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- - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाविश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संसार में सुख होने के विश्वास की हमारी भ्रामक भूल के प्रति ध्यान दिलाते हुये सारगर्भित महत्वपूर्ण प्रवचन, जिससे हम यह जान सकेंगे कि भगवान की राह पर हमारा उत्थान क्यों नहीं होता, कैसे उस रुकावट को हटाकर हम शीघ्रता से आगे बढ़ सकते हैं ::::::::(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से हैं...)...एक सच्चा संत कभी किसी को सांसारिक पदार्थों की ही प्राप्ति को सम्मति नहीं देता क्योंकि एक मायाबद्ध जीव के लिए अज्ञान हो सकता है लेकिन एक सन्त (जो कि भगवत्प्राप्ति कर चुका हो) उसके लिए सब कुछ शीशे की तरह साफ़ होता है, वो जानता है कि सार क्या है?हम लोगों ने तो अनादिकाल से संसार में, संसारी वस्तुओं में ही सुख है, ये माना हुआ है और यहीं पर हमारी गाड़ी अटकी पड़ी है। अनादिकाल से अब तक हमने ये ही किया है, संसारी भोग पदार्थों में ही सुख है, ये बात संस्कार रूप से हमारे अंदर बैठी हुई है और बड़े होते- होते भी हम ये ही देखते हैं जिससे हमारी ये धारणा और पुष्ट होती जाती है, जबकि हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि संसारी सुख (जो कि जड़ है) प्रतिक्षण घटता जाता है, उसे सुख नहीं कहा जा सकता, उसे तो मृग-मरीचिका ही कहा जा सकता है।जिस तरह एक व्यक्ति एक रूपये के नोट को नहीं देना चाहता लेकिन यदि उसे उस एक रूपये के नोट के बदले हजार रूपये का नोट दिया जाय तो वो उस एक रूपये के नोट को छोड़ देता है, ऐसे ही यदि हमें इस संसार में सुखबुद्धि से ऊपर उठना है तो हमें भगवान की भक्ति का आश्रय लेना होगा, भक्ति करते करते जब अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा और उसमें भगवत्कृपा से भगवान का प्रेम प्रकट होगा तब हमें उसी अनुपात में दिव्य, प्रतिक्षण वर्धमान, अनंत भगवद आनंद का अनुभव होता चला जाएगा और त्यों ही त्यों उसी अनुपात में हम इन संसारी गर्हित, तुच्छ आनंद को छोड़ते चले जायेंगे, हमें इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ेगी, संसार अपने आप छूटता चला जाएगा, हम उत्तरोत्तर ऊपर उठते चले जायेंगे, हर साधक को साधना के दौरान इसका अनुभव होता है।जो लोग ये बात समझ जाते हैं वे मानव जीवन के अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं और वे ही लोग तुलसीदास, मीरा, नानक, सूरदास, कबीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि बन जाते हैं, हमने ये बात नहीं समझी इसलिए हम लोग आज भी संसारी वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं।हमारा ये अज्ञान यहां तक है कि हम लोग मंदिर भी जाते हैं तो वहां भी भगवान के सामने भी संसार की ही कामना किया करते हैं कि भगवान हमें पुत्र दो, रूपये दो, नौकरी दो आदि आदि। हमने अभी समझा ही नहीं है कि सुख कहा हैं? संसारी वस्तुओं की कामना करना ऐसा ही है जैसे शुगर का मरीज अपनी बीमारी भी ठीक करना चाहे परन्तु और उत्तरोत्तर मीठा खाता चला जाय, ऐसे तो बीमारी और बढ़ती चली जायेगी। अनादि काल से हमने अब तक ये ही किया है, संत लोग ये बात समझते हैं इसलिए वो संसारी चीजों को ही लक्ष्य बनाने की सम्मति कभी नहीं देते, बल्कि वे तो निष्काम भक्ति के लिए जीव को प्रेरित करते हैं।अगर कोई संत कहलाने वाला व्यक्ति अध्यात्म की आड़ लेकर संसारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए जनसमुदाय को उत्साहित करता है तो समझ लेना चाहिए कि वो व्यक्ति संत नहीं है, संत के भेष में पाखंडी है, धूर्त है। आजकल हमारे देश में ऐसे बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। ये धूर्त भोली भाली जनता को संसार देने का वादा करते हैं। भारत भूमि में आज तक हुए सभी वास्तविक संतजनों ने निष्काम भक्ति का ही प्रचार किया है और जीवों की संसार में सुखबुद्धि को हतोत्साहित करने का काम किया है। क्योंकि जब तक जीव की संसार में सुखबुद्धि बनी रहेगी तब तक जीव भगवान की तरफ नहीं चलेगा, अगर चलेगा तो बार-बार गिरेगा। इसलिए लोगों को संसार के दोषों का बार-बार चिंतन करते रहना चाहिए।
(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से गुरु उपदेशों के प्रति साधक के कर्तव्य तथा उसकी लापरवाही के सम्बन्ध के संबंध में कुछ मार्गदर्शन ::::::::(उनके द्वारा नि:सृत वाणी यहां से है....)....हमको जो सुख मिलता है, वो आत्मा का सुख नहीं है मन का है और लिमिटेड है और वो नश्वर है। तमाम गड़बडिय़ां हैं उसमें। जो भी सुख हमको मिलता है संसार में वो सदा नहीं रहता। ये तो अनुभव करता है आदमी। भूख लगी है रसगुल्ला खाया सुख मिला। उसमें भी पहले रसगुल्ले में ज्यादा सुख मिला, दूसरे में उससे कम, तीसरे में उससे कम, चौथे में खतम। जिस वस्तु से सुख मिलता है उससे भी हमेशा एक सा नहीं मिलता। धीरे-धीरे घटता जाता है और फिर उसी से दु:ख मिलने लगता है। ये भी होता है। स्वार्थ हानि हुई कि दु:ख। उसी बीवी से प्यार और उसी बीवी की शकल देखने से नफरत हैं। उसी बेटे से प्यार है और उसी से झगड़ा हो गया या कोई अपमान कर दिया पिता का तो उससे बातचीत करना बन्द। तो संसार का सुख तो अगर थोड़ा है और सदा रहे तो भी कोई बात है। वो तो आया गया, धूप-छाँव की तरह।तो ये सब बातें हमेशा बुद्धि में बैठी रहें। कभी बैठती हैं कभी गायब हो जाती हैं, फिर संसार में बह जाता है वो लापरवाही से।तत्त्वविस्मरणात् भेकीवत्।
भूल गया। तो फिर क्या होगा?बहुत बचपन की बात है। एक व्यक्ति डायरी रखता था हमेशा। उसको भूलने की आदत थी, तो उसमें लिख ले। तो हमने कहा - एक बात बताओ, वो डायरी में लिख लेता है और अगर डायरी पढऩा भूल जाय तो वो लिखा हुआ क्या करेगा? डायरी में कोई लिख ले क्यों लिख ले? भूल जायेगा। बढिय़ा तरकीब है। अच्छा जी! ये तरकीब अगर बढिय़ा है लेकिन वो पढऩा भूल जाय तो? अरे! जब भूल जाय, तो सभी कुछ भूल सकता है। तो फिर तुम्हारा लिखना ये क्या काम करेगा?तो हम तत्व को भूल जाते हैं। जिस समय गुरु का उपदेश होता रहता है तो समझ में सब बात आती है पढ़े लिखे आदमी को। वो मानता है, एडमिट करता है, सब सही है और फिर संसार के एटमॉसफियर में गया और भूल गया। तो उसमें सावधान रहना चाहिये और बार-बार मन को पकड़ करके बुद्धि के द्वारा हरि गुरु के चरणों में लगाते रहना चाहिये। तो अभ्यास करने से पक्का हो जायेगा।पुस्तक सन्दर्भ - प्रश्नोत्तरी, भाग - 3; जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज तथा साधकों मध्य प्रश्नोत्तर पर आधारित।सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा सम्बन्धी लेख :::::::जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज -प्रवचन शैलीभारतवर्ष के 500 शीर्षस्थ विद्वानों की तत्कालीन सभा काशी विद्वत परिषत ने जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को जब पंचम मौलिक जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की, तब उन्होंने अपने पद्यप्रसूनोपहार में उनके लिये यह श्लोक कहा था;यद्व्याख्याननवीनमेघपटलध्वानेन चित्ताटवी नास्तिक्योपहतात्मनामपि मुदा सूक्ते विवेकाङ्कुरम।स्फूर्जत्तर्कविचारमंत्रनिवहव्यक्षिप्तदुर्भावना-भूतावेशविषश्चिरं विजयतामेकोयमीड्यो नृणाम।।(पद्यप्रसूनोपहार, काशी विद्वत परिषत, 1957)अर्थात... श्री कृपालु जी का प्रवचन नूतन जलधार की गर्जना के समान है। यह नास्तिकता से पीडि़त मन की व्यथा को हरने वाला है। प्रवचन को सुनकर चित्त रूपी वनस्थली दिव्य भगवदीय ज्ञान के अंकुर को जन्म देती है, कुतर्कयुक्त विचारों से विक्षप्त तथा दुर्भावना से पीडि़त मनुष्यों की रक्षा करने में श्री कृपालु जी महाराज अमृत औषधि के समान हैं। उनकी सदा ही जय हो...श्री राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरुप भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दिव्यातिदिव्य प्रवचनों का रसास्वादन देश विदेश के लाखों धर्म-पिपासु जन प्रत्येक दिन कर रहे हैं। प्राचीन ब्रजरस महारसिकों ने जो श्री राधाकृष्ण की दिव्य लीलाओं की रसवृष्टि ब्रज में की थी, उसी परंपरा में आचार्यश्री का प्रवचन संकीर्तन आदि का स्वरुप है।जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के महान दार्शनिक, महान विद्वान एवं महान संत थे। आपके प्रवचनों को सुनते समय ऐसा अनुभूत होता है कि आपके श्रीमुख से नि:सृत एक एक शब्द मानों स्वयं साक्षात् रुप में चारों वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति, गीतादि प्रकट होकर बोल रहे हों। आपकी भाषा शैली पूर्णत: शुद्ध एवं आकर्षक है। आपको अनेक भाषाओं जैसे संस्कृत, हिंदी, अरबी, फ़ारसी एवं उर्दू का पूर्ण ज्ञान है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों और धर्मग्रंथों पर भी आपका पूर्ण अधिकार था। उन्होंने शास्त्र-वेदों के अथाह ज्ञान का निचोड़ निकालकर हमारे समक्ष रख दिया है, जिन्हें कई जन्मों में स्वयं पढ़कर नहीं समझा जा सकता है।जनमानस उनके प्रवचन सुनकर यह अनुभव कर लेता है कि जीवन को जीने के लिये न केवल भौतिकवाद बल्कि आध्यात्मवाद का भी समन्वय अपने जीवन में लाना होगा।यह बात उल्लेखनीय है कि,(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रम्हसूत्र, गीता आदि के प्रमाणों के नंबर इतनी तेज गति से बोलते थे कि सभी श्रोता जिसने भी उनके प्रवचन सुने, चाहे टीवी के माध्यम से, चाहे व्यक्तिगत रुप से वह हृदय से स्वीकार करता है कि ऐसी अलौकिक प्रतिभा संपन्न विद्वान आज तक नहीं हुआ। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ होने में तो कोई संदेह है ही नहीं, ये तो कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम् ही हैं।(2) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बताई है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडिटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रूपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान् के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान् के किसी एक रुप पर केंद्रित करने का नाम ही ध्यान या भक्ति है क्योंकि भगवान् के ही एक रुप पर मन को न टिकाने से मन यत्र तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान् को तो देखा नहीं, तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है आदि बातों को - भक्तिरसामृतसिन्धु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रम्हसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ प्रेम रस सिद्धांत में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।