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- 11 अगस्त 2012 को विश्व की महानतम विभूति जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीकृष्ण तत्व पर अद्वितीय एवं ऐतिहासिक प्रवचन दिया गया। श्री कृपालु महाप्रभु जी ने वृन्दावन के संत समुदाय के समकक्ष विराजमान होकर प्रवचन दिया। श्री महाराज जी अर्थात श्री कृपालु जी ने प्रवचन का आरम्भ करते हुये कहा -आज से 5238 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ था और वे 125 वर्ष तक हमारे इस मृत्युलोक में रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण के स्वधामगमन करने पर कलियुग आ गया। अभी तो कलियुग को केवल 5113 वर्ष ही बीते हैं और चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलियुग होता है, तो अभी ये तो प्रारम्भ है।संसार में लोग श्रीकृष्ण प्राकट्य दिवस को जन्माष्टमी कहते हैं, परन्तु भगवान के लिये जन्म शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता है? श्री कृपालु महाप्रभु जी ने बताया कि, जन्म शब्द का अर्थ ही होता है - आविर्भाव। जनि प्रादुर्भावे धातु से जन्म शब्द बनता है, उसका अर्थ ही है अवतार, अर्थात किसी बड़े ऊेचे स्थान से नीचे उतरना अर्थात गोलोक से माया लोक में भगवान उतरे, इसी को अवतार कहते हैं, उसी को आविर्भाव, उसी को जन्म कहते हैं। जीवात्मा का भी मां के गर्भ में आविर्भाव होता है। जीवात्मा दिव्य है, वो मां के गर्भ में बाहर से आता है और एक दिन शरीर छोड़कर चला जाता है।सच्चिदानंद तत्व को ब्रम्ह कहते हैं, उसी ब्रम्ह शब्द का पर्यायवाची शब्द है - श्रीकृष्ण। कृष्ण अंतिम परात्पर तत्व है, जिसके भय से यमराज काँपता है और कृष्ण तत्व को जान लेने पर सब कुछ स्वयमेव ज्ञात हो जाता है। एक ब्रम्ह श्रीकृष्ण के अनंत रुप हैं। भागवत में भगवान श्रीकृष्ण के तीन स्वरुप बताये गये हैं - जिसमें सब शक्तियों का प्राकट्य हो वो भगवान है, जिसमें कुछ शक्तियों का प्राकट्य न हो वो परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा का स्वरुप तीन प्रकार का होता है - कार्णाणवशायी, गर्भोदशायी और क्षीरोदशायी। श्रीकृष्ण का तीसरा स्वरुप ब्रम्ह का है, उसका एक ही स्वरुप होता है, उसमें केवल ब्रम्हत्व, आत्मरक्षा की शक्ति और आनंदत्व, बस तीन गुणों का ही प्राकट्य होता है, अन्य शक्तियां प्रकट नहीं होती।वेद में ये भी कहा गया कि एक ही तत्व है ब्रम्ह और ये भी कहा गया कि तीन तत्व हैं - ब्रम्ह, जीव और माया; ये दोनों बातें वेद में कही गयी हैं। इन दोनों बातों का समन्वय यह है कि जीव और माया, ब्रम्ह की शक्तियां हैं, शक्ति शक्तिमान से पृथक नहीं होती, इसी से जीव और माया को भी ब्रम्ह कहा जाता है। भगवान जीव और माया पर शासन करते हैं। भगवान के अवतारों और उनकी लीलाओं की कोई संख्या नहीं है। भगवान के अनंत अवतार हो चुके हैं और अनंतकोटि ब्रम्हाण्ड में प्रतिक्षण भगवान के अवतार हो रहे हैं। भगवान के अवतार लेने का एक ही कारण है - करुणा।भगवान का स्वरुप ही करुणा का है। भगवान जो करते हैं, वो केवल जीव कल्याण के लिये करते हैं। दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य - इन चार भावों में से किसी भाव से भगवान से प्रेम करो। भगवान कहते हैं कि मुझे अपने से बड़ा मानो, मुझे अपने समान मानो या छोटा मानो। अपने से बड़ा मानने पर भगवान से भय लगेगा। भगवान की कृपा की बाट जोहना है, निष्काम एवं अनन्य भाव से रोकर उनको पुकारना है, तब वो अकारण करुण भगवान कृपा करके अंत:करण शुद्ध करेंगे, तब वो स्वरुप शक्ति देंगे, तब अपनी दिव्य इंद्रीय मन, बुद्धि देंगे, तब भगवान का दिव्य दर्शन आदि होगा, तब जीव कृतार्थ होगा, तब ये तत्वज्ञान होगा कि श्रीकृष्ण कौन हैं??(प्रेम मंदिर, वृन्दावन में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा श्रीकृष्ण तत्व पर दिये गये प्रवचन का सार)स्त्रोत - जगद्गुरु कृपालु परिषत का मासिक सूचना पत्र, सितंबर 2012.
- -रसोई घर का वास्तु सही न हो तो महिला पर पड़ता है विपरित असरघर की लक्ष्मी यानी महिलाओं का ज्यादातर समय रसोईघर में ही बीतता है। वास्तुशास्त के मुताबिक यदि रसोईघर का वास्तु सही न हो तो उसका विपरीत प्रभाव महिलाओं और घर पर भी पड़ता है। इसलिए रसोईघर में इन बातों का विशेष ध्यान रखें- रसोईघर की ऊंचाई 11 से 12 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए।-रसोईघर यदि 8 फीट में किचन की ऊंचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।- जिसर सोईघर में छत नीचे स्तर पर है वहां पर खाना बनाने वाली गृहस्वामिनी का स्वास्थ्य हमेशा खराब रहता है क्योंकि रसोईघर की गरम हवा को बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता।- कभी भी रसोईघर से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। रसोईघरके बाजू में बोर, कुआं, बाथरूम न बनवाएं, सिर्फ वाशिंग स्पेस हो सकता है।-आग्नेय यानी साउथ ईस्ट कोण में रसोईघर होना शुभ माना जाता है-रसोईघर में सूर्य की किरणें सबसे ज्यादा पहुंचे, इस बात का भी खयाल रखा जाना चाहिए।- रसोईघर की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।- रसोईघर में यथासंभव बर्तन साफ सुथरे ही रखें।- रसोईघर में ईशान कोण में नॉर्थ ईस्ट में माता अन्नपूर्णा की फोटो विधिपूर्वक रखी जा सकती है।-रसोईघर का सम्बंध घर की समृद्धि से है।- औषधि गुण वाले मसालों का प्रयोग करना चाहिए।-रसोईघर में भोजन बनाते समय खुशमिजाज और मधुर संगीत का प्रयोग कर सकते हैं। भोजन बनाते समय भक्ति मय़ और कर्ण प्रिय गायत्री मंत्र सुन सकते हैं। मंत्र के साथ अग्नि का आह्वान कर चूल्हा जलाना चाहिए ।- अगर आपका रसोईघर वास्तु शास्त्र के अनुसार आग्नेय कोण में है , लेकिन वहां साफ सफाई का नितांत अभाव है तो यह दोषपूर्ण माना जाता है। इसके विपरीत अगर रसोईघर वास्तु शास्त्र के नियमों के ठीक विपरीत है, लेकिन व्यवस्थित है और साफ सुथरा है तो ऐसा रसोईघर सकारात्मक फल देता है।-रसोईघर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा प्लेटफार्म हमेशा पूर्व में होना चाहिए और ईशान कोण में सिंक व अग्नि कोण में चूल्हा लगाना चाहिए।- रसोईघर की दीवारों के रंग का चयन गृह लक्ष्मी की कुंडली ज्योतिष विवेचन और कलर थेरेपी के आधार पर करना चाहिए।शेष ईश्वर कृपा वास्तु देव कृपा- पंडित विनीत कुमार शर्मा, ज्योतिष, मनीषी वास्तु सलाहकार
