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- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 201
(साधक अपनी साधना की उन्नति के लिये जो प्रयत्न करता है, उसे कुसंग की अग्नि भस्म कर देती है. समस्त कुसंगों में परदोष-दर्शन भयानक है, क्यों और साधक क्या करे, जानिये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीवचनों से...)
परदोष-दर्शन भी घोर कुसंग है, क्योंकि परदोष-दर्शन से दो हानि है। एक तो यह कि परदोष-दर्शनकाल ही में स्वाभाविक-रूप से स्वाभिमान-वृद्धि होती है, जो कि साधक के लिये तत्क्षण ही पतन का कारण बन जाती है। दूसरे यह कि परदोष-चिन्तन करते हुये शनैःशनैः बुद्धि भी दोषमय हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हीं सदोष विषयों में ही प्रवृत्ति होने लगती है, अतएव सदोष कार्य होने लगता है।
फिर जब संसारमात्र ही सदोष है, तो हम कहाँ तक दोषचिन्तन करेंगे? आश्चर्य तो यह है कि मूर्ख, मूर्ख को, मूर्ख क्यों कहता है? वह भी तो स्वयं मूर्ख है। यदि यह कहो कि क्या करें, दोष-दर्शन का स्वभाव सा बन गया है, तो हमें कोई आपत्ति नहीं, तुम दोष देख सकते हो, किन्तु दूसरों के नहीं, अपने ही दोष क्या कम हैं? अपने दोषों को देखने में तुम्हारा स्वभाव भी न नष्ट होगा, तथा साथ लाभ भी होगा, वह महान् लाभ तुलसी के शब्दों में;
जाने ते छीजहिं कछु पापी..
अर्थात् अपने दोष जान लेने पर कुछ न कुछ बचाव हो जाता है, क्योंकि फिर वह जीव उससे बचने का कुछ न कुछ अवश्य प्रयत्न करता है। मेरी राय में तो परदोष-चिन्तन करना ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है, अन्यथा भला उसको इन बातों से क्या अभिप्राय है?
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - गुप्त नवरात्रि हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होता है। गुप्त नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा की सात्विक और तांत्रिक विधि से पूजा-अर्चना की जाती है। माघ गुप्त नवरात्रि 12 फरवरी (शुक्रवार) से शुरू हो चुके हैं जो 21 फरवरी समाप्त होगी। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुप्त नवरात्र साल में दो बार आते हैं। पहले गुप्त नवरात्र अषाढ़ के महीने में और दूसरे माघ के महीने में। गुप्त नवरात्रि के दौरान गुप्त रूप से मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। गुप्त नवरात्रि के पीछे यह विचार प्रचलित है कि इस दौरान मां दुर्गा की गुप्त रूप से पूजा की जाती है। ऐसा करने से पूजा का फल कई गुना ज्यादा मिलता है।गुप्त नवरात्रि के दौरान करें ये उपाय-1. गुप्त नवरात्रि में मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए पूजा के दौरान कमल का फूल चढ़ाएं। अगर आपके पास कमल का फूल नहीं है तो गुप्त नवरात्रि में अपने घर कमल के फूल वाली कोई तस्वीर भी लगा सकते हैं। कहते हैं कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।2. गुप्त नवरात्रि में धन और समृद्धि की प्राप्ति के लिए चांदी या सोने का सिक्का घर पर लाने से बरकत आती है। मान्यता है कि मां लक्ष्मी प्रसन्?न होकर सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं।3. अगर आपके घर में कोई व्यक्ति काफी समय से बीमार है तो गुप्त नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा को लाल रंग के पुष्प अर्पित करें। इसके साथ ही ऊं क्रीं कालिकायै नम:, मंत्र का जप करें। कहते हैं कि ऐसा करने मां लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।4. गुप्त नवरात्रि के दौरान कर्ज से भी मुक्ति पा सकते हैं। गुप्त नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के समक्ष गुग्गल की सुगंध वाली धूप जलाएं। कहते हैं कि ऐसा करने से कर्ज से मुक्ति मिलती है।5. नवरात्र में मोरपंख को घर में लाना भी बहुत शुभ माना जाता है। मां लक्ष्मी की सवारी में से एक मोर भी होता है। मोर पंख को घर पर लाने से आपके घर में मां लक्ष्मी की कृपा भी आती है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 200
(प्रेम के अर्थ और स्वरूप की व्याख्या आचार्य श्री की वाणी में यहाँ से पढ़ें....)
प्रेम... प्रेम शब्द का अर्थ होता है;
सर्वथा ध्वंसरहितम् सत्यपि ध्वंस कारणे।यद्भवावबन्धनं यूनोः सः प्रेमा परिकीर्तितः॥(भक्तिरसामृतसिन्धु)
ये परिभाषा भक्तिरसामृतसिन्धु में महारासिकों ने की है कि प्रेम के नष्ट होने का कारण हो फिर भी प्रेम नष्ट न हो, उसको प्रेम कहते हैं। हमारे संसार में जितना प्रेम है ये स्वार्थ पर डिपेंड करता है। हमारे स्वार्थ की सिद्धि जितनी लिमिट में, जहाँ होने की आशा होती है उतनी लिमिट में वहाँ मन का प्यार हो जाता है। नैचुरल।
अगर हमें आशा है सेंट परसेंट स्वार्थ सिद्ध होगा तो सेंट परसेंट प्रेम ले लो और अगर दूसरे दिन फिफ्टी परसेंट आशा रह गई, तो प्रेम घट के फिफ्टी परसेंट हो गया। तीसरे दिन अगर ऐसा आभास हुआ कि यहाँ कुछ स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा तो प्रेम जीरो पर आ गया। ये माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति सबका प्यार इसी प्रकार अप-डाउन, अप-डाउन दिन भर होता रहता है।
तो संसार में प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि वो स्वार्थ पर आधारित है और स्वार्थ तो परिवर्तनशील होता है। तो प्रेम की परिभाषा है कि प्रेम नष्ट होने का कारण हो और फिर भी प्रेम नष्ट न हो।
गौरांग महाप्रभु ने प्रेम की परिभाषा बताई, प्रैक्टिकल। उन्होंने कहा, हे श्रीकृष्ण!
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।यथा तथा व विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥
हे श्रीकृष्ण! तुम तीन काम कर सकते हो; या तो मेरा आलिंगन कर के प्यार कर लो, या तो चक्र चला के मार दो और या न्यूट्रल हो जाओ, उदासीन हो जाओ। तुम कौन हो, हम पहचानते नहीं - ऐसे बन जाओ। हम तीनों में चैलेंज कर रहे हैं तुमको। इन तीनों में जिस अवस्था में सुख मिले वो करो। हमारे प्रेम में इन तीनों अवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं होगा। वो बढ़ता जाएगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 199
(भाग्य सम्बन्धी शंकाओं पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा तत्वचर्चा..)
