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- - जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजआज महारानी श्रीराधारानी का प्राकट्य-दिवस श्रीराधाष्टमी है। श्रीराधारानी कौन हैं, हमारा उनसे क्या संबंध है तथा उनकी प्राप्ति किस प्रकार होगी - इस सम्बन्ध में भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने साहित्य तथा प्रवचनों में बड़ी गहराई से विवेचन किया है। आइये उनके साहित्य का आश्रय लेकर ही हम इस रहस्य को समझने का प्रयत्न करें -(कृपा की मूर्ति महारानी श्रीराधारानी - यहाँ से पढ़ें..)जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने श्याम-श्याम गीत ग्रंथ के एक दोहे (संख्या 69) में श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण के संबंध के विषय में कहा है -
रसिकों ने समझाया कह ब्रजबामा।आत्मा की आत्मा की आत्मा हैं श्यामा।।अर्थात रसिक जन समझाते हैं जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं।इसके अतिरिक्त इसी ग्रन्थ के एक अन्य दोहे (संख्या 43) में जीवात्मा तथा श्रीराधारानी के संबंध को और अधिक समीपता के साथ व्यक्त किया है :
प्रति जन्म नयी नयी मातु बनी बामा।बदली न तेरी कभु साँची मातु श्यामा।।भावार्थ यह कि जीव के कर्मानुसार शरीर का जन्म-मरण होता रहता है। इस कारण हर जन्म में नई नई मातायें भी बनीं। आत्मा की मां श्रीराधा तो सदा से एक ही थीं, एक ही रहेंगी।इसी संबंध का अनुभव करके उनकी प्राप्ति के लिये परम निष्काम भाव से रूपध्यानपूर्वक साधना करने का उपदेश उन्होंने अपने समस्त साहित्य तथा प्रवचनों में दिया है। श्यामा श्याम गीत के दोहा संख्या 73 में वे जीवों से कहते हैं -राधा नाम रुप गुण लीला जन धामा।याही में लगाओ मन भाव निष्कामा।।अर्थात निष्काम भाव से श्रीराधा नाम, रुप, गुण, लीला, जन एवं धाम में ही अपने मन को लगाओ। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रज-साहित्यों में श्रीराधारानी के गुणों का भी विशद एवं सरस वर्णन किया है। श्रीराधारानी के अगाध गुणों में प्रमुखत: उनकी कृपालुता, पतित-जनों की रिझवार, अति सरल, सुकुमारता, शरणागत की प्रतिक्षण सँभार एवं रक्षा करने वाली, भोरेपन आदि गुणों का अपने पदों, कीर्तनों तथा दोहों में वर्णन किया है। कृपालुता की ऐसी सीमा है कि यदि वे कोप भी करें, तो उस कोप में भी उनकी अगाध कृपा ही रहती है। प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ में वे एक पद में कहते हैं -जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै।अर्थात जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी! ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं।इसी पद में अन्य पंक्ति में उन्होंने कहा है :टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें।भावार्थ यह कि हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि-बुधि भूलकर दौड़ आती हैं।ऐसी कृपालु स्वामिनी श्रीराधारानी का दीनतापूर्वक स्मरण तथा उनसे कृपा की याचना करने का ही उपदेश श्री कृपालु महाप्रभु ने बारम्बार दिया है। उन्होंने अपने एक ग्रन्थ युगल शतक की श्रीराधा माधुरी के कीर्तन संख्या 53 में इस याचना तथा प्रेम के स्वरुप का इस प्रकार वर्णन किया है (केवल अर्थ)....अरे मेरे मन! निरन्तर श्रीराधा का ही सेवन कर। जिह्वा से अनवरत राधा नामामृत का पान कर। नाम-स्मरण करने में भला क्या विघ्न उपस्थित हो सकता है? श्रीराधा अनंत दिव्य गुण-गणों से विभूषित हैं। अत: कानों से निरंतर उनकी लीला का श्रवण कर उनके गुणानुवाद सुन। कोमल स्पर्श की कामना जब उत्पन्न हो तो श्रीराधा के कमलोपम चरणों का स्मरण कर। श्रीकृष्ण भी इन चरणों की आराधना करते हैं। नेत्रों से पल-पल श्रीराधा की दिव्य मूर्ति का ध्यान कर दसों दिशाओं में उनका ही दर्शन कर। नासिका से श्रीराधा के दिव्य-वपु के सुवास को ग्रहण कर। हे मेरे चंचल मन! तू श्रीराधा के निरुपम सौंदर्य का ही चिंतन कर। श्रीराधा के समान तो श्रीराधा ही हैं। बुद्धि में ऐसी दृढ़ता रहे कि एक दिन मैं अवश्य ही उनकी कृपा को प्राप्त करुंगा।श्रीराधा के प्रति जो प्रीति हो, उसमें अपने स्वार्थ की गंध न हो। श्रीराधा के हितार्थ हो, उनके सुख में सुख मानते हुये उनके प्रति निष्काम प्रेम की भावना स्थिर करनी है। यदि श्रीराधा की कृपा प्राप्त करनी है तो उनके प्रियतम श्रीकृष्ण की भी भक्ति करनी होगी।इस प्रकार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रगटित ब्रज-साहित्य के अगाध समुद्र से निकले इन किञ्चित चिंतन-रत्नों का आधार लेकर हम अपने हृदयों में श्रीराधारानी के प्रति श्रद्धा, प्रेम तथा अपनापन लाने का प्रयास करें तथा उनसे कृपा की दीनतापूर्वक याचना करें....आप सभी को उनके प्राकट्य दिवस श्रीराधाष्टमी की बारम्बार अनंत शुभकामनाएं।(स्त्रोत - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसाहित्य के सर्वाधिकार : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज श्रीमुखारविन्द से श्रीमद्भागवतगीता के श्लोक की व्याख्याजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज श्रीमद्भागवतगीता के उस श्लोक की वास्तविकता या कहें कि गहराई पर प्रकाश डाल रहे हैं जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समस्त पापों से मुक्त करने की बात कही है। यह श्लोक साधारण श्लोक नहीं है, अपितु बड़ा गम्भीर है और किसी श्रोत्रिय-ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही इसके गूढ़तम रहस्य का बोध करा सकते हैं। आइये इस युग के जगदगुरुत्तम के श्रीमुखारविन्द से इस श्लोक की गम्भीरता को समझने का प्रयास करें -(पाप और पुण्य दोनों पाप ही हैं.... यहाँ से पढ़ें..)देखो ! आप लोग पाप से डरते हैं, आप लोगों के मस्तिष्क में एक ये कमजोरी है कि पाप करना बुरी बात है। और पुण्य करना? वो तो अच्छी चीज है, ना ना, पुण्य भी पाप है। पाप तो पाप है ही, पुण्य भी पाप है।सुकृत दुष्कृते धुनुतेसुकृत भी पाप है, दुष्कृत भी पाप है। पुण्य भी पाप है, क्योंकि उसका बन्धन होता है। स्वर्ग मिलेगा पुण्य से यही तो होगा। हाँ, वो बन्धन है। वो तो चार दिन का है, उसके बाद फिर आओगे मृत्युलोक में कूकर, शूकर, कीट, पतंग बनोगे। तो पुण्य को भी समाप्त करना होगा और पाप को भी, तब काम बनेगा. तो जीव जब शरणागत हो जाता है तो भगवान् दोनों समाप्त कर देते हैं -तेरे सब पाप पुण्य नासें बनवारीदेखो ! गीता में खाली पाप शब्द लिखा है क्योंकि वो गीता के लैक्चर देने वाले श्रीकृष्ण पुण्य को भी पाप मानते हैं, इसलिए उन्होंने कहा -
अहं त्वाम् सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामिअर्जुन ने प्रश्न नहीं किया कि पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि और पुण्येभ्यो ? पुण्य से आप मुक्त नहीं करेंगे तो, तो बंधन रहेगा ही, क्योंकि पाप भी अनंत हमारे हैं और पुण्य भी अनंत हैं हमारे। हम कभी-कभी पुण्य भी करते हैं ना ! सच बोल रहे हैं यह पुण्य है, झूठ बोल रहे हैं पाप है। हम दोनों का पालन करते हैं। संसार में ऐसा कोई है जो सच न बोले कभी? भूख लगी है, क्या कहोगे? खाना दे दो। ना, झूठ बोलो, लकड़ी दे दो, ऐसा बोलो ना। नहीं, ये तो खाना ही मांगना पड़ेगा, भूख लगेगी तो। पानी ही मांगना पड़ेगा, प्यास लगेगी तो। कोई गला दबायेगा तो, बचाओ, कहना पड़ेगा। हां, कोई आदमी शत- प्रतिशत झूठ नहीं बोल सकता। कभी सच बोलता है, कभी झूठ बोलता है। तो पुण्य भी करता है, पाप भी करता है और अनंत जन्म हुए हैं इसलिए अनंत पाप भी, अनंत पुण्य भी, दोनों हैं, दोनों नाश कर देते हैं। (शरणागत का भगवान)(प्रवचनकर्ता -जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के सभी जीवों के आत्मिक कल्याण के निमित्त उपदेशजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ऐसे प्रथम जगदगुरुत्तम हैं जिन्होंने देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी श्रीराधा नाम का अंधाधुंध प्रचार किया। आचार्य श्री ने श्रीराधारानी को ही अपनी स्वामिनी माना है। उन्होंने अपनी कृतियों में इसी पक्ष को उद्भासित किया है कि श्रीराधा के सेवक स्वयं श्रीकृष्ण हैं। आइये आज हम उनके द्वारा ही प्रदत्त उन उपदेशों का पठन करें जो उन्होंने अपने साहित्यों में हम सभी जीवों के आत्मिक कल्याण के निमित्त दिये हैं -(महारानी श्रीराधारानी चिंतन- यहां से पढ़ें..)(1) श्रीवृषभानुनन्दिनी राधिका जी ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ तत्व हैं। उन्हीं का अपर अभिन्न स्वरुप स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जिनका अवतार द्वापर युग के अंत मे हुआ था।(2) कभी एक क्षण के लिए भी स्वयं को अकेला न मानो। सदा सब स्थानों पर श्रीराधा तुम्हारे साथ हैं। जीव के कर्मानुसार शरीर का जन्म मरण होता रहता है। इस कारण हर जन्म में नयी नयी मातायें भी बनीं। आत्मा की माँ श्रीराधा तो सदा से एक ही थीं, एक ही रहेंगी।