श्रोताओं के मुख से -जब श्रोता उनको टीवी पर सुनते हैं और अचानक समय पूरा होने के कारण प्रवचन या कीर्तन बंद हो जाता है तो वे ऐसा अनुभव करते हैं मानो किसी प्रीतिभोज में वे अपनी सबसे प्रिय वस्तु का सेवन कर रहे हों और कोई अचानक आकर उनसे छीन ले। जिस दिन प्रवचन नहीं सुन पाते तो ऐसा लगता है जैसे आज का दिन व्यर्थ चला गया हो। जब कभी कुछ सौभाग्यशाली श्रोता श्री महाराज जी के दर्शन के लिए आते तो कहते - 'महाराज जी ! आपने हमारे कान, आँख, सब खऱाब कर दिए। आपको सुनने के पश्चात् किसी और का सुनना अच्छा ही नहीं लगता बल्कि आपके प्रवचन सुन सुनकर इतना तत्वज्ञान आपकी कृपा से हो गया है कि और कोई बाबा बोलता है तो लगता है कि गलत बोल रहा है, नामापराध न हो जाय इस भय से और कुछ सुनना ही बंद कर दिया..-अद्वितीय प्रवचन श्रृंखलाएं :::::(1) मैं कौन? मेरा कौन? - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस विषय पर 103 प्रवचन दिये हैं, जिसमें उन्होंने मैं अर्थात जीवात्मा तथा मेरा अर्थात जीवात्मा के सर्वस्व भगवान के मध्य सम्बन्ध सहित आध्यात्म जगत के सम्पूर्ण तत्वों का वेदादिक सम्मत विवेचन इस 103-प्रवचन की अद्वितीय श्रृंखला में किया है।(2) ब्रम्ह, जीव, माया तत्वज्ञान - तीन सनातन तथा अनादि तत्वों ब्रम्ह, जीव तथा माया; इन पर जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने 40-प्रवचन दिये हैं।इनके अलावा भी अनगिनत आध्यात्मिक विषयो पर प्रवचन श्रृंखलाएँ, स्वरचित पदों की तथा स्वरचित दोहों की व्याख्याओं के अनगिनत प्रवचन उन्होंने अपने अवतारकाल में जीवों के कल्याणार्थ दिये हैं। जिनमें जनमानस को यह बड़ी सरलता से ज्ञात हो जाता है कि वह आजपर्यन्त क्यों दु:खी है, संसार क्या है, कैसे वह सुख की प्राप्ति करेगा, भगवान कौन हैं और भगवान से उसका संबंध क्या है, कैसा है और कैसे भगवान को वह पावे? यदि कोई निरन्तर गंभीर तथा चिन्तनशील होकर उन्हें श्रवण करे तो निश्चय ही अज्ञान का समूल नाश होकर हृदय ज्ञान तथा भगवत्प्रेम से सराबोर हो जायेगा।भारत में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के टीवी पर आने वाले प्रवचनों का समय -
न्यूज 18 इंडिया -प्रतिदिन सुबह 6.00 से 6.25 बजेन्यूज 24 -सोम से शुक्र, सुबह 6.25 से 6.50 बजेभारत समाचार - प्रतिदिन सुबह 6.50 से 7.15 बजेसाधना चैनल -प्रतिदिन सुबह 8.05 से 8.30 बजेआस्था चैनल - प्रतिदिन शाम 6.20 से 6.45 बजेसंस्कार चैनल -सोम से शनि, रात्रि 8.30 से 8.55 बजेनोट - कार्यक्रम परिवर्तनशील हैं, वर्तमान दिनांक तक के अनुसार समय-सारणी का यह विवरण है।
(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा संबंधी श्रृंखला :::::::::- निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य जगदगुरुत्तम 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराजजगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् हैं, जिनकी 30 अक्टूबर (शरद पूर्णिमा) को 98 वीं जयंती है। उनके जन्मदिवस को विश्व में जगद्गुरुत्तम्-जयंती के रुप में मनाया जाता है। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरुप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत परिषत के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें विद्वत परिषत आमंत्रित किया। जहां काशी विद्वत परिषत ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रुप प्रस्तुत किया।(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें कंप्यूटर जगद्गुरु की संज्ञा दी है।(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरुप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुत: शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंत:करण शुद्धि के लिए कहा था -शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।(प्रबोध सुधाकर)अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि नहीं हो सकती।उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि:।अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम।।अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए। हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्णभक्त ही थे।(6) जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा - गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।ऐसे जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरुप को देखकर काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोसणा करते हुए कहा था -...इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं...साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -...शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं। इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..इसी प्रकार जगद्गुरुत्तम की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी पाकर जगद्गुरु की उपाधि ने सम्मान पाया है।आपकी इस विश्व को दिए गए समस्त उपहार अनमोल और अद्वितीय हैं, और अनंत युगों तक रहेंगे. वे जीव धन्यातिधन्य हैं जिन्होंने आपको गुरु रुप में पाया और प्यार किया है।(सन्दर्भ -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य में विशेषांक जैसे जगदगुरुत्तम (अवतारगाथा), भगवत्तत्व तथा अन्य साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचनों में से साधनोपयोगी 5 सार बातें :::::::(1) जिस साधक की जितनी ऊंची स्प्रिचुअल कक्षा होगी, उसी लिमिट में श्यामसुन्दर उसको अच्छे-बुरे दिखाई देंगे।(2) अगर मूर्ति में पूर्ण भगवान होने की भावना नहीं है और मूर्ति पूजा की, तो उसको भगवतपूजा न कह कर पत्थर पूजा कहेंगे।(3) जीव के शरीर और उसकी चित्तवृत्ति का कोई भरोसा नही है। अत: किसी का अहंकार श्रेयस्कर नहीं है।(4) हमारा संबंध केवल श्रीकृष्ण से ह। उस संबंध को पक्का करेगी भक्ति। पुरस्कार मिलेगा प्रेम। उसका अंतिम लाभ मिलेगा सेवा।(5) भगवान का कोई भी कार्य अमंगलकारी नहीं है फिर माया हमारा अमंगल कैसे करेगी? माया का झापड़ खाकर ही हमें संसार से वैराग्य होता है, हम ईश्वर की ओर बढ़ते हैं।(संदर्भ- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिठ्ठस्रठ्ठके आधीन।)
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधानसाधक का प्रश्न -हरि गुरु के प्रति अब तक पूर्ण शरणागति क्यों नहीं हुई ?(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर)कभी कभी गुरु के खिलाफ सोचने लगते है। कभी शास्त्र वेद पर अश्रद्धा होने लगती है। कभी संसार मीठा लगने लगता है। अगर संसार मीठा लग रहा है तो वैराग्य नहीं और वैराग्य नहीं तो श्रद्धा नहीं। श्रद्धा का आधार है वैराग्य!जब सेंट परसेंट और निरंतर; दो शब्दों पर ध्यान दीजिए। सेंट परसेंट और निरंतर ये डिसीजन बना रहे। संसार में सुख नहीं है, उसके लिए भागें ना। मम्मी का प्यार, पापा का प्यार, बेटी का प्यार, बेटा का प्यार, खाने का, रसना का रोग, ये खायें, ये खायें, ये पीयें, देखने का रोग, सूंघने का रोग, स्पर्श करने का रोग अगर है तो वैराग्य कम्प्लीट नहीं, तो श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं तो, श्रद्धा भी कम्प्लीट नहीं है।इस प्रकार चेक करो और जहां मिस्टेक समझ में आए उसको काटो। और अगर ऐसा सोचा कि जैसे चल रहा है चलने दो तो लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी? एक दिन ये मानव देह छिन जाएगा, बिना बताए, धोखा देखे। सबसे बड़ा धोखेबाज काल है।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(सन्दर्भ -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहा तथा उसकी व्याख्या, उनके द्वारा यह प्रवचन वीरगंज, नेपाल में 8 दिसम्बर सन 2006 को दिया गया था। आइये हम सभी अपने आत्मकल्याण हेतु इस प्रवचन से लाभ लेवें :::::::::(स्वरचित दोहा व्याख्या)दैन्य भाव रूपध्यान गोविन्द राधे।श्यामा श्याम कीर्तन उनसे मिला दे।।3 बात समझना है, 3 काम करना है। 3 काम करना है, नंबर एक दीन भाव, नंबर दो रूपध्यान, नंबर तीन श्यामा श्याम का नाम, रूप, गुण, लीलादि संकीर्तन। तो एक तो आप लोग करते हैं, इन 3 में से एक करते हैं आप लोग, श्यामा श्याम नाम, रूप, गुण, लीलादि कीर्तन। किन्तु 2 नहीं करते। उन दोनों के बिना केवल कीर्तन करना रसना से ऐसा ही है जैसे प्राणहीन शरीर, मुर्दा।वेद से लेकर रामायण तक हर ग्रंथ, हर संत, हर पंथ एक बात कहता है कि दीन भाव रखो। भगवान का स्मरण मन से, फिर इंद्रियों से करो। रसना से भगवन्नाम लो, हाथ से पूजन करो, कुछ करो, लेकिन इसके पहले दीन भाव और रूपध्यान, ये 2 सबसे प्रमुख हैं। गौरांग महाप्रभु ने कहा कि दीनतायुक्त कीर्तन होना चाहिए। तो शिष्यों ने पूछा कि किस तरह की दीनता? तो उन्होंने बताया -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।(शिक्षाष्टक)तृण से बढ़कर दीन भाव, तृण घास, घास के ऊपर पैर रख दो तो घास झुक जाएगी। अब तुम पैर रख के आगे चले गए वो बेचारी झुक गई और फिर धीरे धीरे, धीरे धीरे नॉर्मल हुई, पैर रखने पर। वृक्ष कितना सहिष्णु है, छोटा होता है तो कोई जानवर आया, खा गया। बड़ा हुआ, फल लगा, पक्षी आ-आकर खा गए, मनुष्य तोड़-तोड़ के खा गए, लकड़ी काट-काट के अपनी बिल्डिंग बना रहे हैं लोग, वृक्ष सहन कर रहा है। उसे खुशी हो रही है कि हमसे किसी को सुख मिल रहा है।तो दीनता जितनी अधिक होगी उतने ही हम भगवान् के समीप पहुँचेंगे, ये स्वर्ण अक्षरों में लिख लो। आप लोग सोचते हैं कि आँसू नहीं आते, कीर्तन करते हैं, आँसू के बिना कीर्तन, कीर्तन नहीं है, तोता रटन्त है, वो तो। जहाँ मन रहेगा उसी का फल भगवान् देते हैं। इंद्रियों का वर्क तो भगवान् नोट ही नहीं करते। लाखों करोड़ों मर्डर किया, अर्जुन ने, हनुमान जी ने, भगवान् ने नोट ही नहीं किया क्योंकि उनका मन भगवान् में था। शरीर का कर्म तो निरर्थक होता है, उसे एक्टिंग कहते हैं, एक्टिंग। जैसे मन्दिर में जा के आप लोग बोलते हैं न -
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।(स्कन्द पुराण)ये क्या है, भगवान् को बेवकूफ बना रहे हो। तुम कहते हो तुम्हीं मां हो, तुम्हीं पिता हो, तुम्हीं मेरी धन-दौलत हो और तुम्हारे मन का अटैचमेंट संसारी मां, पिता और प्रॉपर्टी, धन-दौलत में है और भगवान् से कहते हो तुम ही मेरे हो। एव माने ही। तो दीनता-नम्रता ये सबसे पहला काम। पहला अध्याय भक्ति के विषय में।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन से नि:सृत)
(सन्दर्भ - कृपालु भक्ति धारा (भाग - 3) पुस्तक, पृष्ठ 175, 176सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलासमस्त देहों में मनुष्य का देह अत्यन्त दुर्लभ है। यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। इसका महत्व सभी शास्त्रों ने गाया है क्योंकि यही देह भगवान को पाने का साधन है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपने प्रवचनों, ग्रन्थों, रचनाओं में मानव-देह की महत्वता, क्षणभंगुरता आदि पर अनगिनत बार प्रकाश डाला है तथा मानव-समुदाय को बार-बार चेताया भी है। आज उन्हीं के द्वारा सुरचित प्रेम-रस-मदिरा नामक विलक्षण पद-ग्रन्थ में वर्णित एक पद के माध्यम से मानव-देह के महत्व पर विचार करने का प्रयास करेंगे -प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ के,- सिद्धान्त माधुरी खण्ड से
