगवान को गौ चारण की स्वीकृति दे दी।
भगवान जो समय कोई कार्य करें वही शुभ-मुहूर्त बन जाता है। उसी दिन भगवान ने गौ चारण आरम्भ किया और वह शुभ तिथि थी कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष अष्टमी, भगवान के गौ-चारण आरम्भ करने के कारण यह तिथि गोपाष्टमी कहलाई।
माता यशोदा ने अपने लल्ला के श्रृंगार किया और जैसे ही पैरो में जूतियां पहनाने लगी तो लल्ला ने मना कर दिया और बोले मैया यदि मेरी गौएं जूतियां नहीं पहनती तो में कैसे पहन सकता हूं। यदि पहना सकती हो तो उन सभी को भी जूतियां पहना दो... और भगवान जब तक वृंदावन में रहे, भगवान ने कभी पैरों में जूतियां नहीं पहनी। आगे-आगे गाय और उनके पीछे बांसुरी बजाते भगवान उनके पीछे बलराम और श्री कृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वाल-गोपाल इस प्रकार से विहार करते हुए भगवान ने उस वन में प्रवेश किया तब से भगवान की गौ-चारण लीला का आरंभ हुआ। - - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 122
आज 'गोपाष्टमी' है। इस दिन विशेष रूप से श्री गौमाता जी की पूजा-अर्चना होती है। ब्रजरस-प्रेमियों की दृष्टि में आज ही के दिन नन्द-यशोदा के नन्दन श्रीकृष्ण प्रथम-बार गोचारण अर्थात गैया चराने गये थे। श्रीकृष्ण को गायें अत्यन्त प्रिय हैं। गायों के सेवक हैं श्रीकृष्ण, इसी से वे गोपाल कहलाये हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपनी 11111-दोहों के ग्रन्थ 'राधा गोविन्द गीत' में श्रीकृष्ण की गोचारण लीला का बड़ा सरस वर्णन किया है। अपने अन्य ग्रंथों यथा 'प्रेम-रस-मदिरा' में भी गोचारण के पदों की रचना उन्होंने की है। प्रस्तुत भाव 'राधा गोविन्द गीत' की 'लीला-माधुरी' खण्ड के दोहे हैं। जो कि ब्रज-रस-माधुरी पुस्तक ग्रन्थ में भी वर्णित हैं। आइये इन दोहों का आधार लेकर मन से इस लीला में प्रवेश करें :::::::
(ब्रज रस माधुरी पुस्तक)भाग - 1, पृष्ठ संख्या 295, 2010 संस्करण
ग्वाल बाल गोपाल गोविन्द राधे, गोपाष्टमी को गो पूजन करा दे।।छोटो सो कन्हैया गोविन्द राधे, चल्यो है चरावन गैया बता दे।।एक काँधे पै तो गोविन्द राधे, धरि ली कन्हैया ने कामरी बता दे।।दूजे काँधे पै गोविन्द राधे, छोटी सी धरि ली लठिया बता दे।।छोटी सी मुरली को गोविन्द राधे, कान्ह ने खोंस ली फेंट में बता दे।।सिर पर मोरपंख गोविन्द राधे, कमर में पतरी करधनी बता दे।।गल में वनमाल गोविन्द राधे, पग में नुपूर कनक बता दे।।कटि पीताम्बर गोविन्द राधे, कछनी भी कछी मैया ने बता दे।।संग में है भैया गोविन्द राधे, मनसुख आदि सखावृन्द बता दे।।वंशीवट जाके गोविन्द राधे, बैठे तरु छाया में बता दे।।गैया चरन लागी गोविन्द राधे, हरी हरी घास बड़े चाव से बता दे।।चारों ओर सखा सब गोविन्द राधे, बीच में बैठे कन्हैया बता दे।।मुरली मधुर तान गोविन्द राधे, छेड़ी कान्ह ने तबहीं बता दे।।गैयान कानन को गोविन्द राधे, दोना बनाय सुनै तान बता दे।।छोटे बड़े सखा सब गोविन्द राधे, हास परिहास करें कान्ह सों बता दे।।जहाँ बैठे घनश्याम गोविन्द राधे, तहाँ भई भीर गोपियों की बता दे।।नभ में विमानन गोविन्द राधे, बैठी लखें देव अंगनायें बता दे।।भैया ने कहा कन्हैया गोविन्द राधे, अब चलो घर भई साँझ बता दे।।