(3) जीव जिस किसी भी स्थान पर रहे, उसे सदा यह चिंतन करना चाहिए कि मेरे हृदय में विराजमान श्रीराधा मेरे मन के शुभ अशुभ समस्त संकल्पों को जानकर उनके अनुसार मुझे मेरे कर्मों का फल प्रदान करेंगी। हे मन ! निरंतर अपनी इष्टदेवी श्रीराधा का स्मरण कर। उनसे भी यही प्रार्थना कर कि तुझे वे एक क्षण को भी न भूलें।(4) शास्त्रों के श्रवण-पठन के द्वारा केवल जान लेने मात्र से काम नहीं बनेगा। पहले जानना है, जानने के बाद मानना एवं मानने के बाद श्री राधिका की मन से शरणागति करनी होगी। हे जीवों ! निष्काम भाव से श्रीराधा नाम, रूप, गुण, लीला, जन एवं धाम में ही अपने मन को लगाओ। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।(5) हे जीव ! अनादिकाल से अनन्तानन्त पाप करने के कारण तेरा मन अत्यंत मलिन हो चुका है अतएव (साधना द्वारा अंत:करण शुद्धि की मात्रानुसार) श्री राधा धीरे-धीरे ही मन को अच्छी लगेंगी, एकाएक नहीं। भूलकर भी अपने मन में निराशा को न आने दो। विश्वास रखो एक दिन किशोरी जी तुम्हें अवश्य अपनाएंगी।(स्त्रोत -जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु विरचित भक्ति शतक एवं श्यामा श्याम गीत ग्रन्थ सेसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- -भक्ति कभी बेकार नहीं जाती- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में आध्यात्म जगत के हर छोटे-बड़े तथा गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डाला है तथा शंकाओं के वैदिक समाधान भी प्रदान किये हैं, जो कि एक आध्यात्मिक जिज्ञासु जीव के लिये अति अनमोल हैं। ऐसे ही एक प्रश्न पर आज उनके द्वारा प्रदान किया गया उत्तर हम जानेंगे, आशा है कि आपको इससे किंचित लाभ तो अवश्य ही होगा...एक साधक द्वारा पूछा गया प्रश्न - अगर मनुष्य सारे जीवन ठीक-ठीक साधना करे और आखिरी कुछ क्षणों में नास्तिक हो जाये, ऐसा कुछ हो उसके साथ तो क्या उसको 84 लाख में भटकना पड़ेगा??(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर)हाँ ! अंतिम समय में जो उसकी स्थिति होगी वही फल मिलेगा। लेकिन पहले जो कर चुका भक्ति-साधना, वह भी उसके पास जमा रहेगी। तो ये जो आगे वाला है उसका फल, पहले भोग लेगा फिर पीछे वाले का फल देगा भगवान। यानी पहले तो वह संसार में पैदा होगा, दु:खी होगा, नास्तिक होगा और फिर बाद में जब उसका खऱाब प्रारब्ध समाप्त हो जायेगा, भोग करके, तब वह भक्ति का जो उसका पार्ट है, जो जमा है, उसका फल दे दिया जायेगा। बेकार नहीं जायेगा कुछ, बेकार एक क्षण की भी भक्ति नहीं जाती। कर्म बेकार जाते हैं, योग बेकार जाते हैं, ज्ञान बेकार जाते हैं, लेकिन भक्ति बेकार नहीं जाती, वह सब अमिट है। इसने इतना भगवन्नाम लिया, इतनी गुरुसेवा की, ये सब चीजें भगवान् के पास एक-एक क्षण की दर्ज हैं, लिखी हुई हैं। उसका फल उसको मिलेगा।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत - प्रश्नोत्तरी पुस्तक (भाग - 1)सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी के मुख से काल की भयावहता का वर्णनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज काल यानि मृत्यु की भयावहता अथवा कहें कि खतरे के विषय में आगाह कर रहे हैं कि कभी काल पर भरोसा नहीं करना चाहिये। काल पर भरोसा करना बहुत खतरनाक हो सकता है, न जाने कौन सा लक्ष्य धरा का धरा रह जाय और कितनी बड़ी हानि हो जाय, चाहे वह आध्यात्मिक जगत हो अथवा सांसारिक जगत। आइये उन्हीं के शब्दों में हम इसे समझें और गंभीरतापूर्वक इसकी भयावहता पर विचार करें -(यहाँ से पढ़ें...)...अरे मनुष्यों ! कल से भजूँगा, कल से भजूँगा मत कहो, मत सोचो। क्यों...? अरे! वह जो तुम्हारी खोपड़ी पर सवार है काल, यमराज। क्या पता कल के पहले ही टिकट कट जाये रात ही को। ऐसे रोज उदाहरण हमारे विश्व में हो रहे हैं, कि रात को एक आदमी सोया और सदा को सो गया। न दर्द हुआ, न चिल्लाया, न घर वालों को मालूम हुआ। घर वाले समझ रहे हैं सो रहा है, आज बड़ी देर तक सोता रहा, अरे भई जगा दो। जगाने गये तो मालूम हुआ सदा को सो गया, इसका टिकट कट गया। एक माँ के पेट में ही मर गया, एक पैदा होते ही तुरंत मर गया, एक 25 साल का आई. ए. एस. करके फ्लाइट से घर आ रहा था, सब घर वाले खुश और पता चला रास्ते में ही प्लेन क्रैश में मर गया, पिता ले जा रहा है बेटे को जलाने, पर पिता को होश नहीं है कि मुझको भी जाना है। देख तो रहे हैं हम रोज़ आसपास कि क्या हो रहा है? लेकिन भगवान को याद करने का भजन करने का टाइम किसी के पास नहीं है। प्लानिंग बन रही हैं बड़ी-बड़ी, पल का भरोसा नहीं और कोई पंचवर्षीय योजना कोई दस वर्षीय योजना बना रहा है, अरे! बिगड़ी बना लो जिसके लिए ये मानव देह भगवान ने तुमको कृपावश दिया है। ये नाती-पोते, ये बेटा-बेटी कोई तुम्हारे नहीं है जिनमें तुम उलझे हुए हो रात दिन। ये सब तो स्वार्थ आधारित रिश्ते हैं, कोई किसी का नहीं है यहाँ। इसलिये कल से भजूँगा यह मत कहो, मत सोचो, तुरंत करो। उधार मत करो। उधार करने की आदत हमारी तमाम जन्मों से है और इसलिये हम अनादिकाल से अब तक चौरासी लाख में घूम रहें है एक कारण। अनंत संत मिले समझाया हम समझे लेकिन उधार कर दिया। करेंगे... करेंगे। तन,मन, धन ये तीन का उपयोग करना था तीनों के लिये हमने उधार कर दिया। करेंगे, बुढ़ापे में कर लेंगे अभी इतनी जल्दी भी क्या है? मन तो और बिगड़ा हुआ है।धन से तो इतना प्यार है कि कोई भी परमार्थ के काम में खर्च करने में भी बुद्धि लगाते हैं - करें, कि न करें? कर दो भगवान के निमित्त। अरे! रहने दो... अरे! नहीं कर दो, अरे! नहीं क्यों निकालो जेब से, अरे! चलो अब कर ही देते हैं। नहीं अब कल करेंगे, ये हम लोगों का हाल है सोचियेगा अकेले में। यही सब होता है। तो उधार करना बन्द करना है। मानव देह क्यों मिला है, इस पर विचार करो, संभलों और अपनी बिगड़ी अभी भी बना लो, नहीं तो करोड़ों वर्षों तक यूँ ही 84 लाख में भटकते रहोगे। ये अवसर भी हाथ से चूक जाएगा। संसार में व्यवहार करो, मन भगवान को दे दो। अभी से भजन करो, भक्ति करो, संसार से मन हटाओ, भगवान में लगाओ। उधार करना बंद करो।(जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
स्त्रोत-जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - किस मुहूर्त में करें गणेशजी की पूजा....गणेश प्रतिमा स्थापित करते समय इन बातों का रखें ध्यान....भगवान गणेश की आराधना का 10 दिवसीय पर्व कल से शुरू होने जा रहा है। आइये जाने प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी से कि कल भगवान गणेश की प्रतिमा की स्थापना का क्या है शुभ मुहुर्त और स्थापना के समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार भगवान गणेश की प्रतिमा घर में स्थापित करने से पहले पूजा स्थल की सफाई करें। गणपति की स्थापना करने से पहले स्नान करने के बाद नए या साफ धुले हुए बिना कटे-फटे वस्त्र पहनने चाहिए। इसके बाद अपने माथे पर तिलक लगाएं और पूर्व दिशा की ओर मुख कर आसन पर बैठ जाएं।सबसे पहले घी का दीपक जलाएं। इसके बाद पूजा का संकल्प लें। फिर गणेश जी का ध्यान करने के बाद उनका आह्वन करें।फिर एक साफ चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर अक्षत (चावल), या गेहूं, मूंग, ज्वायर रखें और गणपति को स्थापित करें। आप चाहे तो बाजार से खरीदकर या अपने हाथ से बनी गणपति बप्पा की मूर्ति स्थापित कर सकते हैं। गणपति की प्रतिमा के दाएं-बाएं रिद्धि-सिद्धि के प्रतीक स्वरूप एक-एक सुपारी रखें।मध्याह्न गणेश पूजा - 11:07 से 13:41चंद्र दर्शन से बचने का समय- 09:07 से 21:26 (22 अगस्त 2020)चतुर्थी तिथि आरंभ- 23:02 (21 अगस्त 2020)चतुर्थी तिथि समाप्त- 19:56 (22 अगस्त 2020)गणेश स्थापना - ध्यान रखें-आसन कटा-फटा नहीं होना चाहिए।-जल से भरा हुआ कलश गणेश जी के बाएं रखें।-चावल या गेहूं के ऊपर स्थापित करें।-कलश पर मौली बांधें एवं आमपत्र के साथ एक नारियल उसके मुख पर रखें।- गणेश जी के स्थान के सीधे हाथ की तरफ घी का दीपक एवं दक्षिणावर्ती शंख रखें।-गणेश जी का जन्म मध्याह्न में हुआ था, इसलिए मध्याह्न में ही प्रतिष्ठापित करें।- पूजा का समय नियत रखें। जाप माला की संख्या भी नियत ही रखें।- गणेश जी के सम्मुख बैठकर उनसे संवाद करें। मंत्रों का जाप करें। अपने कष्ट कहें।-शिव परिवार की आराधना अवश्य करें यानी भगवान शंकर और पार्वती जी का ध्यान अवश्य करें।गणेश चतुर्थी की पूजन विधिगणपति की स्थापना के बाद इस तरह पूजन करें-- सबसे पहले घी का दीपक जलाएं, इसके बाद पूजा का संकल्प लें ।- इसके बाद गणपति को दूर्वा या पान के पत्ते की सहायता से गणेश को स्नान कराएं। सबसे पहले जल से, फिर पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी का मिश्रण) और पुन: शुद्ध जल से स्नान कराएं।- अब गणेश जी को पीले वस्त्र चढ़ाएं, अगर वस्त्र नहीं हैं तो आप उन्हें मोली को वस्त्र मानकर अर्पित करें।- इसके बाद गणपति की प्रतिमा पर सिंदूर (कुमकुम), चंदन, अक्षत लगाएं, फूल चढ़ाएं और फूलों की माला अर्पित करें और आभूषण से अलंकृत करें।- अब बप्पा को मनमोहक सुगंध वाली धूप दिखाएं।