मिलत नहिं नर तनु बारम्बार।कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार।उलटो टांगी बाँधि मुख गर्भहिं, समुझायेहु जग सार।दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नंदकुमार।भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार।यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार।।भावार्थ - यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता। दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं। मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं। जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूंगा। जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है। श्री कृपालु जी कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो।( प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी - पद संख्या 77)(पद एवं ग्रन्थ रचनाकार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
(सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन) - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग के परमाचार्य हैं, पंचम मूल जगदगुरुत्तम हैं। उन्होंने इस युग में आनंदप्राप्ति तथा दु:खनिवृत्ति के लिये एकमात्र भक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की है। इस हेतु उन्होंने अपने अवतार-काल में अनगिनत प्रवचन दिये तथा अनेकानेक भक्ति सम्बन्धी साहित्यों को प्रगट भी किया। उनके द्वारा प्रगटित भक्तिपरक ग्रन्थों में से एक है, भक्ति-शतक! इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने भक्ति-तत्व की व्याख्या में 100 दोहों की रचना की है तथा समस्त वेदादिक ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा उनकी व्याख्या करके जनमानस को भक्ति के प्रत्येक रहस्य से अवगत कराया है। आज इसी अद्वितीय ग्रन्थ में से एक दोहा तथा उसकी व्याख्या से हम कुछ आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे :::::::
भक्ति-शतक ग्रन्थ से..- दोहा संख्या 57 तथा उसकी व्याख्या(दोहा)हरि हरिजन के कार्य को, कारण कछु न लखाय।पर उपकार स्वभाव वश, करत कार्य जग आय।।दोहे का अर्थ - भगवान् एवं महापुरुषों के किसी भी कार्य का एक ही कारण है, वह यह कि उनका स्वभाव ही केवल परोपकार का होता है।व्याख्या - वेद कहता है,पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।(ईशावास्योपनिषद)अर्थात् भगवान् अनंत मात्रा का पूर्ण होता है। अत: पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। ऐसे भगवान् के किसी भी कार्य में स्वार्थ होने का ही प्रश्न नहीं उठता। इसी प्रकार भगवत्प्राप्त महापुरुषों के विषय में वेदव्यास कहते हैं। यथा,गुणातीत: स्थितप्रज्ञो विष्णुभक्तश्च कथ्यते।एतस्य कृतकृत्यत्वाच्छास्त्रमस्मान्निवर्तते।।(वेदव्यास)अर्थात् भगवत्प्राप्ति पर जीव कृतकृत्य हो जाता है। उसे पुन: कुछ भी करना अवशिष्ट नहीं रहता। यदि रहता भी है तो स्वार्थरहित श्रीकृष्ण सेवा कार्य ही करना होता है। और यह अवस्था अनंतकाल तक बनी रहती है। यथा वेद,सदा पश्यन्ति सूरय: तद्विष्णो परमं पदम।(सुबालोपनिषद, छठा मन्त्र एवं मुक्तोपनिषद्)
सोश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रम्हणा विपश्चितेति।(तैत्तिरियोपनिषद् 2-1)अस्तु उपर्युक्त वैदिक प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि हरि एवं हरिजनों का कार्य केवल परोपकार के कारण ही होता है। यदि परोपकार उनका स्वभाव न होता, तो विश्व का एक भी मायाधीन जीव अपना लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति) न प्राप्त कर पाता।(ग्रन्थ रचनाकार - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार दिनांक 23 सितम्बर को प्रात: 08:20 मिनट पर राहु मिथुन राशि से वृष राशि में गोचर करेगा। वृष का स्वामी शुक्र है। सभी को संकटों से थोड़ी राहत मिल सकती है। राहु 12 अप्रैल 2022 तक इसी राशि में रहेगा। इसका प्रभाव प्रत्येक राशियों पर पड़ेगा। यह गोचर वृष व वृश्चिक राशि के लिए थोड़े संघर्ष के बाद सफलता का है। मिथुन व कन्या राशि के लोग व्यवसाय में सफलता की प्राप्ति करेंगे। सिंह व मीन के लोग जॉब को नई दिशा देंगे। कन्या व मीन राशि राजनीति में ज्यादा लाभान्वित होगी।
राहु के वृष राशि में गोचर का विस्तृत प्रभाव....मेष : राहु व्यवसाय में आपकी महत्वाकांक्षी योजनाओं को विस्तार देगा। स्वास्थ्य की स्थितियां थोड़ी प्रतिकूल हो सकती हैं। जॉब परिवर्तन में सफलता मिलेगी। व्यवसाय परिवर्तन में सफल हो सकते हैं। सफेद व लाल रंग शुभ है। प्रत्येक रविवार को गेहूं व गुड़ का दान करें। बुधवार को बहते जल में नारियल प्रवाहित करें।वृष : मध्यम फल रहेगा। जॉब में सुखद परिवर्तन का प्रस्ताव मिलेगा। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें। प्रत्येक मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। शुक्रवार व बुधवार को अन्न का दान करें। नीला व हरा रंग शुभ है। राजनीति से संबंधित जातकों को लाभ मिलेगा।मिथुन: राहु का गोचर संकेत करता है कि स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत रहना होगा। यदि आप जॉब में परिवर्तन करना चाहते हैं तो यह समय आपके लिए शुभ अवसर प्रदान करेगा। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को हरे वस्त्र तथा रविवार को गुड़ का दान करें। धन आगमन होगा।कर्क : कार्य बाधाएं आ सकती हैं। व्यवसाय में सुंदर अवसर की प्राप्ति का समय है। छात्रों के लिए यह समय बहुत सुंदर है। सफेद रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए भी यह समय बहुत ही अनुकूल है। जॉब में प्रमोशन का प्रयास करें। स्वास्थ्य बेहतर रहेगा। प्रतिदिन अन्न का दान करें। शिव उपासना करते रहें।सिंह : आत्मबल कम मत होने दें। जॉब को लेकर मन का द्वंद्व समाप्त होगा। राजनीति में सुंदर अवसरों की प्राप्ति करेंगे। आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर होगी। नीला व सफेद रंग शुभ है। प्रतिदिन श्री सूक्त का पाठ करें। परिवार व मित्रों का सहयोग आपके साथ है। बुधवार को गाय को पालक व चने की दाल खिलाते रहें।कन्या : राहु व्यवसाय में आशातीत सफलता देगा। स्वास्थ्य भी बेहतर होगा। गृह निर्माण सम्बन्धित नया कार्य आरंभ होगा। किसी व्यक्ति से नए राजनैतिक संबंध बन सकते हैं। हरा रंग शुभ है। जॉब के दृष्टिकोण से यह बहुत ही अच्छा रहेगा। राहु के द्रव्य दान करने से बाधाएं समाप्त होंगी। प्रतिदिन भैरो उपासना करें।तुला : व्यवसाय में लाभ की संभावना रहेगी। गृह निर्माण सम्बन्धी आपकी ठप्प पड़ी योजनाओं को शुरू होना आपके लिए शुभ है। घर पर ही धार्मिक कार्य होंगे। हरा रंग शुभ है। प्रतिदिन प्रात:काल पूजा के बाद चावल व गुड़ दान करने से पुण्य की प्राप्ति होगी। जॉब परिवर्तन के दृष्टिकोण से यह समय बहुत ही श्रेयस्कर है।वृश्चिक : यश व प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी। आप जॉब को परिवर्तित करने की सोचेंगे जो कि भविष्य में बेहतर रहेगा। व्यवसाय में भी सफलता है। लाल रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। जॉब में प्रमोशन हेतु प्रयास करें तो सफलता मिलने की संभावना अधिक है। प्रतिदिन सुंदरकांड का पाठ करें।धनु: राहु का राशि परिवर्तन बहुत ही सुखद रहेगा। व्यवसाय में सफलताओं व जॉब में प्रगति का समय है। स्वास्थ्य पहले से बेहतर होगा। आपके ससुराल पक्ष की सहायता से कोई रुका सरकारी कार्य पूर्णता की तरफ जाएगा। धन का आगमन होगा। लाल रंग शुभ है। राजनीतिज्ञों के लिए यह परिवर्तन बहुत ही शुभ अवसरों वाला है। स्वास्थ्य सुख के लिए बजरंगबाण का नियमित पाठ करें।मकर : सूर्य व बुध राजनीति में सफलता देंगे। स्वास्थ्य के प्रति एलर्ट रहना होगा। आय प्राप्ति के नए स्रोत बन सकते हैं। सफेद रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार को तिल का दान करें तथा हनुमानबाहुक का पाठ करें।कुम्भ : यह परिवर्तन मिश्रित फलदायी है। आप एक ऐसे मिशन पर कार्य आरंभ करेंगे जो आपका ड्रीम रह चुका है। व्यावसायिक योजनाएं सफलता की तरफ मुड़ेंगी। हरा रंग शुभ है। प्रत्येक शनिवार व बुधवार को तिल का दान करें।मीन : यह परिवर्तन राजनीतिज्ञों के लिए बहुत शुभ है। व्यवसाय के लिए तनाव का समय है। व्यवसाय मे मित्रों का सहयोग प्राप्त होगा जिससे नवीन अवसरों की प्राप्ति करेंगे। नीला रंग शुभ है। प्रत्येक बुधवार को मूंग का दान करें। यह गोचर प्रोन्नति का अवसर प्रदान करता है। प्रतिदिन गणेश उपासना करते रहें। बुधवार को उड़द का दान पुण्यदायी है।वृष का स्वामी शुक्र है। तो शुक्र एकाक्षरी बीज मंत्र- 'ॐ शुं शुक्राय नम: का जाप इस दौरान जरूर करें। - 23 सितंबर से राहु की चाल बदल रही है। इसका देश पर क्या असर पड़ेगा. ये बता रहे हैं जाने-माने ज्योतिषाचार्य पंडित प्रियाशरण त्रिपाठी....भारत वर्ष की जन्मकुंडली के ग्रह स्वतंत्र भारत का प्रादुर्भाव 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि 12.20 बजे बुध के नक्षत्र आश्लेषा के प्रथम चरण में कर्क राशि पर चंद्रमा की यात्रा के समय हुआ। उस समय में क्षितिज पर वृषभ लग्न स्पर्श कर रहा था। वृषभ लग्न की भारत की जन्मकुंडली में लग्न में ही राहु, द्वितीय भाव में मंगल तथा तृतीय भाव में सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र और शनि बैठे हैं जबकि, बृहस्पति छठें तथा केतु सप्तम भाव में विराजमान हैं। इस प्रकार से सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य ही हैं इसलिए भारत की कुंडली पर अनंत नामक कालसर्प योग भी बना हुआ है, अनंत कालसर्प योग का प्रभाव अनंत नामक कालसर्प योग के प्रभावस्वरूप जातक को आरंभ से सफलताओं के लिए कठोर परिश्रम तो करना पड़ता है किंतु वह सामान्य स्तर से कार्य-व्यापार तथा नौकरी की शुरुआत करके अपनी क्षमता के बल पर जीवन के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचता है।ज्योतिषाचार्य पं. प्रियाशरण त्रिपाठी के अनुसार सभी बारह कालसर्प योगों में कई योग ऐसे भी हैं जो प्राणियों को आसमान से जमीन पर लाकर खड़ा देते हैं और कई योग ऐसे भी हैं जो रंक को भी राजा बना देते हैं। एक सामान्य व्यक्ति को भी बहुत बड़ी पदवी प्रदान करा देते हैं। यह अनंत नामक कालसर्प योग उन्हीं में से एक है जो रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है। यही योग भारत की जन्मकुंडली में बना हुआ है इसी के प्रभाव से भारतवर्ष एक न एक दिन विश्वगुरु की पदवी प्राप्त करते हुए विश्व में अपना वर्चस्व कायम करने में पूर्णत: सफल रहेगा। वर्तमान समय में भारत की जन्मकुंडली में 6 जुलाई 2011 से राहु की महादशा चल रही है, राहू स्वयं लग्न में विराजमान है और अपनी ही राशि के हैं इसलिए यह दशा निश्चित रूप से देश और देश की जनता के लिए अच्छी कही जाएगी। इनकी महादशा में 19 जून 2019 से बुध की अंतर्दशा भी प्रारंभ हो चुकी है जो 6 जनवरी 2022 तक चलेगी। बुध महादशा स्वामी से तीसरे पराक्रम भाव में बैठे हैं और अंतर्दशा स्वामी बुध से राहु एकादश भाव में हैं जो अति शुभ फलदायक रहेगा। बुध पंचमेश होकर पराक्रम भाव में विराजमान है जहां पर पंचग्रही योग भी बना हुआ है। पराक्रम भाव में पंचग्रही योग के प्रभाव स्वरूप भारत का अपना वर्चस्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। भारतवर्ष की जन्मकुंडली में उदय के समय जो राहू लग्न में विराजमान थे वही गोचर करते हुए पुन: 23 सितंबर को वृषभ राशि अर्थात भारत की लग्नराशि में प्रवेश कर रहे हैं। इस प्रकार से लग्न और गोचर दोनों तरह से यह वृषभ राशि में 18 महीनों तक रहेंगे। इनके साथ ही केतु भी राशि परिवर्तन करके सप्तम भाव में वृश्चिक राशि में विराजमान रहेंगे। केतु इस राशि के लिए अप्रत्याशित परिणाम देने वाले कहे गए हैं। इन दोनों का गोचर भारतवर्ष के ऊपर विराजमान सभी तरह की विषम परिस्थितियों से लडऩे में मदद तो करेगा ही चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति को भी टालने में मदद करेगा। किसी कारणवश यदि युद्ध होता भी है तो इन ग्रहों के प्रभाव स्वरूप भारत विजयी होकर अपना वर्चस्व कायम करने में सफल रहेगा।भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की वृश्चिक लग्न तथा वृश्चिक राशि ही है। लग्न में चंद्रमा और मंगल बैठे हैं जिसमें गोचर करते हुए केतु 23 सितंबर को प्रवेश करेंगे। मोदी जी की राशि पर राहु की पूर्ण दृष्टि में पड़ रही है। हो सकता है सरकार कुछ ऐसा निर्णय निर्णय ले जिसका जनमानस में कुछ विरोध भी हो किंतु, यह अधिक समय तक नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी की लग्न राशि बृश्चिक और भारत की जन्मकुंडली की लग्न राशि बृषभ का केंद्र भाव का संबंध है। मोदी जी की चंद्र राशि बृश्चिक का भारत की राशि कर्क से मूल त्रिकोण का संबंध है यह एक तरह से लक्ष्मी विष्णु योग की तरह है जो देश के लिए अति लाभदायक सिद्ध होगा। राहु-केतु के राशि परिवर्तन का शीर्ष नेतृत्व पर अति सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जिससे वे देशहित में निर्णय लेने के लिए और मजबूती से उभर कर सामने आएंगे इसलिए यह गोचर परिवर्तन देश के लिए किसी वरदान से कम नहीं रहेगा।
- -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त विश्व-प्रेमोपहारसनातन वैदिक धर्म के अनुसार, यद्यपि भगवान् सर्वव्यापक है तथापि हम साधारण मायिक मनुष्यों को उनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता किन्तु मंदिरों एवं विग्रहों में श्री सच्चिदानंदघन प्रभु की उपस्थिति में हमारा विश्वास हो ही जाता है। इसी कारण जीवों के आध्यात्मिक कल्याणार्थ और वास्तविक सिद्धांत के प्रचार हेतु रसिकाचार्यों ने ऐसे भव्य मंदिरों की स्थापना की है। बस इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर सम्पूर्ण जगत में भक्ति तत्व को प्रकाशित करने के लिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कुछ दिव्योपहार विश्व को समर्पित किये हैं, यथा; वृन्दावन स्थित श्री प्रेम मंदिर, बरसाना स्थित श्री कीर्ति मंदिर तथा अपनी जन्मस्थली मनगढ़ स्थित श्री भक्ति मंदिर। इनमें से एक है, आज हम उनकी जन्मस्थली मनगढ़ जो कि भक्तिधाम के नाम से विख्यात है, वहां के श्री भक्ति मन्दिर तथा भक्ति भवन के विषय में जानेंगे :::::::(1) भक्ति मंदिर, श्री भक्तिधाम मनगढ़(तहसील - कुंडा, जिला - प्रतापगढ़, उ.प्र.)0 शिलान्यास समारोह - 26 अक्टूबर 19960 कलश स्थापना -14 अगस्त 20050 उदघाटन समारोह - 16-17 नवम्बर 20050 प्रमुख आकर्षण -भूतल पर श्री राधाकृष्ण एवं आठ दिशाओं में अष्ट महासखियों के विग्रह, जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज एवं उनके पूज्यनीय माता-पिता जी के विग्रह। प्रथम तल में श्री सीताराम तथा श्री हनुमान जी के विग्रह, साथ ही श्री राधा रानी एवं श्री कृष्ण-बलराम जी के विग्रह। मंदिर के दोनों ओर बने स्मारकों में एक ओर श्रीकृष्ण की प्रमुख लीलाओं की झाँकी है तो दूसरी ओर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के जीवन की प्रमुख घटनाओं की झाँकी है।धन्यातिधन्य है मनगढ़ भूमि! जिसे गुरुदेव ने अपनी लीलास्थली बनाया. केवल 9 वर्षों में यहाँ इस प्रकार के भव्य मंदिर के निर्माण का कार्य पूरा हो गया। मंदिर की भव्यता, शिल्पकला तथा पच्चीकारी के काम को देखकर दर्शनार्थी आश्चर्य चकित हो जाते हैं। नि:संदेह यह किसी अलौकिक शक्ति का ही कार्य है. अन्यथा इस प्रकार के भव्य मंदिर का निर्माण छोटे से ग्राम में इतने कम समय में असंभव ही है।इस भक्तिधाम में भक्ति की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है। एक ओर तीर्थराज प्रयाग परम पावनी गंगा के जल से तो दूसरी ओर श्रीराम जी की लीलास्थली अयोध्या नगरी सरयू के पवित्र जल से प्रक्षालित करके इस मनगढ़ धाम की महिमा व पवित्रता को द्विगुणित करती रहती है। यहाँ का यह भक्ति मन्दिर कलियुग में दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से संतप्त जीवों के लिए एक अनुपम आध्यात्मिक केंद्र है। गुलाबी सफ़ेद पत्थर से निर्मित भक्ति मंदिर में काले ग्रेनाइट के खम्भे बनाये गए हैं। मंदिर की दीवारों पर बहुमूल्यवान पत्थर से श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित भक्ति-शतक के सौ दोहे लिखे गए हैं, इस ग्रन्थ का एक एक दोहा इतना मार्मिक है कि इस ग्रन्थ रूपी मानसरोवर में अवगाहन करने वाला बरबस प्रेमरस में सराबोर हो जाता है। इसके अलावा प्रेम रस मदिरा के भी कुछ पद अंकित किये गए हैं। यह भक्ति मंदिर श्री राधाकृष्ण एवं श्री कृपालु महाप्रभु का साक्षात् स्वरुप ही है।(2) भक्ति-भवन, भक्तिधाम मनगढ़(तहसील - कुंडा, जिला - प्रतापगढ़, उ.प्र.)0 270 फुट व्यास गोलाकार,0 लगभग 10 हजार साधकों के लिए बैठने का स्थान0 बाहर की दीवारों पर भागवत में वर्णित श्री कृष्ण लीलाओं के दर्शन0 भीतर के प्रमुख मंच पर श्री राधाकृष्ण एवं श्री सीताराम जी के विग्रह तथा अष्ट महासखियों के विग्रहभक्तिधाम में स्थित इस भवन का शिलान्यास 27 फरवरी 2009 एवं उदघाटन 29 अक्टूबर 2012 को हुआ था। इस वातानुकूलित गुम्बदाकार भवन में लगभग 10 हजार साधक एक साथ बैठकर साधना कर सकते हैं। भारत में शायद इस प्रकार का भवन कहीं भी नहीं है। इसका निर्माण किस प्रकार हुआ? यह आजकल के इंजीनियरिंग कॉलेज में विद्यार्थियों के लिए एक जिज्ञासा का विषय बन गया है।गुरु पूर्णिमा इत्यादि विशेष पर्वों पर या खचाखच भर जाता है। यहां राधे नाम का संकीर्तन इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न कर देता है मानो ब्रज रस सिंधु में ज्वार आ गया हो, ऐसा प्रतीत होता है मानों समस्त दैवी शक्तियां श्री राधा सुमधुर नाम सुनने के लिए एकत्र हो गई हों। श्री महाराज जी ने कलियुग में भगवन्नाम संकीर्तन को ही भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ सर्वसुगम साधन बताया है। उनके अनुसार साधना पद्धति को उजागर करने वाला यह भक्ति भवन उनके सभी साधकों को भक्तियोगरसावतार परम प्रिय गुरुवर की मधुर स्मृतियों के साथ उनके कठिन प्रयास की याद दिलाता है।श्री कृपालु महाप्रभु जी ने समस्त साधकों की आध्यात्मिक उन्नति के लिये महीने भर की अखण्ड साधना का प्रारम्भ सन 1964 में ब्रजधाम के ब्रम्हाण्ड घाट में किया था। तब वह स्थल अत्यन्त घनघोर जंगल था। तब कहाँ ब्रम्हांड घाट का जंगल और अब कहाँ यह वातानुकूलित भक्ति भवन !! यह सब साधन श्री कृपालु महाप्रभु जी ने साधकों की सुविधा आदि को ध्यान में रखकर अपने कृपालु स्वभाव के वशीभूत होकर इस विश्व को प्रदान किये हैं। भक्ति को जन जन के घर में स्थापित करने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त भक्ति-भवन एवं भक्ति-मंदिर जैसे उपहारों के लिए सभी साधक उनके चिरकाल तक ऋणी रहेंगे।
(सन्दर्भ - साधन साध्य पत्रिकायेंसर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - -भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का पावन चरित्र(भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का पावन चरित्र; वह चरित्र, वह व्यक्तित्व जो हृदय में बरबस ही भक्ति तथा प्रेम की जागृति कर देता है और जिनका किंचित सान्निध्य भी प्रेम के उस बीज को पोषित, पल्लवित तथा फलित कर देता है....)कलिकाल की महानतम् विभूति जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का अवतरण शरद पूर्णिमा की मध्यरात्रि में उ.प्र. के मनगढ़ नामक ग्राम में हुआ था, जिसे विश्व में जगद्गुरुत्तम् दिवस के रुप में मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि में आविर्भूत श्री कृपालु जी महाराज पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् तो हैं ही, वे स्वयं भक्तिरस के अवतार हैं। काशी विद्वत् परिषत् के द्वारा उन्हें प्रदान की गई उपाधियों में एक उपाधि भक्तियोगरसावतार भी है। कलिकाल के प्रभाव से जनमानस भगवन्नाम-संकीर्तन के माहात्म्य को भूलता जा रहा था। दूसरी ओर नाना प्रकार के मत, नाना प्रकार के साधन समाज में प्रचलित होने लगे जिससे लोग दिग्भ्रमित होने लगे। ऐसे समय में ऐसे ही किसी अवतार की आवश्यकता थी जो लोगों के हृदय में पुन: भक्ति की ज्योति जगाये और आध्यात्मिक रुप से पुनर्जीवित करे। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज वही अवतार हैं जिन्होंने कलिकाल में भक्ति की प्राधान्यता और वास्तविकता स्थापित की।उनके रोम रोम से भक्तिरस की धारा प्रवाहित होती थी। जब वे 16 साल के थे, तब से ही उनका भक्तिमय व्यक्तित्त्व अधिकारीजनों के समक्ष प्रकाशित होने लगा था। वे अधिकारीजन इन्हें सदा श्रीराधाकृष्णप्रेम में भवाविष्ट पाते। बाह्य जगत के ज्ञान से शून्य इनके शरीर में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था महाभाव के लक्षण रह-रहकर प्रकट होते जिसके दर्शन कर हृदय में अदभुत रोमांच भर उठता था। ऐसी प्रेममय दशा देखकर अनायास ही प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की याद आती थी जिन्होंने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी जी को वचन दिया था -आरो दुइ जन्म एइ संकीर्तनारम्भे, हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे(चैतन्य भागवत)