00 उपरोक्त भाव-दोहों का सरलार्थ ::::::
'गोपाष्टमी' ही वह पावन दिन है जिस दिन बालकृष्ण नन्दबाबा तथा माता यशोदा जी से आज्ञा लेकर प्रथम बार गोचारण को जाते हैं। इस दिन उन्होंने समस्त ब्रजवासियों के साथ गोमाता की पूजा-अर्चना की थी। उनके गोचारण लीला की एक मधुर झाँकी ऐसी है कि छोटे से गोपाल कृष्ण अगनित गायों को साथ लेकर गोचारण को जा रहे हैं।
उन्होंने एक काँधे पर कामरी ओढ़ रखी है। और दूसरे काँधे पर उन्होंने छोटी सी लठिया (लाठी) धारण कर रखी है। छोटी सी मुरलिया को छोटे से कन्हैया ने अपनी फेंट में खोंस ली है। गोपालक गोपाल के सिर पर मोरपंख तथा कमर में पतली सी करधनी बँधी हुई है। गले में उन्होंने वनमाला धारण की हुई है तथा पैरों में सोने के नुपूर पहने हुये हैं। मैया यशोदा ने अपने लाला को पीताम्बर धारण कराया है तथा कछनी भी कसी हुई है।
ऐसे मनोहारी छवि वाले गोपाल कृष्ण के सँग भैया बलराम तथा धनसुख, मनसुख आदि अनगिनत सखाओं का समूह है। सभी वंशीवट पहुँचकर एक विशाल सघन वृक्ष की छाया में बैठ गये हैं, यह झाँकी ऐसी है कि समस्त सखावृन्द के मध्य में श्रीकृष्णचन्द्र विराजमान हैं। सभी गायें चारों ओर फैली हुई हरी-भरी घास चरने लगी हैं। कुछ देर बाद श्रीकृष्णचन्द्र अपनी मुरली की मधुर तान छेड़ देते हैं। इस मधुर तान को गैया बड़ी मगन होकर सुनने लगी हैं, ऐसा लग रहा है मानो मुरली के मधुर रस को वे अपने दोनों कानों को दोना बनाकर ग्रहण कर रही हैं।
वन की इस गोचारण लीला में सभी सखा अपने सखा कृष्ण के साथ निर्बाध हास-परिहास तथा क्रीड़ा आदि करते हैं। ब्रज की गोपियाँ इस सुन्दर शोभा को निहारने के लिये कन्हैया के चारों एकत्रित हो जाती हैं। इस लीला-माधुरी को आकाश में विचरती स्वर्गादिक देवांगनाएँ भी एकटक मुग्ध होकर निहारने लगती हैं। जैसे जैसे शाम ढलने लगती है, भैया बलदाऊ अपने भ्राता कृष्ण से कहते हैं कि लाला! चलो गैयाओं को लिवा लायें, अब साँझ ढलने लगी है। समस्त गैयाओं को साथ लेकर ब्रजराजकुमार नंदनन्दन गोपाल मीठी-मीठी बाँसुरी बजाते हुये, गैयाओं की पैरों से उठी धूल से धूसरित होकर गोकुल में प्रवेश करते हैं। समस्त ब्रजगोपियाँ, गोप, मैया आदि इस झाँकी पर बारम्बार 'बलिहार-बलिहार' कहते हुये बलिहार जाकर आनन्दित हो रहे हैं।
00 सन्दर्भ (केवल दोहे) ::: ब्रज-रस-माधुरी, भाग - 1 (2010 संस्करण)00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 121
(श्रीधाम वृन्दावन की एक मधुर झाँकी का वर्णन)
..अपने नित्यधाम वृन्दावन में सदा किशोरी जी (श्रीराधा) जाती हैं।
कैसे जाती हैं?
- श्यामसुन्दर के साथ जाती हैं।
- साथ में कैसे जाती हैं?