भगवान हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।
प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है। भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है, तब भगवान उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों को तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है। किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान के कानून में नहीं है।
वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे। जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा। जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।
भगवान की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्धजन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान की ही प्राप्ति हुआ करती है। यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे। यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - सिर्फ खुशगवार मौसम, खेतों में लहराती फसलें व पेड़-पौधों में फूटती नई कोपलें ही वसंत या बसंत ऋतु की विशेषता नहीं हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के उल्लास का, प्रेम के चरमोत्कर्ष का, ज्ञान के पदार्पण का, विद्या व संगीत की देवी के प्रति समर्पण का त्यौहार भी वसंत ऋतु में मनाया जाता है। माना जाता है कि इसी दिन जगत की नीरसता को खत्म करने व समस्त प्राणियों में विद्या व संगीत का संचार करने के लिए देवी सरस्वती पैदा हुई। इसलिए इस दिन शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थानों में मां सरस्वती की विशेष रुप से पूजा की जाती है।हिंदू पंचांग में माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंत पंचमी कहा जाता है। माना जाता है कि विद्या, बुद्धि व ज्ञान की देवी सरस्वती का आविर्भाव इसी दिन हुआ था। इसलिए यह तिथि वागीश्वरी जयंती व श्री पंचमी के नाम से भी प्रसिद्ध है। ऋग्वेद के 10/125 सूक्त में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन किया गया है। हिंदूओं के पौराणिक ग्रंथों में भी इस दिन को बहुत ही शुभ माना गया है व हर नए काम की शुरुआत के लिए यह बहुत ही मंगलकारी माना जाता है।बसंत पंचमी पौराणिक कथामाना जाता है कि ब्रह्मा जी ने श्रृष्टि की रचना तो कर दी, लेकिन वे इसकी नीरसता को देखकर असंतुष्ट थे फिर उन्होंने अपने कमंडल से जल छिटका जिससे धरा हरी-भरी हो गई व साथ ही विद्या, बुद्धि, ज्ञान व संगीत की देवी प्रकट हुई। ब्रह्मा जी ने आदेश दिया कि इस श्रृष्टि में ज्ञान व संगीत का संचार कर जगत का उद्धार करो। तभी देवी ने वीणा के तार झंकृत किए जिससे सभी प्राणी बोलने लगे, नदियां कलकल कर बहने लगी हवा ने भी सन्नाटे को चीरता हुआ संगीत पैदा किया। तभी से बुद्धि व संगीत की देवी के रुप में सरस्वती पूजी जाने लगी।मान्यता है कि जब मां सरस्वती प्रकट हुई तो भगवान श्री कृष्ण को देखकर उन पर मोहित हो गई व भगवान श्री कृष्ण से पत्नी रुप में स्वीकारने का अनुरोध किया, लेकिन श्री कृष्ण ने राधा के प्रति समर्पण जताते हुए मां सरस्वती को वरदान दिया कि आज से माघ के शुक्ल पक्ष की पंचमी को समस्त विश्व तुम्हारी विद्या व ज्ञान की देवी के रुप में पूजा करेगा। उसी समय भगवान श्री कृष्ण ने सबसे पहले देवी सरस्वती की पूजा की तब से लेकर निरंतर बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा लोग करते आ रहे हैं।बसंत पंचमी के दिन को माता पिता अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत के लिए शुभ मानते हैं। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार तो इस दिन बच्चे की जिह्वा पर शहद से ए बनाना चाहिए इससे बच्चा ज्ञानवान होता है व शिक्षा जल्दी ग्रहण करने लगता है। बच्चों को उच्चारण सिखाने के लिहाज से भी यह दिन बहुत शुभ माना जाता है। 6 माह पूरे कर चुके बच्चों को अन्न का पहला निवाला भी इसी दिन खिलाया जाता है।चूंकि बसंत ऋतु प्रेम की रुत मानी जाती है और कामदेव अपने बाण इस ऋतु में चलाते हैं इस लिहाज से अपने परिवार के विस्तार के लिए भी यह ऋतु बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए बसंत पंचमी को परिणय सूत्र में बंधने के लिए भी बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है व बहुत से युगल इस दिन अपने दांपत्य जीवन की शुरुआत करते हैं।गृह प्रवेश से लेकर नए कार्यों की शुरुआत के लिए भी इस दिन को शुभ माना जाता है।इस दिन कई लोग पीले वस्त्र धारण कर पतंगबाजी भी करते हैं।
- आज वसंत पंचमी बनाई जा रही है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था। इसलिए इस दिन मां सरस्वती की विधि-विधान से पूजा की जाती है। शास्त्रों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए...-धार्मिक दृष्टि से वसंत पंचमी का पर्व बेहद ही महत्व है। यह पर्व ज्ञान और सुरों की देवी मां सरस्वती को समर्पित है। इसलिए वसंत पंचमी के दिन बिना स्नान किए भोजन नहीं करना चाहिए, संभव हो तो इस दिन मां सरस्वती के लिए व्रत रखें।-वसंत पंचमी के दिन पीले रंग का विशेष महत्व है। यह रंग मां सरस्वती को प्रिय है। इसलिए इस दिन विद्या की देवी को पीले रंग के वस्त्र अर्पित करें। वसंत पंचमी के दिन रंग-बिरंगे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, बल्कि पीले रंग के वस्त्र पहनने चाहिए।-शास्त्रों के अनुसार, वसंत पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। इस पावन दिन के अवसर पर प्रकृति में बसंत ऋतु का सुंदर और नवीन वातावरण छा जाता है। इसलिए आज के दिन पेड़ पौधों को भूलकर भी नहीं काटना चाहिए।-मां सरस्वती ज्ञान और विद्या की देवी हैं। इस कारण शास्त्रों में वसंत पंचमी को विद्यारंभ एवं अन्य प्रकार के मांगलिक कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन किसी को अपशब्द नहीं बोलना चाहिए।-वसंत पंचमी के पावन दिन अपने मन में किसी व्यक्ति के लिए बुरे विचार न लाएं। बल्कि अपने मन में मां सरस्वती का ध्यान लगाएं। मां सरस्वती के ध्यान से आपको वीणा वादिनी का आशीर्वाद प्राप्त होगा।-ज्ञान के बिना व्यक्ति का जीवन अंधकारमय होता है और मां सरस्वती ज्ञान की देवी हैं। इस दिन मां सरस्वती की विधि-विधान से पूजा होती है। इसलिए इस दिन जातकों को सात्विक जीवन व्यतीत करना चाहिए और मांस-मदिरा के सेवन से दूर रहना चाहिए।-वसंत पंचमी के पावन दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
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जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 198
(जैसे प्राण के बिना शरीर का महत्व नहीं, साधना में रूपध्यान की ऐसी ही महत्त्वता पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संक्षिप्त प्रकाश...)
अन्तरंग नियमों में सबसे प्रमुख है 'रूपध्यान'। ये तो आप लोगों को पता ही है कि साधना, 'ईश्वरीय साधना' केवल मन को करनी है। केवल मन को। इन्द्रियाँ इसलिये साथ लगा दी जाती हैं, वेद कहता है, इन्द्रियाँ बाहर की ओर ले जाने वाली है। ये स्वयं भू ब्रह्मा ने, इन्द्रियों को ऐसा बनाया है, जो बाहर की ओर जाती हैं, भागती हैं, नेचुरल। तमाम जन्मों का अभ्यास भी है। और फिर इन्द्रियाँ भी प्राकृत हैं, संसार भी प्राकृत है; इसलिये सजातीय होने के कारण स्वाभाविक आकर्षण संसार की ओर होता है। हम संसार देखते हैं, सुनते है, सूँघते है, रस लेते हैं, स्पर्श करते हैं, तो हमारा मन संसार की ओर तत्काल आकृष्ट हो जाता है। इसलिये हमको सबसे पहले ये सोचना है कि हम उपासक हैं, साधक हैं, श्रीकृष्ण के दास हैं। इसके बाद फिर सोचना है श्रीकृष्ण हमारे स्वामी हैं। राधाकृष्ण को हम पहले अपने सामने खड़ा करें। चाहे अपने अन्तःकरण में खड़ा करें। चाहे अपने सामने खड़ा करें, चाहे स्वयं को भाव देह बना करके, अपना सूक्ष्म शरीर बना करके, इस शरीर से निकल करके, और भगवान के लोक में चले जायें। जिसको जिस प्रकार की रुचि हो, अच्छा लगे, जैसा आपका हिसाब बैठ जाय, इस प्रकार से रूपध्यान करें; किन्तु बिना रूपध्यान के कोई भी साधना न करें।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधना नियम पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - आजकल लोग वास्तु शास्त्र को बहुत महत्व देने लगे हैं। घर बनवाते समय या ऑफिस बनवाते समय लोग वास्तु पर ध्यान जरूर है। इसके लिए कई बार लोग विशेषज्ञों की सलाह भी ले लेते हैं। यदि भवन का निर्माण वास्तु नियमों के अनुसार किसी कारण वश नहीं हो पाता या किसी तरह की कोई कमी रह जाती है तो यह मकान में रहने वालों गंभीर प्रभाव डालता है। इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए कुछ उपाय सुझाएं गए हैं। इन उपायों को करने से वास्तु दोष से बचा जा सकता है।हम आज कुछ ऐसे उपाय बता रहे हैं, जिसे अपनाकर आप अपने घर का वास्तु दोष दूर कर सकते हैं।1. चाहें आपके घर में कैसा भी दोष क्यों न हो उससे मुक्ति पाने के लिए आपको घर के मुख्य द्वार पर रोली से स्वास्तिक बना देना चाहिए। यह चिन्ह सौभाग्य लाता है। वहीं, शाम के समय घर की दहलीज पर नियम से दीपक जलाना चाहिए।2. घर के मुख्य द्वार पर सूरजमुखी के फूलों की फोटो लगानी चाहिए। इससे व्यक्ति के जीवन में मौजूद नेगिटिविटी खत्म हो जाती है। साथ ही सुख-समृद्धि का वास भी होता है। घर का जो कोण नैऋत्य हो उसे कभी भी अंधकार में नहीं रखना चाहिए।3. शाम के समय घर के वायव्य दिशा में रोशनी कर देनी चाहिए। यह उत्तर और पश्चिम के बीच की दिशा होती है। इस दिशा का तत्व वायु होता है। यहां पर शाम के समय रोशनी रखनी चाहिए। इससे घर का नकारात्मकता दूर होती है।4. अगर घर के किसी कोने में वास्तु दोष है जहां बिना तोड़-फोड़ किए ही दोष दूर किया जा सकता है तो घर की दक्षिण-पूर्व दिशा में जलभरा कोई भी मिट्टी का पात्र रख दें। इससे घर के सभी दोष खत्म हो जाते हैं। घर का सभी फालतू सामान भी बाहर कर दें।5. उत्तर दिशा में हो वास्तु दोष हो तो भवन के उत्तर दिशा की दीवारों पर सदैव हल्के हरे रंग का पैंट करवाएं। इससे आपके घर में धन एवं अवसर प्रचुर मात्र में उपलब्ध होंगे। भवन का उत्तरी भाग वास्तु दोष से पीडि़त है लक्ष्मी यंत्र व कुबेर यंत्र की स्थापना करवाना शुभफलदायी है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 197
साधक का प्रश्न ::: सर्वान्तर्यामी और अन्तर्यामी दोनों के बीच में क्या अंतर होता है ?
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: अन्तर्यामी जो होता है वो हर एक महापुरुष होता है। जिसने भगवत्प्राप्ति की हो वो सब अन्तर्यामी हो जाते हैं और सर्वान्तर्यामी केवल भगवान हैं। वो इसलिये कि सभी जीवों के अंतःकरण में वह एक-एक रूप से रहता है। ऐसा नहीं कि अलग गोलोक में बैठकर सर्वान्तर्यामी है, ऐसा नहीं। हर एक जीव के अंतः करण में एक भगवान का रूप सदा रहता है। स्वर्ग जाय, नरक जाय, मृत्यु लोक में जाय चाहे जहाँ रहे वो साथ रहता है हमेशा और वो सबके आइडियाज, पुराने जन्मों के कार्य का हिसाब सब करता है। धन्धा उसका यही है। वो सर्वान्तर्यामी है और सर्वव्यापक है और महापुरुष अन्तर्यामी है जिसके मन की बात जब जानना चाहे जान सकता है। लेकिन सदा नहीं जानता रहता। यह काम भगवान का है क्योंकि वो कर्मफल देना है उनको, तो उनको हमेशा जानना पड़ेगा । भगवान सर्वव्यापक हैं और आत्मा शरीर व्यापक। ये जीवात्मा खाली एक शरीर में है और भगवान जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: प्रश्नोत्तरी पुस्तक, भाग - 2०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 196
साधक का प्रश्न: महाराज जी, भक्ति मार्ग का अधिकारी कैसा होता है?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :::
..नातिसक्तो न वैराग्यभागस्यामधिकार्यसौ।(भक्तिरसामृतसिन्धु)
अर्थात जो न तो अत्यन्त आसक्त हो, न अत्यन्त विरक्त हो वह भक्तिमार्ग का अधिकारी होता है। अधिकारी तीन प्रकार के होते हैं।
उत्तमो मध्यमश्चैव कनिष्ठश्चेति तलिधा।
(1) उत्तम (2) मध्यम (3) कनिष्ठ।
(1) उत्तम अधिकारी,
शास्त्रे युक्तौ च निपुणः सर्वथा दृढनिश्चयः।प्रौढ़श्रद्धोऽधिकारी यः स भक्तावुत्तमो मतः।।(भक्तिरसामृतसिन्धु)
अर्थात जो शास्त्र एवं युक्ति दोनों ही में निपुण होता है, तथा जो सब प्रकार से दृढ़ निश्चय वाला होता है, एवं जिसकी श्रद्धा प्रगाढ़ होती है, वही भक्ति मार्ग का उत्तम अधिकारी है। ऐसे अधिकारी पर कुसंग अथवा तार्किकों के वाग्जाल का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, अतएव वह साधना में प्रतिक्षण अग्रसर होता जाता है।
(2) मध्यमाधिकारी,
यः शास्त्रादिष्वनिपुणः श्रद्धावान्स तु मध्यमः।
अर्थात जो शास्त्र एवं युक्ति में निपुण नहीं होता, किन्तु श्रद्धावान होता है, वह भक्ति मार्ग का मध्यम अधिकारी है। शास्त्र एवं युक्ति के द्वारा तत्वज्ञान दृढ़ न होने के कारण तर्कवादियों के वाग्जाल द्वारा उसका पतन हो सकता है, वह श्रद्धा के बल पर ही टिका रहता है। यदि कुसंग न मिला तब तो वह श्रद्धा से ही लक्ष्य पर पहुँच जाता है, किन्तु कुसंग के मिलने पर वह स्वयं संशयात्मा बन कर निराश तथा भ्रष्ट हो जाता है।
(3) कनिष्ठ अधिकारी,
यो भवेत्कोमलश्रद्धः स कनिष्ठो निगद्यते।(भक्तिरसामृतसिन्धु)
अर्थात जो साधारण-श्रद्धा से युक्त होता है, एवं शास्त्र तथा युक्ति से सर्वथा ही अपरिचित होता है, वह भक्ति मार्ग का कनिष्ठ अधिकारी है, उसके पास शास्त्र एवं युक्ति के बल का तो सर्वथा ही अभाव है, साथ ही श्रद्धा भी अल्प है, अतएव ऐसे अधिकारी के पतन की प्रतिक्षण विशेष आशंका है। ऐसे साधक किंचित भी कुसंग-प्राप्ति से तथा किंचित भी तार्किकों के वाग्जाल से पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव साधक को शास्त्र एवं युक्ति से युक्त तथा दृढ़ निश्चय वाला होकर प्रगाढ़ श्रद्धावान होना चाहिये, तभी वह निर्भयता पूर्वक निस्संदेह शीघ्र ही लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - - प्रेम विशुद्ध और दिव्य तत्व होता है, जो निर्मल मन वाली महान आत्मा को कृपा से मिलता हैआज कल सभी जगह प्रेम की ही चर्चा होती है। प्रेम वास्तव में क्या तत्व है, ये कोई बिरला ही जानता है। सच्चे प्रेम में मिलावट नहीं होती, किसी भी प्रकार की कोई भी इच्छा लेकर सच्चा प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम विशुद्ध और दिव्य तत्व होता है, जो निर्मल मन वाली महान आत्मा को कृपा से मिलता है। संसार को यह बात जगद्गुरु कृपालु जी महाराज ने बहुत ही सरल भाषा में बताई है।नारद भक्ति दर्शन का प्रमाण देते हुए कृपालु जी महाराज ने कहा है कि सबसे विलक्षण तत्व प्रेम है। उन्होंने इस प्रेम की प्राप्ति कैसे होती है, इस बात को संसार को बताने के लिए प्रेम रस सिद्धांत की रचना की है। ब्रज गोपिका सेवा मिशन के प्रयास से श्री कृपालु जी महाराज का विलक्षण साहित्य प्रेम रस सिद्धांत ,दर्जेलिंग भारत के हिल स्टेशन में रेल्वे प्लेटफॉर्म पर यात्रियों के लिए सर्वसुलभ किया गया।यह ग्रंथ समस्त शास्त्रों वेदों का सार है। कृपालु जी महाराज के पूर्व जितने भी जगद्गुरु हुए है (शंकराचार्य ,रामानुजाचार्य निम्बार्काचार्य एवं माधवाचार्य )उन्होंने संस्कृत भाषा में वेदों का सार लिखा है और लम्बी लम्बी टिकाएं लिखी हैं। जो आज के जन साधारण के लिए बहुत दुरूह है। महाराज श्री ने अत्यंत ही सरल भाषा में सारगर्भित, क्रमिक पाठ्यक्रम के अनुसार और सारे शास्त्रों का सार प्रेम रस सिद्धांत में रखा है। और ये एक ऐसा ग्रंथ है जिसको कोई जिज्ञासु पढ़ता है तो उसकी समस्त आध्यात्मिक शंकाओ का समाधान हो जाता है। और उसका भगवत अनुराग बढ़ जाता है। जो पीड़ा नास्तिकताजन्य है ( मन में निरंतर तमोगुणी, रजोगुणी विचारों का आना) यह ग्रंथ उसी पीड़ा का नाश करता है और व्यक्ति को नास्तिकता से आस्तिक बनाता है।समस्त मानव समाज को ये ग्रन्थ कम से कम एक बार अवश्य पढऩा चाहिए और ये समझना चाहिए की मानव जीवन का लक्ष्य क्या है?ब्रज गोपिका सेवा मिशन
- हर परिवार के एक कुलदेवता या फिर कुलदेवी होती हैं। इनकी पूजा खास मौकों पर की जाती है- जैसे घर में विवाह होने पर दुल्हन को कुलदेवता के दर्शन करवाएं जाते हैं। घर में संतान होने पर बच्चे को कुलदेवता के दर्शन करवाएं जाते हैं, लेकिन कुछ लोग रोजाना कुलदेवता की पूजा करते हैं।दक्षिण और महाराष्ट्र में आज भी कुछ परंपराएं हैं जिनमें घर में कुलदेवी के रूप में सुपारी अथवा प्रतिमा का पूजन करना, घर से बाहर लंबी यात्रा हो तो कुलदेवी को पहले पुकारना, साल में दो बार कुलदेवी पर लघुरूद्र अथवा नवचंडी करना आदि किआ जाता है। हर घर की एक कुलदेवी होती हैं। आज भारत में 70 प्रतिशत परिवार अपनी कुलदेवी को नहीं जानते। कुछ परिवार बहुत पीढिय़ों से कुलदेवी का नाम तक नहीं जानते । इसके कारण, एक निगेटिव दबाव उस घर के कुल के ऊपर बन जाता है और अनुवांशिक तकलीफें पैदा होती हैं।1. कुलदेवी की कृपा के बिना अनुवांशिक बीमारी पीढ़ी में आती है। एक ही बीमारी के लक्षण सभी लोगों में दिखते हैं।2. मानसिक विकृतियोंं का परिवार में आना।3. कुछ परिवार एय्याशी की ओर इतने मुखर हो जाते हंै कि सब कुछ गवां देते हैं।4. बच्चे गलत मार्ग की ओर भटक जाते हैं5. शिक्षा में अड़चनें आती है।6. परिवार में सभी बच्चे अच्छे पढ़ते हैं फिर भी नौकरी ठीक नहीं मिलती।7. कभी कभी किसी के पास पैसा बहुत होता है पर मनासिक तकलीफों समाधान नहीं होता है।8. यात्राओं में अपघात होते हैं अथवा यात्रा अधूरी रह जाती है।9. बिजनेस में ग्राहक पर प्रभाव नहीं बनता अथवा आवश्यक स्थिरता नहीं आती।10. विदेशों में बहुत भारतीय बसे हैं। पैसा होकर भी उनके जीवन में कोई न कोई अड़चन आती रहती है।कुलदेवी के रोष से कई संस्थान, राजवाड़े, महाराजे खत्म हो जाते हैं। कई परिवारों के वंश नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कुलदेवी का पूजन पहले करें।कैसे करें कुलदेवी की पूजा-कुलदेवता की पूजा करते समय शुद्ध देसी घी का दीया, धूप, अगरबत्ती, चंदन और कपूर तो जलाना ही चाहिए साथ ही कुलदेवता को रोजाना स्नान भी करवाना चाहिए और प्रसाद स्वरूप भोग भी लगाना चाहिए।-कुलदेवता को चंदन और चावल का टीका अर्पण करते समय ध्यान रखें की टूटे हुए या खंडित चावल ना हो। कुलदेवता को हल्दी में लिपटे पीले चावल पानी में भिगोकर अर्पण करना शुभ माना जाता है।-पूजा के समय पान के पत्ते का बहुत महत्व है। यदि आप पान का पत्ता अर्पित कर रहे हैं तो साथ में सुपारी, लौंग, इलायची और गुलकंद भी अर्पण करना चाहिए। इससे कुलदेवता प्रसन्न होते हैं।-कुलदेवता और देवी को पुष्प भी चढ़ाना चाहिए, लेकिन पुष्प चढ़ाते हुए आपको इन्हें पानी में अच्छी तरह से धोना चाहिए।-सभी देवी-देवताओं की पूजा जिस तरह सुबह-शाम की जाती है, उसी तरह कुलदेवी और देवता की पूजा भी दीपक जलाकर सुबह-शाम करनी चाहिए। रोजाना घर में दीपक जलाने से आप घर के वास्तुदोष को भी दूर कर सकते हैं।-आप आसन लगाकर शांत मन से कुलदेवता का ध्यान करें। ध्यान रहें, आप जिस आसन पर बैठे हैं उसका सम्मान करें और पैर से आसन को ना खिसकाएं बल्कि हाथ से ही आसन उठाकर रखें।-यदि आपके घर में कुलदेवी या देवता की तस्वीर नहीं है तो सुपारी को पान के पत्ते में बांधकर उसके ऊपर मौली बांधकर कुलदेवता का स्मरण करते हुए लौंग लगानी चाहिए और इस पर स्वस्तिक बनाना चाहिए।- पूजा घर में रोजाना कलश में जल रखें और कलश पर स्वस्तिक बनाएं। जल को रोजाना सूर्य देवता को अर्पण करें।इस तरह आप कुलदेवता या देवी की पूजा करेंगे तो आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 195
साधक का प्रश्न ::: महाराज जी! जो नित्यसिद्ध महापुरुष होते हैं, उनका तो कोई कर्म नहीं है फिर उनका कैसा, क्या प्रारब्ध होगा?
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: हाँ, वो काहे को भोगेंगे, वो तो केवल लोक शिक्षा के लिये कार्य करते हैं। जितने कार्य भगवान के हैं, सबसे पहले भगवान ही को लो। नित्य सिद्ध के बाप तो वही हैं। तो वो भी सब प्रकार का कार्य करते हैं, दिखाने के लिये। देखो! मैं बीमार होने जा रहा हूँ, प्रारब्ध भोगने जा रहा हूँ। वो तो लीला क्षेत्र में आदर्श स्थापन के लिये करते हैं। भगवान जब मृत्युलोक से गोलोक गये, श्रीकृष्ण तो;
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम् । (भागवत)
भागवत में कहा गया है कि योग धारण किया और महापुंज को बुलाया और फिर 'अदग्ध्वा', जलाया नहीं शरीर को और 'धामाविशत् स्वकम्' और अपने धाम चले गये। सोलह हजार एक सौ आठ ब्याह किया। एक-एक स्त्री के दस-दस बच्चे हुये हैं और इतना वैराग्य भी दिखा दिया कि सबको आपस में लड़ाकर मरवा दिया। ये केवल संसार को बताने के लिये, देखो! मेरी इतनी बड़ी फैमिली है और मैं सदा मुस्कराता रहता हूँ। तुम लोगों के एक-दो-चार बच्चे, माँ-पिता होंगे फैमिली में, चार-छ: आदमी और उसी में चौबीस घंटे टेन्शन है। हमारी इतनी बड़ी फैमिली है और देखो, मुझे कोई फीलिंग नहीं होती। ऐसे ही तुम लोग भी अभ्यास करो। योगियों को दिया उपदेश कि देखो तुम लोग योग की अग्नि प्रकट करते हो, कोई कोई योगी तो शरीर जला देते हो और फिर जाते हो ब्रह्म में मिलने और मैंने योग अग्नि प्रकट किया लेकिन जलाया नहीं। उनको भी इशारा कर दिया। तो इस प्रकार संसार को शिक्षा देने के लिये नित्य सिद्ध महापुरुष भी अनेक प्रकार के कार्य करते हैं। गौरांग महाप्रभु ने विवाह किया फिर स्त्री को त्याग करके संन्यासी हो गये और नित्यानंद से कहा कि तुम दो ब्याह कर लो। बड़ी-बड़ी खोपड़ी वाले भी रहे होंगे उस समय भी, उन्होंने यही कहा होगा, ये कुछ ढीला है इस बाबा का दिमाग। अपने आप तो बीवी को छोड़ देता है और अपने शिष्य नित्यानन्द से कहता है कि दो ब्याह कर लो। और एक इनका दास अस्सी वर्ष की बुढिय़ा से चावल माँगने गया, खाने के लिये भीख और वो भी अपने गुरु के लिये, गौरांग महाप्रभु लिये और उसको निकाल दिया कि तुम क्यों गये स्त्री से भिक्षा माँगने? तुम संन्यासी हो, सिर मुड़ाया है, दण्ड कमण्डल लिये हो, तुमको आज्ञा दी थी मैंने कि किसी स्त्री से भीख नहीं माँगना। और वो इतनी भक्त गौरांग महाप्रभु की थी वो अस्सी वर्ष की बुढिय़ा कि पूरे तौर पर वो भगवान मानती थी, संत नहीं मानती थी गौरांग महाप्रभु को, उससे भीख माँगा और निकाल दिया। उस समय भी हम लोग रहे होंगे और क्या कहा होगा? कुछ ढीला है और लोग कहते हैं कि ये भगवान का अवतार हैं। कोई नहीं समझ सकता नित्यसिद्ध के कार्य को, चाहे इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति कर लिया हो।
जार चित्ते कृष्ण प्रेमा करये उदय।तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय।।
जिसने भगवत्प्राप्ति कर लिया उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसकी मुद्रा, बड़े-बड़े ज्ञानी, वो भी नहीं जान सकते। साधारण बुद्धि वाला क्या जानेगा?
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - यदि भवन का निर्माण वास्तु नियमों के अनुसार किसी कारण वश नहीं हो पाता या किसी तरह की कोई कमी रह जाती है तो यह मकान में रहने वालों गंभीर प्रभाव डालता है। जिसके परिणाम स्वरूप मान हानि, पारिवारीक संबंधों में तनाव, आर्थिक रूप से असंतुष्टि, कानूनी विवाद और वैवाहिक जीवन में उतार- चढ़ाव समेत कई अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए कुछ उपाय सुझाएं गए हैं। इन उपायों को करने से वास्तु दोष से बचा जा सकता है।- पूर्व दिशा वास्तु दोष उपायभवन में पूर्व दिशा का शुद्ध होना घर, परिवारिक तनाव, विवाद निवारण हेतु एवं परिवार व सदस्यों की वृद्धि हेतु बहुत ही अनिवार्य है। यदि यह बाधित हो जाये तो मान सम्मान में कमी, मानसिक तनाव, गंभीर रोग व बच्चो का विकास बाधित होता है। ऐसे में दोष निवारण के लिए किसी ब्राह्मण को तांबे के पात्र में गेहूं व गुड़ के साथ लाल वस्त्र का दान करें। साथ ही पूर्व में सूर्य यंत्र की स्थापना प्राण प्रतिष्ठित विधि पूर्वक कराये अथवा सूर्योदय के समय तांबे के पात्र से सूर्य देव को सात बार गायत्री मंत्र का जापकर जल में लाल चन्दन या रोली व गुड, लाल पुष्प मिलाकर अध्र्य दें। वास्तुदोष से शांति मिलेगी।--
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 194
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 11) ::::::
(1) भगवान का दर्शन भगवान का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद, जीव भगवान के बराबर धर्म वाला हो जाता है, भगवान नहीं हो जाता।
(2) भगवान योगमाया के पर्दे में रहते हैं और जीव माया के पर्दे में, अतः भगवान के साकार रूप में सामने खड़े होने पर भी हम उन्हें अपनी भावना के अनुसार ही देख पाते हैं।
(3) भगवान को अर्पित करके कर्म करने में, वह बंधनकारक भी नहीं होता और भगवान का स्मरण भी होता रहता है।
(4) जो ईश्वरीय कर्म आपसे बन जाते हैं, समझिये कि वे गुरुकृपा से ही बन पड़े हैं। उनमें अपने कर्तव्य के अहंकार को न आने दें।
(5) जब हमें यह बोध हो जायेगा कि संसार मायिक है किन्तु हम स्प्रिचुअल हैं, भगवान के अंश हैं अतः भगवान ही हमारा है, शरीर संसार का है, तभी हम भगवान की ओर उन्मुख हो पायेंगे।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश एवं साधन साध्य पत्रिकाएँ०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - उत्तर भारतीय शादीशुदा महिलाएं सुहाग की निशानी के रुप में सिंदूर को अपनी मांग में धारण करती हैं। जबकि दक्षिण में ये परंपरा नही हैं। उत्तर भारतीय नारियों के लिए सिंदूर सबसे बड़ा गहना होता है, जिसका संबंध पूर्ण रूप से पति से होता है। सिंदूर महिलाओं के लिए सौभाग्यवती चिन्ह होने के साथ साथ इसके अन्य लाभ भी हैं।परंपरागत रुप से सुहागिन महिलाओं द्वारा अपने पति की उम्र के लिए मांग में सिंदूर भरने का रिवाज माना जाता है। शादी में फेरों पर पति खुद अपने हाथ से अपनी पत्नी की मांग में सिंदूर भरता है, जिसके बाद महिला तब तक माथे में सिंदूर भरती है जब तक वह सुहागिन रहती हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लाल रंग से सती और पार्वती की उर्जा को व्यक्त किया जाता है। सती को हिंदू समाज में एक आदर्श पत्नी के रूप में जाना जाता है जो अपने धर्म अपनी शक्ति के दम पर भगवान से भी अपने वचन मनवाने की शक्ति रखती है। मान्यता यह भी है की सिंदूर लगाने से मां पार्वती महिलाओं को अखंड सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद भी देती हंै। सामाजिक रीत रिवाजों के अनुसार जब किसी लड़की की शादी होती है तो उस पर एक नए परिवार को सम्हालने के बहुत से दायित्व आते हैं, जिनके कारण उसे शारीरिक और मानसिक थकान महसूस होती है। माना जाता है कि मांग में सिंदूर लगाने से मन शांत रहता है और तनाव दूर होते हैं। इसीलिए शादी होने के बाद सिंदूर धारण करने की परंपरा चली आ रही है।परंपरागत कारणों के साथ साथ सिंदूर धारण करने के वैज्ञानिक कारण भी है। सिंदूर बनाने में अक्सर हल्दी, चंदन और हर्बल रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। मान्यता है कि इसे सिर के बीचो बीच लगाने से दिमाग शांत रहता है और घर में सुख शांति बनी रहती है। सिंदूर लगाने से शरीर के उच्च रक्तचाप पर नियंत्रण रहता है। इसके साथ साथ महिलाओं में काम भावना को जागृत करने में भी सिंदूर का विशेष महत्व होता है। मांग में जहां सिंदूर भरा जाता है वह स्थान ब्रह्मरंध और अध्मि नामक मर्म के ठीक ऊपर होता है। सिंदूर मर्म स्थान को बाहरी बूरे प्रभावों से बचाता है। इसके साथ ही माना जाता है कि सिंदूर में पारा जैसी धातु अधिक होने के कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़ती। इसके अलावा इससे स्त्री के शरीर से निकलने वाली विधुतीय उर्जा को भी नियंत्रित किया जाता है।सिंदूर लगाने का सही तरीकावैसे तो सभी विवाहित महिलाएं अपनी मांग में सिंदूर लगाती हंै मगर क्या आपको पता है की सिंदूर लगाने का सही तरीका क्या है? हिन्दू मान्यताओं के अनुसार जो महिला सिंदूर को अपने बालों में छुपा लेती है उनके पति समाज में कट सा जाता है, मतलब उसका सामाजिक महत्व कम हो जाता है। इसलिए सलाह दी जाती है की सिंदूर लंबा लगाएं और उसे बालो में छुपाए नहीं।-सिंदूर लगाने का सही स्थान मांग के बीचो बीच होता है, मान्यता ये है की जो स्त्री सिंदूर को किनारे पर लगाती हैं उनके पति उनसे किनारा कर लेते हैं। जिसके मतलब पति- पत्नी के रिस्तों में खटास आ जाती है और मतभेद बढ़ते हैं।-जैसा की माना जाता है की सिंदूर का संबन्ध पति की आयु से जुड़ा होता है, इसलिए कहा जाता है कि सुहागिन महिलाओं को लंबा सिंदूर लगाना चाहिए जिस से पति की आयु लंबी हो।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 193
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 10 के दोहा संख्या 50 से आगे)
निन्दनीय श्यामा श्याम प्रेम भी सकामा।वन्दनीय श्यामा श्याम प्रेम निष्कामा।।51।।
अर्थ ::: श्यामा श्याम का भी प्रेम यदि वह सकाम है, निंदनीय है। श्यामा श्याम का निष्काम प्रेम वन्दनीय है।
हरि गुरु ते न कछु माँगो ब्रज बामा।दोनों ते सदा करो प्रेम निष्कामा।।52।।
अर्थ ::: हरि एवं गुरु से कभी अपनी किसी कामना पूर्ति की आशा नहीं करनी चाहिये। जीव को सदैव निष्काम प्रेम ही करना चाहिये।
विष कीड़ा विष रस माँगे आठु यामा।मन माँगे विषयन नहिं माँगे श्यामा।।53।।
अर्थ ::: जिस प्रकार विष का कीड़ा निरंतर विष के रस में ही संतुष्ट रहता है, उसी प्रकार यह धूर्त मन भी निरंतर विषयों के रस में ही आनन्द का अनुभव करता है। यह श्रीराधिका के नाम, रूप, लीला, गुणादि का गायन, स्मरण आदि कर सुखानुभूति नहीं करता।
भुक्ति माँगें मूढ़ जन मिटै नहिं कामा।मुक्ति माँगें महामूढ़ कहें ब्रज बामा।।54।।
अर्थ ::: जो लोग भगवान से सांसारिक भोग माँगते हैं, वे मूर्ख हैं, मुक्ति की कामना करने वाले तो और भी अधिक मूर्ख हैं, क्योंकि मुक्त हो जाने पर तो भगवत्प्रेम मिलने की सम्भावना भी नहीं रहेगी।
माँगना हो तो माँगो सेवा श्याम श्यामा।सेवा हित पुनि माँगो प्रेम निष्कामा।।55।।
अर्थ ::: यदि माँगना ही है तो युगल-सरकार की सेवा ही माँगनी चाहिये। सेवा के लिये निष्काम-प्रेम की याचना करनी चाहिये।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
कई बार घर में मौजूद वास्तु दोष हमें खुशियों से दूर कर देते हैं। घर के वास्तु दोष के चलते परिवार को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए घर से वास्तु दोष को दूर करना आवश्यक हो जाता है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार वास्तु दोष को दूर करने के कुछ टिप्स
घर में अखंड रामायण का पाठ अवश्य कराएं। अगरबत्ती से जहां वातावरण सुगंधित हो जाता है वहीं सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी बढ़ता है। अगर घर में कोई व्यक्ति बीमार है तो अगरबत्तियां जलाकर घर के सभी कोनों में रख दें। घर के प्रवेश द्वार के पर्दे में घुंघरू बांधना शुभ माना जाता है। घर के मुख्य द्वार पर घोड़े की नाल बांधना भी शुभ माना जाता है। घर में कोई सदस्य बीमार है तो ध्यान रखें कि घर में मकड़ी जाला न बनाने पाए। घर में टूटा कांच न रखें। घर की डायनिंग टेबल गोल आकार की नहीं होना चाहिए। प्रतिदिन स्नान के बाद मस्तक पर टीका या कुमकुम लगाना चाहिए। विद्यार्थी सूर्यदेव को जल अवश्य अर्पित करें। मस्तक, कंठ पर केसर का तिलक लगाएं। इससे एकाग्रता और स्मरण शक्ति बढ़ती है। घर की खिड़कियां हमेशा अंदर की ओर खुलनी चाहिए। खिड़की का आकार जितना बड़ा होता है, उसे उतना अच्छा माना जाता है। किसी को घड़ी उपहार में न दें और न ही लें। मनी प्लांट को घर के अंदर उगाएं। मनी प्लांट को सीधे धूप से दूर रखें। अपने पर्स में धार्मिक चीजें रखें। शयनकक्ष में झाडू, तेल का कनस्तर, अंगीठी आदि न रखें। सीढिय़ों के नीचे बैठकर महत्वपूर्ण कार्य न करें। दुकान, फैक्ट्री, कार्यालय आदि स्थानों में वर्ष में एक बार पूजा अवश्य कराएं। गुरु को पीले वस्त्र दान करें।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 192
साधक का प्रश्न ::: महाराज जी! मानव देह जो मिलता है उसका एक लक्ष्य है भक्ति। लेकिन प्रायः ऐसा भी देखा जाता है कि दो साल, तीन साल में बच्चे मर जाते हैं, तो उसको मानव देह मिलने का कोई फायदा होगा?
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: हाँ, फायदा नहीं। वो भोग योनि है। जब तक बच्चे में नॉलेज न हो जाय, उसकी जो लिमिट बताई गई है; जैसे - बारह साल। तब तक के उसके कर्म को कर्म नहीं कहते। जैसे पशुओं का कर्म ऐसे ही उनका भी कर्म। उसका उसको फल भी नहीं मिलता कुछ। वो तो भोग के लिए आये हैं दो दिन, चार दिन, दो महिना, चार महिना के लिये। इसी प्रकार कोई सौ वर्ष भी जिये और गन्दे वातावरण में, उसके माँ-बाप सब राक्षस हों और साधना न कर सके, उसको भी कोई लक्ष्य नहीं मिला मानव देह मिलने का। प्रारब्ध खराब था लेकिन शरीर मिल गया। बस।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हमारे धर्म ग्रंथों में सूर्यदेव की जीवन प्रदाता कहा गया है। ये आरोग्य, मान-सम्मान और सौभाग्य प्रदान करते हैं। पंचदेवों में सूर्य ही एक ऐसे देव हैं जो हमें प्रत्यक्ष रूप से दर्शन देते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय को वे ही दिन-रात की संधि की तरह देखा जाता है। शास्त्रों में दोनों समय बहुत ही महत्वपूर्ण माने गए है। हमारे शास्त्रों में कुछ ऐसे कामों का उल्लेख किया गया है जिन्हें सूर्यास्त के बाद या दौरान कभी नहीं करना चाहिए। सूर्यास्त के समय या सूर्यास्त के बाद ये कार्य करना बेहद अशुभ माना गया है। माना जाता है कि संध्या के समय जब दोनों बेला मिलती है उस समय यदि कोई व्यक्ति ये कार्य करता है तो उसके घर में मां लक्ष्मी वास नहीं करती हैं। घर में दरिद्रता और नकारात्मकता बढऩे लगती है।तुलसी का स्पर्शसनातन धर्म को मानने वाले लगभग प्रत्येक घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगा होता है। जिस घर में तुलसी के पौधे की नियमित रूप से पूजा की जाती है, वहां पर मां लक्ष्मी वास करती हैं और घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि सूर्यास्त के बाद तुलसी में जल नहीं देना चाहिए और न ही इस स्पर्श करना चाहिए। मान्यता है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी रूष्ट हो जाती हैं, जिससे आपको धन हानि का सामना करना पड़ सकता है।सूर्यास्त के समय सोनाहिन्दू धर्मग्रंथों में सूर्योदय या सूर्यास्त के समय सोना और भोजन करना निषेध माना गया है। सूर्यास्त के समय जब दोनों बेला मिलती है, उस समय किया गया भोजन और नींद लेना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। ऐसा करने से स्वास्थ्य के साथ धन की हानि भी होती है।झाड़ू लगानासुबह के समय घर की साफ-सफाई करना, बुहारी लगाना जितना सकारात्मक माना जाता है, सूर्यास्त के बाद झाड़ू लगाना उतना ही अशुभ माना जाता है। झाड़ू को देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। मान्यता है कि संध्या के समय या सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू लगाने से सौभाग्य का नाश होता है। घर में दरिद्रता का वास होने लगता है। संध्या के बाद झाड़ू को स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। घर में साफ-सफाई, बुहारी आदि का कार्य सूरज ढलने से पहले ही निपटा लेना चाहिए।बाल कटवाना या संवारनासूर्यास्त से समय या फिर सूर्य डूबने के बाद कभी भी अपने बाल ना कटवाएं और ना ही शेव करवाएं। इसी तरह से सूर्य अस्त होने के पश्चात महिलाओं को अपने बाल नहीं संवारने चाहिए। माना जाता है कि ऐसा करने से नकारात्मक प्रभाव हावी होता है।---
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जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 191
(भगवत्प्रेम के मार्ग पर आरुढ़ साधक समुदाय के लिये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत अमूल्य वचनामृत...)
ये ज्ञान 24 घंटे बना रहे बस वही शरणागत है। निरंतर बना रहे, निरंतर, निरंतर। इस शब्द पर ध्यान दीजिए, निरंतर।
गोलोक की गोपियों का केवल एक लक्ष्य है, एक लक्ष्य एक वाक्य में - प्रियतम के सुख के लिए मेरा जीवन है! बस दूसरा कोई सबक ना सुनना है, ना पढ़ना है, ना मानना है। इतना ही सबक आप लोगों को भी याद करना है, उनके लिए हमारा जीवन है। हमारे लिए हमारा जीवन नहीं, फिर हमसे जो नीचे हैं, उनके लिए हमारा जीवन कहाँ?