एइ अवतारे भगवत रुप धरि, कीर्तन करिया सर्व शक्ति परचारि..संकीर्तने पूर्ण हइव सकल संसार, घरे घरे हइव प्रेम भक्ति परचार..(चैतन्य भागवत)लगता था कि वही गौरांग पुन: अपने जीवों को प्रेम का दान करने आ गए हैं। उत्तर प्रदेश के मनगढ़ नामक ग्राम में परम सौभाग्यवती माँ भगवती की गोद में शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्में श्री कृपालु जी का बालपन अनोखी लीलाओं से भरा है। उनकी बाललीलाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बालकृष्ण ही साक्षात् लीला कर रहे हैं। जगद्गुरु बनने से पूर्व अक्सर ही भावाविष्ट अवस्था में जंगल की ओर निकल पड़ते थे। प्रेमानंद आस्वादन में निमग्न वे चित्रकूट के पावन वनों में महीनों-महीनों विचरा करते, उनकी उस दशा का यथार्थ वर्णन लेखनी के द्वारा संभव नहीं है। कभी वहाँ वे प्रिया-प्रियतम के रूपदर्शन में निमज्जित रहते तो कभी उनके अन्तर्धान से परम व्याकुल होकर करुणापूर्वक चीत्कार करते। जिन्होंने भी जब भी इन्हें उन जंगलों में देखा तो यही देखा कि कभी ये भूमि पर मूच्र्छित पड़े हैं, कभी करुणक्रन्दन कर रहे हैं तो कभी राहों पर बिखरे कंकण और काँटों पर भी प्रिया-प्रियतम के विरह में समाधिस्थ हैं।चित्रकूट और शरभंग आश्रम तथा वृन्दावन के निकट के जंगलों में इनका यह रुप जंगल के पेड़-पौधों और जंगली जीव-जंतुओं के हृदय में भी प्रेम का संचार कर देता था। उनकी इस अलौकिक दशा का जब लोगों को पता लगना शुरू हुआ तो उनका वहाँ पहुँचना प्रारम्भ हो गया। उन्होंने जैसे तैसे इन्हें मनाकर अपने घरों में लाने की कोशिश की किन्तु ये पुन: जंगलों की ओर ही निकल पड़ते थे और पुन:-पुन: उसी समाधिस्थ अवस्था में चले जाते, हुँकार भरते, उच्च अट्टहास करते, अविरल अश्रुपात करते। यद्यपि वे इस अवतार में जीव-कल्याण के उद्देश्य को लेकर आये थे अतएव भक्तों के द्वारा इस ओर ध्यानाकृष्ट करने पर वे आम लोगों के संपर्क में आने लगे। जंगलों से आमजन के मध्य में आने के पश्चात् इन्होंने साहित्य एवं आयुर्वेद का अध्ययन किया। इस समय भी वे कभी 7 दिन, कभी 15 दिन, कभी एक महीने तो कभी 4-4 महीने का अखंड संकीर्तन कराते। भावविष्ट जब ये राधाकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुँचे थे, तब वहाँ पहुँचते ही प्रेमातिरेक में उस पावन ब्रजरज में लोटपोट होकर बिलखने लगे। कभी उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते, कभी लीलाविष्ट हो जाते और कभी सुध खोकर गिर पड़ते। राधा गोविन्द नामों और हरि बोल का संकीर्तन उस वक्त अद्भुत रस का संचार कर देता था।यह तो ऐसे अलौकिक महापुरुष की उस अलौकिक अवस्था का किंचितमात्र ही वर्णन है। वस्तुत: वह लेखनी का विषय ही नहीं है, न उसके वर्णन की पात्रता किसी में हो सकती है। काशी विद्वत् परिषत् के 500 मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष अद्वितीय रुप माधुरी, काले घुँघराले केशों और गौर वर्ण के ये कृपालु जब उपस्थित हुए तो इनके रोम रोम से भक्तिरस की बहती धारा को देखकर मंत्रमुग्ध विद्वत्सभा ने एकमत होकर यह स्वीकार किया कि ये तो स्वयं भक्ति महादेवी ही इनके रुप में साक्षात् विराजित है। वहाँ अपने व्याख्यानों में आपने समस्त वेदों-शास्त्रों और अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार बताते हुए कलियुग में एकमात्र भक्ति को ही जीव-कल्याण का साधन सिद्ध किया, आपको विद्वत् परिषत् की ओर से भक्तियोगरसावतार की उपाधि प्रदान की गई।जगद्गुरु बनने के उपरान्त आपने राधाकृष्ण की उस माधुर्यमयी भक्ति के सिद्धांत का जन-जन में प्रचार किया। कलियुग के इस चरण में जीवों को भक्ति के लिए तत्वज्ञान की परम अनिवार्यता को जानकर आपने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों और अन्यान्य धर्मग्रंथों के वास्तविक रहस्य को संसार के मध्य बारम्बार प्रकट किया। वेदों के आवृत्ति रसकृदुपदेशात और गौरांग महाप्रभु के 'सिद्धांत बलिया चित्ते न कर आलस की उक्तियों को लोगों की बुद्धि में भरकर बार बार महापुरुषों के सिद्धांतों को सुनने पर जोर दिया।कलियुग में संसार के लोगों को गृहस्थ में रहकर ही भक्ति करते हुए सरलता से भगवत्प्रेमप्राप्ति का साधन बतलाते हुए उनकी साधना और भगवान्नुराग को बढ़ाने के लिए हजारों ब्रजरस से ओतप्रोत संकीर्तन एवं पदों की रचना की जिसे सुनकर और गाकर हृदय में बरबस ही प्रेमरस की धार उमड़ पड़ती है और मन राधाकृष्ण की उस रूपमाधुरी पर मुग्ध होता जाता है। श्री कृपालु जी का रुप ही ऐसा है जिसे कोई एक बार देख ले तो उसी के द्वारा वह अपने पुराने भक्ति-संस्कारों को पुन: प्राप्त कर लेता था।अपनी जन्मभूमि मनगढ़ को आपने 'भक्तिधाम' के रुप में प्रतिष्ठित किया। भविष्य में युगों-युगों तक भक्ति की ध्वजा फहराने वाला मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर' और वृन्दावन का प्रेम मंदिर इस विश्व को अनुपम भेंट है। प्रेम मंदिर के स्वागत द्वार पर आपके द्वारा रची गई पंक्ति; प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया... के द्वारा भी आपने भक्ति को सर्वोच्च सिद्ध किया। मनगढ़ में स्थित भक्ति भवन और वृन्दावन का निर्माणाधीन प्रेम भवन ऐसे ऐतिहासिक भवन हैं जो भविष्य में जीवों को भक्तिपथ की साधना का सन्देश देंगे। इस मनगढ़ धाम में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा सन् 1966 से साधना शिविर का आयोजन होता रहा है। कलिकाल में भक्तिरस के इस अपूर्व अवतार की पावन जन्मभूमि एवं लीलास्थली मनगढ़ में साक्षात भक्ति महादेवी यत्र-तत्र सर्वत्र विचरण करती है।उनके राधा गोविन्द गीत से....
मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे, सोते जागते हो राधे प्रेम अगाधे..मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे, नित ही 'कृपालु' रहें और कृपा दें..भक्ति तथा प्रेमरस के मूर्तिमान स्वरुप प्रेमावतार, भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज सकल विश्व में सदा वन्दनीय, स्तुत्य तथा साधन-साध्य पथ के चिरयुगी मार्गदर्शक रहेंगे।(सन्दर्भ - जगदगुरुत्तम, भगवत्तत्व, साधन साध्य तथा आध्यात्म संदेश आदि पत्रिकायें-सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।) - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा जिज्ञासु जनों के प्रश्नों का समाधान(एक साधक तथा श्री कृपालु महाप्रभु जी के मध्य संवाद)-- साधक का प्रश्न- हमारे मन में शंका क्यों उत्पन्न होती है? कभी कभी ऐसा क्यों होता है कि हम अपने गुरु के खिलाफ मन ही मन सोचने लगते हैं?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर -ऐसा इसीलिए है क्योंकि हमारा गुरु पर विश्वास दृढ नहीं है। हमारा दृढ़ विश्वास जब श्री हरि-गुरु पर हो जायगा तब कोई भी बाहरी परिस्थिति कितनी भी प्रतिकूल क्यों ना हो, हमारा अपने इष्ट और गुरु से अटूट प्रेम कभी कम ना होगा।हमारा विश्वास चूँकि दृढ़ नहीं है इसलिये प्रतिकूल परिस्थिति पाकर, चार नास्तिक लोगों की बात सुनकर, निगेटिव लोगों की बात सुनकर के हमारा प्यार हरि-गुरु से कम हो जाता है।-- साधक का पुन: प्रश्न - विश्वास दृढ़ क्यों नहीं है?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर - जब हीरे का महत्व पता चल जायगा और हमारा दृढ़ विश्वास हो जायगा कि हमें जो चीज मिली है, प्राप्त हुई है वह अनमोल हीरा है तो किसी भी परिस्थिति में उसका महत्व कम नहीं होगा, हमारी आसक्ति उसमें बढ़ती जाएगी। सब हमारे ऊपर निर्भर है और सब कमाल दृढ़ विश्वास का है।-- साधक का पुन: प्रश्न- विश्वास दृढ करने का उपाय क्या है?श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा उत्तर ::: हमें अपने हरि-गुरु के महत्व को समझना होगा। वो क्या पर्सनालिटी हैं, ये तत्वज्ञान से जानना होगा। फिर तत्वज्ञान के चिंतन और सत्संग से उन्हें पहचानना होगा। ऐसा करते करते हमें अनुभव होगा कि वही हमारे अपने हैं और हमारा परम कल्याण केवल उन्हीं से संभव है। वही एकमात्र हमारे शाश्वत माता पिता हैं तो फिर किसी भी बाहरी विपरीत परिस्थिति में उनसे हमारा प्रेम कम नहीं होगा बल्कि प्रेम बढ़ता जायगा।स्त्रोत- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की नि:सृत प्रवचन श्रृंखला
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने वर्ष 1990 में अपनी जन्मस्थली भक्तिधाम मनगढ़ (उ.प्र.) में श्री नारद मुनि द्वारा प्रगटित नारद भक्ति सूत्र पर 11-दिवसीय प्रवचन दिया था। नारद भक्ति सूत्र अथवा दर्शन, भक्ति-तत्व की सरलतम रुप में व्याख्या करने वाला 84 सूत्रों का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा भक्ति-साहित्यों में अग्रगण्य स्थान रखती है। श्री कृपालु महाप्रभु जी ने इसी ग्रन्थ के 84 सूत्रों की विशद व्याख्या कर सरलतम को भी और अधिक सरल रुप प्रदान कर प्रेमपिपासु जीवों को आत्मिक-कल्याण का मजबूत आधार दिया था। इसी प्रवचन श्रृंखला में कामना-तत्व पर कही गई उनकी कुछ वाणियां यहां दी जा रही हैं। सुधि पाठकजनों के लाभ की अपेक्षा है :::::::(उनकी वाणियों का संकलन यहां से पढ़ें....)(1) हर ग्रन्थ कामनाओं के त्याग करने का आदेश देता है। ये कामनायें हमने क्यों बनाई है? इसका रीजन है अज्ञान। अज्ञान यह कि हमने अपने आपको देह मान लिया है। इसलिये देह के सुख के लिये कामनायें बनने लगीं।(2) जिस वस्तु में हम आनंद की कल्पना करते हैं, उसमें हमारा अटैचमेन्ट हो जाता है।(3) अंधकार और प्रकाश में जितना अन्तर है, उतना ही विरोध कामनाओं और भक्ति में है।(4) संसारी कामनाओं का कारण है अज्ञान, अज्ञान का कारण है माया और माया का कारण है भगवत-बहिर्मुखता।(5) शरीर को ठीक रखने के लिये प्रकृति की और आत्मा को ठीक रखने के लिये आवश्यकता है भगवान की। हम संसार का उपयोग करने के स्थान पर उसका उपभोग करते हैं, किन्तु भगवान को पाने का प्रयत्न नहीं करते।(6) स्वामी की सेवा चाहना कामना नहीं है। जीव भगवान का नित्य दास है अत: यह उसकी नेचुरैलिटी है, फिर हम स्वामी के सुख के लिये स्वामी की सेवा चाहते हैं, अपने सुख के लिये नहीं।(7) भगवान सम्बन्धी कामना से हमारा संसार निवृत्त होगा, जबकि संसार सम्बन्धी कामना हमारा सर्वनाश करेगी।(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
सन्दर्भ - नारद भक्ति दर्शन प्रवचन पुस्तकसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की नि:सृत प्रवचन श्रृंखलाजगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वैराग्य और अनुराग विषय पर सारगर्भित प्रवचन, बार-बार पढ़कर तदनुसार अभ्यास करें, तो निश्चय ही लाभ होगा :::::::
(उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन यहां से है....)...भगवत्प्राप्ति के लिए कुछ नहीं करना है। वो जो कुछ नहीं करना है उसके लिए बहुत कुछ करना है। हम अनंत जनम से करते आये हैं, ये जो कर्ता-अभिमान (मैं करता हूँ) है, ये मिटाना है।लेकिन अनादिकाल से हमारी आसक्ति संसार में जो हो चुकी है, उसको हटा दें बस काम बन जाय। जैसे मिट्टी का ढेला है, उसको हाथ में पकड़े हो छोड़ दो, वो अपने आप अपने अंशी के पास चले जायेगा। तो ये जीव भगवान का अंश है, इसको माया के साइड से हटा दो तो भगवान के साइड अपने आप चला जायेगा।वैराग्य का मतलब संसार से राग और द्वेष होना। यही दो चीज हमारी संसार से हो चुकी है। राग तब होता है जब किसी वस्तु में सुख मानते हैं और द्वेष तब होता है जब किसी वस्तु से सुख नहीं मिलता।जब तक ये राग द्वेष हैं, करोड़ों जगद्गुरु प्रवचन देते रहें कोई लाभ नहीं। हम सुन लेंगे कह देंगे बहुत बढिय़ा फिर संसार में राग द्वेष। यही साधना है। अब जब ये अभ्यास से बैठ जायेगा बुद्धि में कि संसार में ना सुख है ना दुख है, तब मन उदासीन (न्यूट्रल) हो जाएगा। ये हमको करना होगा अपने आप नहीं हो जायेगा। अब आपका मन भगवान गुरु में एक सेकंड में लगाने के लिए तैयार हो गया।(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -सुस्मिता मिश्रापुरुषोत्तम महीना या अधिमास या मल मास 18 सितंबर से शुरू होकर 16 अक्टूबर को समाप्त हो रहा है। इस पूरे महीने भगवान विष्णु की आराधना किए जाने का प्रावधान है।इस बार बने हैं 15 दिन शुभ योग , जाने क्या करेंज्योतिषियों के अनुसार इस बार पुरुषोत्तम मास में 15 शुभ योग बने हैं। पहले ही दिन शुक्रवार को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और शुक्ल योग रहेगा। पूरे महीने नौ सर्वार्थसिद्धि योग, दो द्विपुष्कर योग, एक अमृतसिद्धि योग और दो दिन पुष्य नक्षत्र के योग बने रहे हैं। रविवार और सोमवार को पुष्य नक्षत्र अधिक फलदायी होगा।ज्योतिषियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मास का पहला दिन दिन बेहद शुभदायी रहेगा। यह योग मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला और हर काम में सफलता देने वाला होता है। 26 सितंबर के बाद एक अक्तूबर, चार अक्तूबर, छह-सात अक्तूबर, नौ अक्तूबर, 11 अक्तूबर और 17 अक्तूबर को यह योग रहेगा। इसी तरह इस महीने में दो दिन द्विपुष्कर योग मिलेगा। ज्योतिष के अनुसार इस योग में किए गए किसी भी काम का दोगुना फल मिलता है। 19 और 27 सितंबर को द्विपुष्कर योग रहेगा। इसी तरह दो अक्तूबर को अमृतसिद्धि योग है।पुरुषोत्तम मास में दो अक्तूबर को अमृत सिद्धि योग है। मान्यता के अनुसार इस योग में किया गया कोई भी कार्य दीर्घ फलदायी होता है।भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है। शास्त्रानुसार-यस्मिन चांद्रे न संक्रान्ति- सो अधिमासो निगह्यतेतत्र मंगल कार्यानि नैव कुर्यात कदाचन।यस्मिन मासे द्वि संक्रान्ति क्षय मास स कथ्यतेतस्मिन शुभाणि कार्याणि यत्नत परिवर्जयेत।।अधिक मास क्या है?जिस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती वह अधिक मास होता है। इसी प्रकार जिस माह में दो सूर्य संक्रांति होती है वह क्षय मास कहलाता है।इन दोनों ही मासों में मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं, परंतु धर्म-कर्म के कार्य पुण्य फलदायी होते हैं। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का होता है। इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का फ़कऱ् आ जाता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है।पौराणिक ग्रंथों में अधिक मासअधिक मास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।-ऐतरेय ब्राह्मण में आया है: देवों ने सोम की लता 13वें मास में खऱीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, 13वां मास फलदायक नहीं होता।-तैतरीय संहिता में 13 वां मास संसप एवं अंहस्पति कहा गया है।-ऋग्वेद में अंहस का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अत: अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।-अथर्ववेद में मलिम्लुच आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।-काठसंहिता में भी इसका उल्लेख है।-पश्चात्कालीन साहित्य में मलिम्लुच का अर्थ है चोर-अग्नि पुराण में आया है - वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, सांड़ छोडऩा (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए।हेमाद्रि ने वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियां दी हैं।सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक)। यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए। यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कर्म नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गए हों (यथा 12 दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित, एक मास वाला चन्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाए जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए कारीरी इष्टि अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातें कालनिर्णय-कारिकाओं (21-24) में वर्णित हैं।पुरुषोत्तम मास नामकरण कैसे हुआहमारे पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र एवं योग के अतिरिक्त सभी मास के कोई न कोई देवता या स्वामी हैं, परंतु मलमास या अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होता, अत: इस माह में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य, शुभ एवं पितृ कार्य वर्जित माने गए हैं।पुराण में जिक्र है कि अधिक मास अपने स्वामी के ना होने पर विष्णुलोक पहुंचे और भगवान श्रीहरि से अनुरोध किया कि सभी माह अपने स्वामियों के आधिपत्य में हैं और उनसे प्राप्त अधिकारों के कारण वे स्वतंत्र एवं निर्भय रहते हैं। एक मैं ही भाग्यहीन हूं जिसका कोई स्वामी नहीं है, अत: हे प्रभु मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाइए। अधिक मास की प्रार्थना को सुनकर श्री हरि ने कहा हे मलमास मेरे अंदर जितने भी सद्गुण हैं वह मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूं और मेरा विख्यात नाम पुरुषोत्तम मैं तुम्हें दे रहा हूं और तुम्हारा मैं ही स्वामी हूं। तभी से मलमास का नाम पुरुषोत्तम मास हो गया और भगवान श्री हरि की कृपा से ही इस मास में भगवान का कीर्तन, भजन, दान-पुण्य करने वाले मृत्यु के पश्चात् श्री हरि धाम को प्राप्त होते हैं।----
- कुश चारे के रूप में कम प्रयुक्त होने वाली दीर्घजीवी घास है, जो अमरबेल की तरह होती है। यह घास अगर जरा सी भी भूमि के अन्दर रह जाये तो वह पौधे का रूप धारण कर लेती है। पशुओं में कम लोकप्रिय कुश अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है। यह देव, पितर, प्रेत व पूजा में समान महत्व रखती है। इसको अनामिका में धारण करने के उपरान्त ही सभी मांगलिक व अमांगलिक कार्यों में विधान पूर्ण होता है।कुश एक प्रकार का तृण है। कुश की पत्तियां नुकीली, तीखी और कड़ी होती है। धार्मिक दृष्टि से यह बहुत पवित्र समझी जाती है और इसकी चटाई पर राजा लोग भी सोते थे। वैदिक साहित्य में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख है। अर्थवेद में इसे क्रोध नाशक और अशुभ निवारक बताया गया है। आज भी नित्य-नैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। कुश से तेल निकाला जाता था, ऐसा कौटिल्य के उल्लेख से ज्ञात होता है। भावप्रकाश के मतानुसार कुश त्रिदोष नाशक है।पूजा आदि कर्मकांड में इंसान के अंदर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय पृथ्वी में न समा जाए, इसलिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का काम करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों से शक्ति को खत्म नहीं होने देता है। कहा जाता है कि कुश से बने आसन पर बैठकर मंत्र जाप करने से मंत्र सिद्ध होते हैं। कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते हैं। वेदों में कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि , आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया गया है।पूजा पाठ के दौरान कुश की अंगुठी बनाकर अनामिका ऊंगली में पहनने का विधान है , ताकि हाथ में संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की ऊंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति , तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकता है। कर्मकांड के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका बुरा असर हमाले दिल और दिमाग पर पड़ता है।एक बार की बात है, जब भगवान् श्रीहरि ने वाराह अवतार धारण किया तब हिरण्याक्ष का वध करने के बाद जब पृथ्वी को जल से बाहर निकाला और अपने निर्धारित स्थान पर स्थापित किया। उसके बाद वाराह भगवान् ने भी पशु प्रवृत्ति के अनुसार अपने शरीर पर लगे जल को झाड़ा तब भगवान् वाराह के शरीर के रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे और वह कुश के रूप में बदल गये। चूँकि कुश घास की उत्पत्ति स्वयं भगवान वाराह के श्री अंगों से हुई है। अत: कुश को अत्यंत पवित्र माना गया। इसलिए किसी भी पूजन-पाठ, हवन-यज्ञ आदि कर्मो में कुश का प्रयोग किया जाता है।पंचक में मृत्यु- ऐसी मान्यता है कि यदि किसी की पंचक में मृत्यु हो जाए तो घर में पांच सदस्य मरते हैं। इसके निवाराणार्थ 5 कुश के पुतले बनाकर मृतक के साथ उनका भी अंतिम संस्कार किया जाता है।कुश ग्रन्थि माला- कुश की जड़ों से निर्मित दानों से बनी माला पापों का शमन, कलंक हटाने, प्रदूषण मुक्त करने व व्याधि का नाश करने हेतु प्रयुक्त होती है।आसन- कुश घास में बने आसन पर बैठकर पूजा करना ज्ञानवर्धक, देवानुकूल व सर्वसिद्ध दाता बनता है। इस आसन पर बैठकर ध्यान साधना करने से तन-मन से पवित्र होकर बाधाओं से सुरक्षित रहता है।धनवर्धक- कुश को लाल कपड़े में लपेटकर घर में रखने से समृद्धि बनी रहती है।ग्रहण काल में कुश का प्रयोग- मान्यता है कि ग्रहण काल से पूर्व सूतक में इसे अन्न-जल आदि में डालने से ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।----
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जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
सारे शास्त्रों में अनेक स्थानों पर स्वयं भगवान ने ही यह उदघोषित किया है कि भक्त का स्थान भगवान से ऊंचा है, हमारे लिये भी और भगवान भी अपने से ऊंचा स्थान अपने भक्त को देते हैं। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज यहां एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त समझा रहे हैं कि भूलकर भी कभी संत एवं वास्तविक महापुरुष की निंदा नहीं करनी है, न मन से सोचनी है और न किसी से सुननी है। साधक समुदाय के लिये यह एक अति महत्वपूर्ण सावधानी है। आइये इस सावधानी पर उनके द्वारा कहे गये इन महत्वपूर्ण शब्दों पर विचार-मंथन करें ::::::(यहाँ से पढ़ें...)निदाम भगवत: श्रवणन तत्परस्य जनस्य वाततो नापैति य: सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत:..(भागवत, स्कंध 10)अर्थात् भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला निन्दनीय है या महापुरुष है। संत-निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यह ही सब अपराध अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान् के उन्मुख ही नहीं होने देते।जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी आदि खाय एवं इसके पश्चात् ही एक दिन विष (जहर) खा ले तथा मर जाय। अतएव बड़ी ही सावधानीपूर्वक सतर्क होकर हरि, हरिजन-निंदा-श्रवण से बचना चाहिए।
विष्णुस्थाने कृतं पापं गुरुस्थाने प्रमुच्यते ।गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।भगवान् के प्रति किया हुआ अपराध गुरु द्वारा क्षमा कर दिया जाता है किन्तु गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं कर सकते।
(जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखलाभारतवर्ष में भक्ति करते तो सर्वत्र दिखाई देते हैं, भगवान का नाम यहाँ बचपन से ही सुना और गाया जाता है। किन्तु भगवान के नाम के संबंध में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है, जिसे यदि न समझा जाय तो भगवन्नाम का लाभ नहीं मिल पाता। अनेक लोगों को यह भी शंका होती होगी कि क्या जैसे संसार में सभी वस्तुओं, व्यक्तियों के नाम होते हैं, वैसे ही भगवान का नाम भी होता होगा? जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज समझा रहे हैं कि नहीं, नहीं, भगवान का नाम और संसारियों के नाम में तो सर्वथा अंतर है। आइये उनकी ही वाणी से नि:सृत इन शब्दों पर विचार करते हुये इस सत्य को जानें :::::::