- एक दूसरे के गले में हाथ डाल कर जाते हैं।
- आँखों में प्यार और कृपा, इन दो शक्तियों को भर कर, इधर-उधर सखियों की ओर देखते हुये जाती हैं।
ऐसी किशोरी जी का मैं ध्यान करता हूँ। ऐसी सत्, चित्, आनन्द रूप किशोरी जी का ध्यान करता हूँ।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत)
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, मार्च 2001 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 120
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से नि:सृत साधना-स्मरण सम्बन्धी 5-सार बातें (भाग - 1) :::::
(1) भगवान कहते हैं विश्वास करो, मेरा स्मरण करो और कुछ न करो। बस। मैं सब कुछ करुँगा तुम्हारा। तुम खाली स्मरण करो, बाकी सब काम मैं करुँगा और सदा के लिए अपना बना लूँगा। बस तुम उनको न भूलो.
(2) अपने को अच्छा कहलवाना, उसको बंद करना होगा। अच्छा बनने का प्रयत्न करना होगा, अच्छा कहलवाने का नहीं। अच्छा बनने का प्रयत्न करो और किसी के किसी वाक्य को फील न करने का अभ्यास करो।
(3) दान करना बहुत आवश्यक है। अगर दान नहीं करोगे तो अगले जन्म में दरिद्री बनोगे। दरिद्र बनकर पेट के लिये पाप करोगे। तो जब पाप करोगे तो मरने के बाद फिर दरिद्री बनोगे, फिर पाप करोगे, ये लिंक बन जाती है उसकी दु:ख भोगने की।
(4) कोई सेवा कार्य हो, तो सेवा कार्य को करो लेकिन उसमें भावना सब वही भरी रहे, जो तुम्हारे लक्ष्य की है कि हम श्यामसुन्दर की प्रसन्नता के लिये कर रहे हैं।
(5) चाहे अनंतकोटि काल तक तुम साधक बने रहो, एक क्षण को भी अगर तुमने ये भुला दिया हमारे श्रीकृष्ण नहीं है, गुरु नहीं है, बस अपराध कर जाओगे। बच नहीं सकते।
00 सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 119
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' का महात्म्य/प्रस्तावना तथा दोहे
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय ::: ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
आइये इस रसमय ग्रन्थ में रचे गये दोहों का पठन तथा चिन्तन कर हम सभी अपनी आत्मोन्नति के लिये लाभ प्राप्त करें ::::::
श्यामा रटें श्याम श्याम श्याम रटें श्यामा।श्यामा श्याम आठु याम रटें ब्रजबामा।।1।।
अर्थ ::: श्रीवृषभानुनन्दिनी निरन्तर श्याम श्याम की रटना करती हैं। नंदनंदन प्रति पल राधे राधे रटते हैं। ब्रजगोपियाँ रात-दिन श्यामा-श्याम के सरस नामामृत का पान करती हैं।
मनमानी तजु भज श्याम अरु श्यामा।जाने कब तनु छिन जाय कह बामा।।2।।
अर्थ ::: अरे जीव! मनमानी छोड़कर निरन्तर श्यामा-श्याम का स्मरण कर। न जाने मृत्यु कब तुझसे यह मानव-शरीर छीन ले।
मैं, मैं, मैं, मैं काहे करे मूढ़ आठु यामा।अज जानि काल वृक भेजे यम धामा।।3।।
अर्थ ::: अरे मूर्ख! बकरे के समान रात दिन मिथ्या अभिमान-वश 'मैं मैं' क्यों करता है? काल-रूपी भेड़िया तुझे यमलोक भेजने की तैयारी में लगा है।
भुक्ति मुक्ति सुख सुख वैकुण्ठ धामा।तजु काम एक नाम रटु श्याम श्यामा।।4।।
अर्थ ::: ब्रम्हलोक-पर्यन्त के सुख, मुक्ति की कामना एवं बैकुण्ठ लोक की भी कामना का परित्याग कर एकमात्र श्यामा-श्याम का नाम रट।
शुक के समान जनि रटु श्याम श्यामा।बक के समान ध्यान करु कह बामा।।5।।
अर्थ ::: हे जीव! तोते के समान भाव से अनभिज्ञ रहकर केवल रसना से श्यामा-श्याम रटने से काम नहीं बनेगा। बगुले के समान एकाग्रता-पूर्वक कोटि-काम-कमनीय युगल सरकार के रुपध्यान-पूर्वक जब तू उनके पावन नाम का स्मरण करेगा तब नाम अपने प्रभाव से तेरे हृदय को द्रवीभूत कर देगा।
०० रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।