- अब एक दूसरा दीपक जलाकर गणपति की प्रतिमा को दिखाकर हाथ धो लें, हाथ पोंछने के लिए नए कपड़े का इस्तेमाल करें।- अब नैवेद्य का भोग लगाएं. नैवेद्य में मोदक, मिठाई, गुड़ और फल शामिल हैं। गणेश जी को मोदक और बूंदी के लड्डू अति प्रिय हैं उनका भोग अवश्य लगाएं।- पान लौंग इलायची और द्रव्य चढ़ाएं, उसके पश्चात् ऋतु फल अर्पित करें।- इसके बाद गणपति को नारियल और दक्षिणा प्रदान करें।- अब अपने परिवार के साथ गणपति की और शंकर जी आरती करें। गणेश जी की आरती कपूर के साथ घी में डूबी हुई एक या तीन या इससे अधिक बत्तियां बनाकर की जाती है।- इसके बाद हाथों में फूल लेकर गणपति के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करें।- अब गणपति की परिक्रमा करें. ध्यान रहे कि गणपति की परिक्रमा एक बार ही की जाती है।- इसके बाद गणपति से किसी भी तरह की भूल-चूक के लिए माफी मांगें।- पूजा के अंत में साष्टांग प्रणाम करें।किस रंग की गणेश प्रतिमा का पूजन शुभ होता हैजाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार शास्त्रों में कहा गया है कि हर रंग की मूर्ति के पूजन का फल भी अलग होता है। पीले रंग और लाल रंग की मूर्ति की उपासना को शुभ माना गया है।-पीले रंग की प्रतिमा की उपासना करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।-सफेद रंग के गणपति की उपासना से ऋणों से मुक्ति मिलती है।- चार भुजाओं वाले लाल गणपति की उपासना से सभी संकट दूर होते हैं।- बैठे हुए गणपति की मूर्ति ही खरीदें। इन्हें घर में रखने से स्थाई धन लाभ होता है।- गणेश जी की ऐसी मूर्ति ही घर के लिए खरीदें, जिसमें उनकी सूंड बाईं ओर मुड़ी हो। गणेश जी की उपासना जितने भी दिन चलेगी अखंड घी का दीपक जलता रहेगा।- गणेश जी को दूब प्रिय हैं। दूब अर्पित करें, मोदक का भोग लगाएं। मोदक घर में बनाएं तो ज्यादा बेहतर होता है।
- आइये जानें वास्तु शास्त्र के आलोक में भगवान गणेश को....जब भी हम कोई शुभ कार्य आरंभ करते हैं, तो कहा जाता है कि कार्य का श्री गणेश हो गया। इसी से भगवान श्री गणेश की महत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में गणपति विराजमान हैं। पूजा-पाठ, विधि-विधान, हर मांगलिक-वैदिक कार्यों को प्रारंभ करते समय सर्वप्रथम गणपति का सुमरन और पूजन करते हैं।हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश का अद्वितीय महत्व है। यह बुद्धि के अधिदेवता विघ्ननाशक है। गणेश शब्द का अर्थ है- गणों का स्वामी। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा चार अंत:करण हैं तथा इनके पीछे जो शक्तियां हैं, उन्हीं को चौदह देवता कहते हैं।देवताओं के मूल प्रेरक भगवान गणेश हैं। गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं। भगवान श्री गणेश के अलग-अलग नाम और अलग-अलग स्वरूप हैं, लेकिन वास्तु के हिसाब से गणपति के महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। वास्तु शास्त्र में गणपति की मूर्ति एक, दो, तीन, चार और पांच सिरों वाली पाई जाती है। इसी तरह गणपति के तीन दांत पाए जाते हैं। सामान्यत: दो आंखें पाई जाती हैं। किन्तु तंत्र मार्ग संबंधी मूर्तियों में तीसरा नेत्र भी देखा गया है। भगवान गणेश की मूर्तियां दो, चार, आठ और 16 भुजाओं वाली भी पाई जाती हैं। चौदह प्रकार की महाविद्याओं के आधार पर चौदह प्रकार की गणपति प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है। यहां इन्हीं चौदह गणपति प्रतिमाओं के वास्तु शास्त्र के आलोक में एक नजर डालते हैं -* संतान गणपति- भगवान गणपति के 1008 नामों में से संतान गणपति की प्रतिमा उस घर में स्थापित करनी चाहिए, जिनके घर में संतान नहीं हो रही हो। वे लोग संतान गणपति की विशिष्ट मंत्र पूरित प्रतिमा (यथा संतान गणपतये नम:, गर्भ दोष घने नम:, पुत्र पौत्रायाम नम: आदि मंत्र युक्त) द्वार पर लगाएँ, जिसका प्रतिफल सकारात्मक होता है। मान्यता है कि पति-पत्नी प्रतिमा के आगे संतान गणपति स्रोत का पाठ नियमित रूप से करें, तो शीघ्र ही उनके घर में संतान प्राप्ति होगी। साथ ही परिवार अन्य व्यवधानों से मुक्ति पाएगा।* विघ्नहर्ता गणपति- निर्हन्याय नम: , अविनाय नम: जैसे मंत्रों से युक्त विघ्नहर्ता भगवान गणपति की प्रतिमा उस घर में स्थापित करनी चाहिए, जिस घर में कलह, विघ्न, अशांति, क्लेश, तनाव, मानसिक संताप आदि दुर्गुण होते हैं। माना जाता है कि पति-पत्नी में मन-मुटाव, बच्चों में अशांति का दोष पाया जाता है। ऐसे घर में प्रवेश द्वार पर मूर्ति स्थापित करने से लाभ मिलता है।* विजय सिद्धि गणपति- मुकदमे में विजय, शत्रु का नाश करने, पड़ोसी को शांत करने के उद्देश्य से लोग अपने घरों में विजय स्थिराय नम: जैसे मंत्र वाले बाबा गणपति की प्रतिमा के इस स्वरूप को स्थापित करते हैं।* ऋणमोचन गणपति- कोई पुराना ऋण, जिसे चुकता करने की स्थिति में न हो, तो ऋण मोचन गणपति घर में लगाना चाहिए। * रोगनाशक गणपति- कोई पुराना रोग हो, जो दवा से ठीक न होता है, उन घरों में रोगनाशक गणपति की आराधना करनी चाहिए।* नेतृत्व शक्ति विकासक गणपति- राजनीतिक परिवारों में उच्च पद प्रतिष्ठा के लिए लोग गणपति के इस स्वरूप की आराधना प्राय: इन मंत्रों से करते हैं- गणध्याक्षाय नम:, गणनायकाय नम: प्रथम पूजिताय नम:।* विद्या प्रदायक गणपति- बच्चों में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी पैदा करने के लिए गृहस्वामी को विद्या प्रदायक गणपति अपने घर के प्रवेश द्वार पर स्थापित करना चाहिए।* विवाह विनायक- गणपति के इस स्वरूप का आह्वान उन घरों में विधि-विधानपूर्वक होता है, जिन घरों में बच्चों के विवाह जल्द तय नहीं होते।* चिंतानाशक गणपति- जिन घरों में तनाव व चिंता बनी रहती है, ऐसे घरों में चिंतानाशक गणपति की प्रतिमा को चिंतामणि चर्वणलालसाय नम: जैसे मंत्रों का सम्पुट कराकर स्थापित करना चाहिए।* धनदायक गणपति- आज हर व्यक्ति दौलतमंद होना चाहता है इसलिए प्राय: सभी घरों में गणपति के इस स्वरूप वाली प्रतिमा को मंत्रों से सम्पुट करके स्थापित किया जाता है ताकि उन घरों में दरिद्रता का लोप हो, सुख-समृद्धि व शांति का वातावरण कायम हो सके।* सिद्धिनायक गणपति- कार्य में सफलता व साधनों की पूर्ति के लिए सिद्धिनायक गणपति को घर में लाना चाहिए।* सोपारी गणपति- आध्यात्मिक ज्ञानार्जन हेतु सोपारी गण?पति की आराधना करनी चाहिए।* शत्रुहंता गणपति- शत्रुओं का नाश करने के लिए शत्रुहंता गणपति की आराधना करना चाहिए।* आनंददायक गणपति- परिवार में आनंद, खुशी, उत्साह व सुख के लिए आनंददायक गणपति की प्रतिमा को शुभ मुहूर्त में घर में स्थापित करना चाहिए।
- - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेमरस; परम निष्काम माधुर्य भावजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में हम कलियुगी जीवों को श्रीकृष्ण-प्रेमप्राप्ति का लक्ष्य बताया तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जो भी आवश्यक कर्तव्य है, साधना है, मार्गदर्शन अथवा सावधानी है, उसका भी बारम्बार दिशानिर्देश दिया और पुन:-पुन: स्मरण भी कराया। वस्तुत: श्रीकृष्ण की सेवा तथा प्रेमप्राप्ति ही हमारा अंतिम लक्ष्य है। श्रीकृष्ण के सर्वोच्च प्रेमरस; परम निष्काम माधुर्य भाव की कक्षा का प्रेम क्या है और उस प्रेमरस के आकांक्षी पिपासु जीव को क्या करना होगा, आइये उन्हीं के श्रीमुखारविन्द से पठन करें -श्याम सुख लक्ष्य रखि गोविंद राधे,भाव निष्काम रति मधुर बना दे..(स्वरचित इस दोहे की व्याख्या के कुछ अंश)(भक्ति में) लक्ष्य निष्काम भाव का हो, और श्यामसुन्दर के सुख की भावना का हो और मधुर रति युक्त हो। ये तीनों बातों को लक्ष्य में रखकर साधना करें और सदा इन्हीं तीनों को रखें, इससे ये होगा कि श्यामसुन्दर के प्रति हम कभी भी कुछ मांगने की, पाने की कामना न बना सकेंगे तो हमारा प्रेम बढ़ता जायेगा। अन्यथा हम संसार में जैसे मां से, पिता से, भाई से, बीवी से, पति से आशा करते हैं वो ऐसा करें। नहीं किया, मूड ऑफ कहते हैं उसको हम लोग और फिर प्यार में वो घटमान स्थिति हो जाती है स्त्री पति, पिता बेटे में, क्योंकि अपनी एक कामना बना ली हमने और, उसने नहीं पूरी की..इसलिए हम कामना बनाएं ही न, उनकी हर हरकत पर, हर एक्शन पर, हर क्रिया पर बलिहार जायें। आज बड़े प्यार से भुजाओं को फैला के प्यार कर रहे हैं - वाह ! वाह ! वाह ! क्या लीलाधारी हैं ! आज कुछ हमारी तरफ देख ही नहीं रहे हैं, प्यार तो करते हैं, लेकिन देख नहीं रहे हैं, हमारी परीक्षा ले रहे हैं, ठीक है, ठीक है, ले लो मैं फेल होने वाला नहीं हूँ. अरे ! आज तो डाँट लगा रहे हैं बड़ा भयंकर रूप है। अरे ! समझ गये समझ गये, आज हमको पूरी कसौटी पर कस रहे हैं, हम भी तैयार हैं। चाहे जो व्यवहार करो तुम्हीं हमारे प्रियतम रहोगे।यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर:(गौरांग महाप्रभु)गौरांग महाप्रभु ने कहा श्यामसुन्दर के लिए तुम चाहे प्यार करो, चाहे न्यूट्रल हो जाओ और चाहे मार दो, यहां कोई असर नहीं होना है, हम तो वैसे ही प्यार करते जायेंगे एक-सा..