(संसारी नाम और भगवान के नाम में क्या अंतर है? - यहां से पढ़ें..)...भगवान के नाम में भगवान की शक्ति है और संसारी नाम केवल नाम है। उसमें नामी (अर्थात जिसका नाम है) की शक्ति नहीं है। ये अंतर है।जहां तक माया का आधिपत्य है, वहां के समस्त पदार्थों के नाम रुप मिथ्या हैं, झूठ हैं, धोखा है, उनका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन ईश्वर का नाम और ईश्वर का रुप सत्य है। संसार के नाम परिवर्तनशील हैं और केवल व्यवहार के लिये हैं। किन्तु ईश्वर का नाम सनातन है, नित्य है, आनन्दमय, ज्ञानमय, सत्यमय और जो जो गुण ईश्वर में है, वही उनके नाम में भी है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा -नाम्नामकारि बहुधा निज सर्वशक्तिस्तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:।।(शिक्षाष्टक - 2)भगवान ने अपने नाम में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को रख दिया है। इस प्वाइंट पर ध्यान देना। भगवान ने अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को अपने नाम में रख दिया है। जबकि संसार के नाम रुप मिथ्या हैं, वहां किसी शक्ति की कल्पना भी नहीं हो सकती। भगवान का नाम और भगवान दोनों एक हैं। समुझत सरिस नाम अरु नामी । दोनों एक।क्योंकि दोनों में दोनों का नित्य निवास है, नाम में नामी और नामी में नाम। अंतर क्या हुआ? दोनों एक हो गये। चाहे कोई कहे कि पानी में दूध मिला है या दूध में पानी मिला है, दोनों एक ही बात तो है, एक परमाणु का भी अंतर नहीं है। जिस दिन इस वाणी पर कोई विश्वास कर लेगा, उस दिन भगवत्प्राप्ति के लिये कुछ करना नहीं होगा। क्योंकि वह तो प्राप्त ही है।(प्रवचनकर्ता -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)(संदर्भ - साधन साध्य पत्रिका, मार्च 2016 अंक)सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भाद्रपद महीने में कृष्ण पक्ष के पहले दिन पितृ पक्ष मनाया जाता है और यह लगातार नए चंद्र दिवस के समय तक पंद्रह दिन तक चलता है। भाद्रपद महीने के दौरान पडऩे वाली अमावस्या को अश्विन अमावस्या या महालय अमावस्या कहा जाता है जो दुर्गा पूजा के उत्सव की शुरुआत का प्रतीक है। यह अमावस्या ज्ञात-अज्ञात पितरों के श्राद्ध का दिन होता है।इसे पंद्रह दिनों के पितृ पक्ष की पूरी अवधि के दौरान सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक माना जाता है। इस दिन, लोग अपने पितरों या पूर्वजों को स्मरण करते हैं और उन्हें अपने वारिसों के लिए जो भी किया है, उसके लिए भी उनका धन्यवाद करते हैं। इस साल पितृ पक्ष का अंतिम दिन अश्विन अमावस्या 17 सितंबर को है। जानिए इस दिन का महत्व-आश्विन अमावस्या का महत्वअश्विन अमावस्या अनुष्ठानों का उच्च महत्व होता है क्योंकि पर्यवेक्षकों को दैवीय आशीर्वाद, अच्छा भाग्य और अत्यधिक समृद्धि प्राप्त होती है।पर्यवेक्षकों भगवान यम का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और परिवार के सदस्यों को किसी भी तरह की बुराइयों या बाधाओं से बचाने का आग्रह करते हैं।इस आध्यात्मिक दिन पर, ऐसा माना जाता है कि पूर्वज पर्यवेक्षकों के स्थानों पर जाते हैं और यदि सभी श्राद्ध अनुष्ठान नहीं किए जाते हैं तो वे अप्र्रसन्नतापूर्वक वापस चले जाते हैं। इसलिए, उन्हें खुश करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए भोजन और पानी के साथ उनकी प्रार्थना करना महत्वपूर्ण होता है।ज्योतिष विज्ञान के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि पूर्वजों के पिछले पाप या गलत कर्म पितृ दोष के नाम पर उनके बच्चों की कुंडली में परिलक्षित होते हैं। और इसके कारण, बच्चे अपने जीवनकाल में बहुत बुरे अनुभव भुगतते हैं। अनुष्ठानों को पालन करके, इन दोषों को दूर किया जा सकता है और पूर्वजों का आशीर्वाद भी प्राप्त किया जा सकता है।अश्विन अमावस्या के लाभ-यह भगवान यम का आशीर्वाद प्राप्त करने में मदद करता है।-पर्यवेक्षकों का परिवार अपने जीवन में सभी प्रकार के पापों और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।-यह पूर्वजों की आत्माओं को मुक्ति देने में मदद करता है और मोक्ष प्राप्त करने में सहायक होता है।-यह बच्चों को एक समृद्ध और लंबे जीवन का आशीर्वाद देता है।अश्विन अमावस्या के अनुष्ठानअश्विन अमावस्या की संध्या पर, मृत पूर्वजों के लिए श्राद्ध अनुष्ठान और तर्पण किया जाता है। इस विशेष दिन, व्यक्ति सुबह जल्दी उठते हैं और सुबह के सभी अनुष्ठान करते हैं। लोग पीले रंग के कपड़े पहनते हैं और ब्राह्मणों को भोजन और कपड़े देते हैं और दान भी करते हैं।आमतौर पर, श्राद्ध समारोह परिवार के सबसे वरिष्ठ पुरुष सदस्य द्वारा किया जाता है। पर्यवेक्षकों द्वारा ब्राह्मणों के चरणों को धोया जाता है और उन्हें पवित्र स्थान पर बैठाया जाता है। लोग फूलों, दीयों और धूप की पेशकश करके अपने पूर्वजों की पूजा और प्रार्थना करते हैं।पूर्वजों को खुश करने के लिए उन्हें जौ और पानी का मिश्रण भी पेश किया जाता है। इसके बाद पर्यवेक्षक अपने दाहिने कंधे पर एक पवित्र धागा पहनता है। पूजा अनुष्ठानों के समाप्त होने के बाद, ब्राह्मणों को विशेष भोजन परोसा जाता है। जहां ब्राह्मण बैठे हैं वहां पर्यवेक्षक तिल के बीज भी छिड़कते हैं।पितरों या पूर्वजों का आशीर्वाद पाने के लिए निरंतर मंत्रों को पढ़ा जाता है। पर्यवेक्षक उन पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं जिन्होंने उनके जीवन के लिए बहुत योगदान दिया है और माफी मांगते हैं और उनके उद्धार और शांति के लिए प्रार्थना भी करते हैं।अमावस्या व्रत के दिनहिंदू कैलेंडर के अनुसार, चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) से शुरू होने वाले पुरे वर्ष में 12 अमावस्या होता है। यहां आश्विन अमावस्या के अलावा अमावस्या के दिनों की सूची दी गई है।चैत्र अमावस्या, वैशाख अमावस्या, ज्येष्ठ अमावस्या, आषाढ़ अमावस्या , श्रावण अमावस्या, भाद्रपद अमावस्या, पिथौरी अमावस्या, आश्विन अमावस्या, सर्व पितृ अमावस्या, सर्वपितृ दर्श अमावस्या, कार्तिक अमावस्या, दिवाली, लक्ष्मी पूजा, मार्गशीर्ष अमावस्या, पौष अमावस्या, माघ अमावस्या, मौनी अमावस, फाल्गुन अमावस्या।यदि अमावस्या सोमवार के दिन पड़ती है तो सोमवती अमावस्या कहलाती है।----
- (जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा, दूसरा भाग)विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस युग में समन्वयवादी जगद्गुरु हुये हैं। इनके पूर्व हुए चारों मूल जगदगुरुओं ने किसी न किसी वाद की स्थापना की। आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी ने अद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य जी ने द्वैताद्वैतवाद तथा जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य जी ने द्वैतवाद की स्थापना की। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने पूर्ववर्ती समस्त मूल जगदगुरुओं के वादों का समन्वय किया।इसके अलावा आज सम्पूर्ण विश्व में ग्यारह धर्म चल रहे हैं - हिन्दू वैदिक धर्म, जैन, बौद्ध, ईसाई, सिक्ख, इस्लाम, यहूदी, पारसी, ताओ और कन्फ्यूशियस तथा शिन्तो धर्म। जीवात्मा के परम चरम लक्ष्य आनंदप्राप्ति के साधनों में इन सब में विरोधाभास सा है। एक ही धर्म में भी विरोधी बातें हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इन सब विरोधाभासों को दूर करके, सभी धर्मों का सम्मान करते हुये ऐसा मार्ग बताते हैं, जो सार्वभौमिक है।जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अन्य बहुत सी ऐसी विशेषताएं हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, अर्थात कुछ विशिष्ट घटनायें समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के इतिहास में इनके ही जीवन में पहली बार घटित हुई हैं। संक्षेप में, वे इस प्रकार हैं -(1) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनका कोई गुरु नहीं है और वे स्वयं जगद्गुरुत्तम हैं।(2) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु जिनके लाखों अनुयायी हैं।(3) ये पहले जगद्गुरु हैं जिनके जीवन काल में ही जगद्गुरुत्तम उपाधि की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई गई हो, वर्ष 2007 में।(4) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त दान किया।(5) ये पहले जगद्गुरु हैं जो समुद्र पार, विदेशों में प्रचारार्थ गये।(6) ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने पूरे विश्व में श्री राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर राधा नाम को विश्वव्यापी बना दिया।(7) सभी महान संतों ने मन से ईश्वर भक्ति की बात बतायी है, जिसे ध्यान, सुमिरन, स्मरण या मेडीटेशन आदि नामों से बताया गया है। श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रुपध्यान नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान की सार्थकता तभी है जब हम भगवान के किसी मनोवांछित रुप का चयन करके उस रुप पर ही मन को टिकाये रहें। मन को भगवान के किसी एक रुप पर न टिकाने से मन यत्र-तत्र संसार में ही भागता रहेगा। भगवान को तो देखा नहीं तो फिर उनके रुप का ध्यान कैसे किया जाय, उसका क्या विज्ञान है, उसका अभ्यास कैसे करना है, आदि बातों को भक्तिरसामृतसिंधु, नारद भक्ति सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ 'प्रेम रस सिद्धान्त' ग्रन्थ में बड़े स्पष्ट रुप से समझाया है।(8) ये पहले जगद्गुरु हैं जो 93 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि प्रमाणों के नम्बर इतनी तेज गति से बोलते थे कि श्रोताओं को स्वीकार करना पड़ता था कि ये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ के मूर्तिमान स्वरुप हैं।महापुरुषों की महिमा बता सकने में तो स्वयं भगवान भी अपने को असमर्थ पाते हैं, तब मायिक बुद्धि भला क्या कह अथवा लिख सकेगी? तथापि कुछ गुणों तथा माहात्म्य की ओर ध्यानाकर्षण इसलिये आवश्यक है ताकि हमारा मन उन महापुरुषों के प्रति श्रद्धानवत हो। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रदत्त 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' इस आधुनिक विश्व के लिये ऐसी दिव्यौषधि है, जिसका पान करके निश्चय ही भगवान की मोहमयी माया के इस संसार के प्रपंच से बचा जा सकता है तथा उस दिव्य प्रेमानन्द, सेवानन्द का परमातिपरम सौभाग्य सहज ही पाया जा सकता है।(संदर्भ- भगवतत्त्व, जगदगुरुत्तम तथा साधन साध्य पत्रिकायें)सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- (जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा , यहां से पढ़ें..)