- आज हलषष्ठी है। हलषष्ठी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता श्रीबलराम जी का प्राकट्य दिवस है। ब्रजधाम में श्रीकृष्ण-बलराम जी की जोड़ी अनुपम है। भक्तियोग रस के अवतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने पदों एवं संकीर्तनों में श्रीबलराम जी की स्तुति की है तथा दोनों भाईयों के प्रेम तथा माताओं की उनके प्रति वात्सल्य की झाँकी भी प्रस्तुत की है। आइये आज इस अवसर पर उन झाँकियों का हम सब मानसिक दर्शन करें :::श्री कृपालु महाप्रभु जी गाते हैं..चलो अलि सब मिलि देयँ बधाई।ब्रज अज जायो रोहिणी माई ।।अर्थात चलो चलो सखियों, रोहिणी माता के महल चलो। आज तो माता रोहिणी ने एक अनुपम सुन्दर बालक को जन्म दिया है। चलो, चलो, आज उनके द्वार पर बधाई गाने चलें।अन्यत्र श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने संकीर्तन में गाते हैं :आज तो प्रकट भयो ब्रज बड़ो ठाकुर।हलधर बलदाऊ नाम रण बाँकुर।।आँखि दिखावत जब जब हलधर।अति डरपत गिरिधर जेहि डर डर।।दोउ भगवान कह्यौ पाराशर।आयेउ तदपि प्रथम ब्रज हलधर।।अर्थात आज तो ब्रजधाम में बड़े ठाकुर का जन्म हुआ है। ये बड़े ठाकुर समस्त ब्रजधाम में हलधर और बलदाऊ अर्थात बलराम के नाम से भी पुकारे जाते हैं। माता रोहिणी के पुत्र तथा छोटे ठाकुर अर्थात श्रीकृष्ण के अग्रज श्री बलराम जी अत्यंत बलशाली हैं, पराक्रम में उनके मुकाबले का कोई भी नहीं है। युद्ध में न उनका कोई सानी ही है। वे अपने हाथों में हल धारण करते हैं, इसी से हलधर भी कहे जाते हैं। कभी-कभी जब क्रोध में वे अपनी आँखें तरेरते हैं तो अन्यों की क्या कहें, स्वयं उनके अनुज श्रीकृष्ण भी भयभीत हो जाते हैं। वे श्रीकृष्ण जिनसे भय भी भयभीत रहता है। महर्षि पाराशर आदि महात्मा जन स्तुति करते हैं कि यद्यपि श्रीकृष्ण तथा बलराम स्वयं भगवान ही हैं, फिर भी ब्रजधाम में लीला दृष्टि से श्रीबलराम जी श्रीकृष्ण से पहले अवतरित हुये।श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के प्रति माता यशोदा जी के वात्सल्य प्रेम का बड़ा ही सुन्दर चित्रण रसिकवर श्री कृपालु जी ने इन शब्दों के माध्यम से किया है :दाऊ भैया संग कन्हैया जायँ बलि लखि मैया।आउ भैया लै कन्हैया दुहुँन लेउँ बलैया।नाचे बलुआ संग कनुवा तारि दें दोउ मैया।जय हो मैया जय कन्हैया जय हो दाऊ भैया।एक हलधर एक गिरिधर सोहें गोदिहिं मैया।दाऊ भैया संग कन्हैया चलत दै गरबहियाँ।अर्थात माता रोहिणी तथा माता यशोदा जी बलराम तथा कृष्ण की इस जोड़ी को देख-देखकर बलिहार जा रही हैं। वे अपनी बाँहें फैलाकर दोनों को अपने अंक में भर लेने के लिये पुकार लगा रही हैं। कभी दोनों मातायें हाथों से ताली की थाप देती हैं और छोटे से नन्हे बलराम-श्याम आँगन में ता-ता-थैया कर नाच रहे हैं। मातायें तथा अन्य सखियाँ इन दो सुन्दर बालकों की जय-जयकार कर रही हैं। ब्रजधाम प्रेम का धाम है और मातायें अपने वात्सल्य प्रेम में कृष्ण को 'कनुआ' तथा बलराम को 'बलुआ' कहकर बुलाती हैं। दोनों महान शूरवीर हैं, एक ने अपने हाथों में हल धारण किया और हलधर कहाये और दूसरे ने गिरिराज को धारण कर गिरिधर नाम धारण किया। इन दोनों भाईयों की जोड़ी तब और अनुपम हो जाती है, जब वे आपस में गलबहियाँ देकर अर्थात गले में हाथ डालकर चलते हैं।श्री बलराम जी के प्राकट्य दिवस हलषष्ठी एवं कमरछठ की आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनायें...(संकीर्तन स्त्रोत : जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित संकीर्तन पुस्तक ब्रज रस माधुरी, भाग - 1)# सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
- वास्तुशास्त्र के अनुसार कुल 10 दिशाएं होती है। हर दिशा का एक तत्व होता है । ये तत्व है अग्नि ,पानी ,वायु ,पृथ्वी और आकाश। हर व्यवसाय का अपना कोई ना कोई तत्व होता है । हर व्यवसाय का अपना लाभदायक कोना होता है । ठीक इसी तरह कोचिंग इंस्टीट्यूट का भी एक कोना होता है।-कोचिंग इंस्टीट्यूट का सम्बंध ईशान कोण से है।- ईशान कोण पवित्र और शुभ स्थान माना जाता है!-ईशान कोण का स्वामी ग्रह गुरु है !-राशि में धनु और मीन राशि का प्रभाव क्षेत्र पर पड़ता है!-ईशान कोण का तत्व जल होता है !-अत: कोचिंग इंस्टीट्यूट या स्कूल कॉलेज में काम करने वालों को अपने ईशान कोण पर विशेष ध्यान देना चाहिए !-इसी तरह कोचिंग चलाने वालों को ईशान कोण को विकसित करना चाहिए। ईशान कोण में सिद्ध किए हुए पिरामिड रखना चाहिए। ईशान कोण में गणेश भगवान विश्वकर्मा जी माता सरस्वती की फोटो रखनी चाहिए।-शुभ गुरु यंत्र भी स्थापित करना चाहिए ।-शुद्ध गंगाजल तुलसी का छोटा पौधा आदि इसे विकसित करते हैं।-कोचिंग का कार्य करने वालों को अध्यापन के पूर्व 8- 10 मिनट ध्यान का अभ्यास भी करना चाहिए।-ईशान कोण झुका हुआ हो तो परिणाम अच्छे मिलने की संभावना रहती है!-इस स्थान पर देव गुरु बृहस्पति की फोटो व वेदों उपनिषदों और रामायण जैसे महा ग्रंथों की फोटो लगाना अत्यंत शुभ होता है ।- शेष वास्तु कृपा, देव कृपा(पंडित विनीत शर्मा, वास्तु शास्त्री, ज्योतिषी, चौबे कॉलोनी रायपुर)---
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज भगवान के नाम संबंधी रहस्य को प्रकट करते हुये साधक समुदाय से उस रहस्य पर गहराई से विचार करते हुये, दृढ़ विश्वासपूर्वक भगवन्नाम लेने का आग्रह करते हैं। उनके श्रीमुखारविन्द से नि:सृत शब्द इस प्रकार हैं-...जिस दिन किसी जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जायेगा कि भगवान और भगवान का नाम एक ही है, दोनों में एक सी शक्तियां हैं, एक से गुण हैं, उसी क्षण उसको भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। स्वर्ण अक्षरों में लिख लो।भगवान की इतनी बड़ी कृपा है कि वे कहते हैं कि मैं सर्वव्यापक हूँ, तू इसको मानता नहीं है, मैं गोलोक में रहता हूँ, वहाँ तुम आ नहीं सकते, मैं तुम्हारे अंत:करण में तुम्हारे साथ बैठा हूँ, इसका तुम्हें ज्ञान नहीं है, इसलिये लो मैं अपने नाम में अपने आपको बैठा देता हूँ।नाम में मैं मूर्तिमान बैठा हुआ हूँ, जिस दिन यह बात तुम्हारे मन में बैठ जायेगी, उस दिन फिर एक नाम भी जब लोगे, जब एक बार राधे कहोगे तो कहा नहीं जायेगा, वाणी रुक जायेगी, मन डूब जायेगा, कंठ गदगद हो जायेगा। फिर भगवत्प्राप्ति में क्या देर होगी? गुरुकृपा में क्या देर होगी? केवल इसी वचन पर विश्वास कर लो। (तुम्हारा कृपालु)...(स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, शरतपूर्णिमा अंक, अक्टूबर 2010)
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 4(पिछले भाग से आगे)भारत को आध्यात्मिक गुरु के पद पर आसीन करने के लिये हमारे भारत में अनेक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हुये, जिन्होंने वेदों, शास्त्रों के ज्ञान को सुरक्षित रखा। किन्तु वर्तमान समय में अनेक पाखण्डयुक्त मत चल गये। जो वेद शास्त्र का नाम तक नहीं जानते, ऐसे दम्भी गुरु जनता को गुमराह कर रहे हैं। वैदिक मान्यतायें लुप्त हो गई हैं। शास्त्रों, वेदों के अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अत: लोग अज्ञानान्धकार में डूबते जा रहे हैं।इस समय जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा दिये गये असंख्य प्रवचन जो आज भी उनकी वाणी में उपलब्ध हैं, उनके द्वारा वेद, शास्त्र सम्मत साहित्य, ऋषि-मुनियों की परंपरा को पुनर्जीवन प्रदान कर रहा है। शास्त्रों, वेदों के गूढ़तम सिद्धान्तों को भी सही रुप में अत्यधिक सरल, सरस भाषा में प्रकट करके एवं उसे जनसाधारण तक पहुंचाकर उन्होंने विश्व का महान उपकार किया है। उन्होंने भारतीय वैदिक संस्कृति को सदा सदा के लिये गौरवान्वित कर दिया है एवं भारत जिन कारणों से विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है, उसके मूलाधार रुप में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सनातन वैदिक धर्म की प्रतिष्ठापना की है।उनके द्वारा उद्भूत ज्ञान कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन के नाम से जाना जाता है, जो वेदों, शास्त्रों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार है। जो जाति-पाति, देश-काल की सीमा से परे है। सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये मान्य है, सार्वभौमिक है। आज के युग के अनुरुप है। सर्वग्राह्य है। सनातन है। समन्वयात्मक सिद्धान्त है। सभी मतों, सभी ग्रंथों, सभी आचार्यों के परस्पर विरोधाभाषी सिद्धान्तों का समन्वय है। निखिलदर्शनों का समन्वय है। भौतिकवाद, आध्यात्मवाद का समन्वय है, जो आज के युग की माँग है। विश्व शांति और विश्व बन्धुत्व की भावनाओं को दृढ़ करते हुये शाश्वत शान्ति और सुख का सर्वसुगम सरल मार्ग है।ऐसे जगद्वन्द्य जगदोद्धारक कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन का सम्पूर्ण जगत चिरकाल तक आभारी रहेगा।(समाप्त)(स्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली)
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 3(पिछले भाग से आगे)उपनिषद वेद का उत्तर भाग है। इसका अर्थ कोई स्वयं पढ़कर नहीं समझ सकता। इसलिये वेद में ही कहा गया -तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि- श्रोत्रियं ब्रम्हणिष्ठं।(मुण्डकोपनिषद 1-2-12)वेद को जानने के लिये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया है, उसके पास जाओ।अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विग्राह्यं समुद्रवत। (भाग. 11-21-36)अन्यथा समुद्र के समान डूब जाओगे। क्यों?वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरय:। (भाग. 11-3-43)ये वेद भगवान का स्वरुप है। जैसे भगवान बुद्धि से परे हैं ऐसे ही वेद भी बुद्धि से परे है। सृष्टिकर्ता ब्रम्हा भी वेद का अर्थ नहीं समझ पाये तब भगवान ने अपनी योगमाया से उनके हृदय में बैठकर वेद का अर्थ प्रकट किया और उन्होंने अपने शिष्यों एवं बच्चों को बताया। वो एक के बाद एक, एक के बाद एक से सुनकर वेद का ज्ञान हुआ। इसलिये वेद का दूसरा नाम श्रुति है। वेद स्वयं पढ़कर पागल हो जाओगे। परोक्षवाद है यह वेद। शब्द कुछ, अर्थ कुछ। अत: किसी श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष के पास जाना होगा।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)स्त्रोत -साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 2(पिछले भाग से आगे..)हमारे सनातन धर्म में आध्यात्मिक उन्नति के लिये मुख्य रुप से दो प्रकार के ग्रंथ हैं - विनिर्गत ग्रंथ और स्मृत ग्रंथ। वेद को भगवान ने प्रकट किया है इसलिये विनिर्गत ग्रंथ कहलाता है और स्मृत ग्रंथ कहते हैं जो सिद्ध महापुरुषों के, श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महारसिकों के द्वारा स्मरण करके, अनुभवयुक्त होकर के ग्रंथ बनाये जाते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है श्रीमद्भागवत।नारद जी ने वेदव्यास से कहा, पहले भक्ति करो और भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करो उसके बाद भागवत लिखना। उन्होंने नारद जी की आज्ञा माना -अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम। (भाग. 1-7-4)उन्होंने भक्ति की और भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन किये, माया के भी दर्शन किये। तीनों तत्वों का दर्शन किया तब भागवत की रचना की। ये स्मृत ग्रंथ हंै। गीतादि को भी स्मृत ग्रंथ कहते हैं। वेदों के सिद्धान्तों को, उपनिषदों के सिद्धान्तों का स्मरण करके जो महापुरुष लोग ग्रंथ लिखते हैं वे स्मृत ग्रंथ हैं।मायाबद्ध व्यक्ति के द्वारा बनाये गये सिद्धान्त या ग्रंथ माननीय नहीं हैं। पाश्चात्य देशों में बिना अनुभव के मायिक बुद्धि से बहुत से सिद्धान्त बनाये गये हैं, जिन्हें हम कृत ग्रंथ कहते हैं। किंतु वेदसम्मत न होने के कारण माननीय नहीं हैं। अतएव विनिर्गत ग्रंथ वेद और वेदानुगत स्मृत ग्रंथ ही आध्यात्मिक उत्थान हेतु आध्यात्मिक ज्ञान का आधार हैं।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
- भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 1हिन्दू धर्म ग्रंथ वेद, शास्त्र, पुराण, भागवत गीता, रामायण इत्यादि भारत की आध्यात्मिक परम निधि हैं। इस संपत्ति के कारण ही भारत विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है। कोई कितना ही वैभवशाली देश हो जाय, टैक्नालॉजी कितनी भी एडवांस हो जाय, लेकिन उनके पास कोई ऐसी तरकीब नहीं है जो अंदर की मशीन (अंत:करण) की गड़बड़ी को समाप्त कर दे।एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति आइसन हॉवर का दौरा हुआ था भारत में, तो उन्होंने अपने भाषण में यह कहा कि भगवान ने हमको भौतिक शक्ति दी है (मटीरियल) लेकिन जब तक गॉड हमको सद्बुद्धि न दे उसका सदुपयोग नहीं हो सकता। इसलिये सद्बुद्धि के अभाव में, आध्यात्मवाद के अभाव में, अब उसका दुरुपयोग भी हो रहा है।जितना छल-कपट, दांव-पेंच, चार सौ बीसी, दुराचार, भ्रष्टाचार, पापाचार सब संसार में चल रहा है, ये सब आध्यात्मवाद की कमी के ही कारण है। ये जितने अपराध बढ़ते जा रहे हैं, उसका कारण आध्यात्मवाद का ह्रास ही है।हमारे भारत के पास वह खजाना है जो पूरे विश्व में किसी भी देश में नहीं है। विदेशी फिलॉसफरों ने भी उपनिषद की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। शोपेन हावर बहुत बड़े विदेशी फिलॉसफर ने उपनिषद की प्रशंसा करते हुये कहा कि यह अद्वितीय है, इसके मुकाबले का कोई भी ग्रन्थ विश्व में नहीं है। जर्मनी के फैडरिक मैक्समूलर ने भी उसका समर्थन किया और कहा कि उपनिषद का ज्ञान सूर्य के समान है और पाश्चात्य देशों के सब ज्ञान सूर्य की किरण के समान हैं।(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)( स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018सर्वाधिकार सुरक्षित -जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।)
- रक्षाबंधन एक भारतीय त्यौहार है जो श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। सावन में मनाए जाने के कारण इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है।भविष्य पुराण में वर्णन है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नजऱ आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है।राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बांधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। राखी के साथ कई ऐतिहासिक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं।भारत में प्रकृति संरक्षण के लिए वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा का भी प्रारंभ हो गया है। रक्षासूत्र बांधते समय सभी आचार्य एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। 1947 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरंभ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता मातृभूमि वंदना का प्रकाशन हुआ।उत्तरांचल में इस पर्व को श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ऋषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मïणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मïण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ की धार्मिक यात्रा गुरुपूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहां का हिमानी शिवलिंग भी पूरा होता है। इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेला भी लगता है।महाराष्टï्र राज्य में यह त्यौहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है।राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूडिय़ों में बांधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बांधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृऋण चुकाया जाता है।तमिलनाडु, केरल, महाराष्टï्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मïण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मïणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्मण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रक्षाबन्धन पर रचित दोहे एवं उसकी व्याख्या
आजु रक्षा बंधन गोविंद राधे,रक्ष रक्ष रक्ष दोउ गलबहियाँ दे..रक्षा करे हरि गुरु गोविंद राधे,मायाधीन भैया रक्षा करे ना बता दे..रक्षा तो वो करे जो हमेशा साथ रहे। किस बेटे के साथ पिता हमेशा रहेगा? किस बीवी के साथ उसका पति हमेशा रहेगा? किस बहिन के साथ भाई हमेशा रहेगा? लेकिन भगवान् हमारा पिता, हमारा भाई, हमारा बेटा, ऐसा है जो सदा हमारे साथ रहता है.। एक बटा सौ सेकंड को भी हमसे अलग नहीं जाता।सयुजा सखाया समानं वृक्षम् परिषस्वजाते. (श्वेताश्वेतरोपनिषद 4-6)समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनिशया शोचति मुह्यमान:. (श्वेताश्वतरोपनिषद 4-7)प्रतिक्षण,एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़- सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा. (श्वेताश्वतरोपनिषद 7-11)ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्येशेर्जुन तिष्ठति. (गीता 18-61)वो बैठा है वहां आता जाता है? नहीं, जीव उसी में रहता है। य आत्मनि तिष्ठति (वेद)वेद कहता है, ये जीव परमात्मा में रहता है। देखो ! ये जो आप लोगों के यहां ये लाइट हो रही है, ये पंखें चल रहे हैं, ये क्या है? इलैक्ट्रिसिटी, बिजली। ये बिजली जो है, पॉवर हाउस से लगी है न, हां ! आती जाती है। न न न। आती जाती होगी तो जलती बुझती रहेगी। उससे लगी है तब तक लाइट है। लगना बंद हो गया पॉवर हाउस से, बस अंधेरा हो गया।चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधति कामान (श्वेताश्वतरोपनिषद 6-13)वेद कहता है - ये चेतन जो है जीव, इसमें चेतना देता रहता है प्रतिक्षण। तब ये हम चेतन हैं। वो अगर चेतना देना बंद करे तो हम जीरो बटे सौ हो जाएं। जैसे ये तकिया ऐसे हो जाएं (दिखाते हुए)। तो वो (भगवान) हमारी रक्षा करता हैं। मां के पेट में हम उल्टे टंगे रहे, उल्टे। अगर उसी तरह उल्टा आपको कोई टांग दे, दो हफ्ते को उल्टा, पैर ऊपर सिर नीचे, तो पहलवान भी जीरो बटे सौ हो जाय. इतना कोमल हमारा शरीर था माँ के पेट में, उल्टे टंगे रहे, लेकिन वो रक्षा करता रहा. रक्षा किया उसने पैदा होते ही, उसने फिर रक्षा किया, माँ के स्तन में दूध बना दिया, फिर संसार बना दिया. फिर रक्षा किया, खाने-पीने का सामान और हर क्षण हमारे साथ चेतना दे रहा है, हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के हिसाब का फल दे रहा है. वर्तमान काल के कर्मों को नोट करके जमा कर रहा है. इतनी रक्षा करता है वो (भगवान).........तो रक्षाबंधन के दिन हरि-गुरु से रक्षा की आशा करके और उनके शरणागत होकर के हमको अपनी रक्षा करवानी चाहिए।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत,आप सभी को रक्षाबन्धन पर्व की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं) -
- - रक्षाबंधन पर 29 साल बाद बना शुभ संयोग
- - जाने कब रहेगा शुभ मुहूर्त...
रायपुर। भाई और बहन के अटूट रिश्ते का प्रतीक पर्व रक्षाबंधन कल मनाया जाएगा। इस साल सावन के आखिरी सोमवार यानी 3 अगस्त पर रक्षाबंधन का त्यौहार पड़ रहा है।जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी ने बताया कि भाई-बहन के अटूट प्रेम का पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन इस बार बेहद खास होगा क्योंकि इस साल रक्षाबंधन पर सर्वार्थ सिद्धि और दीर्घायु आयुष्मान का शुभ संयोग बन रहा है। रक्षाबंधन पर ऐसा शुभ संयोग 29 साल बाद आया है। साथ ही इस साल भद्रा और ग्रहण का साया भी रक्षाबंधन पर नहीं पड़ रहा है।इस साल रक्षाबंधन पर सर्वार्थ सिद्धि और दीर्घायु आयुष्मान योग के साथ ही सूर्य शनि के समसप्तक योग, सोमवती पूर्णिमा, मकर का चंद्रमा श्रवण नक्षत्र, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र और प्रीति योग बन रहा है। इसके पहले यह संयोग साल 1991 में बना था। इस संयोग को कृषि क्षेत्र के लिए विशेष फलदायी माना जा रहा है।रक्षाबंधन से पहले 2 अगस्त को रात्रि 8 बजकर 43 मिनट से 3 अगस्त को सुबह 9 बजकर 28 मिनट तक भद्रा रहेगी। इसके साथ ही शाम 7 बजकर 49 मिनट से दीर्घायु कारक आयुष्मान योग भी लग जाएगा।शिशुपाल राजा का वध करते समय भगवान श्री कृष्ण के बाएं हाथ से खून बहने लगा, तो द्रौपदी ने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर उनके हाथ की अंगुली पर बांध दिया। कहा जाता है कि तभी से भगवान कृष्ण द्रौपदी को अपनी बहन मानने लगे और सालों के बाद जब पांडवों ने द्रौपदी को जुए में हरा दिया और भरी सभा में जब दुस्शासन द्रौपदी का चीरहरण करने लगा तो भगवान कृष्ण ने भाई का फर्ज निभाते हुए उनकी लाज बचाई थी। कहा जाता है कि रावण की बहन ने भद्रा में उन्हें रक्षा सूत्र बांधा था, जिससे रावण का सर्वनाश हो गया था।कब रहेगा भद्राकाल और कब है शुभ मुहूर्त- 3 अगस्त को सुबह 9 बजकर 28 मिनट तक भद्रा- रक्षाबंधन का शुभ मुहूर्त राखी बांधने का मुहूर्त- प्रात: 9 बजकर27 मिनट 30 सेंकेंड से प्रात: 9 बजकर 11 मिनट 21 सेकेंड- रक्षा बंधन अपराह्न मुहूर्त- 1 बजकर 45 मिनट 16 सेकेंड से 4 बजकर तेइस मिनट 16 सेकेंड तक-रक्षा बंधन प्रदोष मुहूर्त- शाम 7 बजकर एक मिनट 15 सेकेंड से 9 बजकर 11 मिनट 21 सेकेंड तकरक्षा बंधन मुहूर्त अवधि-11 घंटे 43 मिनट---- - आज मित्रता दिवस है। संसार में सबके अनेक मित्र, दोस्त आदि होते हैं, किन्तु शास्त्र की दृष्टि से देखें तो हम सभी भगवान के अंश हैं और अंश होने के नाते भगवान से ही हमारे समस्त संबंध हैं। अत: हमारे वास्तविक मित्र, सखा, यार भी एकमात्र भगवान ही हैं। ब्रजलीला में कृष्ण और उनके ग्वाल सखाओं की मित्रता सर्वोच्च है। भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपनी प्रेम रस मदिरा ग्रंथ में इस मधुर सख्य रस की एक सुंदर झांकी प्रस्तुत की है, आइये उस झांकी के दर्शन करें...देखो देखो री, ग्वाल-बालन यारी।इन ग्वालन मुख छोरि-छोरि हरि, खात कौर कहि बलिहारी।रिझवत खेल जिताय सखन को, घोड़ा बनि बनि बनवारी।कबहुंक देत रिसाय सखन कहँ, पुनि तिन सुनत मधुर गारी।नख धारयो गोवर्धन-गिरि जब, सखन कह्यो हम गिरिधारी।सो कृपालु छवि अनुपम जब कह, द्वै तातरु द्वै महतारी।।भावार्थ - एक रसिक कहता है, अरे! इन निरक्षर-भट्टाचार्य ग्वाल बालों के प्रेम की महिमा तो देखो। इन ग्वाल बालों के मुख से छीन-छीनकर उच्छिष्ट कौर स्वयं भगवान विभोर होकर खा रहे हैं। कभी इन सखाओं को खेल में जीता देते हैं और स्वयं उनका घोड़ा बनकर उन्हें सुख पहुंचाते हैं और कभी उन्हें क्रुद्ध कर देते हैं एवं उनकी परमात्मीयतायुक्त साधिकार गाली सुनकर आनन्दित होते हैं। जब श्यामसुन्दर ने गोवर्धन पहाड़ उठाया तब ग्वाल बालों ने कहा कि कन्हैया ने तो केवल एक नाखून से ही छू रखा था, वास्तव में गिरिधारी तो हम लोग हैं (क्योंकि हमने तो अपनी-अपनी लाठियां लगाई थीं)। श्री कृपालु जी कहते हैं कि हमें तो वह छवि सबसे मधुर लगती है जब सखाओं द्वारा, दो पिता एवं दो माता वाला कहे जाने पर रोदनशील बन जाती है।( रचयिता - भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजपद एवं भावार्थ स्त्रोत -प्रेम रस मदिरा ग्रंथ, रसिया माधुरी, पद संख्या 7)
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज हम सभी जीवों को हमारे कर्तव्य के विषय में समझाते हुए कह रहे हैं -सभी विवेकी जीवों को यही निश्चय करना है कि हमारा लक्ष्य, हमारे सेव्य श्रीकृष्ण की सेवा ही है। वह सेवा भी उनकी इच्छानुसार हो। अपनी इच्छानुसार सेवा, सेवा नहीं है। वह तो अपने सुख वाली कही जाएगी। यह सेवाधिकार स्वाभाविक है। यथा -
- दासभूतो हरेरेव नान्यस्यैव कदाचन।
अर्थात समस्त जीवमात्र, अपने अंशी ब्रम्ह श्रीकृष्ण के नित्यदास हैं। यह दासत्व ही उनका स्व स्वरुप है। जिस प्रकार वृक्ष के अंश स्वरुप मूल, शाखा, उप-शाखा, पत्रादि अपने अंशी वृक्ष की नित्य सेवा करते हैं अर्थात वृक्ष की जड़ें पृथ्वी से तत्व निकालकर वृक्ष को देती हैं, शाखा, पत्ते आदि भी सूर्यताप, वायु आदि के द्वारा सेवा करते हैं। इसी प्रकार जीवों को अपने अंशी श्रीकृष्ण की सेवा करनी है। यही ज्ञातव्य है। यही कर्तव्य है।प्रवचन स्त्रोत - आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।(सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु जनों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है, आइये इन शब्दों को हृदयंगम करें....(पिछले भाग से आगे)यह जो आंसू आप बहाते हैं, भगवान के लिये साधना के समय, यह आंसू इसलिये हैं कि असली आंसू मिल जायें। यानी हम जो मन का अटैचमेंट करते हैं, जो विरह की फीलिंग होती है, हमको मिलन के लिये, यह प्रेम नहीं है। यह तो याचना का एक रुप है।जैसे हम ठीक-ठीक कोई चीज मांगें नॉर्मल होकर के अहंकाररहित होकर, तो वह धनी हमको सामान दे देता है। तो हृदय की गंदगी को साफ करने के लिये आपको अभी आंसू बहाना है। यह अहंकार नहीं करना है कि ऐसे ही आंसू आते होंगे उधर भी। सिद्ध पुरुषों के आंसू प्रेमाश्रु हैं, दिव्य प्रेम उनको मिल जाता है उससे सात्विक भाव होते हैं। अभी हम लोगों को जो कुछ मिल जाता है गुरु कृपा हरि कृपा से, इससे अपना अहंकार न बढ़ावें।सात्विक अश्रु तो प्रेमाभक्ति की प्राप्ति पर ही आते हैं। यह सिद्धावस्था की बात है। साधनावस्था के सबसे अच्छे आंसू वह कहे जाते हैं, जो भगवान के मिलन अथवा वियोग में आते हैं। इसके नीचे के भी आंसू होते हैं जो अपने को अधम पतित मानने से आते हैं। एक गलत आंसू भी होता है। जैसे यशोदा जो अपने लाला के लिये तड़प रही है। किसी मां को उसका ध्यान करते-करते अपने लड़के की याद आ गई और वह रोने लगी - यह गलत आंसू है।(समाप्त)( प्रवचन स्त्रोत- आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु जनों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है, आइये इन शब्दों को हृदयंगम करें....
- (प्रथम भाग)
यदि श्यामसुन्दर के लिये तुम एक आंसू बहाते हो तो वो तुम्हारे लिये हजार आंसू बहाते हैं। काश कि मेरी इस वाणी और तुम विश्वास कर लेते, तो आंसू बहाते न थकते।अरे! इसमें तुम्हारा क्या खर्च होता है? इसमें क्या कुछ अक्ल लगाना है? क्या इसके लिये कुछ साधना करनी है? क्या इसमें कोई मेहनत है? क्या यह कोई जप है? आंसू उनको इतने प्रिय हैं, और तुम्हारे पास फ्री हैं। क्यों नहीं उनके लिये बहाते हो? निर्भय होकर उनसे कहो कि, तुम हमारे होकर भी हमें अभी तक क्यों नहीं मिले? तुम बड़े कृपण हो, बड़े निष्ठुर हो, तुमको जरा भी दया नहीं आती। हमारे होकर भी हमें नहीं मिलते हो। इस अधिकार से आंसू बहाओ।हम पतित हैं, हम अपराधी हैं तो क्या हुआ? हम पतित हैं, तो तुम पतितपावन हो, फिर अभी तक क्यों नहीं मिले? इतना बड़ा अधिकार है, तभी तो वह तुम्हारे एक आंसू बहाने पर हजार आंसू बहाते हैं।हम लोग जो भजन कीर्तन साधना करते हैं उसमें एक बहुत बड़ी बीमारी है। जरा से आंसू निकल गये, जरा सा रोमांच हो गया, जरा सा ध्यान लग गया तो हम अपने को समझने लगते हैं कि हम भी एक गोपी बन गये। अभी आप को पता ही नहीं है आंसू कितने प्रकार के होते हैं? अभी लाखों करोड़ों आंसू आप बहायेंगे तब असली आंसू पाने की बात बनेगी। यह जो आंसू आप बहाते हैं, भगवान के लिये साधना के समय, यह आंसूू इसलिये हैं कि असली आंसू मिल जाएं।(शेष प्रवचन कल के दूसरे भाग में..)(प्रवचन स्त्रोत-आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।)(सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन
- (पिछले भाग से आगे)
मान-अपमान के गर्त से निकलना होगा। इसे छोडऩा होगा नहीं तो हमारा जो भविष्य है, परलोक, वो बिगड़ जायेगा। और वर्तमान में भी परेशान रहेंगे। वर्तमान भी दु:खमय और भविष्य भी हानिकारक।अगर इसी प्रकार मान-अपमान के चक्कर में पड़े रहे, तो अभी तो आपस में मान-अपमान की बीमारी है, फिर संत और भगवान का भी अपमान करेंगे। इसलिये हमें इसको छोड़कर निरंतर भगवत्प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जब श्यामसुन्दर स्वयं अपने पीताम्बर से हमारे आँसू पोंछकर हमें सम्मानित करेंगे तब वो दिन हमारे लिये सम्मान का दिन होगा। उस दिन मानव-देह का मूल्य चुक जायेगा।कोई अच्छा है, या बुरा है उसको छूना नहीं है, अंदर से उसको नहीं छूना है। यह मन, संसार को छूने के लिये नहीं है, इस मन से तो भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और जन (संत, भक्त) को छूना है। इसलिये मान-अपमान दोनों को छोड़कर भगवान का स्मरण करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।जब आप भगवान को प्राप्त कर लेंगे तो मान-अपमान सब एक हो जायेगा। निंदा स्तुति उभय सम। तब निंदा-स्तुति दोनों एक समान लगती है। लेकिन भगवत्प्राप्ति से पहले हम वन्दनीय नहीं हैं, निन्दनीय भले ही हैं। तो अगर कोई निन्दनीय कहता है हमें, तो वो हमारा हितैषी है। जब सबके बारे में सोचना भी नहीं है।(समाप्त)(प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत) -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन-
- (पिछले भाग से आगे)
भक्त लोग जिस प्रकार से राम कहते हैं और राम सामने आकर खड़े हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम क्रोध करते हैं तो क्रोध भी आकर खड़ा हो जाता है।आप कहते हैं - रावण अहंकारी था। लेकिन रावण में इतना बल था कि यमराज भी उसके यहाँ नौकरी करता था। ब्रम्हा उसके यहाँ वेद पढऩे के लिये आता था। अगर वो अहंकार करे तो क्या बुरा करता था, उसके पास तो स्प्रिचुअल पॉवर थी। शंकर जी को सिर काटकर चढ़ाता था। लेकिन आज का मनुष्य, न कुछ होते हुये भी, अपने को सब कुछ समझता है।तो अगर हम राग-द्वेष, मान-अपमान को छोड़ देंगे तो फिर फैक्ट बुरा नहीं लगेगा। किसी के कामी, क्रोधी, मोही कहने पर हम कुछ भी बुरा नहीं मानेंगे। क्योंकि अनंत जन्मों के कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं और जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जायेगी, तब तक रहेंगे। इसलिये अगर कोई दोष बताता है तो यही समझो कि वह हमारा हितैषी है। तुलसीदास जी इसीलिये कहते हैं - निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय ।किसी आदमी ने अपमान किया और आपको गुस्सा आया भीतर से, लेकिन चुप हो गये और चले आये। यह उससे अच्छा है जो अन्दर गुस्सा आया और जवाब दे दिया। यह जबान ऐसी चीज है जो बाहर तो नुकसान पहुंचाती ही है, भीतर भी पहुंचाती है। कैसे? आपने कहा देखकर चलो, दूसरे ने कहा बोलने की तमीज भी है? इसी पर मारपीट मुकदमेबाजी हो गई।आपने जबान खोली और दूसरे ने चप्पल मार दी, लेकिन चप्पल तब पड़ी, जब आपने जबान खोली। जबान को आपने नहीं सहा, लेकिन चप्पल को सहा। दशरथ जी, अपनी जबान से दो वरदान दे गये और उसके कारण सारी रामायण बन गई। अपने आप को समझा लीजिये तो काम बन जायेगा। ये जो दोनों का बोलना है, वही खतरनाक है और वही आपका शारीरिक, मानसिक नुकसान कर रहा है।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)प्रवचन संदर्भ: अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।-- -
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन
(पिछले भाग से आगे)लक्ष्य तक पहुंचने के लिये मान-अपमान की बात पहले छोडऩी होगी। अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कहता है, तो उस ओर अगर हम एतराज करते हैं, तो हम सदोष हो गये। अगर किसी अच्छे आदमी की कोई बुराई करे और वह उसको बुरी लग गई, तो एक सदोष शब्द ने जब इतनी गड़बड़ी पैदा कर दी तो इससे मालूम होता है कि अंदर कितनी बुराई भरी पड़ी है।इतना बड़ा दोष अंदर भरा हुआ था, लेकिन थोड़ा ही निकला। एक शब्द में इतना असर किया कि इतना दोष निकल आया। तो देखिये, अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कह देता है, तब भी अगर हम निर्दोष बने रहते हैं तब तो हम निर्दोष हैं, लेकिन अगर निन्दनीय कहने से हम निन्दनीय बन जाते हैं, तो निन्दनीय हो गये।किसी हवलदार को हवलदार और स्त्री को स्त्री कह दीजिये, लेकिन वे बुरा नहीं मानेंगे। इसलिये जब हम कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं तो फिर किसी के कहने का बुरा क्यों मानते हैं? भगवत प्राप्ति से पहले कौन सा ऐसा अवगुण है जो हमारे अन्दर नहीं है? ये सारे विकार (काम, क्रोध आदि) भगवत्प्राप्ति पर ही जायेंगे, उससे पहले हम समस्त अवगुणों की खान हैं।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)( प्रवचन संदर्भ : अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन(पिछले भाग से आगे)मान अपमान ये दोनों ही बहुत खतरनाक है, इसलिये दोनों को छोडऩा होगा। मान-अपमान दोनों ही न चाहें। अपमान न चाहने का मतलब कि जब हमें अपमान मिले तो हम उसको पकड़ें ना, ऐसा करने से हम कभी अशान्त नहीं होंगे और मान मिले तो भी, उसको भी नहीं पकडऩा है। उसको नहीं पकड़ेंगे तो अहंकार नहीं होगा। अगर दोनों में से एक को भी पकड़ा तो क्या होगा?तो फिर मन में मान या अपमान भर जायेगा। तो उस मन से फिर हम भगवान को कैसे पकड़ सकेंगे? एक ही तो मन है, चाहे उसमें मान-अपमान को रख लें, या भगवान को बिठा लें। एक मन में एक समय में एक ही चीज रह सकती है।युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम।दोनों चीजें एक साथ, एक ही मन में नहीं रह सकतीं। तो अगर इस मन में मान भरा तो भी खतरा, अपमान भरा तो भी खतरा। किसी दुश्मन को आप दु:खी करना चाहते हैम इसलिये उसका अपमान करते हैं। यानि उसके प्रति आपके मन में द्वेष है। राग-द्वेष दोनों ही हानिकारक है। जितनी मात्रा में राग हानिकारक है, उतनी ही मात्रा में द्वेष हानिकारक है। हमें राग-द्वेष दोनों से रहित होना है।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)(प्रवचन संदर्भ- अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।)
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- नाग पंचमी पर विशेष
आज नाग पंचमी का पर्व मनाया जा रहा है। प्राचीन काल से ही भारत में नागों की पूजा की परंपरा रही है। माना जाता है कि 3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। यही कारण था कि प्रमुख नाग वंशों के नाम पर ही जमीन पर रेंगने वाले नागों के नाम पड़े थे।पुराणों के अनुसार कश्मीर में कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले थे, जिनके नाम थे- अनंत (शेषनाग), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था। उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी कद्रु के दूसरे पुत्रों के अधीन थे। कुछ अन्य पुराणों के अनुसार नागों के प्रमुख पांच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला। जबकि कुछ और पुराणों ने नागों के अष्टकुल बताये हैं- वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय।अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक् नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्र प्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है। भारत में इन आठ कुलों का ही क्रमश: विस्तार हुआ, जिनके नागवंशी रहे थे- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादि।कृष्ण काल में नाग जाति ब्रज में आकर बस गई थी। इस जाति की अपनी एक पृथक् संस्कृति थी। कालिया नाग को संघर्ष में पराजित करके श्रीकृष्ण ने उसे ब्रज से निर्वासित कर दिया था, किंतु नाग जाति यहां प्रमुख रूप से बसी रही। मथुरा पर उन्होंने काफ़ी समय तक शासन भी किया।नागसेन आदिनाग नरेश ब्रज के इतिहास में उल्लेखनीय रहे, जिन्हें गुप्त वंश के शासकों ने पराजित किया था। नाग देवताओं के अनेक मंदिर आज भी ब्रज में विद्यमान हैं।इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है कि महाप्रतापी गुप्तवंशी राजाओं ने शक या नागवंशियों को परास्त किया था। प्रयाग के किले के भीतर जो स्तंभलेख है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि महाराज समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को पराजित किया था। इस गणपति नाग के सिक्के बहुत मिलते हैं।महाभारत में भी कई स्थानों पर नागों का उल्लेख है। पांडवों ने नागों के हाथ से मगध राज्य छीना था। खांडव वन जलाते समय भी बहुत से नाग नष्ट हुए थे।जनमेजय के सर्प-यज्ञ का भी यही अभिप्राय मालूम होता है कि पुरुवंशी आर्य राजाओं से नागवंशी राजाओं का विरोध था। इस बात का समर्थन सिकंदर के समय के प्राप्त वृत्त से होता है। जिस समय सिकंदर भारत में आया, तब उससे सबसे पहले तक्षशिला का नागवंशी राजा ही मिला था। उस राजा ने सिकंदर का कई दिनों तक तक्षशिला में आतिथ्य किया और अपने शत्रु पौरव राजा के विरुद्ध चढ़ाई करने में सहायता पहुँचाई। सिकंदर के साथियों ने तक्षशिला में राजा के यहां भारी-भारी सांप पले देखे थे, जिनकी नित्य पूजा होती थी। यह शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को नागभाषा कहते हैं।पुराणों में वर्णित प्रमुख नाग हैं-1. शेषनाग- शेषनाग के बारे में कहा जाता है कि इसी के फन पर धरती टिकी हुई है यह पाताल लोक में ही रहता है। चित्रों में अक्सर हिंदू देवता भगवान विष्णु को शेषनाग पर लेटे हुए चित्रित किया गया है। मान्यता है कि शेषनाग के हजार मस्तक हैं। दो मुंह वाला सर्प तो आम बात हैं। शेष को ही अनंत कहा जाता है ये कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी और प्रथम नागराज थे। कश्मीर के अनंतनाग जिला इनका गढ़ था।2. वासुकी- नागों के दूसरे राजा वासुकी का इलाका कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। पुराणों अनुसार वासुकी नाग अत्यंत ही विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं। समुद्र मंथन के दौरान देव और दानवों ने मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी को ही नेती (रस्सी) बनाया था।3. तक्षकृ- तक्षक ने शमीक मुनि के शाप के आधार पर राजा परीक्षित को डंसा था। उसके बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग जाति का नाश करने के लिए नाग यज्ञ करवाया था। माना जाता है कि तक्षक का राज तक्षशिला में था।4. कर्कोटक- कर्कोटक और ऐरावत नाग कुल का इलाका पंजाब की इरावती नदी के आसपास का माना जाता है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे। नारद के शाप से वे एक अग्नि में पड़े थे, लेकिन नल ने उन्हें बचाया और कर्कोटक ने नल को डस लिया, जिससे राजा नल का रंग काला पड़ गया। लेकिन यह भी एक शाप के चलते ही हुआ तब राजा नल को कर्कोटक वरदान देकर अंतध्र्यान हो गए। शिवजी की स्तुति के कारण कर्कोटक जनमेजय के नाग यज्ञ से बच निकले थे और उज्जैन में उन्होंने शिव की घोर तपस्या की थी। कर्कोटेश्वर का एक प्राचीन उपेक्षित मंदिर आज भी चौबीस खम्भा देवी के पास कोट मोहल्ले में है। वर्तमान में कर्कोटेश्वर मंदिर हरसिद्धि के प्रांगण में है।5. पद्म- पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है।इसके अलावा 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक नामक नागों के कुल का उल्लेख भी मिलता है। उक्त सभी के मंदिर भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों पर पाए जाते हैं।-- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन, यह न केवल आध्यात्म जगत, वरन सांसारिक जगत, दोनों ही के लिये अति आवश्यक विषय है। अत: इसके पांचों भागों को चिंतन-मननपूर्वक पठन करें।मान अपमानदेखिए! ईश्वर प्राप्ति में बहुत से बाधक तत्व होते हैं। जैसे शरीर को स्वस्थ रखने में बहुत सी सावधानी बरतनी पड़ती है। जरा सी असावधानी भी हमारे शरीर, हमारी मशीन को गड़बड़ कर देती है। कोई व्यक्ति अच्छा खासा खा-पी रहा है, लेकिन अगर ऐसी जगह खड़ा हो गया, जहां रोग के कीटाणु हैं, तो रोग हो सकता है। ऐसे ही ईश्वर प्राप्ति में बहुत सी चीजें बाधक हो जाती हैं। लेकिन इनमें जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह - मान अपमान।मान और मान का उल्टा अपमान। हमारा मन इन दोनों चीजों को पकड़े हुये है। मान अपने लिये चाहता है, इसलिये दूसरों का अपमान करता है। कोई मनुष्य मान क्यों चाहता है? क्योंकि दूसरों का अपमान चाहता है। और अपमान क्यों चाहता है? इसलिये कि अपना मान चाहता है। अगर व्यक्ति स्वयं मान न चाहे तो दूसरों के अपमान की बीमारी पैदा ही न हो।एक तरकीब है, जिससे इन दोनों खतरनाक चीजों को हम रखे भी रहें और काम भी बन जाये, वो क्या? जो दूसरों के लिये चाहते हो वो अपने लिये चाहो और जो अपने लिये चाहते हो वो दूसरों के लिये चाहो। यानी दूसरों के लिये अपमान चाहते हो, वो अपने लिये चाहो और अपने लिये मान चाहते हो, वो दूसरों के लिये चाहो। बस, भगवत्प्राप्ति हो जायेगी।(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)(प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत)
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'क्रोध' पर दिया गया संक्षिप्त प्रवचन :
क्रोध आया कि सर्वनाश हुआ। बदतमीज कहने पर बदतमीज बन गये। आप इतने मूर्ख हैं कि एक मूर्ख ने 'मूर्ख' कहकर आपको मूर्ख बना दिया।
आपमें जो समझदारी थी वो छिन गई। देखिये संत और भगवान को लोग कितना भला-बुरा कहते हैं लेकिन वे उसको अंदर ही नहीं ले जाते। इसी का नाम समझदारी है। किसी में जो अच्छी चीज है उसको ले लीजिये और खराब चीज को छोड़ दीजिये। अंदर वाली गंदगी को निकाल दीजिये और बाहर वाली अच्छाई को ले लीजिये।
समझदार उसी को कहते हैं जो नासमझ की नासमझी से अपनी समझदारी को खो ना दे। नासमझ की नासमझी उस पर हावी न हो पाये। अगर समझदार ने भी नासमझी की, तो फिर वो भी नासमझ बन गया। किसी विद्वान को किसी ने 'मूर्ख' कह दिया और वे अगर उससे लड़ गये तो वे दोनों ही मूर्ख हैं। साथ में तमाशा देखने वाले भी मूर्ख हैं।
जो अंदर भरा होता है वही तो अच्छा भी लगता है और उसी को व्यक्ति स्वीकार करता है। इससे मालूम पड़ जाता है कि आपके अंदर क्या कूड़ा भरा है। अखबार पढ़ा तो पढ़ा कि कहाँ किसने चोरी की? कहाँ कत्ल हुआ? बस उसी को पढ़ा, अब उसी का चिंतन मनन और कीर्तन किया और वैसे ही बन गये।
(जगद्गुरु कृपालु परिषत की साधन साध्य पत्रिका के मार्च 2005 अंक में प्रकाशित, सर्वाधिकार - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा हरियाली-तीज पर प्रगट किये गये दोहे एवं भावहरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।जित देखूं हरि हरि ही दिखा दे।।
हरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।हरि बोलूं, हरि देखूं, हरि ही सुना दे।।
हरियाली तीज पर हे गोविन्द राधे।हरि मिलन की कामना उर में बढ़ा दे।।
हरिहूं की हरितायी गोविन्द राधे।हिय हर्षित करि हरिहूं बना दे।।
आज हरियाली तीज है गोविन्द राधे।तन मन धन तीनों हरि पै लुटा दे।।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित दोहे)समझने के लिये सरल अर्थ- हरियाली तीज पर एक भगवत्प्रेम पिपासु जीव अपने भगवान और गुरु से याचना कर रहा है कि हे हरि-गुरु! ऐसी कृपा करो कि मुझे ऐसी दृष्टि प्राप्त हो कि मैं जिधर नजर डालूं, उधर-उधर ही मुझे आपके (हरि-गुरु) दर्शन हों। मैं केवल आपके नाम एवं गुणों का ही गान करता रहूं, आपकी ही रसमयी चर्चा सुनता रहूं। हे करुणासिन्धु! ऐसी कृपा करो कि नित्य ही मेरे हृदय में आपके प्रेम एवं सेवप्राप्ति की लालसा बढ़ती ही जाय।आज हरियाली तीज है। इस अवसर पर बारम्बार अपनी बुद्धि को स्मरण दिला रहा हूं कि यह तन, मन और धन सब एकमात्र हरि-गुरु की सेवा में ही समर्पित करना है। जिनके हृदय में हरि ही हरि सम्पूर्ण रुप से छा जाते हैं, उनका हृदय तो सदा ही प्रसन्नता से छलकता रहता है, उसका सब कुछ हरिमय ही हो जाता है।(सभी दोहे जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित किये गये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के ग्रंथ साहित्यों से हैं। सभी साहित्य राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के सर्वाधिकार में हैं।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा हरियाली-तीज पर प्रगट किये गये दोहे एवं भावआली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल को झूला झुला दें।।
आली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल हाथ मेहंदी रचा दें।।
आली हरियाली तीज गोविन्द राधे।चलो लाली लाल को मल्हार सुना दें।।
हरियाली तीज पर गोविन्द राधे।उर बिच झूला डार झुला दे।।
सब पर्व लक्ष्य एक गोविन्द राधे।जग से हटा के मन हरि में लगा दे।।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा विरचित दोहे)सरल अर्थ - ब्रजधाम में एक सखी (गोपी) अपने अन्य सखियों से कह रही है कि सखी! देखो हरियाली तीज आ गई है। सब ओर हरियाली ही हरियाली छाई है। आओ हम सब कुंज लताओं में, कदम्ब पर झूला डालें। झूला डालकर हम सभी प्रिया-प्रियतम (राधाकृष्ण) को मिलकर झूला झुलायें। कोई-कोई सखी उनके हाथों पर सुन्दर सी मेहंदी रचेंगी और कोई-कोई सखियां उन्हें मल्हार आदि रागों में सुन्दर गीत सुनायेंगी और उन्हें सुख पहुंचायेंगी।सभी पर्वों का एकमात्र लक्ष्य यही होता है कि हम अपने मन को, जो कि संसार में लगा हुआ है, आसक्त है, उसे वहां से हटाकर बार-बार भगवान में लगाने का अभ्यास करें। पर्व एवं त्यौहारों का यही उद्देश्य है। इस हरियाली तीज पर हम अपने आराध्य भगवान श्रीराधा-कृष्ण को अपने हृदय-कुंज में पधारकर, भाव हृदय में ही झूला डालकर उन्हें झूला झुलाएं एवं उनको सुख प्रदान करें।(सभी दोहे जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित किये गये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के ग्रंथ साहित्यों से हैं। सभी साहित्य राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के सर्वाधिकार में हैं।)