(प्रवचनकर्ता- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत - जगद्गुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित साधन साध्य पत्रिकासर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हरतालिका अथवा हरितालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्योहार भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते हैं। खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्योहार मनाया जाता है। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरितालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया है। यह व्रत निराहार और निर्जला किया जाता है। इसलिए इस व्रत को सबसे कठिन व्रत में माना जाता है।हरितालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी और गणेश जी की पूजा का महत्व है। महिलाएं बालू से भगवान शिव के लिंग का निर्माण करती हैं और फुलेरा से इसे आकर्षक रूप से सजाकर पूजा-अर्चना करती हैं। पूजा के समय सुहाग का सामान, फल पकवान, मेवा व मिठाई आदि चढ़ाई जाती है। पूजन के बाद रात भर जागरण किया जाता है, इसके बाद दूसरे दिन सुबह गौरी जी से सुहाग लेने के बाद व्रत तोड़ा जाता है। इस व्रत में सायं के पश्चात चार प्रहर की पूजा करते हुए रातभर भजन-कीर्तन, जागरण किया जाता है। दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के समय व्रत संपन्न होता है। शिव जैसा पति पाने के लिए कुंवारी कन्याएं इस व्रत को विधि-विधान से करती हैं। सौभाग्यवती महिलाएं पति की लंबी उम्र की कामना के साथ यह व्रत रखती हैं।कथा- इस व्रत में कथा का विशेष महत्व है। कथा के बिना यह व्रत अधूरा माना जाता है।पौराणिक कथा के अनुसार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तप किया था। हिमालय पर गंगा नदी के तट पर माता पार्वती ने भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की। माता पार्वती की यह स्थिति देखकप उनके पिता हिमालय बेहद दुखी हुए। एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आए लेकिन जब माता पार्वती को इस बात का पता चला तो, वे विलाप करने लगी।एक सखी के पूछने पर उन्होंने बताया कि, वे भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही हैं। उस वक्त पार्वती की सहेलियों ने उन्हें अगवा कर जंगल पहुंचाया ताकि वे अपना तप जारी रख सके। इस कारण इस व्रत को हरतालिका या हरितालिका कहा गया है, क्योंकि हरत मतलब अगवा करना एवं आलिका मतलब सहेली अर्थात सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाता है। इस दौरान भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की आराधना में मग्न होकर रात्रि जागरण किया। माता पार्वती के कठोर तप को देखकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और पार्वती जी की इच्छानुसार उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।तभी से अच्छे पति की कामना और पति की दीर्घायु के लिए कुंवारी कन्या और सौभाग्यवती स्त्रियां हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं और भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।शुभ मुहूर्त -भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का विशेष महत्व है।हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त- सुबह 5 बजकर 54 मिनट से सुबह 8:30 मिनट तक।शाम को हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त- शाम 6 बजकर 54 मिनट से रात 9 बजकर 6 मिनट तक।तृतीया तिथि प्रारंभ- 21 अगस्त की रात रात 2 बजकर 13 मिनट से।तृतीया तिथि समाप्त- 22 अगस्त रात 11 बजकर 2 मिनट तक।व्रत नियम - हरतालिका व्रत निर्जला किया जाता है, अर्थात पूरे दिन एवं रात अगले सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं किया जाता। व्रत का नियम है कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता। इसे प्रति वर्ष पूरे नियमों के साथ किया जाता है। हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता है। महिलाएं नए वस्त्र पहनकर, श्रृंगार करती हैं और विधि-विधान से भगवान शिव की पूजा करती हैं। भगवान शिव की पिंडी स्थापित कर जिस घर में ये पूजा आरंभ की जाती है, वहां इस पूजा का खंडन नहीं किया जा सकता अर्थात इसे एक परम्परा के रूप में प्रति वर्ष किया जाता है।सुखद दांपत्य जीवन और मनचाहा वर प्राप्ति के लिए यह व्रत विशेष फलदायी है। व्रत करने वाले को मन में शुद्ध विचार रखने चाहिए। यह व्रत भाग्य में वृद्धि करने वाला माना गया है। इस व्रत के प्रभाव से घर में सुख शांति और समृद्धि आती है। नकारात्मक विचारों का नाश होता है।इस व्रत में व्रती को शयन निषेध है। रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करें। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है। व्रत के बाद अगले दिन जल ग्रहण करने का विधान है। यह व्रत करने पर इसे छोड़ा नहीं जाता है। प्रत्येक वर्ष इस व्रत को विधि-विधान से करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में इस त्योहार का खास महत्व रहा है। शादी-शुदा महिलाएं यह व्रत और पूजा अपने मायके में जाकर करती हैं। इस व्रत के पहले दिन छत्तीसगढ़ में कड़ु भात खाने की परंपरा है यानी करेले की सब्जी जरूर खाई जाती है। कुछ जगहों पर खीरा और भुट्टे का सेवन भी व्रत से पहले शुरू किए जाने का रिवाज है।----
- - पंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचनपंचम् मौलिक जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविंद से नि:सृत प्रवचन से, आइये समझते हैं कि भगवान के नाम संबंधी कुछ रहस्य क्या-क्या हैं? क्या उनका माहात्म्य है और कौन-सी बात भगवान का नाम लेते समय महत्वपूर्ण है? नाम महिमा के संबंध में ये बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं -(1) भगवान् का नाम कौन सा नहीं है? ये भी समझ लीजिये आप लोग। अ, इ, उ, क, ख -ये सब भगवान् के नाम हैं। लेकिन भगवत्प्राप्ति हुई किसी को इससे भगवान् का कोई नाम-वाम नहीं होता। जो कुछ तुम नाम रख दो वो नाम हो जाये भगवान् का। अनन्त नाम रूपाय । भगवान् के अनंत नाम हैं, अनंत रूप हैं। उनका न कोई रूप होता है, न कोई नाम होता है। तुम जैसा मान लो वैसे ही तुमको मिल जायेंगे। क बोलो, ख बोलो -
हरि के हैं सब नाम गोविन्द राधे,अ, इ, उ, क, ख आदि वेद बता दे..(राधा गोविन्द गीत)(2) देखो ! ब्रजवासियों ने कभी श्रीकृष्ण नहीं कहा। लाला , अपनी भाषा में। बेटा बोल दो, बस बेटा-बेटा। हरे बेटा हरे बेटा बेटा बेटा हरे हरे, इससे कोई मतलब नहीं। नाम का महत्व नहीं है, नामी का महत्व है। यानी नाम में नामी भरा है, ये बुद्धि में भरो तब लाभ मिलेगा। ऐसे तो तुम वेदमंत्र भी याद कर लो, बोला करो। मन जहां रहेगा, मन का अटैचमेंट जहां रहेगा, वही फल मिलेगा।(3) सीधी-सी बात है। इस पॉइन्ट पर ध्यान दीजिये। मन का अटैचमेंट जहाँ होगा उसी की उपासना मानी जायेगी। तुमने कहा राधे राधे । लक्ष्य क्या है तुम्हारा? राधे बोलने में? हमारी नौकरानी का नाम है, हमारी मम्मी का नाम है, बीवी का नाम है, हमारी बहिन का नाम है, राधे । तो राधे राधे दिन रात बोलो, आंसू बहाओ, बेहोश हो जाओ, वहीं राधे मां मिलेगी, वही राधे बीवी मिलेगी, वही राधे बहिन मिलेगी, वही राधे नौकरानी मिलेगी। वो राधा तत्व पर्सनैलिटी स्वप्न में भी नहीं मिल सकती। जहां मन का अटैचमेंट होगा, उसी पर्सनैलिटी का लाभ मिलेगा।(4) भगवान् का नाम ले रहे हो, कीर्तन कर रहे हो - ये बात तब साबित होगी जब तुम्हारा यह विश्वास सेंट परसेंट दृढ़ हो कि इस नाम में भगवान् का निवास है, बस सीधी सी परिभाषा ये है -ध्यान युक्त हरि नाम गोविन्द राधे,कीर्तन ते हरि कृपा हो बता दे..(राधा गोविन्द गीत)फिर कोई नाम लो। राम कहो, कृष्ण कहो, हरि कहो, गधा कहो, मन में आये जो कहो। कोई शर्त नहीं भगवान् की।
(प्रवचनकर्ता- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत नाम-महिमा पुस्तक, श्री कृपालु जी द्वारा नाम माहात्म्य के संबंध में दिये गये प्रवचनों का संकलनसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली - - मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को भारतवर्ष की 500 सर्वमान्य विद्वानों की तात्कालिक सभा काशी विद्वत परिषद के द्वारा 14 जनवरी 1957 को पंचम मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी। इस उपाधि के साथ ही उन्हें निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया गया था। उन्होंने अनेकानेक विरोधाभासी सिद्धांतों का सर्वप्रथम समन्वय किया है। आज उनके द्वारा किये गये अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के समन्वय का एक संक्षित रुप जानेंगे। यह जानना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रत्येक व्यक्ति उलझन में है कि वह कैसे सुख प्राप्त करे और दु:ख कब जाए? यह अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद के प्रति अज्ञानता तथा किसी एक के प्रति ही दुराग्रह का परिणाम है। जीवन में इसका समन्वय चाहिये। आइये इसे जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक शब्दों द्वारा ही हृदयंगम करें.....(यहाँ से पढ़ें...)...विश्व का प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक सुख शांति चाहता है तथा उसी की प्राप्ति के हेतु प्रतिक्षण प्रयत्नशील भी है, तथापि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है। उस वास्तविक सुख शान्ति के विषय में सदा से अनेक वादों के विवाद चल रहे हैं, किन्तु उन सबका समावेश दो वादों में ही है -(1) भौतिकवाद,(2) अध्यात्मवाद।यद्यपि भौतिकवादी एवं अध्यात्मवादी दोनों ही एक दूसरे को भ्रान्त बताते हैं किन्तु यह सर्वथा भ्रम है। हम शरीर एवं आत्मा दो तत्व वाले हैं। अत: बहिरंग शरीर के हेतु भौतिकवाद तथा आत्मा सम्बन्धी अन्तरंग मन के हेतु अध्यात्मवाद। वास्तव में सुख-शान्ति तो अन्तरंग मन की ही वस्तु है तथापि शरीर स्वस्थ रखने के हेतु भौतिकवाद ही अनिवार्य है। भौतिकवाद द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना वर्तमान विज्ञान से, सभी जानते हैं किन्तु मन की शुद्धि सम्बन्धी अन्तरंग विज्ञान से अधिकांश व्यक्ति अपरिचित हैं। तदर्थ अध्यात्मज्ञान की आवश्यकता है, सभी धर्मों द्वारा ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मन शुद्ध होने का सिद्धान्त बताया गया है, अत: उसी लक्ष्य के हेतु कर्मयोग द्वारा साधना परमावश्यक है। यथा -मन हरि में तन जगत में, कर्मयोग येहि जान।तन हरि में मन जगत में, यह महान अज्ञान।।(भक्ति-शतक, श्री कृपालु जी विरचित)
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्द्-य च। (गीता)
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्।।(ईशावास्योपनिषद)अर्थात निरन्तर कर्म करते हुये मन श्रीकृष्ण में लगा रहे, यही कर्मयोग है। अत: श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा ही सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है।(समन्वयाचार्य - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)स्त्रोत-भगवतत्त्व जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के जगदगुरुत्तम उपाधि के स्वर्ण जयंती वर्ष का विशेषांकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनों से 5 सार बातें; जो हमारे आध्यात्म-लाभ में सहायक बन सकती हैं -(1) जब आप अपने को आत्मा मान लेंगे तो शरीर संबंधी आपका सब टेंशन समाप्त हो जायेगा।(2) भगवान को अर्पित करके कर्म करने में, वह बंधनकारक भी नहीं होता और भगवान का स्मरण भी होता रहता है।(3) तत्वज्ञान और भगवद्ज्ञान ढाल तलवार की भांति दोनों साथ- साथ चलने चाहिये।(4) अगर मूर्ति में पूर्ण भगवान की भावना नहीं है और मूर्ति पूजा की, उसको भगवतपूजा न कहकर पत्थर-पूजा कहेंगे।(5) शरीर को ठीक रखने के लिये प्रकृति की ओर आत्मा को ठीक रखने के लिये आवश्यकता है भगवान की। हम संसार का उपयोग करने के स्थान पर उसका उपभोग करते हैं, किन्तु भगवान को पाने का प्रयत्न नहीं करते।(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत- आध्यात्म संदेश पत्रिका, अक्टूबर 2001सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। )
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 4)एक बार ऐसे ही भगवान ने अभिनय किया था द्वारिका में कि हमको बहुत दर्द है, अब हम मर जायेंगे, बचेंगे नहीं। 16108 स्त्रियाँ, सब घबरा गईं कि हम विधवा हो जाएंगी, क्या बोल रहे हैं? उसी समय अचानक नारद जी आ गये।उन्होंने देखा, गुरुजी ये क्या कर रहे हैं आज? कुछ मामला गंभीर है। उन्होंने कहा, महाराज! क्या आपको तकलीफ है कुछ, सुना है। अरे! बहुत तकलीफ है नारद जी। तो फिर क्या करें? अरे क्या करें क्या, दवा लाओ और क्या करोगे? महाराज! दवा क्या है? वो भी बता दो। तुमने अपनी बीमारी खुद पैदा की है तो दवा भी तुम ही बताओ। उन्होंने कहा कि कोई वास्तविक संत की चरणधूलि मिल जाय तो मैं ठीक हो सकता हूँ। नारद जी ने कहा, संत? मैं भी तो संत हूँ। अरे भगवान के अवतार भी हैं और वैष्णवों में शीर्ष रहने वाले नारद जी।फिर उन्होंने कहा, पता नहीं कि ये भगवन का क्या नाटक है? मैं झगड़े में नहीं पड़ता। एक बार बंदर बन चुके हैं। लेकिन ये मातायें जो हैं इनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ, ये तो महापुरुषों की दादी हैं। इनकी स्त्री बनने का सौभाग्य किसको मिलेगा? इनसे कहते हैं। रानियों ने कहा, नारद जी! आज क्या बात है, शास्त्र-वेद का ज्ञान समाप्त हो गया तुम्हारा? कोई स्त्री पति को चरण धूलि देकर नरक जायेगी? वेदमंत्र कोट कर दिया। नारद जी चुप हो गये कि बात तो ठीक कहती हैं। फिर अब क्या करें? जहाँ जायेंगे, सब महात्मा यही कह देंगे कि तुम्हारा दिमाग खराब है, तुम ही दे दो न, अपने चरण की धूलि?तो भगवान के पास फिर गये और कहा, महाराज! वो वैद्य भी बता दो जिसकी चरण धूलि ले आवें। तो उन्होंने कहा कि चले जाओ ब्रज में, वहाँ तमाम करोड़ों गोपियां हैं, उनसे कहना। उन्होंने सोचा कि ब्रज में ऐसा कौन सा महात्मा है? वहाँ तो सब गृहस्थी हैं स्त्रियाँ। उनके बाल-बच्चे हैं, पति हैं और सब बेपढ़ी-लिखी घूँघट वाली। ये क्या कह रहे हैं भगवन।। गये वहाँ पर। तो नाटक किया, बूढ़े बन गये नारद जी, अपने को छिपाकर कि देखें ये पहचानती हैं कि नहीं हमको? दूर से सबने पहचान लिया? नारद जी आश्चर्य चकित रह गये। उन्होंने गोपियों से कहा, तुम्हारे प्राण-वल्लभ को कष्ट है, अपनी चरण धूलि दे दो।उन्होंने कहा, अरे लो। सब लोगों ने पैर फैला दिया। जल्दी ले जाओ। सन्न, नारद जी। तुम लोग चरण धूलि दे रही हो, इसका फल समझती हो? नारद जी फल-वल बाद में बताना, पहले ले जाओ जल्दी से, उनको आराम हो। फल-वल नरक की बात, अरे नरक मिलेगा और क्या होगा इससे अधिक? अरे, कोई आदमी जब हत्या करता है तो क्या सोचता है? फाँसी होगी। हो जाय फाँसी लेकिन इनको मारेंगे। अब नारद जी की आँख खुली। अब उन्होंने कहा, पहले मैं पवित्र हो जाऊँ। तो पति-स्त्री में भी बन्धन होता है, नियम होते हैं लेकिन माधुर्य भाव में कोई नियम नहीं। भगवान दास बन जाता है, भक्त स्वामी बन जाता है। तो ये अंतिम भाव है। इसमें निष्काम भाव से, माधुर्य भाव से, अनन्य भाव से निरंतर भक्ति करने से तो सबसे बड़ा साध्य ब्रज रस मिलता है। ये साधन-साध्य का सारांश है।(समाप्त)(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 3)तो उन्होंने कहा, सख्य भाव से भक्ति करें। वो हमारे सखा हैं, अब तो कान पकड़ सकते हैं। अरे, घोड़ा बनाया ग्वालों ने ठाकुर जी को, कन्धे पर बैठे। सखाओं को इतना बड़ा अधिकार है। उन्होंने कहा, ठीक है, लेकिन फिर भी अभी और अंदर के कमरे में चलो।तो उन्होंने कहा, फिर तो वात्सल्य भाव है जैसे मैया यशोदा ने रस पाया ठाकुर जी का। और चलो अंदर एक दम। तो उन्होंने कहा कि ठाकुर जी को प्रियतम मान लें। हाँ, अब आ गये ठिकाने पर, यही सर्वोच्च भाव है। प्रियतम माने क्या होता है? सब कुछ, सब कुछ माने नम्बर एक पति, नम्बर दो बेटा, नम्बर तीन सखा, नम्बर चार स्वामी। जब जो चाहे बना लो। रिश्ते बदलते जायें, डरें नहीं कि अब जब पति मान लिया है तो बेटा कैसे मानें? ये संसार में बीमारी है कि पति को बेटा मत मानो, बोलो भी नहीं, मानना तो दूर की बात। नहीं पिट जाओगे, लोग पागलखाने में बन्द कर देंगे। लेकिन भगवान के यहाँ ऐसा नहीं है। वो कहते हैं, मैं सब कुछ बनने को तैयार हूँ। एक-एक सेकण्ड में चेंज करो। ये सर्वश्रेष्ठ भाव है और सबसे सरल।कोई नियम नहीं है इसमें। कायदा-कानून नहीं है। अब देखो, दास अगर हम बनते हैं और भगवान को स्वामी मानते हैं तो कितनी बड़ी समस्या है? भरत ने क्या कहा था,
सिर बल चलउँ धरम अस मोरा।सब ते सेवक धरम कठोरा।।जहाँ स्वामी का चरण पड़े, गुरु का चरण पड़े, वहाँ हमारा सिर पडऩा चाहिये। तो क्या हम सिर के बल चलेंगे? ये पॉसिबल कहाँ है? जब राम-सीता वनवास को जा रहे थे तो पीछे-पीछे लक्ष्मण चलते थे। तो दोनों चरण-चिन्हों को बचा-बचा कर चलते थे। कितना कठिन है -
सेवाधर्म- परमगहनो योगिनामप्यगम्य:। (भतृहरि)इससे कम परिश्रम सख्य भाव में है, उससे कम वात्सल्य भाव में है लेकिन माधुर्य भाव में कोई नियम नहीं। (क्रमश:...)(शेष प्रवचन अगले भाग में)( प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत -साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।) - - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....(पिछले भाग से आगे, भाग - 2)...महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो उससे भी अच्छा है , लेकिन इसमें तो पाप नाश कहा है और जिसके पाप ही न हों कुछ, उसके लिये क्या है? तो कुछ सोचकर फिर बोले,ब्रम्हभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम् लभते पराम।।(गीता 18-54)भक्त्या मामभिजानाति यावन्याश्चास्मि तत्त्वत:।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदन्तरं।।(गीता 18-55)मेरी भक्ति, परा भक्ति से ब्रम्ह का ज्ञान होगा तब शान्ति मिलेगी। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो ज्ञानयुक्त भक्ति है, मिक्श्चर है, और आगे बोलो। तो रामानंद राय ने कहा,ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम।स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभिर्ये प्रायशोजित जितोप्यसि तैस्त्रिलोक्याम।।(भागवत 10-14-3)सब कुछ छोड़कर जो केवल अनन्य भाव से निरंतर राधाकृष्ण की भक्ति करते हैं, बस उनको ही वो सबसे बड़ा साध्य मिलता है - भगवतप्रेम। महाप्रभु जी ने सिर हिलाया, हां अब बोले ठीक-ठीक। लेकिन अब जरा महल में घुसो। आ तो गये महल के पास तुम लेकिन अंदर घुसो। खाली महल के पास बाहर से महल को देखा तो ये तो अभी पूरा नहीं है रस। देखो, अंदर क्या है?शान्त भाव के महापुरुषों को तो बैकुण्ठ का ऐश्वर्य मिलता है, उसमें रस कम है, ऐश्वर्य बहुत है। तो उन्होंने कहा, दास्य भाव से राधाकृष्ण की भक्ति करे। मैं दास हूँ, वे स्वामी हैं। हाँ, अब आये रास्ते पर। लेकिन दास और स्वामी में दूरी तो रहती है? मान लो, दास की इच्छा हुई कि स्वामी का कान पकड़ूँ। अरे! नहीं-नहीं, नाराज हो जायेंगे, सर्विस से निकाल देंगे। इसके आगे बताओ। तो उन्होंने कहा, सख्य भाव से भक्ति करें। वो हमारे सखा हैं, अब तो कान पकड़ सकते हैं। अरे, घोड़ा बनाया ग्वालों ने ठाकुर जी को, कन्धे पर बैठे। सखाओं को इतना बड़ा अधिकार है। उन्होंने कहा, ठीक है, लेकिन फिर भी अभी और अंदर के कमरे में चलो। (क्रमश:...)(शेष प्रवचन अगले भाग में)( प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत - साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
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- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....चैतन्य-रामानंद संवाद (भाग - 1)...साधन-साध्य के सम्बन्ध में चैतन्य महाप्रभु एवं राय रामानंद का वार्तालाप अत्यधिक महत्वपूर्ण है। चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद से पूछा,साध्य को पाने का साधन क्या है? उन्होंने उत्तर दिया -स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विदन्ति तच्छ्रीणु।।(गीता 18-45)अपने अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से साध्य मिल जाता है। वर्णाश्रम धर्म यानि ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण; ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास ये चार आश्रम; इनके लिये वेद में जो लिखा है ऐसा करो, ऐसा न करो, ऐसा न करो। उसका जो पालन करें सेंट परसेंट वो वर्णाश्रम धर्म का धर्मी है, कर्मी है। महाप्रभु जी ने कहा - अरे! तुम भी क्या बोले रामानंद? इससे तो स्वर्ग मिलता है बस, वो भी चार दिन का, वहाँ तो माया है। रामानंद ने कहा, अच्छा-अच्छा। इसके आगे बोलो। उन्होंने कहा -यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।यत्तपस्यसि कौन्तेय ततकुरुष्व मदर्पणम्।।(गीता 9-27)स्वकर्मणा तमभ्यच-र्य सिद्धिं विदन्ति मानव:। (गीता 18-46)जो कुछ कर्म करो भगवान को अर्पित करो। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ, उससे तो ये बहुत अच्छा तुमने बताया लेकिन ये साध्य नहीं है, इससे तो अंत:करण शुद्ध होता है। इसके आगे कुछ बताओ। तो उन्होंने कहा -सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।(गीता 18-66)सब धर्मों को छोड़ दो और केवल मेरी भक्ति करो, मैं सब पापों से छुटकारा दिला दूँगा। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ हाँ! ये तो उससे भी अच्छा है लेकिन इसमें तो पाप नाश कहा है और जिसके पाप ही न हों कुछ, उसके लिये क्या है? तो कुछ सोचकर फिर बोले....... (क्रमश:)(शेष प्रवचन अगले भाग में)प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजप्रवचन स्त्रोत- साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंकसर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली। -
वास्तु शास्त्रम के अनुसार शौचालय मे बैठते समय कुछ नियम बनाये गये हैं -
-अष्टांग योग में महर्षि पतंजलि में शौच को नियम का एक महत्वपूर्ण अंग माना है!
-दिन में शौचालय घर के वायव्य कोण की ओर मैदान में जाएँ और उत्तर की ओर मुंह करके बैठे
-रात में शौचालय घर के दक्षिण दिशा की और की मैदान में जाएँ ओर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके बैठें
-इसीलिए घर के वायव्य कोण और दक्षिण में शौचालय बनाने का विधान है
-शौचालय की लेट्रिन शीट उत्तर या दक्षिण की और मुंह करके बनाना चाहिए !
- सीट को सफेद रंग का ही रखना अनुकूलतम माना गया है!
- शौचालय में भारतीय पद्धति ही सबसे कारगर मांनी गई है भारतीय पद्धति से ही पेट अधिक साफ होता है!
-उपयोग करने के बाद शौचालय को साफ रखना बहुत आवश्यक है!
-गाँव के लोगों को कभी भी लेट्रिन ठीक से न होने की शिकायत करते कभी भी नही सुना क्योंकि वो रोज सुबह एक /दो किलोमीटर पैदल चलकर खेतों में जाते हैं जिससे पेट पूरा साफ हो जाता है ,शौचालय में बैठने का सबसे अच्छा तरीका उखडू बैठना है इसलिए जो लोग इंडियन शीट में बैठ सकते हैं वो इंडियन शीट में बैठने की अपनी आदत को बनाये रखें !
-स्वयं का सत्कर्म, महान पुरुषार्थ, बड़ों का आशीर्वाद, मित्रों का स्नेह महान भाग्य नियामक होता है
- पंडित विनीत शर्मा
ज्योतिषी वास्तु-योग सलाहकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रजरस से ओतप्रोत साहित्यों में श्रीराधाकृष्ण तथा प्रेमतत्व का बड़ा गूढ़ और विशद वर्णन किया है। ब्रजधाम में श्रीकृष्ण का अवतरण तथा उनकी लीलायें अनोखी हैं। ज्ञानीजन भगवान को ब्रम्ह स्वरुप में आराधना करते हैं, जो कि निराकार और निर्गुण है। पर प्रेम के वशीभूत होकर वे अपने सगुण, साकार रुप में भी प्रकट होते हैं और लीलादि के द्वारा प्रेमदान आदि करते हैं। यह ज्ञानियों के लिये तथा ब्रम्हा के लिये भी आश्चर्य था। इसी भाव पर यह नीचे का भाव है, जो कि श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित युगल-रस ग्रंथ के एक कीर्तन का भावानुवाद है -..हे ज्ञानियों! तनिक ब्रज में आकर परम आश्चर्य को देखो। हे ज्ञानियों! जिसे तुम अजन्मा कहते हो, वह तो नंद का पुत्र बना है। जिसे तुम अतनु ब्रम्ह कहते हो, उसने ब्रज में नरवपु धारण किया है। हे ज्ञानियों! जिस ब्रम्ह को तुम निर्लेप कहते हो, वह तो ब्रज में गोपियों का दास बना है.जिसे तुम आनंद ब्रम्ह कहते हो, वह तो ब्रज में यशोदा की गोद में जाने को रो रहा है। हे ज्ञानियों! जिसे तुम सर्वज्ञ ब्रम्ह कहते हो, वह उज्जैन जाकर गुरु के निकट क, ख, ग पढऩा सीख रहा है। जिस ब्रम्ह को तुम निरंजन कहते हो, वह गोपियों के नेत्रों का अंजन बना है।जिसे ज्ञानीजन पूर्णकाम कहते हैं, वह ब्रज में गोपियों के प्रति कामी बना है. ज्ञानी जिसे अदृष्ट कहते हैं, उसे तो ब्रज में सभी देख रहे हैं। जिसे ज्ञानी व्यापक कहते हैं, उसे यशोदा ने ऊखल से बाँध दिया। जिसे सब ज्ञानी जगत को चलाने वाला कहते हैं, वह ब्रज में चलना सीख रहा है।श्री कृपालु जी कहते हैं - ये सब ज्ञानी अधूरे ज्ञानी हैं जिन्हें ब्रम्ह के पूर्ण रुप का ज्ञान नहीं है। ब्रम्ह तो विरोधी गुणों से परिपूर्ण है अत: वह तो अजायमानो बहुधा विजायते है. वह निराकार होते हुये भी साकार है। वह आत्माराम होकर भी प्रेमियों के साथ विहार करता है।ब्रम्ह आनंद रुप होकर भी सीता के वियोग में दु:खी होता है। वह सर्वज्ञ होकर भी पशु-पक्षियों से अपनी प्राण-प्रिया जानकी के विषय में जानना चाहता है-हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी, तुम देखि सीता मृगनयनी।।ज्ञानियों के पूर्णकाम ब्रम्ह ने रास विलास करने की इच्छा से ब्रज में वंशी बजाकर ब्रजांगनाओं को अपने निकट बुलाया -भगवानपि ता रात्रि... .. (भागवत)ज्ञानियों का अदृष्ट ब्रम्ह अपने भक्तों के नेत्रों का विषय बन जाता है। ज्ञानियों का व्यापक ब्रम्ह एकदेशीय बनकर प्रेम के कारण ऊखल बंधन की लीला का आयोजन करता है। प्रेम के कारण ही जगत-चालक को यशोदा ऊँगली पकड़कर चलना सिखाती है। वस्तुत: ज्ञान का फल प्रेम है। प्रेम के अभाव में ज्ञान अपूर्ण है।स्त्रोत: युगल-रस ग्रंथ, कीर्तन संख्या 9 का भावानुवादरचयिता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराजसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
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- दरवाजे: वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में दरवाजों की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4. 6 ,8 , शास्त्र के अनुसार दरवाजे10 इत्यादि !!
- खिड़की : वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में खिड़की की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- वेंटिलेटर: वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में वेंटिलेटर की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- कालम : वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में कालम की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे :- 4 ,6 ,8 ,10 इत्यादि !!
- स्वयं का सत्कर्म पुरुषार्थ बड़ों का आशीर्वाद मित्रों का सहयोग प्रबल भाग्य नियामक होता है
डॉक्टर विनीत शर्मा
चौबे कॉलोनी रायपुर 8435527800
वास्तु-ज्योतिष योग सलाहकार - हिन्दू धर्म के अनुसार सृष्टि के पालनहार कहलाने वाले भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण की सोलह हज़ार एक सौ आठ पत्नियां थीं।दरअसल इसके पीछे पुराणों में एक कथा मौजूद है। जिसके अनुसार एक बार नरकासुर ने हज़ारों राजकुमारियों को अपनी कैद में जबर्दस्ती बंदी बना लिया था। इन राजकुमारियों ने ईश्वर से अपने मुक्त होने के लिए विनती की और जब श्रीकृष्णु ने इन्हें मुक्त कराया तो सभी ने उन्हें अपना पति मान लिया। यही कारण है कि परिस्थिति के आधार पर श्रीकृष्ण को इन सभी राजकुमारियों को अपनी पत्नी स्वीकारना पड़ा। लेकिन इन पत्नियों के अलावा उनकी खास नौ पत्नियां थीं, जिन्हें पटरानी का दर्जा दिया गया था। पुराणों में इन सभी नौ पटरानियों से संबंधित कथाएं भी मौजूद हैं। श्रीकृष्ण इनसे कैसे मिले, कैसे इनका विवाह हुआ, विवाह का कारण क्या था, आदि सभी आशय पुराणों में उल्लिखित हैं। लेकिन कारण जो भी हो, यह नौ पटरानियां श्रीकृष्ण को सबसे अधिक प्रिय थीं। वैसे तो तमाम प्रेम कहानियों में से सबसे पहले श्रीकृष्ण एवं राधाजी का नाम लिया जाता है, लेकिन श्रीकृष्ण की प्रमुख पटरानी के रूप में सबसे पहले रुक्मिणी का नाम लिया जाता है। रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार माना जाता है और श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के कहने पर ही उनका अपहरण किया और फिर उनसे विवाह किया था। भगवान श्रीकृष्णा की दूसरी पटरानी देवी कालिंएदी मानी जाती हैं, जो कि सूर्य देव की पुत्री हैं। पौराणिक तथ्यों के अनुसार देवी कालिंदी ने श्रीकृष्ण को एक वरदान हेतु अपने पति के रूप में पाया था। कहते हैं कि उन्होंने कठोर तपस्या की थी जिसके पश्चात उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने सूर्य से कालिंदी का हाथ मांगा था। भगवान श्रीकृष्ण की तीसरी पटरानी मिूत्रवृंदा हैं जो कि उज्जैन की राजकुमारी थीं। कहते हैं कि वे अत्यंत खूबसूरत थीं जिन्हें श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में भाग लेकर अपनी पत्नी बनाया था।भगवान श्री कृष्ण की चौथी पटरानी का नाम सत्या है, इन्हें भी श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में जीतकर अपनी पत्नी बनाया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार सत्या काशी के राजा नग्नजिपत् की पुत्री थीं,ऋक्षराज जाम्बवंत का नाम पुराणों में श्रीकृष्ण के संदर्भ से काफी बार सुना गया है, पटरानी जामवती उन्हीं की पुत्री थीं।पटरानी रोहिणी को श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में ही जीता था और अपनी पत्नी बनाने के बाद उन्हें छठी पटरानी का दजऱ्ा प्रदान किया। पौराणिक कथा के अनुसार देवी रोहिणी गय देश के राजा ऋतुसुकृत की पुत्री थीं। रोहिणी के अलावा कुछ पौराणिक दस्तावेजों में इनका नाम कैकेयी और भद्रा भी पाया गया है। सत्यभामा राजा सत्राजित की पुत्री एवं श्रीकृष्ण की सातवीं पटरानी कहलाती हैं। पौराणिक तथ्यों के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने सत्रजिकत द्वारा लगाए गए प्रसेन की हत्या और स्यमंतक मणि को चुराने का आरोप गलत साबित कर दिया और स्यमंतक मणिप लौटा दी तब सत्राजित ने सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया। श्रीकृष्ण की आठवीं पटरानी हैं लक्ष्मणा, जिन्होंने स्वयं अपने स्वयंवर के दौरान भगवान श्रीकृष्णि के गले में वरमाला पहनाकर उन्हें अपना पति, चुना था।भगवान श्रीकृष्णा की आखिरी और नौवीं पटरानी का नाम शैव्या है, जो कि राजा शैव्य की पुत्री थीं। इन्हें भी श्रीकृष्ण ने स्वयंबर के जरिए ही अपनी पत्नी बनाया था और विवाह के बाद इन्हें नौवीं पटरानी होने का दर्जा प्राप्त हुआ। कुछ उल्लेखों में इनका अन्य नाम गांधारी भी पाया गया है।------
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य-उत्सव का आनंद और उल्लासआज श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी है। आप सभी श्रद्धालु पाठक समुदाय को भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य-उत्सव की अनंत-अनंत शुभकामनाएं। आइये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित इस पद के भाव के माध्यम से हम सभी ब्रजधाम के गोकुल ग्राम में नंद-यशोदा के महल चलें और बधाई और उल्लास का आनंद देखें और स्वयं भी भाव-मन से इस नंद-महामहोत्सव में सम्मिलित होकर आनंद-रस में भींग जाएं..
नंद-महर-घर बजत बधाई।
जायो पूत आजु नँदरानी, नाचत गावत लोग लुगाई।
दूध दही माखन की काँदौ, सब मिलि भादौं मास मचाई।
बाजत झाँझ मृदंग उपंगहिं, वीना वेनु शंख, शहनाई।
छिरकत चोवा चंदन थिरकत, करि जयकार कुसुम बरसाई।
शिव समाधि बिसराइ भजे ब्रज, देखन के मिस कुँवर कन्हाई।
याचक भये अयाचक सिगरे, हम कृपालु धनि ब्रजरज पाई।।
भावार्थ - गोकुल में नन्दराय बाबा के घर में श्रीकृष्ण के अवतार लेने के उपलक्ष्य में बधाई बज रही है। यद्यपि श्रीकृष्ण का अवतार मथुरा में लीला-रुप से देवकी के गर्भ से हुआ था एवं अर्धरात्रि के ही समय वसुदेव श्रीकृष्ण को उनकी योगमाया के सहारे यशोदा के पास सुला आये, एवं उसी समय यशोदा के गर्भ से उत्पन्न योगमाया को अपने साथ ले आये थे, किन्तु प्रकट रुप से यह रहस्य यशोदा भी नहीं जानती थी, केवल वसुदेव, देवकी ही जानते थे। अतएव समस्त गोकुल ग्रामवासियों को यही ज्ञान रहा कि आज रात को यशोदा के ही गर्भ से श्रीकृष्ण जन्म हुआ है। समस्त गोकुल के नर-नारी नाचते-गाते हुये आनंद विभोर होकर कह रहे हैं कि आज नन्दरानी के लाल हुआ। भादों के महीने में कृष्ण-पक्ष की नवमी तिथि पर समस्त नर-नारियों ने दूध, दही, मक्खन आदि को छिड़कते हुये सारे गोकुल में कीचड़-ही-कीचड़ कर दिया। झांझ, मृदंग, उपंग, वीणा, मुरली, शंख, शहनाई आदि विविध प्रकार के बाजे बजने लगे। चोवा, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों को एक दूसरे पर छिड़कते हुये नाच-नाचकर पुष्प-वर्षा करते हुये कन्हैया की जयकार करने लगे। शंकर जी भी अपनी निर्विकल्प समाधि भुलाते हुए अपने इष्टदेव, प्रेमावतार यशोदा के लाल कुंवर कन्हैया के दर्शन के लिये शिवलोक से भागे-भागे गोकुल चले आये। जिसने जो कुछ भी मांगा उस याचक को वही दिया गया। श्री कृपालु जी कहते हैं कि जिनको बड़ी-बड़ी चीजें मिली वह अपनी जानें, हम तो ब्रज की धूल ही पाकर कृतार्थ हो गये।(पद स्त्रोत -प्रेम रस मदिरा ग्रंथ, श्रीकृष्ण बाल लीला माधुरी, पद संख्या- रचयिता -भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली) - उत्तम संतान आप चाहते हैं तो वास्तु शास्त्र के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के बाल गोपाल रूप की फोटो अपने पूजा स्थल में लगाएं।-ईशान कोण में पूजा स्थल में भगवान श्री कृष्ण की फोटो विधिवत लगाकर श्रद्धापूर्व पूजा करें।- उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु द्वादश अक्षर मंत्र ओम नमो भगवते वासुदेवाय का आस्था श्रद्धा और समर्पण से जाप करें।-किन्हीं कारणों से संतान नहीं हो पा रही हो तो भगवान श्री कृष्ण को याद करते हुए अत्यंत श्रद्धा के साथ संतान गोपाल मंत्र का जाप करें ।- वहीं जीवन में अच्छे मित्र बनाने तो आपको कृष्ण और सुदामा की फोटो अपने ड्राइंग रूम में लगानी चाहिए।-अगर आपके बच्चों के साथ आपसी सम्बन्धों में कोई समस्या है तो मां यशोदा और भगवान श्री कृष्ण की फोटो शयन कक्ष में जरुर लगायें ।- भगवान श्री कृष्ण आजीवन श्री गायत्री मंत्र के उपासक रहे। पूर्व दिशा की दीवारों पर शुभ गायत्री मंत्र को लिखवाने से योगकारक होगा!-वास्तु संबंधित बहुत बड़ा दोष हो तो गौ माता की नियमित आस्था पूर्वक सेवा करें। श्री कृष्ण जी को गाय से विशेष लगाव रहा है। बाल्यावस्था से श्री कृष्ण गोपालो और गायों के ही बीच रहे हैं। ।-स्वयं के सत्कर्म परमार्थ महान पुरुषार्थ बड़ों का आशीष प्रबल भाग्य नियामक होते हैं।शेष श्री ईश्वर कृपा वास्तु कृपाडॉ. विनीत कुमार शर्मा, वास्तु , ज्योतिषी सलाहकार
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने श्री राधाकृष्ण भक्ति परक अनेकानेक ब्रजरस-साहित्य की रचना की है। इन कृतियों में उन्होंने श्रीराधाकृष्ण की परम निष्काम भक्ति को ही स्थान दिया है तथा प्रमुखत: श्रीयुगल लीलाओं के साथ श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य एवं सख्य भावयुक्त लीला-पदों एवं संकीर्तनो की भी रचना की है, जो कि जीवों के हृदय में सहज में ही प्रेम तथा उनके प्रति अपनत्व की भावना का सृजन करते हैं तथा उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाते हैं।आइये श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी से पूर्व उन्हीं के द्वारा रचित ग्रंथ; युगल रस में वर्णित एक संकीर्तन के माध्यम से श्रीकृष्ण का रूपध्यानपूर्वक चिंतन करें। यहां उस संकीर्तन का केवल भावार्थ वर्णन है-...भक्त कहता है, श्रीकृष्ण के समान तो केवल श्रीकृष्ण ही हैं। माता यशोदा ने कन्हैया को जन्म दिया वस्तुत: वह कृष्ण अनोखा ही था।उस यशोदा-नन्दन का दिव्य वपु अलसी पुष्प के समान श्याम वर्ण था। वह कन्हैया अपने अलौकिक रुप से कामदेव के मन को भी हरण करता था। कन्हैया के प्रत्येक रोम से ब्रज-रस की वर्षा होती थी, रसिक-जन उस मधुर रस का पान करते थे।कन्हैया के शीश पर अनोखा मोर-मुकुट सुशोभित था। यशोदा के अनुपम शिशु की घुंघराली लट मुख-चन्द्र को घेरे रहती थीं। साक्षात रस से भी अधिक रसपूर्ण नेत्र चंचलता से भी चंचल थे। रत्नों से जड़े हुये कुंडल कानों में शोभा पाते थे। नासिका बेसर से छवि पा रही थी। उस अनोखे शिशु की मन्द-मन्द गति चपल चितवनि, एवं मुस्कान आश्चर्य से परिपूर्ण थीं। युगल स्कन्ध दुपट्टे से आच्छादित थे।लकुटी कर में शोभा पा रही थी। कण्ठ कौस्तुभ मणि से देदीप्यमान था। हाथों में कंकणों की दमक थी। सूक्ष्म कटि प्रान्त किंकिणी की जगमगाहट से परिपूर्ण था। कन्हैया के चरण-प्रान्त नूपुर की छूम छननन ध्वनि से झंकृत थे। ग्रीवा कमर एवं चरण की तिरछी भंगिमा रसिकों के मन को मोहती थी। अरुण अधरों पर मुरली विराजमान थी। श्री कृपालु जी कहते हैं कि ऐसे रस सागर कृष्ण को सखियां प्रेम-वश काला कहती हैं।(रचयिता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(स्त्रोत-जगद्गुरु श्री कृपालु विरचित युगल रस संकीर्तन पुस्तक से, कीर्तन संख्या 42सर्वाधिकार सुरक्षित -जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
- हरकिमर हीरे दोहरे टर्माइटेड क्वाट्ज क्रिस्टलों को कहते हैं, जो देखने में एकदम असली हीरे जैसे लगते हैं। इनकी खोज सर्वप्रथम न्यूयॉर्क के हरकिमर काउण्टी स्थित लिटिल प्रपात एवं मोहॉक नदी घाटी से प्राप्त डोलोमाइट से हुई थी। 1700 के दशक के अंत में मोहॉक घाटी में इनकी बड़ी मात्रा प्राप्त हुई और तब ये बहुत प्रचलित हुए थे। भूगर्भशास्त्रियों ने हरकिमर काउंटी में इन्हें खुले में ही पाया और वहीं खोज व खनन आरंभ किया। यही से सबसे खास क्लीपर क्वाट्र्ज स्टोन भी सबसे पहले मिला था, वहीं से इनको अपना वर्तमान नाम भी मिला। ये खूबसूरत नगीने हूबहू हीरों की तरह लगते हैं, लेकिन असल में हैं ये क्वाट्र्ज । इसीलिए ड्रीम स्टोन भी कहलाते हैं।कहीं-कहीं स्मोकी हरकिमर का प्रयोग इमारतों की बाहरी शोभा बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। मात्र सजावट के लिए नहीं, बल्कि विद्युत चुम्बकत्व या भौगोलिक प्रदूषण की मार से बचाने के लिए भी ये प्रयोग किया जाता है। फेंग्शुई में भी हरकिमर का बखान आता है। इसके अनुसार हरकिमर को आसपास रखने से ऊर्जा की आवश्यकता वाली जगहों पर लगाने की समझ आती है। अपने शयन-कक्ष, अध्ययन कक्ष या कार्यालय के उत्तर पूर्व दिशा में हरकिमर रखने से ज्ञान और समझ ग्रहण करने हेतु ऊर्जा ग्रहण करने की गति तेज होती जाती है।लोगों की मान्यता अनुसार इसके द्वारा सोच-विचार, ऊर्जा और संतुष्टि की गहरी भावना बढऩे और फिर समाने लगती है। हरकिमर बेहतरीन हीलिंग स्टोन के रूप में भी प्रसिद्ध हुआ है। यह दैनिक जीवन की समस्याओं, दबाव यानी स्ट्रेस और तनाव को नियंत्रण में रखते हुए इनसे जुड़े रोगों से प्रतिरक्षा करता है। शारीरिक हानि होने से पूर्व ही लक्षणों को भांप कर, हरकिमर पहनने या संग-अंग रखने वाला सचेत होने लगता है। किसी भी राशि वालों को इसे पहनने की मनाही नहीं है। यह वृश्चिक, कर्क और सिंह राशियों का जन्म-रत्न है।
- किसी भी मकान का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किए जाने से घर स्वामी पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।- अनुकूल शास्त्र के अनुसार मकान में सीढ़ी की संख्या को विषम रखनी चाहिए जैसे 17 ,19 ,21।- वास्तु शास्त्र के अनुसार ईशान कोण में पूजा का स्थान , पुस्तकालय ,लाइब्रेरी, अध्ययन कक्ष ,योग का क्षेत्र और ध्यान का रूम होना शुभ माना जाता है।-आदर्श वास्तु में घर का मास्टर बैडरूम साउथ वेस्ट में होना योग कारक माना गया है।- बाथरूम बनाते समय पहली प्राथमिकता वायव्य कोण को दें। उसके बाद द्वितीय पश्चिम और तृतीय प्राथमिकता दक्षिण भाग को दें।- वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में दरवाजों की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे कि- 6 ,8 ,10 इत्यादि ।- वास्तु दोष होने पर गौ माता को पूरे प्लॉट में भ्रमण करवाएं और यथासंभव गौ माता की सेवा करें।- छत के निर्माण के समय लगभग 27 दिनों तक छत में पानी भरे रहना चाहिए। यह मंगल का अंक है और यह शुभ होता है।- वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में खिड़की की संख्या को सम रखनी चाहिए जैसे - 6 ,8 ,10 इत्यादि ।शेष ईश कृपा वास्तु देव कृपासर्वे भवंतु सुखिनडॉ. विनीत कुमार शर्मा, वास्तु और ज्योतिषी सलाहकार