यह सत्य ही है,
जो समझा दे श्रुति सार, उर भरा प्रेम रिझवार ।सोइ है सद्गुरु सरकार, गुरु सोइ कृपालु सरकार ।।अकारण करुणा के स्वरुप भगवान् और महापुरुष जीवों के कल्याण हेतु ही अवतार लेते हैं क्योंकि वे परोपकार के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। 'बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता । हरि कृपा से ही श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष का सान्निध्य प्राप्त होता है।लगभग 5000 वर्ष पूर्व, आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा की रात्रि में श्री कृष्ण ने गोपियों को महारास का रस दिया था और इसी दिन सन् 1922 की आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) को रस सिंधु भक्तियोगरसावतार विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज का आविर्भाव एक विशिष्ट उच्च ब्राम्हण परिवार में हुआ। विश्व भर में आज यह शुभ दिन जगद्गुरुत्तम-जयंती के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं जगद्गुरुत्तम-जयंती होगी।उनका जन्म भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश, प्रतापगढ़ जिला, तहसील कुण्डा स्थित मनगढ़ नामक ग्राम में सर्वोच्च ब्राम्हण कुल में मां भगवती जी की गोद में हुआ। मनगढ़ धाम भगवदीय गुणों से संपन्न एक ऐसी दिव्य लीलास्थली है जिसके कण कण में अविरल दिव्य प्रेम रस की मधुर धारा अहर्निश प्रवाहित होती रहती है। आज यह ग्राम भक्तिधाम के नाम से सुप्रसिद्ध है।श्री महाराज जी (श्री कृपालु जी महाराज) की प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुण्डा में संपन्न हुई। पश्चात् आपने इंदौर, चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में ही चित्रकूट के शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ जंगलों एवं वृन्दावन के निकट जंगलों में गुप्तवास किया। तदन्तर भक्तजनों के अति आग्रह करने पर आपने जीव-कल्याणार्थ श्री राधाकृष्ण भक्ति का प्रचार प्रारम्भ कर दिया।जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में आपने चित्रकूट में एक विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए। सन् 1956 में ऐसा ही एक विराट संत सम्मेलन आपने कानपुर में आयोजित किया। आपके समस्त वेदों शास्त्रों के अद्वितीय असाधारण ज्ञान से वहां उपस्थित काशी विद्वत् परिषत (भारत के शीर्षस्थ 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की एकमात्र सभा) के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण शुक्ल षट्शास्त्री ने काशी आने का निमंत्रण दिया। वहां श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिए गए विलक्षण प्रवचन एवं भक्ति से ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान स्तंभित रह गए। तब सबने एकमत होकर आपको पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि श्री कृपालु जी महाराज जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।...धन्यो मान्य जगद्गुरुत्तमपदै: सोयं समभ्यच-र्यते( काशी विद्वत् परिषत द्वारा दिए गए पद्यप्रसूनोपहार में)यह ऐतिहासिक घटना 14 जनवरी 1957 की मकर संक्रांति को हुई। उस समय श्री महाराज जी की आयु 34 वर्ष की थी। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पाँचवें मूल जगद्गुरुत्तम् हैं। उनके पूर्व केवल 4 महापुरुषों को ही मूल जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई थी - आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य एवं जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य।पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं एवं आचार्यों के दार्शनिक सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना समन्वयवादी दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को काशी विद्वत् परिषत् ने निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी विभूषित किया तथा उन्हें भक्तियोगरसावतार की उपाधि भी प्रदान की। उन्होंने समस्त जगत के प्रेमपिपासु जनों को भगवान श्रीराधाकृष्ण की सर्वोच्च भक्ति महारास-रस अथवा गोपीप्रेम का सिद्धान्त प्रदान कर उन्हें इस प्रेम-माधुर्य की रसवृष्टि से सराबोर किया। अगनित विरोधाभासों का समन्वय करते हुये वेदों के विकृत हो चुके स्वरुप को पुन: प्रतिष्ठित किया तथा सामान्य जनमानस के जीवन के लिये आध्यात्म-पथ का सुगम, व्यवहारिक मार्ग सुझाया, जिसमें गृहस्थ में रहकर भी साधना करते हुये भी भगवान को प्राप्त कर सकने का मार्गदर्शन है।यहां तक का जो भी परिचय है वह विलक्षण व दिव्य होते हुए भी सामान्य लग सकता है। उनके परिचय के कुछ अंश प्रस्तुत करने के बाद लगता है कि परिचय अभी प्रारम्भ ही नहीं हुआ। उनकी भगवद्-प्रतिभा और उनके स्वरुप की वास्तविकता और महिमा को कौन सी बुद्धि नाप सकती है?समस्त विश्व उनके द्वारा दिए गए अद्वितीय और अनुपम उपहारों के लिए युग-युगान्तर तक ऋणी ही रहेगा.ल। श्रीवृन्दावन स्थित दिव्य श्री प्रेम मंदिर, रँगीली-महल बरसाना धाम स्थित श्री कीर्ति मैया मंदिर तथा भक्तिधाम मनगढ़ स्थित श्री भक्ति मंदिर युगों-युगों तक भक्ति, प्रेम, आध्यात्म तथा सनातन वैदिक परंपरा के अद्वितीय संवाहक, स्तम्भ तथा धुरी-ध्वजा रहेंगे। इस वर्ष जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की 98 वीं जयंती होगी। इस अवसर पर इस जगद्गुरुत्तम-जयंती श्रृंखला में हम उनकी महिमा को थोड़ा गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। वास्तव में उनकी महिमा को तो उनकी कृपा ही जना सकती है.... यथा, सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ ...उनकी अवतारगाथा की श्रृंखला के लेख प्रत्येक सोमवार तथा मंगलवार को सुधि-पाठकजनों के मध्य प्रकाशित की जायेगी, आशा है कि श्रद्धालु तथा भावुक हृदय के आप सभी प्रेमीजन इन लेखों से किंचित लाभ प्राप्तकर इस युग के जगदगुरुत्तम के पावन चरित तथा उनके अवतार के महोद्देश्य से परिचित होंगे।(संदर्भ - जगद्गुरु कृपालु परिषत से प्रकाशित; 'भगवतत्त्व', जगदगुरुत्तम तथा साधन-साध्य पत्रिकायें)सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज से साधकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों में से यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शायद यह प्रत्येक साधक अपने जीवन में अनुभव करता है। किंतु इसके उत्तर में कृपालु महाप्रभु जी यह संकेत दे रहे हैं कि साधक को अपने मन को खराब नहीं करना चाहिये और यह समझे रहना चाहिये कि संस्कारवश होकर ही लोग भक्तिविषयक चीजों के प्रति खींचते अथवा दूर रहते हैं। यह भी संकेत देते हैं कि शरणागत अनुयायी जब लापरवाह बन जाय तो गुरु को दु:ख होता है। इन बातों को हृदय में रखकर आइये उनके द्वारा प्रदत्त उत्तर पर हम चिंतन करें ::::::::(जब शरणागत गड़बड़ करे तो गुरु को दु:ख होता है...)साधक द्वारा पूछा गया प्रश्न - महाराज जी ! हम लोग लोगों को सिद्धांत समझाते हैं कि भगवान् की ओर चलो. अच्छे-अच्छे हमारे रिश्तेदार, हमारे दोस्त वो बात नही समझते और हम दु:खी हो जाते हैं। लेकिन महापुरुष पूरी लाइफ समझाता रहता है तो लोग कितने समझते हैं. तो क्या वो महापुरुष दु:खी होता है, उनको भी परेशानी होती है क्या?जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिया गया उत्तर - जैसी परेशानी मायाबद्ध को होती है, ऐसी परेशानी उनको नहीं होती। मायाबद्ध को तो ऐसा है कि उसने कुछ अपमानजनक बात जवाब में कह दिया बजाय मानने के और उल्टा भगवान् के खिलाफ ही बोल दिया कुछ तो दु:खी होता है गृहस्थी आदमी। फील करता है और द्वेष बुद्धि होने लगती है उसकी उसके प्रति। महापुरुष को ये सब कुछ नहीं। वो समझ लेता है कि संस्कार नहीं है इसके। ये यह नहीं समझ रहा है। हो सकता है भविष्य में समझे। वो उदासीन रहते हैं। उसका अपना जन (साधक) जो शरणागत हो रहा है फिफ्टी परसेंट शरणागत हो रहा है और वो गड़बड़ करता है तो दु:खी होते हैं। जैसे पड़ोसी का बेटा बीमार है तो पड़ोसी दु:खी नहीं होता। उसका अपना बेटा बीमार होता है तब दु:खी होता है।(जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी से साधकों के प्रश्नोत्तर पर आधारित, क्रद्गद्घ. प्रश्नोत्तरी पुस्तक, भाग 2, पृष्ठ 157, प्रश्न संख्या 50)सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचनबहुधा भक्तिमार्ग में जब हम कदम रखते हैं और कुछ उन्नति करने लगते हैं तो स्वभाववश कुछ असावधानी से अपने भीतर अपनी साधना के अभिमान का अंकुर फूट पड़ता है और यदा-कदा हम किसी नास्तिक को देखकर उसे अभागा समझकर उसका अपमान भी कर बैठते हैं। यह अभिमान भक्ति का घोर विरोधी है। इससे भक्ति की हानि होती है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस संबंध में साधक समुदाय को संबोधित करते हुये बहुत महत्वपूर्ण सलाह दे रहे हैं, आइये उनके शब्दों द्वारा इसे समझें ::::::::
(साधक को अपनी साधना के मिथ्याभिमान से सदा बचना है!!..)..किसी नास्तिक को देखकर यह मिथ्याभिमान भी न करना चाहिए कि यह तो कुछ नहीं जानता, मैं तो बहुत आगे बढ़ चुका हूँ. क्योंकि बड़े से बड़े घोर नास्तिक भी कभी-कभी इतना आगे बढ़ जाते हैं कि बड़े-बड़े साधकों के भी कान काट लेते हैं. यह सब विशेषकर पूर्व जन्म के संस्कारों के द्वारा ही हो जाता है. तुम किसी के संस्कारों को क्या जानो, अतएव सभी जीव गुप्त या प्रकट रूप से भगवत्कृपाप्राप्त हैं ऐसा समझकर किसी को भी घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए; किन्तु इतना अवश्य है कि संग उन्हीं का करना चाहिए जिनके द्वारा हमारी साधना में वृद्धि हो..
किसी भी दशा में तुम गोविन्द राधे,हरि विमुखों का संग करो ना बता दे..(प्रवचनकर्ता -जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)(संदर्भ/स्त्रोत -जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य)(सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन)