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- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 145
(आध्यात्मिक जगत के साथ ही भौतिक जगत के मनुष्यों के लिये भी लाभदायक मार्गदर्शन, यहाँ से पढ़ें..)
..निराशा आने का मतलब ये कि उसने (साधक) सारी भगवत्कृपाओं पर लात मार दिया। जितनी भगवत्कृपा उसके ऊपर हुई, महापुरुष कृपा हुई, उसका बार-बार चिन्तन नहीं किया। निराशा आते ही बुद्धि को फटकारना चाहिए, फिर तुमने अपराध किया, क्या कृपा बाकी है जो तुम्हारे ऊपर नहीं हुई।
प्रतिकूल चिन्तन की धारा चलने न पावे, चिन्तन शुरू होते ही तुरन्त समाप्त करो। जैसे किसी स्त्री के कपड़े में आग लग गई, खाना बनाते समय, वह वहीं दबा देती है उसको। अगर वो लापरवाही करे तो सब कुछ जल जायेगा। अतः हम खाली समय का सदुपयोग नहीं करते, गलत चिन्तन करते हैं। इससे निराशा आती है।
इसका सबसे बढ़िया इलाज ये ही है, मन को खाली न रहने दो। जहाँ जाओ, भगवत चिन्तन में लग जाओ। 'आनुकूलस्य संकल्पः'। याद रखो शरणागति में अनुकूल चिन्तन ही हो, इसी की प्रैक्टिस करो, कुछ और न सुनो, न कुछ और पढ़ो, न कुछ और सोचो और अगर कुछ पढ़ने, कुछ सुनने, कुछ सोचने में आवे, तुरन्त होशियार हो जाओ। तत्काल होशियार हो जाओ, जैसे कोई खाना चबाता है, कंकड़ आया और दाँत से दबाकर आँख को मींचकर कहता है, अरे! कंकड़ आ गया। फेंक दिया उसको। और चबाये ही जाय उसको तो लोग पागल कहेंगे। अरे! कंकड़ आया, दाँत के नीचे कट से हुआ और स्वाद खराब हुआ फिर भी तुम खाये जा रहे हो। बाल आया तुम्हारे खाने के साथ, तुम्हारी समझ में आ गया और फिर भी चबाये जा रहे हो, तो लोग उसको पागल कहेंगे।
तो उसी प्रकार कोई गड़बड़ आये, खोपड़ी में तुरन्त निकालो। जब ये ज्ञान है कि निराशा हानिकारक चीज है और वो आने लगी, होशियार क्यों नहीं हो गये, धिक्कारा क्यों नहीं, अपने आपको। तुरन्त सही चिन्तन शुरू क्यों नहीं किया? जब जानते हो कि चिन्तन में अनन्त शक्ति है, राक्षस बना दे, महापुरुष बना दे। सारा काम चिन्तन का है और कुछ है ही नहीं विश्व में। अधिक चिन्तन जिस चीज का करोगे वैसे ही बन जाओगे। अच्छाई का चिन्तन करो, अच्छे बन जाओगे। बुराई का चिन्तन कुछ दिन करो, कितना भी अच्छा हो, बुरे बन जाओगे।
चिन्तन की लिंक के अनुसार उत्थान-पतन दोनों संभव है। इसलिए मन को खाली नहीं रखो, गलत संग में नहीं डालो। गलत व्यक्तियों से बात न सुनो, न करो और कहीं कान में पड़ जाय तो उसको ऐसे फेंक दो जैसे कंकड़ को खाना खाते समय फेंक देते हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2014 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 144
(संत तथा भगवान का जन्म/अवतार साधारण जीवों के जन्म से कैसे भिन्न है, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी में यहाँ से पढ़ें...)
एष आत्मापहृतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको।विजिघत्सोपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः।।(छांदोग्योपनिषद, 8-1-5)
वह ब्रम्ह पापरहित है, जरारहित है, उसकी मृत्यु नहीं होती, वह शोकरहित है, उसे भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती, वह सत्यकाम है, सत्यसंकल्प है।
ब्रम्ह अथवा भगवान के ये आठ गुण भगवत्प्राप्ति के पश्चात जीव में भी आ जाते हैं। तत्पश्चात वह जीव महापुरुष अथवा भगवत्प्राप्त संत के नाम से अभिहित होता है।
किन्तु जब भगवान अथवा महापुरुष, मनुष्य रूप में इस धरा पर हमारे बीच अवतरित होते हैं, उनका तो जन्म भी देखा जाता है, जरा भी होती है, मृत्यु भी देखी जाती है। वे पाप अथवा पुण्य के कार्य करते दिखाई देते हैं। भूख लगने पर खाना भी खाते हैं तथा प्यास लगने पर पानी भी पीते हैं। फिर कैसे मानें कि वे आठ गुणों से युक्त हैं?
यों तो साधारण जीवों की आत्माओं के लिये भी कहा जा सकता है कि आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु होती है, उसे न आग जला सकती है और न पानी ही गला सकता है। इत्यादि। फिर भगवान, महापुरुष अथवा साधारण जीव में हम भेद कैसे मानें?
कारागार में एक ही वेशभूषा में तीन व्यक्ति खड़े हैं। आप कहेंगे कि तीनों ही जेल में हैं, अवश्य कैदी हैं तीनों। किन्तु ऐसा नहीं है। उनमें एक कैदी है, दूसरा जेल का अधीक्षक है और तीसरा देश का राजा अथवा मिनिस्टर है। देखने में तीनों एक समान कैदी लगते हैं किन्तु कैदी को न्यायाधीश द्वारा उसके कुकृत्य की सजा देकर जेल में भेजा गया है। जबकि राजा अथवा मिनिस्टर जेल का निरीक्षण करने आया है, अधीक्षक जेल में प्रबंध करने आया है। ये दोनों स्वयं आये हैं और स्वयं जा सकते हैं किन्तु कैदी जेल में लाया गया है और सजा पूरी करने तक बंधन में रहेगा।
इसी प्रकार साधारण व्यक्ति (जीव) कर्मबन्धन में बंधकर प्रारब्धवश संसार में लाये जाते हैं किन्तु भगवान अथवा महापुरुष का कोई कर्मबन्धन नहीं है, वे स्वयं लोकहितार्थ संसार में स्वयं अवतरित होते हैं।
साधारण जीव अपने पूर्व निश्चित प्रारब्ध को भोगकर निश्चित समय पर मृत्यु को प्राप्त होता है किन्तु भगवान अथवा महापुरुष अपने निश्चित कार्यक्रम के पूरा होने पर, जब चाहें तब अपनी लीला संवरण करके, अपने लोक को प्रस्थान कर सकते हैं। वे आवश्यकतानुसार अपने समय में कमी अथवा वृद्धि करने में भी समर्थ हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, नवम्बर 1998 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
:जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 143
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 5) ::::::
(1) संसार में सबको एक ही वस्तु में सुख नहीं मिलता, जो व्यक्ति जिस व्यक्ति या वस्तु में बार-बार सुख की भावना बनाता है, उसी में आसक्ति हो जाती है। फिर उसी की ही कामना उत्पन्न होती है, फिर उसी कामनापूर्ति में क्षणिक सुख मिलता है।
(2) जब आत्मा दिव्य नित्य तत्व है, तो उसका विषय भी दिव्य ही होगा। संसार आत्मा का विषय हो ही नहीं सकता। वस्तुतः प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही चाहता है। अतः आत्मा भी जगत में व्याप्त परमात्मा का ही नित्य दिव्य सुख चाहता है।
(3) सर्वोत्तम भक्त वही है जो संसार में रहकर, संसार के विषयों का सेवन करते हुये भी मन को कृष्ण में रखे। न तो कहीं द्वेष करे, न राग करे। संसार को अपने प्रभु का खेल माने, तथा संसार में सर्वत्र अपने शरण्य को ही देखे। यही कर्मयोग है।
(4) अपने स्वरूप को, जीवन के मर्म को जानना होगा। एतदर्थ दीनता ही प्रथम सोपान है। इसके अवलम्ब के बिना यह मन उस प्रभु को धारण कर ही नहीं सकता, असम्भव है। यही तो आधार है, इसके बिना तो पात्र, बर्तन ही नहीं बनेगा।
(5) प्रत्येक जीव जो जीवित रहता है, वह इसलिये कि वह समझता है कि कुछ चीजों में मैं सबसे आगे हूँ। अगर प्रत्येक बात में कोई सबसे अच्छा हो जाय तो उसका खुशी से हार्ट फेल हो जायेगा बशर्ते कि वह भगवान या महापुरुष न हो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 142
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 4 के दोहा संख्या 20 से आगे)
मायाधीन जीव है अनादि कह बामा।माया ते मुक्ति दिलावें श्याम श्यामा।।21।।
अर्थ ::: जीव अनादि-काल से मायाधीन है। श्यामा श्याम की कृपा से ही जीव को इस अनादिकालीन माया के बंधन से छुटकारा प्राप्त होता है।
ब्रम्ह की ही शक्ति जीव, माया कह बामा।सब हैं सनातन माया, जीव, श्यामा।।22।।
अर्थ ::: जीव ब्रम्ह की शक्ति है। माया भी ईश्वरीय शक्ति है। माया, जीव एवं ब्रम्ह स्वरूपा श्रीराधा तीनों ही सदा से थे, सदा हैं, सदा रहेंगे।
माया है मिथ्या ऐसा बको आठु यामा।किन्तु माया जाय जब कृपा करें श्यामा।।23।।
अर्थ ::: ज्ञान-मार्ग के अनुयायी कहते हैं केवल ब्रम्ह ही सत्य है, माया मिथ्या है। 'ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या'। परन्तु ज्ञानियों का यह कथन उनका भ्रम है। माया को मिथ्या कहने मात्र से माया से पीछा नहीं छूट सकता। श्री राधा-कृपाकटाक्ष के बिना करोड़ों उपाय भी इस माया से मुक्ति दिलाने में असमर्थ है।
साधना किये न मिलें श्याम पूर्णकामा।पिया जिसे चाहे सोइ सुहागिनि बामा।।24।।
अर्थ ::: साधना करने मात्र से पूर्णकाम श्यामसुन्दर की प्राप्ति असम्भव है। प्रियतम स्वयं रीझकर जिसे स्वीकार कर लें वही सुहागिन स्त्री है। 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुगं-स्वाम्।'
तुम भी चित हम भी चित कह ब्रजबामा।तुम विभुचित हम अणुचित श्यामा।।25।।
अर्थ ::: हे श्रीराधे! तुम भी चित् स्वरूप हो और तुम्हारा अंश होने के कारण हम भी चित् हैं किन्तु अन्तर इतना ही है कि तुममें अनन्त मात्रा की चित् शक्ति है, हममें अणु मात्र की चित् शक्ति है। (अर्थात किशोरी जी का ज्ञान अनन्त है, उनके अंश स्वरूप जीव में अल्प ज्ञान है।)
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 141
(किस कर्म में उधार करें, किस कर्म को तत्काल करें, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से...)
..दो प्रकार का कर्म होता है क्योंकि आपके पास दो चीजें हैं; एक शरीर, एक आत्मा। तो आत्मा के कर्म के लिये उधार न करो, शरीर के कर्म को भले ही उधार कर दो और हम लोग उल्टा करते हैं। शरीर के कर्म को पहले करते हैं और अगर टाइम मिला, बचा फालतू वाला तो उसको परमार्थ में लगाते हैं। इसी प्रकार तन, मन, धन तीनों का संसार में उपयोग तो तुरन्त करते हैं और भगवान के एरिया में उपयोग करने में कतराते हैं, उधार कर देते हैं और उधार ही चलता जाता है।
अनन्त जन्म क्यों बीते? अनन्त बार भगवान को हमने देखा है, अनन्त संत हमको मिले हैं, उन्होंने समझाया है और हमने समझा भी है, लेकिन शरणागति में उधार कर दिया, भक्ति में उधार कर दिया, कल करेंगे और कल आने के पहले ही चल दिये। यमराज तो अपना बहीखाता लिये बैठा है ताक में, आपका समय हो गया, बस चलिये। अरे, मैं हट्टा-कट्टा हूँ, अभी जवान हूँ। अरे, जवान-ववान कुछ नहीं। टाइम, टाइम, मैं काल हूँ। काल के अनुसार काम करता हूँ। जाना पड़ेगा। अरे, मैं राजा हूँ, प्राइम मिनिस्टर हूँ, गवर्नर हूँ। अरे, तुम चाहे इन्द्र हो, सबको जाना पड़ेगा। काल के आगे किसी की दाल नहीं गलती। सबको उसकी बात माननी पड़ती है, सीधे नहीं तो टेढ़े। एक सेकण्ड का समय दे दो, काम महाराज! साइन कर दूँ प्रॉपर्टी का। न न एक बटे सौ सेकण्ड नहीं। इट इज ऐज़ श्योर ऐज़ डेथ। बस, उसी क्षण जाना पड़ेगा।
इसलिये उधार बन्द करो। परमार्थ का काम तुरन्त करो, साधना तुरन्त करो। एक क्षण का भरोसा नहीं। अगर ये फार्मूला याद रखो तो लापरवाही न होगी। हम लोग लापरवाही करते हैं न। हमारे पास आधा घण्टे का समय है। अब क्या करें? आधा घण्टा है, अब बीबी बैठी है, उसी से गप्पे हो रही हैं। आधा घण्टे का समय कैसे कटे? निरर्थक बातें हो रही हैं, वो ऐसा है, वो ऐसी है, वो ऐसा है, कुछ तुमको मिलना-जुलना है इन बातों से। नहीं जी, मिलना-जुलना तो नहीं है लेकिन फालतू बैठे थे तो एन्जॉयमेंट हो रहा है। ये एन्जॉयमेंट है? यानी हम लोग समय को बरबाद करने पर तुले हैं। किसी प्रकार ये मानव देह का अमूल्य समय समाप्त हो।
हम बोलते भी हैं, अरे बेटा! हम तो अस्सी वर्ष के हो गये, पिचासी के हो गये, हमारी तो बीत गई, तुम अपनी सोचो। क्या बीत गई? अरे, मतलब हम जाने वाले हैं। कहाँ जाओगे, गोलोक? अपने कर्म की सोचो। तुमने ऐसा कौन सा साधन किया है जो बड़े रुआब में कह रहे हो, हमारी तो बीत गई। बीत गई नहीं, हमने तो बरबाद कर दिया मानव देह को, ऐसे बोलो। अपना सर्वनाश कर लिया।
'आतमहन गति जाय'। आत्म-हत्यारा है वो जिसने भगवत्प्राप्ति नहीं किया, मरने के पहले। अरे, अगर भगवत्प्राप्ति नहीं किया तो कुछ कमी रह गई, तो भी डरो मत, अगले जन्म में पूरा कर लेना। लेकिन करो तो। उधार नहीं।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 140
('गुरु सेवा' संबंधी एक महत्वपूर्ण सावधानी, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी से समझें...)
..गुरु सेवा करते हुये गुरु सेवाभिमान न लाओ। सेवाभिमान न आने पावे। तब वो असली त्यागी है।
एक राजा था। उसको वैराग्य हुआ तो वो एक महात्मा के पास गया जंगल में। जैसे जिस पोज में वो बैठा हुआ था राजा उसी पोज में भाग पड़ा। और महात्मा जी को प्रणाम किया और कहा कि हम आपके शिष्य बनना चाहते हैं। उन्होंने देखा। प्राचीनकाल में महात्माओं की ऐसी परम्परा थी तपस्वियों की, उन्होंने कहा कि भाग यहाँ से, सब छोड़कर तब आ हमारे पास। उसने कहा कि महाराज! सब छोड़ आये।
ए झूठ बोलता है! अब वो चला गया बेचारा। उन्होंने जाकर स्वयं सोचा, अरे! राजा के भेष में ही मैं आ गया। महात्मा के पास मुकुट पहन करके मैं आया, ये मुझसे गलती हो गई। एक लँगोटी लगाकर के सब फेंक-फांक करके तब गया कि महाराज! गलती हो गई। फिर देखा उन्होंने और कहा कि मैंने कहा न कि सब छोड़ कर आ। तुमने सुना नहीं। अब वो हैरान, सब कुछ तो छोड़ दिया मैंने, तो लँगोटी भी फेंककर आया, दिगम्बर।
तो अब की बार और जोर से डाँटा। उन्होंने कहा कि देख अब अगर बिना छोड़े मेरे पास आया तो दण्ड दूँगा। तूने तीन बार आज्ञा का उल्लंघन किया। ऋषि मुनि तपस्वी का दण्ड क्या? शाप। कोई भक्ति मार्ग के महापुरुष तो थे नहीं। तो राजा जाकर दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि महात्मा जी क्या चीज छोड़ने के लिये कह रहे हैं? शरीर छोड़ा नहीं जा सकता और क्या है मेरे पास? रोने लगे। उन्होंने सोचा कि अब गुरुजी नहीं अपनायेंगे तो अब शरीर रखना भी बेकार है। संसार में कुछ नहीं है, ये तो समझ ही लिया और अब छोड़ भी आये अब दोबारा जाना भी गलत है और ये शरणागति नहीं स्वीकार रहे हैं हमारी। तो फिर अब देह ही छोड़ देते हैं।
तीन चार दिन बाद गुरुजी उधर से निकले और उन्होंने कहा क्यों राजन! यहाँ कैसे बैठे हो? चुप। ओ त्यागी जी! अब भी चुप। उन्होंने कहा कि हाँ, अच्छा आजा आजा। अब तूने त्याग दिया सब कुछ। राजा होने का अभिमान भी त्यागने का मेरा आदेश था और त्यागने का भी अहंकार छोड़ो। 'मैंने सब छोड़ दिया है' - ये अहंकार भी छोड़ो। तब वो त्याग असली हुआ।
तो जो सत्कर्म करे कोई व्यक्ति, उस सत्कर्म का अहंकार न होने पावे उसको गुरुकृपा माने। उनकी कृपा से इतना हमने भगवन्नाम ले लिया, इतनी सेवा कर ली, वरना मुझसे होता भला? एक भिखारी भी अगर मुझसे माँगता कभी पैसा तो मैंने कभी एक रुपया भी नहीं दिया लाइफ में। उन्होंने कैसे करा लिया हमसे? ये कृपा रियलाइज करना। सब कुछ त्यागो और त्यागने के अहंकार को भी त्यागो। और कुछ मत त्यागो और त्यागने का या आसक्ति का अहंकार छोड़ दो तो भी त्याग है। दोनों प्रकार का त्याग है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'गुरुसेवा' पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद एक उपनिषद है जिसमें 'श्रीसूक्त' के वैभव-सम्पन्न अक्षरों को आधार मानकर देवी मन्त्र और चक्र आदि को प्रकट किया गया है। इसमें देवसमूह और श्री नारायण के मध्य हुए वार्तालाप को इस उपनिषद का आधार बताया गया है। यह उपनिषद तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में सौभाग्यलक्ष्मी विद्या की जिज्ञासा, ध्यान, चक्र, एकाक्षरी मन्त्र का ऋषि, लक्ष्मी मन्त्र, श्रीसूक्त के ऋषि आदि का निरूपण किया गया है। दूसरे खण्ड में ज्ञानयोग, प्राणायामयोग, नाद के आविर्भाव से पूर्व की तीन ग्रन्थियों का विवेचन, अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति, निर्विकल्प भाव तथा समाधि के लक्षण बताये गये हैं। तीसरे खण्ड में नवचक्रों का विस्तृत वर्णन और उपनिषद की फलश्रुति का उल्लेख किया गया है।प्रथम खण्डएक बार समस्त देवताओं ने भगवान श्री नारायण से सौभाग्य लक्ष्मी विद्या के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। तब श्री नारायण ने श्रीलक्ष्मीदेवी के विषय में उन्हें बताया कि यह देवी स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूप, तीनों अवस्थाओं से परे तुरीयस्वरूपा, तुरीयातीत, सर्वोत्कट-रूपा (कठिनाई से प्राप्त) समस्त मन्त्रों को अपना आसन बनाकर विराजमान है। वह चतुर भुजाओं से सम्पन्न है। उन श्री लक्ष्मी के श्रीसूक्त की पन्द्रह ऋचाओं के अनुसार सदैव स्मरण करने से श्री-सम्पन्नता आने में विलम्ब नहीं लगता है।ऐसा है श्रीमहालक्ष्मी का दिव्य-रूपऋषियों ने श्रीमहालक्ष्मी को कमलदल पर विराजमान चतुर्भुजाधारिणी कहा है। यह मन्त्र दृष्टव्य हैं-अरुणकमलसंस्था तद्रज: पुञ्जवर्णा करकमलधृतेष्टाऽमितियुग्माम्बुजा च।मणिकटकविचित्रालंकृताकल्पजालै: सकलभुवनमाता संततं श्री श्रियै न:॥अर्थात श्री लक्ष्मी अरुण वर्णा (हलके लाल रंग के) निर्मल कमल-दल पर आसीन, कमल-पराग की राशि के सदृश पीतवर्ण, चारों हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अभयमुद्रा तथा दोनों हाथों में कमल पुष्प धारण किये हुए, मणियुक्त कंकणों द्वारा विचित्र शोभा को धारण करने वाली तथा समस्त आभूषणों से सुशोभित एवं सम्पूर्ण लोकों की माता, हमें सदैव श्री-सम्पन्न बनायें। इस देवी की आभा तप्त स्वर्ण के समान है। शुभ्र मेघ-सी आभा वाले दो हाथियों की सूंड़ों में ग्रहण किये कलाशों के फल से जिनका अभिषेक हो रहा है, लाल रंग के माणिम्यादि रत्नों से जिनका मुकुट सिर पर शोभायमान हो रहा है, जिन श्री देवी के परिधान अत्यधिक स्वच्छ हैं, जिनके नेत्र पद्म के समान हैं, ऋतु के अनुकूल जिनके अंग चन्दन आदि सुवासित पदार्थों से युक्त हैं, क्षीरशायी भगवान विष्णु के हृदयस्थल पर जिनका वास हा, हम सभी के लिए वे श्रीलक्ष्मीदेवी ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हों। ईश्वर से यही हमारी प्रार्थना है। कहा भी है—'निष्कामानामेव श्रीविद्यासिद्धि: । न कदापि सकामानामिति॥12॥'अर्थात निष्काम (कामनाविहीन) उपासकों को ही श्रीलक्ष्मी और विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है। सकाम उपासकों को इसकी सिद्धि किंचित मात्र भी प्राप्त नहीं होती।दूसरा खण्डइस खण्ड में प्राणायाम विधि का विस्तार से वर्णन है तथा षट्चक्रभेदन और समाधि पर प्रकाश डाला गया है। इस समाधि द्वारा मन का विलय आत्मा में उसी सप्रकार हो जाता है, जैसे जल में नमक घुल जाता है। 'प्राणायाम' के अभ्यास से प्राणवायु पूरी तरह से कुम्भक में स्थित हो जाती है तथा मानसिक वृत्तियां पूर्णत: शिथिल पड़ जाती हैं। उस समय तेल की धारा के समान आत्मा के साथ चित्त का एकात्म भाव 'समाधि' कहलाता है। 'जीवात्मा' और 'परमात्मा' का साथ इस समाधि तथा प्राणायाम विधि द्वारा ही सम्भव है। ऐसा होने पर समस्त भवबन्धन और कष्ट नष्ट हो जाते हैं।तीसरा खण्डतीसरे खण्ड में कुण्डलिनी जागरण द्वारा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर व विशुद्ध आदि नवचक्रों का विवेचन किया गया है। नारायण ने देवताओं को बताया कि मूलाधारचक्र में ही ब्रह्मचक्र का निवास है। वह योनि के आकार के तीन घेरों में स्थित हैं। वहां पर महाशक्ति कुण्डलिनी सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहती है। उसकी उपासना से सभी भोगों को प्राप्त किया जा सकता है। यह कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर स्वाधिष्ठानचक्र, नाभिचक्र, हृदयचक्र, विशुद्धाख्यचक्र, तालुचक्र, भ्रूचक्र (आज्ञाचक्र) से होती हुई निर्वाणचक्र, अर्थात 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचती है। ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर उठकर नवम 'आकाशचक्र' में पहुँचकर परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करती है। यहाँ पहुंचकर साधक को समस्त कामनाओं की सिद्धि हो जाती है। इन पन्द्रह ऋचाओं का कम-से-कम पन्द्रह दिन तक निष्काम भाव से ध्यान करने पर श्री लक्ष्मी की सिद्धि हो जाती है।---
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 139
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से निःसृत साधना-स्मरण सम्बन्धी 5-सार बातें (भाग - 4) :::::
(1) सत्य पदार्थ हरि एवं हरिजन ही हैं, अतएव केवल हरि, हरिजन का मन बुद्धि युक्त सर्वभाव से संग करना ही सत्संग है।
(2) जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद्विषय में मन-बुद्धियुक्त लगाव हो वही सत्संग है। इसके अतिरिक्त समस्त विषय कुसंग है।
(3) जीव तो सदा ही अपने को अच्छा समझता है। वह भले ही पराकाष्ठा का मूर्ख क्यों न हो, उसे यह कथन बिलकुल ही प्रिय नहीं है कि तुम मूर्ख हो।
(4) अच्छा कर्म भी पाप है, बुरा कर्म भी पाप है, केवल भगवान और महापुरुष का चिन्तन बस ये ही सही है, बाकी सब पाप है क्योंकि बाँधने वाले हैं वो, उन कर्मों का बंधन होता है। अच्छा कर्म करोगे, स्वर्ग मिलेगा। खराब कर्म करोगे, नरक मिलेगा। अच्छा-बुरा कम्बाइन्ड मिक्सचर करोगे, मृत्युलोक मिलेगा। तीनों का परिणाम माया का, बन्धनकारक, 84-लाख में घुमायेगा वो।
(5) भक्तों के लिये भक्त और भगवान की पदरज, उनका चरणामृत और उनके मुख के उच्छिष्ट का बहुत अधिक महत्व है। इन तीनों का लगातार सेवन करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है और एक दिन श्रीकृष्ण में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है। ये अमूल्य रस गुरु की विशेष कृपा से ही मिलता है।
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - कुरुक्षेत्र की (युद्ध/धूर्त)पृष्ठभूमि में 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया जो श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह कौरवों व पांडवों के बीच युद्ध महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबन्ध। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं। इसलिए भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और धर्मसूत्रों का है। इस ग्रंथ में जीवन का पूरा सर दिया गया है। साथी ग्रंथ में जीवन की हर परेशानी का समाधान बेहद शांतिपूर्ण और समाज ढंग से समझाया गया है । आज हम आपको भगवत गीता के 18 अध्याय के कुछ बातें बताएंगे जो कि बेहद अहम हैं।गीता की 15 खास बातों1 - श्रीमद भगवत गीता महाभारत में छंदों का सबसे महत्वपूर्ण संग्रह माना जाता है।2- विश्व भर में हिंदू भगवत गीता से परिचित और इसे पढ़े सभी लोगों ने इसे हर पीढ़ी के लिए बेहद महान बताया है। साथ ही इस के हर पड़ाव को जिंदगी के हर उतार-चढ़ाव से भी जोड़ा है।3 - गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा युद्ध और जीवन के अर्थ को समझाने के लिए अर्जुन को दिए गए उपदेशों की श्रृंखला पर आधारित है।4 - महाभारत इस बात की पुष्टि करता है कि भगवान श्री कृष्ण ने 3137 ईसवी पूर्व कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। विशेष जोशी संदर्भ के मुताबिक 35 साल की लड़ाई के बाद वर्ष 3102 ईस वी पूर्व के कलयुग में इसकी शुरुआत हुई थी।5 - श्रीमद्भगवद्गीता पांडव राजकुमार अर्जुन और उसके सारथी बने श्री कृष्ण के बीच का एक महाकाव्य संवाद है।6 - भगवत गीता में कुल 18 अध्याय हैं, जिनमें 700 छंद है। तीन हिस्सों में विभाजित है, जिसमें प्रत्येक हिस्से में 66 अध्याय को लिखा गया है।7 - नंबर 18 महाभारत में कई जगह प्रयोग होता है। दरअसल नंबर 18 का मतलब संस्कृत में जया होता है, जिसका शाब्दिक अर्थ बलिदान से है। भारतीय संस्कृति में इसका बेहद महत्व है। 18 त्यौहार, गीता में 18 अध्याय अक्षौहिणी अर्थात अ_ारह जरासंघ का 18 बार आक्रमण और कहा जाता है कि पांडवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के पास 7 अक्षौहिणी सेना था तो कुल मिलाकर 18 हुए। इस प्रकार गीता के 18 अध्यायों में 18 अंक का भारतीय संस्कृति में बेहद गहरा महत्व हैं।8 - श्रीमद भगवत गीता के श्लोक में मनुष्य जीवन की हर समस्या का हल छिपा है। गीता के 18 अध्याय और 700 गीता श्लोक में कर्म, धर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, सत्य, असत्य आदि जीवन से जुड़े प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं।9 -सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है।10 - यह बात बेहद गौर करने वाली है कि भगवत गीता का सार बेहद कम लोगों को पता होता है। दरअसल कृष्ण वाणी अनुसार धर्म की सभी कस्मों को त्याग कर मुझे और सिर्फ मुझे-अपने आप को आत्मा समर्पित करते है। बहुत कम लोग इस निष्कर्ष को समझ पाते हैं। इसलिए तथ्य बहुत से कम लोगों को ही पता होता है।11 - दरअसल भगवत गीता को गीता क्यों कहा गया है इसके पीछे भी एक उपदेश जुड़ा है। क्योंकि यह एक ऐसे स्केल पर बोला गया जिससे ्रअनुस्कल्प कहा जाता है। यानी प्रत्येक छंद में 32 अक्षर है। मूलत यह चार-चार पंक्तियों में विभाजित है, जिसमें 8 अक्षर है एक विशेष छंद त्रिशत्प स्केल का प्रयोग किया गया है, जिसमें हर प्रकार से हर 4 पंक्तियों में 11-11 अक्षर है।12 - सिर्फ अर्जुन ने ही नहीं बल्कि युद्ध से जुड़े और तीन ने सीधे कृष्ण वाणी में गीता के उपदेश सुने थे। इनमें संजय, हनुमान और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का नाम भी शामिल है।13 - भगवत गीता मूल्य तय शास्त्रीय संस्कृत में लिखा गया है। परंतु इसे अब तक 175 भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है।14 - गीता में योग की दो परिभाषाएं पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें 'समत्वं योग उच्यतेÓ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है 'योग: कर्मसु कौशलमÓ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।15 - गीता के असल मायने में मानसिक शांति, सौभाग्य, मौत से डरना बेकार है, मौत का असल मायने में अर्थ, आत्मा का भौतिक संसार से आध्यात्मिक संसार में जाना, कर्म, भगवान और सत्य के बीच जुड़ाव, साथ ही एक प्राणी का दूसरी प्राणी के प्रति भावनाओं का जुड़ाव इन सब के बारे में जानकारी दी गई है।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 138
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 3 के दोहा संख्या 15 से आगे)
समदर्शिनी बनि रहें उर श्यामा।जो जैसा करे वैसा फल पाये बामा।।16।।
अर्थ ::: सभी के हृदय में समदर्शिनी बनकर श्रीराधा निवास करती हैं। अपने अपने कर्मानुसार जीव सुख-दुःख प्राप्त करता है।
पूर्व जन्म कर्म नाहिं जाने कोउ बामा।जाने और बिना कहे फल देवें श्यामा।।17।।
अर्थ ::: पूर्व जन्मों के कर्मों को कोई भी नहीं जानता। श्रीराधा जानती हैं एवं बिना कहे ही फल प्रदान करती हैं।
जो मन बुद्धि दै के भजे आठु यामा।वाकी सँभार करें शिशु जनु श्यामा।।18।।
अर्थ ::: जो जीव मन-बुद्धि का समर्पण कर निरंतर श्रीराधा का स्मरण करता है उसका योगक्षेम वह उसी प्रकार वहन करती है जिस प्रकार नवजात शिशु की देखभाल माँ करती है।
भक्तों का योगक्षेम वहन करें श्यामा।पतितों का पाप लिखें बैठि उर धामा।।19।।
अर्थ ::: स्वामिनी श्रीराधा भक्तों के हृदय में बैठकर उनका योगक्षेम (जो प्राप्त है उसकी रक्षा एवं अप्राप्त को देना) वहन करती हैं किंतु पापियों के हृदय में बैठकर उनके पाप-कर्मों का हिसाब लिखती हैं।
सब तजि जोइ भज श्याम अरु श्यामा।श्यामा श्याम भी भजें वाको आठु यामा।।20।।
अर्थ ::: जो समस्त आश्रयों का त्यागकर अनन्य भाव से एकमात्र श्यामा-श्याम का ही आश्रय ग्रहण कर उनका निरंतर स्मरण करता है, श्यामा श्याम भी निरंतर उसका स्मरण करते हैं।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 137
(किस प्रकार की साधना से लाभ होगा, किससे नहीं, आइये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के इस प्रवचन-अंश से जानें, यह अंश उनके द्वारा प्रगटित प्रवचन-श्रृंखला 'दिव्य-स्वार्थ' से लिया गया है, जो उन्होंने 8-प्रवचनों में सन 1992 में दी थी, यह अंश 5-वें प्रवचन का है, जो उन्होंने 28 जनवरी 1992 में दी थी।)
...गौरांग महाप्रभु ने दो प्रकार की साधना बताया है। एक अनासंग साधना, एक सासंग साधना। तो अनासंग साधना माने आसंग रहित और सासंग साधना माने आसंग सहित और आसंग माने मन का चिन्तन भगवान का हो। मन का संग भगवान के रूपध्यान में हो, वो साधना सासंग साधना है।
अनासंग साधना के लिये उन्होंने कहा, करोड़ों कल्प किये जाओ इससे कुछ नहीं मिलेगा। अब ये अलग बात है कि कोई कहे साहब नथिंग से समथिंग अच्छा है, ठीक है, गधा-गधा कहने से राम-राम कहना अच्छा ही है, लेकिन यह साधना नहीं है। फिर आप जब बहुत दिन हो जाते हैं, तो कहते हैं, महाराज जी! हमको तो बहुत दिन हो गये कुछ लड्डू -पेड़ा मिला नहीं। जब साधना ही गलत हो रही है, तो माइलस्टोन तुम्हें कहाँ मिल जायेगा कि हम दस मील चले आये, बीस मील चले आये, अरे मार्ग से आगे बढ़ो। तुम तो एक ही जगह पर खड़े-खड़े मार्चिंग कर रहे हो।
तो सासंग साधना यानी स्मरण भक्ति सबसे प्रमुख है, और स्मरण भक्ति कहीं भी किसी भी पोजिशन में सदा की जा सकती है, ये भी रियायत दे दिया भगवान ने। लैट्रिन में बैठे हैं दस मिनिट बैठना है उसमें, रूपध्यान करो। फालतू टाइम न खराब करो। कहीं भी जाओ, ट्रेन में बैठे हैं, सफर कर रहे हैं, बारह घंटे ट्रेन में चलना है। हाँ यहाँ से वहाँ पहुँचने तक बीच में कोई काम खास है। अरे एक जगह चाय पीना है। कब? दो घंटे बाद पीयेंगे, अच्छा! अब दो घंटे तो कोई काम नहीं? नहीं। स्मरण करो। आँख खोलकर स्मरण करो, नहीं तुम्हारा सामान उठा ले जाय, कोई और कहो कृपालु ने कहा है, आँख बंद करके रूपध्यान करो। हाँ, यानी तुम्हारे मस्तिष्क में पहले यह खूब भरना चाहिये कि स्मरण भक्ति ही वास्तविक भक्ति है।
स्मरण भक्ति के बिना कोई भी साधना, साधना कैसे कहलायेगी, साधना का मतलब, हम दास वो स्वामी। जब स्वामी ही नहीं आया हमारे अंत:करण में, तो हम भक्ति कहाँ कर रहे हैं? किसकी कर रहे हैं?
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'दिव्य-स्वार्थ' प्रवचन-श्रृंखला00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 136
(स्वरचित पद 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' की व्याख्या का अंश, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने यह व्याख्या सन 1981 में 10-प्रवचनों में की थी...)
गौरांग महाप्रभु ने पहला शब्द यही लिखा है;
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक - 3)
...अगर किसी को ईश्वर की कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो। है क्या? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम? और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्यों जी ऐ नीम के पेड़! तुम डि. लिट्. प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में?
हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो, दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्धविश्वासी नहीं हैं, डि. लिट्. हैं। अब क्या हाल है, नीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। श्यामसुन्दर के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।
एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। वह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे (भगवत्प्रेम/स्मृति का नशा) में तो चलते ही हैं, इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से नैचुरेलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रक्खा था मक्कारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे।
अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे, फील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे, अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं;
कर्मावलम्बका: केचित् केचित् ज्ञानावलम्बका:।
कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और,
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।
और हम तो भगवान के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता, सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा, हम क्यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है;
वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।
यह दीनता है, यह आदर्श है, ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो, ऐसे बनना पड़ेगा।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' स्वरचित पद की व्याख्या00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 135
प्रश्न ::: महाराज जी! आमदनी का कितना परसेन्ट दान करना चाहिये?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर :::
परसेन्ट का सवाल नहीं है।
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।(भागवत 7-14-8)
वेदव्यास ने कहा है कि जितने पैसे से तुम्हारा शरीर चल जाये। चल जाये। 'भ्रियेत' पेट भर जाये 'तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्', ये भगवान की सृष्टि है, भगवान का संसार है। अगर जैसे बैंक में किसी को बना दिया गया कोषाध्यक्ष तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो रुपया लेकर चला जाये अपने घर। उसका रुपया कुछ नहीं है। उसको तो पे (वेतन) मिलेगी केवल।
वो रुपया जो है, कैश जो है बैंक का वो तो बाँटने के लिये है जिसका जितना-जितना जमा है, पब्लिक का, उसको दो। उसको छुओ मत। ऐसे ही वेदशास्त्र कहता है कि जितने में तुम्हारे शरीर का, तुम्हारे परिवार के शरीर का पालन हो जाये। इच्छाओं की पूर्ति नहीं, पालन। जैसे एक मकान है। हमने एक अपने रहने के लिये मकान लिया और एक दस अरब का मकान बनाया। हमने एक मामूली कपड़ा पहन लिया हमारा काम चल रहा है शरीर का और एक वो सबसे महँगा वाला कपड़ा लिया। वो इच्छा की बात है। वो इच्छा वाली बात नहीं कह रहा है।
शास्त्र वेद कह रहा है कि जितने में तुम्हारा काम चल जाये। रोटी, दाल, चावल, तरकारी जो कुछ खाने का सामान आवश्यक है शरीर को वो दो, जो कपड़ा पहनना जरूरी है वो कपड़ा पहनो, मकान में रहो। ये जो रोटी, कपड़ा, मकान आदि का विषय है शरीर का, इसके बाद जो भी बचे दान करो। वो तो तुम्हारा नहीं है। मरने के बाद भी नहीं रहेगा। मरने के पहले ही उसको तुम अपना मत मानो, उसको दान करो, तो तुम्हें भगवत्कृपा का जो फल है वो मिलेगा। भगवान के निमित्त करो। उसको किसी सांसारिक स्वार्थ के लिये दान न करो। हम वहाँ दान कर दें तो मिनिस्टर खुश हो जायेगा। तो हमारी आमदनी बढ़ जायेगी। आजकल ये होता है न टाटा, बिरला आदि बड़े बड़े उद्योगपतियों के यहाँ दान बिजनेस हो गया है।
जहाँ तुमसे दान करने की बात करता है कोई महात्मा तो कहते हो कि ये तो पैसे के लोभी हैं, तुरन्त खोपड़ी में आप लोगों के आता है ये। अरे वो पैसे के लोभी नहीं हैं। तुमसे पैसे की जो आसक्ति है तुम्हारी वो निकलवाना चाहते हैं, कृपा है उनकी। जब कोई फोड़ा हो जाता है बच्चे को तो माँ डॉक्टर के पास ले जाती है, जोर से पकड़ती है उसके हाथ को, पैर को, हाँ डॉक्टर साहब चीर दो। वो चिल्लाता है कैसी माँ है ये, मारता है छोटा बच्चा माँ को। वो कहती है मार ले कुछ कर ले, गाली दे ले, लेकिन मैं तेरे इस रोग को समाप्त करवाऊंगी।
तो महात्मा लोग भी सब सह लेते हैं, इनके दुर्वचन, इनकी दुर्भावनायें, लेकिन पीछे लगे रहते हैं। अरे कुछ तो करेगा, चलो नथिंग से समथिंग अच्छा है। ये सब दान नहीं करेगा, थोड़ा तो करेगा। कुछ तो कल्याण हो। इतना तो हो जाय कि फिर ये मानव देह मिले।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'द द द' पुस्तक (दान-विज्ञान पर आधारित)00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हिंदू धर्म में हर छोटे-बड़े आयोजन या फिर कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से मुहूर्त देखा जाता है। शुभ मुहूर्त के बिना किसी भी तरह का आयोजन नहीं रखा जाता। ऐसे में हिंदू धर्म में मुहूर्त का खास महत्व है। लोग शादी-ब्याह, नौकरी, विदेश यात्रा से लेकर कुछ नया खरीदने और पुराना बेचने तक के लिए खास मुहूर्त निकलवाते हैं। दरअसल, इसके पीछे सोच है कि हर काम करने का एक खास समय होता है और अच्छे मुहूर्त में उसे करने से कार्य सफल होता है।क्या होता है ब्रह्म मुहूर्तज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि दिन के 24 घंटों में कुल 30 मुहूर्त होते हैं। इनमें से सूर्योदय से पहले के दो मुहूर्त खास होते हैं। इनमें से एक विष्णु मुहूर्त होता है तो दूसरा ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। ज्योतिष शास्त्र में इसका महत्व बहुत महत्व बताया गया है।ब्रह्म मुहूर्त कब होता है?दिन-रात के 30वें भाग को ब्रह्म मुहूर्त कह जाता है यानी 2 घंटा या 48 मिनट का कालखंड मुहूर्त होता है। माना जाता है कि रात्रि के अंतिम प्रहर के तुरंत बाद के वक्त को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। यानी सुबह के 4.24 बजे से 5.12 के बीच का समय ब्रह्म मुहूर्त माना जाता है।ज्योतिष शास्त्र में ब्रह्म मुहूर्त का महत्वज्योतिष शास्त्र के मुताबिक, इस मुहूर्त में उठने वालों की अच्छी बुद्धि, बल, सौंदर्य और स्वास्थ्य का लाभ होता है। वातावरण में इस मुहूर्त में ऑक्सीजन का लेवल सबसे अच्छा होता है, ऐसे में अगर कोई इस समय उठकर व्यायाम करें तो उसके शरीर को शुद्ध ऑक्सीजन का फायदा पहुंचेगा। इसके फलस्वरूप फेफड़ों की शक्ति में इजाफा होता है। इससे रक्त शुद्ध होने जैसे कई फायदे मिलते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने भी इस वक्त को उठने के लिए सबसे अच्छा बताया है। शास्त्रों में भी इस वक्त को नींद से उठने के लिए उत्तम बताया गया है।ब्रह्म मुहूर्त में करने चाहिए ये कामब्रह्म मुहूर्त में कुछ कार्यों को करने के लिए विशेष सलाह दी जाती है। इससे कई तरह के लाभ होते हैं। लाभ जानने से पहले जानते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त में क्या करना चाहिए-संध्या वंदन, प्रार्थना, ध्यान, और अध्ययन।इस प्रहर में वैदिक रीति से की गई संध्या वंदन सबसे उचित मानी जाती है। इसके बाद ध्यान करें और फिर प्रार्थना। जबकि विद्यार्थी वर्ग को इस बेला में संध्या वंदन के बाद अध्ययन करना चाहिए। हर दृष्टि से इस समय को अध्ययन यानि पढ़ाई-लिखाई के लिए सबसे उत्तम माना जाता है।ब्रह्म मुहूर्त में नहीं करने चाहिए ये कामवैसे तो कई कामों के लिए ब्रह्म मुहूर्त की बेला सबसे अच्छी है, लेकिन फिर कुछ कार्यों को इस मुहूर्त में बिल्कुल नहीं करना चाहिए।कहा जाता है कि इस समय मन में किसी प्रकार के नकारात्मक विचार नहीं लाने चाहिए। इसके अलावा बहस, वार्तालाप, संभोग, नींद, भोजन, यात्रा, किसी भी प्रकार का शोर जैसे कार्यों को भी इस मुहूर्त में करने से बचना चाहिए।कई लोग इस पहर में जोर-जोर से आरती और पूजन-पाठ की विधि करते हैं। कुछ हवन भी करते हैं, लेकिन ज्योतिषशास्त्र में इसे अनुचित ठहराया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा करने से अपने साथ-साथ दूसरों को संकट में डाल देंगे। सिख धर्म में इसे अमृत वेला माना गया है। कहा जाता है कि ईश्वर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है।ब्रह्म मुहूर्त में उठना वैज्ञानिक दृष्टि से लाभकारीब्रह्म मुहूर्त में उठना वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है। दिनभर हर काम के लिए ऊर्जा और फूर्ति बनी रहती है। इससे शांत और तन पवित्र होता है।ब्रह्म मुहूर्त में 41 फीसदी ऑक्सीजन होती है वातावरण मेंवैज्ञानिक शोधों में दावा किया जाता है कि ब्रह्म मुहुर्त में वातावरण प्रदूषण रहित होता है। इसी समय हवा में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक होती है। कहा जाता है कि ब्रह्म मुहूर्त की बेला में हवा में 41 प्रतिशत ऑक्सीजन होता है। यह फेफड़ों की शुद्धि के लिए काफी लाभदायक है। यही नहीं, शुद्ध हवा जब शरीर के अंदर जाती है तो मन, मस्तिष्क सब स्वस्थ रहते हैं।आयुर्वेद में ब्रह्म मुहूर्त बहुत लाभकारीआयुर्वेद में ब्रह्म मुहूर्त को लाभकारी बताया गया है। इसमें जिक्र मिलता है कि इस अवधि में उठकर व्यायम करने से शरीर में संजीवनी शक्ति का प्रवाह होता है। इस समय बहने वाली हवा को अमृत समान माना जाता है।आर्थिक दृष्टि से ब्रह्म मुहूर्त के फायदेआर्थिक दृष्टि से भी ब्रह्म मुहूर्त का विशेष लाभ है। इस समय उठने वाले विद्यार्थी परीक्षा में सफल होते हैं और अपने अच्छे भविष्य का निर्माण करते हैं। वहीं, बिजनेसमैन को भी अच्छी कमाई का फायदा हो सकता है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 134
('नाम-महिमा' के सम्बन्ध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन का एक अंश...)
...कुछ काम ऐसे हैं जो श्यामसुन्दर नहीं कर सकते और नाम (भगवन्नाम) कर देगा, इसलिये कई स्थानों पर नाम का अधिक महत्व है। यानी नाम को भगवान से बड़ा बताया गया है;
ब्रह्म राम ते नाम बड़ वरदायक वरदानि।
ब्रह्म राम से नाम बड़ा है।
राम भालु कपि कटक बटोरा।सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरा।।नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।करहु विचार सुजन मन माहीं।।
अर्थात एक छोटे से पुल के बनाने में कितना बड़ा परिश्रम किया राम ने और कितनी बड़ी गुलामी की वानरी सेना की, खुशामद की। खुशामद से काम नहीं चला तो डराया लक्ष्मण जी से जाकर सुग्रीव को - ऐ! कहाँ है? अपने राज्य में हूँ और कहाँ हूँ? अरे, कुछ होश है, ये राज्य किसने दिलाया है? उठाऊँ बाण? लगाऊँ धनुष में? होश में ला दूँ? उसने कहा - हाँ महाराज! वो ठीक है, ठीक है, याद आ गया। वो आप भगवान राम की बात कर रहे हैं, मैं तो भूल ही गया था।
संसार के वैभव में बड़े बड़े भूल जाते हैं, सुग्रीव सरीखे एकमात्र सखा;
न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमा:।मद्विधा वा पितु: पुत्रा: सुहृदो वा भवद्विधा:।।
भगवान राम जिन सुग्रीव के लिये कहते हैं, सुग्रीव! तुम्हारे समान विश्व में न कोई मित्र हुआ, न होगा, चैलेन्ज है। वो सुग्रीव भूल गया जो एक्जाम्पिल माना गया। राम ने अपने श्रीमुख से कहा है, किसी और की बात नहीं है कि भई, जरा बढ़ा के बोल दिया ह्यो, अपने दोस्त के लिये। मेरे समान कोई बेटा नहीं हो सकता, राम ने कहा, और भरत के समान कोई भाई नहीं हो सकता, सुग्रीव के समान कोई मित्र नहीं हो सकता। ये सब एक्जाम्पिल हैं, उदाहरण हैं अद्वितीय। इसका कोई दूसरा ऐसा उदाहरण नहीं हो सकता कि हाँ साहब, सुग्रीव के समान एक दोस्त और हुआ है। श्रीकृष्ण का अर्जुन सखा हुआ है। अरे, क्या अर्जुन होगा? वो सुग्रीव, इतने बड़े मित्र को भूल गया।
नहिं कोउ अस जनमा जग माँहिं।प्रभुता पाहि जाहि मद नाँहिं।।श्री मद वक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि।।
तो देखो! राम ने एक छोटे से पुल बनाने में सुग्रीव की खुशामद की, तमाम वानरी सेना लिया। अगर नल-नील को ये वरदान न होता कि पत्थर तैरने लगें पानी में तो एक और प्रॉब्लम खड़ी होती कि सारी फौज खड़ी है, राम भी खड़े हैं, पुल कैसे बने? समुद्र में पुल बाँधना कोई खिलवाड़ थोड़े ही है। कोई नदी थोड़े ही है कि पुल बाँध दो। आज के वैज्ञानिक युग में भी समुद्र में पुल नहीं बन पाया तो त्रेतायुग में समुद्र में पुल कैसे बनता? इतनी सारी सहायता ले करके छोटा-सा एक पुल बनाया और देखो भगवन्नाम का कमाल;
जासु नाम सुमिरत इक बारा।उतरहिं नर भव सिन्धु अपारा।।नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।करहु विचार सुजन मन माहीं।।
नाम भवसागर से पार करा देता है। विचार करो! राम और उनके नाम में क्या अन्तर है?
तो भगवन्नाम भगवान से बड़ा है, ये बात सभी एक स्वर से बोलते हैं। चाहे भागवत पढ़ लो, चाहे जो ग्रन्थ पढ़ लो, सबमें एक-सी बात है। नाम बड़ा है, श्यामसुन्दर छोटे हैं। लेकिन सभी नाम के प्रेमी अंत में श्यामसुन्दर को प्राप्त करते हैं, श्यामसुन्दर से उनका पहले कोई मतलब नहीं है, जो भी मतलब है उनके नाम से है, सीधी-सी बात।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: 'नाम-महिमा' प्रवचन पुस्तक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
शुरू होगा खरमास
नई दिल्ली। दिसंबर के महीने में भगवान सूर्य धनु राशि में प्रवेश करेंगेष सूर्य के धनु राशि में प्रवेश करने से सभी शुभ कार्य बंद हो जाएंगे और खरमास शुरू हो जाएगा। इसके बाद जनवरी में 14 जनवरी को सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश मकर संक्रांति को होगा। मान्यता है कि धनु संक्रांति पर भगवान सूर्यदेव की पूजा करने से भविष्य सूर्यदेव की तरह चमकता है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्यदेव संचरण करते हुए वृश्चिक राशि से धनु राशि में प्रवेश करेंगे। सूर्य का धनु राशि में प्रवेश ही धनु संक्रांति कहलाता है। इसी के साथ खरमास का आरम्भ हो जाएगा। खरमास में विवाहादि मांगलिक एवं शुभ कर्मों को वर्जित किया गया है। जब सूर्य देव गुरु की राशि धनु या मीन में विराजमान रहते हैं, उस समय को खरमास कहा जाता है। पौष खरमास का मास है, जिसमें किसी भी तरह के मांगलिक कार्य, विवाह, यज्ञोपवित या फिर किसी भी तरह के संस्कार नहीं किए जाते हैं। तीर्थ स्थल की यात्रा करने के लिए खरमास सबसे उत्तम मास माना गया है।
धनु संक्रांति में क्या करें
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार धनु संक्रांति के दिन घरों में सत्यनारायण भगवान की पूजा आदि की जाती है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिलती है। धनु संक्रांति केदिन सूर्य देव की आराधना करनी चाहिए। कहते हैं सूर्य की अराधना आपके भविष्य को भी चमकाती है। धनु ज्योतिषाचार्यों के अनुसार के दिन ओड़ीसा में भगवान जगन्नाथ की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान जगन्नाथ को मीठाभात अर्पित किया जाता है।
राशियों पर कैसा होगा असर
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्क राशि, सिंह राशि, तुला वालों , कुंभ राशि वालों और मीन राशि वालों के यह राशि परिवर्तन बहुत शुभ है। इस राशि परिवर्तन से कई राशियों को सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 133
(संसारी काम करते हुये किस प्रकार मन से ईश्वरीय साधना का लाभ मिल जाय, इस संबंध में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन...)
...काम दो प्रकार का होता है, एक बौद्धिक; जिसमें आप दिमाग से विचार करते हैं और दूसरा शारीरिक। आप एक साधारण काम कर रहे हैं, जैसे साइकिल चला रहे हैं। आगे पीछे का भी ध्यान है। आगे कौन जा रहा है, उससे बचाना है। पीछे से कार आ रही है, उससे बचना है।
यद्यपि मन के बिना कोई कार्य नहीं होता। वह आपकी आँख के पास भी है, कान के पास भी है, हाथ पैर से आप साइकिल चला रहे हैं, उनके पास भी है। डॉक्टर से दवा लाना है उधर भी ध्यान है। लेकिन अपने बेटे की दवा लाना है, उसमें आपका अटैचमेन्ट है। वह आपका मेन लक्ष्य है। यह अटैचमेन्ट की सीट आप भगवान को दे दीजिये, बाकी संसार का सब काम कीजिये।
आपके संसारी सम्बन्धी भला यह कैसे जानेंगे कि अमुक काम तुमने क्या सोचकर किया है। उनका काम भगवान का काम सोचकर करो। वह काम भी अधिक अच्छा होगा। संसारी भी खुश रहेंगे और आपका वह सारा कार्य आपकी साधना हो जायेगी। आपके मन का लगाव संसार न होकर श्यामसुन्दर में हो जायेगा। सब काम प्रभु का समझकर करो। हानि में भी परीक्षा और लाभ में भी परीक्षा समझो। अपने को तृण से भी दीन समझो और अपमान में झल्लाओ नहीं, उसको आभूषण समझो।
जब दिमागी काम करना है उसको करने से पूर्व भगवान को याद कर लो। काम खूब मन लगाकर करो। पश्चात फिर उसे (भगवान) याद कर लो। श्यामसुन्दर को अपने पास बैठाये रहो और कार्य करते रहो। कोई आपका दुश्मन भी आ रहा है, रिवाल्वर लेकर। सोचो, मैं आत्मा हूँ, यह मेरा क्या बिगाड़ लेगा। शरीर से अलग होने पर प्रियतम (भगवान) के पास पहुँच जाऊँगा। डरो मत। सोचो कि यह सब प्रभु की लीला हो रही है। परीक्षा के लिये प्रति क्षण तैयार रहो। एक दिन जब यह नैचुरल हो जायेगा तो उसे (भगवान) निकालना चाहोगे तो भी मन से उसे निकाल न पाओगे।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, मार्च 2003 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - धनवान बनना आपकी मेहनत और बहुत कुछ भाग्य पर निर्भर करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कहा जाता है कि कुछ ऐसी राशियां हैं जो बहुत ही जल्दी उम्र में धन हासिल कर लेती है। ज्योतिष शास्त्र में ऐसी 5 राशियों के बारे में बताया गया है जो अपनी कठिन मेहनत से लक्ष्य प्राप्त कर अमीर बन जाते हैं। आइए जानें इन राशियों के बारे में -कन्या राशि- इस राशि के लोग अगर चाहें तो अपनी कठिन मेहनत और बेहतर समझ के जरिए अपने कठिन से कठिन लक्ष्य को पा सकते हैं। इनकी इन्ही खूबियों के कारण कहा जाता है कि ये जल्दी अमीर बनते हैं।इनकी खूबियां-सोच समझकर आगे बढ़ते हैं, मेहनती होते हैं, क्रिएटिव होते हैं, मुश्किल समय में भी धैर्य रखते हैं।वृषभ राशि- इस राशि के लोग बहुत प्रैक्टिकल होते हैं। अगर कहीं से धन कमाते हैं तो उसे इनवेस्ट करने के साथ बचत पर भी खूब ध्यान देते हैं। एक बार ये जो सोच लेते हैं, उसे पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं।इनकी खूबियां- हठी प्रकृति के लोग, बुद्धिमान और हर जिस को वर्तमान से जोड़कर चलना।वृश्चिक राशि-इस राशि के लोगों को पढ़ाई लिखाई में काफी मन लगता है और इसी के बल पर आगे बढ़कर ये धन अर्जित करते हैं। ये किसी भी चीज को बड़े ध्यान से सीखते हैं। यही नहीं आगे बढऩे की चाह इनमें शुरू से ही होती है।इनकी खूबियां- सही जगह दिमाग लगाना, कभी भी किसी चीज से हार नहीं मानते।सिंह राशि- इस राशि के लोग बहुत से लोग को प्रेरित कर अपने साथ मिला लेने में माहिर होते हैं। इनकी लीडरशिप बहुत ही गजब की होती है। इस राशि के लोग पैसे के साथ मान सम्मान पाने भी चाहते हैं। पैसा कमाने के साथ ये खर्चा भी खूब करते हैं।इनकी खूबियां- रचनात्मक किस्म , नेतृत्व क्षमता।मकर राशि- इस राशि के लोग बहुत ही गंभीर होते हैं। भावना बहकर नहीं दिमाग से सोचकर किसी काम को करते हैं । धन को भी इसी तरह कमाते हैं और जनकर बचत भी करते हैं।इनकी खूबियां-सेफ गेम खेलते हैं, लोगों की मदद भी करते हैं।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 132
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 3) ::::::
(1) तीन महाबल होते हैं। भक्त की चरण धूलि, भक्त के चरण का धोवन और भक्त का खाया हुआ उच्छिष्ट जूठन। ये तीन में महाबल होता है, श्रीकृष्ण प्रेम पैदा करने की शक्ति होती है। इसलिये इन तीनों का सेवन करना चाहिये।
(2) भगवान सर्वव्यापक हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वान्तर्यामी हैं, महाचेतन हैं। इसलिये हम कहीं भी भगवान की भावना कर लें भगवान का फल मिल जायेगा। यहाँ तक कि मन की बनाई हुई मूर्ति से भी अनन्त जीवों ने भगवत्प्राप्ति कर ली और मैं भी आप लोगों को मन से बनाई हुई मूर्ति की ही साधना बताता हूँ।
(3) भगवान का रूपध्यान अगर सौ बार बनाया और एक बार बना, बहुत है। हिम्मत करो आगे। दूसरी बार जब सौ बार करोगे तो दो बार होगा, फिर तीन बार होगा, फिर होने लगेगा। पहले करना, फिर होना। पहले प्रैक्टिस फिर हैबिट, नैचुरेलिटी।
(4) प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है श्रीकृष्ण भक्ति। श्रीकृष्ण को धारण करने के लिये श्रीकृष्ण भक्ति की रस्सी पकड़ो। वह भक्ति की रस्सी श्रीकृष्ण के हाथ में है। उसी रस्सी को पकड़ लो, वे खींच लेंगे। ऐसे ही जम्प करके ऊपर जाने की चेष्टा न करो। गिरोगे, सिर फट जायेगा।
(5) भगवान के अवतार के अनन्त कारण हैं किन्तु सबसे मुख्य कारण जीवों पर करुणावश कृपा करना है। भगवान का सगुण साकार अवतार जब होता है, वे अपना नाम, रूप, लीला, गुण, धाम यहाँ छोड़ जाते हैं, जिनका अवलम्ब लेकर अनंतानंत जीव उनके प्रेमानन्द को प्राप्त करते हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य एवं अध्यात्म सन्देश पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 131
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 2 के दोहा संख्या 10 से आगे)
प्रेम के अधीन श्याम नाम ते न कामा।लाला लाला कहें नित यशुमति भामा।।11।।
अर्थ ::: श्यामसुन्दर तो प्रेम के ही आधीन हैं। उनको किसी विशेष नाम से ही बुलाया जाय ऐसी कोई शर्त नहीं है। यशोदा तो केवल 'लाला' कहकर अपने कन्हैया को पुकारती हैं।
नाम चाहे जो लो करो प्रेम सुखधामा।सखा कहें कनुआ लंगर कहें बामा।।12।।
अर्थ ::: प्रेम मुख्य है। नाम सभी समान हैं। अपनी रुचि के अनुसार कोई भी नाम यदि प्रेमपूर्वक लिया जाता है तो वह नामी से मिलाने में समर्थ है। ग्वाल बाल अपने सखा को कनुआ कहते हैं। ब्रजबालायें लंगर कहकर ही श्यामसुन्दर को बुलाती हैं।
नामी के समान ही हैं नाम अरु धामा।रो के पुकारो जो तो कहें ब्रज बामा।।13।।
अर्थ ::: नामी की समस्त शक्तियाँ नाम एवं धाम में विराजमान हैं। यदि कोई जीव इस बात पर शत प्रतिशत विश्वास करके रो कर हरि को बुलाता है तो श्री हरि दौड़े चले आते हैं।
विधि हरि हर सुर मिलि एक ठामा।रो के पुकारा हरि आए तजि धामा।।14।।
अर्थ ::: जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गये, तब ब्रम्हादि देवताओं ने एक स्थान पर एकत्रित होकर रोकर श्री हरि का आह्वान किया। उस समय सर्वशक्तिमान प्रभु देवताओं के निकट अपना धाम छोड़कर चले आये।
शरणागत हाथ बिके श्याम अरु श्यामा।औरों की लिखा पढ़ी करें उर धामा।।15।।
अर्थ ::: जो सर्वभाव से श्यामा-श्याम के शरणागत हैं, उन जीवों के कर्मों का हिसाब-किताब न रखकर श्यामा-श्याम उनके हाथों बिक जाते हैं, अर्थात सर्वथा उनके दास बन जाते हैं किन्तु जो जीव शरणागत नहीं हैं, उनके हृदय में रहकर उनके प्रतिक्षण के शुभाशुभ कर्मों का हिसाब रखते हैं।
00 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढऩे पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 130
(अनन्यता के पालन तथा साधना की निरंतरता के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा नि:सृत प्रवचन अंश...)
...मेन पॉइन्ट ध्यान में रखो कि अंत:करण गन्दा है, इसको शुद्ध करने के लिये शुद्ध में डुबोना है। तो इतनी चीज शुद्ध हैं - भगवान, भगवान को पा लेने वाला सन्त और भगवाब का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम। इतने में कहीं मन रहे सब ठीक है, वो अनन्य है।
लेकिन इसके नीचे जो चार हैं - सात्विक, राजस, तामस और मायिक सामान - इनमें अटैचमेन्ट कहीं हुआ तो अनन्यता भंग हो गई। जैसे आप संसार में अपनी माँ से प्यार करते हैं, अपने पिता से प्यार करते हैं, अपनी बीवी से प्यार करते हैं, अपने पति से करते हैं, अपने बेटा, भाई, बहन, नाती, पोते से प्यार करते हैं, तो कोई बुरा नहीं मानता। किसी माँ ने कहा कि तुम अपनी स्त्री से क्यों प्यार करते हो जी, खाली हमसे किया करो। अरे हमारे चार बेटे हैं, तो किसी बेटे ने कहा कि और बेटों से प्यार न करना पापा, खाली हम ही से करना।
तो जैसे संसार में अपने ब्लड रिलेशन में प्यार करना मना नहीं। ऐसे ही भगवान कहते हैं कि हमारे परिवार में खूब प्यार करो, हमारे सन्त से, हमारे नाम से, हमारे गुण से, हमारी लीला से, हमारे धाम से। तो हमारा ही प्यार कहलायेगा वो। क्योंकि इनमें भेद नहीं होता। भगवान का नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, सन्त इनमें सबमें सबका निवास है। कोई छोटा बड़ा नहीं है। भगवान में सब रहते हैं, सबमें भगवान रहते हैं। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण सम्बन्धी सब वस्तुओं से कहीं भी मन का अटैचमेन्ट करो तो सही है और मायिक जीव या मायिक सामान में अटैचमेन्ट हुआ तो वो अन्य हो गया, वो अपराध हो गया। उस पर कृपा नहीं होगी। जरा भी कहीं गड़बड़ है, अटैचमेन्ट है, पॉइन्ट वन परसेन्ट भी, तो भगवान कहते हैं कि अभी दूर है।
यदा ह्योवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति।(तैत्तिरियोपनिषद 2-7)
देखो पारस और लोहा अगर मिल जायें तो लोहा सोना बन जाता है। लेकिन अगर पारस लोहे के पास आ गया तो नहीं बनेगा। एक नंगा तार जा रहा है उसमें इलैक्ट्रिसिटी है, हम उसके पास उँगली ले गये, कोई बात नहीं, अभी नहीं बिजली आई तुम्हारे शरीर में, जब छू गया तो उसने पकड़ लिया। ऐसे ही मन केवल भगवान के एरिया वालों में 'ही' रहे, 'भी' नहीं।
अभ्यास करते-करते होगा एक दिन, एक साल में हो, एक जन्म में हो, हजार जन्म में करो। ये तो तुम्हारी स्पीड पर निर्भर है। एक आदमी दो कदम चले आगे और एक कदम पीछे तो वो बहुत दिन में पहुँचेगा मथुरा, एक आदमी लगातार चले तो जल्दी पहुँचेगा। एक दौड़ता हुआ चले तो और जल्दी पहुँचेगा, एक कार से जाय तो वो और जल्दी पहुँचेगा। तो ये तो अपनी अपनी साधना पर निर्भर है। लेकिन एक दिन वहीं पहुँचना होगा कि राधाकृष्ण के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, जन में ही मन लग जाय और कहीं न जाय। उसको कहते हैं अनन्य।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक, प्रवचन संख्या 2300 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 129
(राम कृष्ण में भेद नहीं है - विषय पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन का एक अंश)
...भगवान के अनन्त अवतारों में थोड़ा भी भेदभाव करने वाला नामापराधी है। सबसे बड़ा पापात्मा। इसलिये ये जब आप लोग वेद का मंत्र बोलते हैं कीर्तन करते हैं सब लोग, 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे', ये कलिसंतरिणोपनिषद का मंत्र है। तो राम के उपासक 'हरे राम' तो बोल देते हैं, 'हरे कृष्ण' नहीं बोलते और हरे कृष्ण वाले एक सम्प्रदाय है हमारे देश में तो वो ये 'हरे राम' ऊपर लिखा हुआ है वेद में तो उन्होंने 'हरे कृष्ण' को ऊपर कर दिया।
पहले 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।' ऐसी मूर्खता आप लोग कभी न करेंगे। चाहे राम कहो; चाहे श्याम कहो; सब भगवान के नाम हैं और सब एक फल देने वाले हैं। भगवान में कोई छोटा बड़ा नहीं होता।
देखो हमारे संसार में एक आदमी है। वो किसी का पति है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है, वो कभी ऑफिस में बैठता है बड़े अप टू डेट ढंग से सीरियस तो जब घर में आता है तो लुंगी पहनकर के अपना और ढंग से रहता है। तो क्या वो बदल गया। क्या स्त्री कहेगी कि तुम ऑफिस वाले तो ये नहीं हो। हाँ। कोई माँ ऐसा कहेगी?
तो भगवान के समस्त अवतारों की लीलायें अलग-अलग होती हैं। देश काल के अनुसार इसलिए उनकी लीलाओं में रस लेना चाहिये। हाँ आपको मर्यादा की लीला में रस नहीं मिलता, प्रेम लीला में रस लो। मर्यादा में रस मिलता है उसमें लो, दोनों में लो। हर अवतार का रस लो। भगवान के अवतारों में भेदभाव नहीं होना चाहिये। सब अवतार एक हैं। उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके जन ये सब एक हैं। इनमें कहीं भी मन का अटैचमेंट हो तो अनन्य ही रहेगा। अन्य नहीं हो जायेगा। माया के एरिया में गये बस अन्य हो गये। अब अनन्य नहीं रहे।
जो मायाबद्ध हैं देवता स्वर्ग के, मनुष्य जिन्होंने भगवत्प्राप्ति नहीं की, मायाबद्ध हैं। राक्षस मायाबद्ध हैं। यानी सात्विक राजस तामस, ये तीन लोग जो हैं ये माया के अण्डर में हैं। इनमें मन का अटैचमेंट नहीं होना चाहिये। ड्यूटी। अजी अपनी माँ से प्यार कर रहे हैं। कोई पाप है? हाँ पाप है। भगवान ने कहा है तुमसे केवल मुझसे प्यार करो। केवल, अनन्य। अनन्य का मतलब क्या? लक्ष्मण ने क्या कहा था;
गुरु पितु मातु न जानहु काहू।मोरे सबहि एक तुम स्वामी।त्वमेव सर्वं मम देवदेव।
भगवान ही हमारी असली माँ है। ये संसार की माँ संसार के पिता तो हर जन्म में बदलते रहते हैं। कितने पिता हो चुके हम लोगों के, गिनती है? कुत्ते भी पिता बने, गधे भी पिता बने, हर योनि में हम लोग गये। अनन्त पिता बन चुके, अनन्त माँ, अनन्त बीवी, अनन्त पति, अनन्त बेटा-बेटी। कहाँ हैं वो? सब बदलते रहते हैं लेकिन भगवान जो हमारा माता पिता है वो सदा एक था, एक है, एक रहेगा। इसलिये भगवान राम-कृष्ण में भेदभाव न करके जिसमें भी मन का झुकाव हो उसमें प्यार करो वो बात अलग है लेकिन दो न मानो। भेद न मानो, बुद्धि को समझा दो। ये बहुत बड़ा अपराध है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, जुलाई 2015 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ऋग्वैदिक काल में लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया है। इस समय 'बहुदेववाद' का प्रचलन था। वैदिक धर्म पूर्णत: प्रतिमार्गी हैं और वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की आराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की आराधना पशु के रुप में की जाती थी। अज एकपाद और अहितर्बुध्न्य दोनों देवताओं परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना चितकबरी गाय के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला सरमा (कुत्तिया) स्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य को अश्व के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं के पूजा प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक आर्यों की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन्, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत्, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृत्ति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्याय संगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है। ऋग्वेद के कऱीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं और अग्नि उसका यमज भाई है तथा मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान् विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है। वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद में दूसरा महत्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियां दी जाती थीं। ऋग्वेद में कऱीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हें 'अथर्वन' कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्ज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियां जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दांव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रात: काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है।तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हे ऋतस्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद मे वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हे असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वां मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। माना जाता है कि वरुण देवता दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीडि़त करते थे।--
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 128
साधक का प्रश्न : महाराज जी! महापुरुषों को प्रारब्ध क्यों भोगना पड़ता है?
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :::
भगवान का कानून है -
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभं। (महाभारत)
ताकि भगवान के ऊपर लांछन न लगे कि क्यों जी, अपने जन के लिये तो रियायत हो गई और हमको ये भोगना पड़ेगा। ये भगवान के ऊपर न दोषारोपण हो इसलिये भक्त कहता है, अरे हमको उसकी फीलिंग तो होनी नहीं है, हमारा पिता मरेगा, बेटा मरेगा, धन लुटेगा, शरीर में रोग होगा, हमें उसकी फीलिंग तो होना नहीं है फिर ये क्यों हम भगवान को बदनाम करने के लिये प्रारब्ध को काटें। वैसे काटने का अधिकार ज्ञानी को नहीं है, भक्त को है।
00 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2015 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 127
(नीचे का उद्धरण अंश जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित 103-प्रवचनों की ऐतिहासिक श्रृंखला 'मैं कौन? मेरा कौन?' के 56-वें प्रवचन से है, जो कि उन्होंने 11 अगस्त सन 2010 को श्री बरसाना धाम में दी थी।)
...प्राचीनकाल में ऐसे अंजन बनाये जाते थे कि जो मोतियाबिंद के मरीजों को आँख में देने से उसी अंजन से धीरे धीरे मैल कटता था। आजकल उसे काटकर निकाल देते हैं, पहले वो अंजन से कटता था, धीरे धीरे। तो जैसे जैसे वो कटता था वैसे वैसे पहले मोटी चीज दिखाई पडऩे लगी फिर और पतली चीज फिर और पतली चीज फिर एकदम ठीक हो गई।
(भगवान कहते हैं) ऐसे ही जो मेरी भक्ति करता है तो ज्यों-ज्यों भक्ति करता जाता है त्यों-त्यों संसार से वैराग्य और मुझमें प्यार नैचुरल, नैचुरल स्वाभाविक प्यार, होने लगता है, रहा नहीं जाता। आज कुछ भगवान संबंधी बात नहीं हुई दिन भर, खराब हो गया, बेचैनी हो रही है। वो आ गया था, खोपड़ा खाता रहा, वो आ गई थी ए दिमाग खराब हुआ और सबसे अन्त में भगवान ने उद्धव से कहा कि देखो मैं सारांश बताता हूँ अब और सब ज्ञान भुला दो तो भी चलेगा। क्या सारांश?
विषयान् ध्यायतश्चित्तम् विषयेषु विषज्जते।मामनुस्मरतश्चित्तम् मय्येव प्रविलीयते।।(भागवत 11-14-27)
जैसे संसारी पदार्थों में सुख मान मान करके तुमने उसमें अटैचमेंट किया था, मान मान करके, जबरदस्ती और मैं तो आनन्दसिन्धु हूँ फैक्ट में। जो मुझमें सुख मानकर के बार बार बार बार बार बार चिन्तन करेगा उसका मुझमें अटैचमेंट हो जायेगा। हो गई भक्ति, बस। बार बार चिन्तन से अटैचमेंट होता है। संसार में भी ऐसे ही होता है।
दो भाई बैठे थे, एक लड़की जा रही थी। दोनों ने देखा। एक ने कहा कि बड़ी सुन्दर लड़की है, दूसरे ने कहा, हाँ हाँ। दूसरा भाई चला गया अपना कहीं। इस भाई ने सोचा कि इससे मिलना चाहिये। कौन है? कहाँ रहती है? इसका पिता क्या करता है? लग गया पीछे। एक दिन हुआ, दो दिन हुआ, मौका नहीं लगा बात करने का। मिलना है, कैसे नहीं करेगी बात? कोई तरकीब कोई बहाना। एक दिन ऐसा चांस आ गया। आप कहाँ रहती हैं? बहन जी! पहले बहन जी कहता है और भावना है श्रीमती जी बनाने की। वो भी भोली भाली लड़की है। उसने कहा भाई साहब! मैं वहाँ रहती हूँ। तुम्हारे डैडी क्या करते हैं? हमारे डैडी इंसपेक्टर हैं। मैं यहाँ रहता हूँ। मेरे डैडी अरबपति हैं। झूठ बोला। अब लड़की को, सोचने को मजबूर कर दिया। अरबपति है, शकल वकल तो ठीक है। लेकिन अब इससे बात कैसे करें? हटाओ। फिर वो पीछे पड़ा।
अब वो चिन्तन चिन्तन चिन्तन चिन्तन, रात दिन। उसका भाई कहे कि तू कहाँ खोया रहता है, आजकल। कुछ नहीं भइया ऐसे ही। झूठ बोल रहा है ऐसे ही ऐसे ही। आखिरकार एक दिन ऐसा मौका आ ही गया कि साफ साफ उसने कह दिया, 'मुझसे शादी करोगी?' तो उसने एक झापड़ लगाया। लौट कर आया, उसने खरीदा पॉइजऩ और खाकर सो गया, सदा को छुट्टी। ये क्यों हुआ? चिन्तन से, लगातार चिन्तन से।
ऐसे ही लगातार चिन्तन करने से तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु लोग, भगवान के पास पहुँचे थे। और कुछ नहीं। ये शास्त्र वेद तो केवल विश्वास के लिये और वैराग्य के लिये जरूरी है। यहाँ नफरत हो जाय इससे। ये संसार क्या है? फैक्ट इसका मालूम हो जाय कि ये धोखा देने वाला है। ये मन दुश्मन है, इसको हम दोस्त माने बैठे हैं। ये सब ज्ञान के लिये, गुरु की आवश्यकता है। भगवान को पाने के लिये मेहनत नहीं है। बस वो (भगवान) 'मेरा' है, वो 'मेरा' है, वो 'मेरा' है। ये संसार 'मेरा' है, ये एबाउट टर्न हो जाओ, वो 'मेरा' है, वो 'मेरा' है। ये चिन्तन जितना तेज होगा, उतने ही पास पहुँचते जायेंगे आप (भगवान के)।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: 'मैं कौन? मेरा कौन?' प्रवचन श्रृंखला, 56-वाँ प्रवचन00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।