अगर गुरु के नित्य सान्निध्य का अनुभव करे तो साधना में बिजली की तरह आगे बढ़े, फिर क्या देर लगेगी। सबसे बड़ा जुर्म गुरु भगवान से चोरी है। इतना ही कोई स्वीकार करले कि हमारा शरण्य नित्य नोट करता है, हमेशा सावधान रहना है तो कोई गड़बड़ी कभी किसी से नहीं होगी।
दोषों के जाने का दो ही रास्ता है, एक तो हरि गुरु का नित्य सान्निध्य, नित्य देख रहे है - ये प्रतिक्षण फीलिंग लाओ और या तो भगवत्प्राप्ति कर लो, नैचुरल चले जाएंगे सब दोष। तीसरा कोई रास्ता नहीं।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भोजन हमारे जीवन का अहम हिस्सा है। हर घर में भोजन करने, परोसने और पकाने का अपना तरीका होता है। शास्त्रों के अनुसार जब भी भोजन पकाएं, नहा धोकर शुद्ध होकर अच्छे मन से काम करें। प्रसन्न मन से भोजन परोसें। और ऐसा कोई काम न करें जिससे अन्न का अपमान हो। ऐसा करने से माता अन्नपूर्णा प्रसन्न होती हैं और घर में कभी भी अन्न की कमी नहीं होती है।आइये आज जानें कि हमें भोजन करते समय और भोजन के बाद किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।- कुछ लोगों की आदत होती है कि खाना खाने के बाद थाली में हाथ धो लेते हैं। यह आदत कतई सही नहीं होती है। भूलकर भी कभी खाने खाने के पश्चात थाली में हाथ नहीं धोने चाहिए। खाना खाने के पश्चात थाली में कुछ अन्न के कण बचे रहते हैं। मान्यता है कि जब कोई थाली में जूठे हाथ धोता है तो अन्न का निरादर होता है। इससे मां लक्ष्मी और मां अन्नपूर्णा नाराज होती हैं। जो लोग ऐसा करते हैं, उनके घर में अन्न और धन की कमी होने लगती है।- जब लोग खाना खाते हैं तो अक्सर ज्यादा परोस लेते हैं, जिसकी वजह से खाने के बाद थाली में जूठा खाना बचा रह जाता है। थाली में जूठन छोडऩा अशुभ तो माना ही जाता है साथ ही इससे अन्न की बर्बादी भी होती है। शादी समारोह आदि में अक्सर यह देखने में आता है कि लोग खाने के बाद बहुत सारा खाना ऐसे ही छोड़ देते हैं। अन्न का अत्यधिक उपभोग व्यक्ति को दरिद्रता की ओर ले जाता है।- भारतीय संस्कृति में पहले भोजन की थाली रखने के लिए अलग से एक लकड़ी की पटरी होती थी। अब समय के साथ भोजन करने का तरीका भी बदल गया है। भोजन परोसते और किसी को देते समय थाली हमेशा चटाई, पाट या चौकट पर सम्मानपूर्वक रखना चाहिए। हो सकें तो जमीन पर बैठकर आराम से भोजन करें।- भोजन की थाली को हमेशा सम्मान के साथ दोनों हाथों से पकडऩा चाहिए।- भोजन करते समय सबसे पहले अपने इष्ट देव, माता अन्नपूर्णा और ब्रह्म देव को प्रणाम करना चाहिए।- भोजन के समय ज्यादा बातचीत, क्रोध, अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और न ही अपनी परेशानियों का दिक्कतों का बखान करते रहना चाहिए।-मेहमानों को भोजन आग्रह करते खिलाएं. ताकि वे भूखें न उठें और तृप्त होकर जाएं।----
- जब भी यज्ञ किया जाता है, तो हवन कुंड में आहूति देते समय स्वाहा कहा जाता है। कहा जाता है कि स्वाहा का उच्चारण किए बिना आहूति देने से देवताओं तक आहूति नहीं पहुंचती है और यज्ञ निष्फल हो जाता है। इसके पीछे कई कथाएं हैं।ऐसी ही एक कथा के अनुसार कहा जाता है कि 'स्वाहा' राजा दक्ष की पुत्री थीं, जिनका विवाह अग्निदेव के साथ संपन्न कराया गया था। इसीलिए अग्नि में जब भी कोई चीज समर्पित करते हैं, तो बिना स्वाहा का नाम लिए जब वह चीज समर्पित की जाती है, तो अग्निदेव उसे स्वीकार नहीं करते हैं। पहले के समय में ऋषि -धर्मात्मा यज्ञ, हवन जैसे धार्मिक अनुष्ठान मानवता के कल्याण के लिए करते रहते थे। आज भी हम अपने घर में जब भी कोई शुभ कार्य होता है, तो यज्ञ- हवन जरूर कराते हैं। कहते हैं कि कोई भी पूजा-पाठ बिना हवन के संपन्न नहीं होता है।ऐसी ही एक और कथा प्रचलित है, जिसमें कहा जाता है कि प्रकृति की एक कला के रूप में स्वाहा का जन्म हुआ था, और स्वाहा को भगवान कृष्ण से यह आशीर्वाद प्राप्त था कि देवताओं को ग्रहण करने वाली कोई भी सामग्री बिना स्वाहा को समर्पित किए देवताओं तक नहीं पहुंच पाएगी। यही वजह है कि जब भी हम अग्नि में कोई खाद्य वस्तु या पूजन की सामग्री समर्पित करते हैं, तो 'स्वाहा' का उच्चारण करना अनिवार्य होता है।एक अन्य कथा में बताया गया है कि एक बार देवताओं के पास अकाल पड़ गया और उनके पास खाने-पीने की चीजों की कमी पडऩे लग गई। इस विकट परिस्थिति से बचने के लिए भगवान ब्रह्मा जी ने यह उपाय निकाला कि धरती पर ब्राह्मणों द्वारा खाद्य-सामग्री देवताओं तक पहुंचाई जाए। इसके लिए अग्निदेव का चुनाव किया गया, क्योंकि यह ऐसी चीज है जिसमें जाने के बाद कोई भी चीज पवित्र हो जाती है। हालांकि अग्निदेव की क्षमता उस समय भस्म करने की नहीं हुआ करती थी, इसीलिए स्वाहा की उत्पत्ति हुई और स्वाहा को आदेश दिया गया कि वह अग्निदेव के साथ रहें। इसके बाद जब भी कोई चीज अग्निदेव को समर्पित किया जाए तो स्वाहा उसे भस्म कर देवताओं तक उस चीज को पहुंचा सके।यही कारण है कि जब भी अग्नि में कोई चीज हवन करते हैं, तो 'स्वाहा' बोलकर इस विधि को संपूर्ण की जाती है, ताकि खाद्य पदार्थ या हवन की सामग्री देवताओं को सकुशल पहुंच सके। इस प्रकार सदियों से हवन कुंड में आहूति देते समय स्वाहा का उच्चाकरण किया जाता है।----
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 190
(साधना सम्बन्धी सावधानी, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से...)
हर समय श्रीकृष्ण को अपने साथ मानने का अभ्यास करो। और सब भूल जाओ संसार क्या है? अपने आपको तुम इस समय ऐसा महसूस करो कि संसार मे मेरा कोई नहीं हैं और ये फेक्ट भी है। डेली देख रहे हो, संसार से सभी को अकेले जाना है और अकेले आया भी है। ये बीच में मुसाफिरखाने का एक संग हो गया है। माँ, बाप, स्त्री, पति, बेटा का। शरीर चलाने के लिए इनका संबंध है। हमारे असली माता-पिता, कोई भी रिश्तेदार, केवल भगवान और महापुरुष हैं। इसलिए हरि और गुरु का ध्यान सदा सर्वत्र बना रहे और कोई कभी गलती भी कर जाय साधक, तो गलती को मत देखो, ये देखो कि हमने गलती क्यों देखा? प्रायः ऐसा होता है कि आपस मे कभी छोटी-छोटी बात में, छोटे-छोटे व्यवहार में एक दूसरे के प्रति दुर्भावना कर लेते है। ऐसा नहीं होना चाहिये। उसने गलती की ये तुमने सोचा क्यों? अतः अभ्यास करो, अभ्यास से ही काम बन जायेगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हिंदू सनातन धर्म में कलाई पर लाल धागा, मौली, नाड़ा बांधने की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। कलाई पर बांधे जाने वाले धागे को मौली या रक्षासूत्र भी कहा जाता है। पूजा-पाठ, धार्मिक अनुष्ठान और विशेष तिथियों पर मंत्र उच्चारण करते हुए यह धागा बांधा जाता है। इसके बिना पूजा पूरी नहीं मानी जाती है। कलाई पर बांधी जाने वाली मौली में तीन और पांच रंग के धागे होते हैं। मौली बांधने के धार्मिक लाभ तो होते ही हैं यह स्वास्थ्य के लिए भी बहुत फायदेमंद रहती है।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए वामन स्वरूप में भगवान विष्णु ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था। इसके अलावा जब देवराज इन्द्र वृत्रासुर से युद्ध करने जा रहे थे,तब इंद्राणी ने उनकी भुजा पर रक्षा सूत्र बांधा था। माना जाता की इसलिए रक्षा कवच के रूप में मौली बांधी जाती है।जब भी कलाई पर ये धागा बंधवाते हैं तब अपने मंत्रों का जाप भी किया जाता है। जिसका सकारात्मक प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है। मौली में तीन से लेकर पांच रंगों का सूत प्रयोग किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि हाथ में मौली का बांधने से मनुष्य पर भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती एवं सरस्वती का आशीर्वाद बना रहता है। मान्यता अनुसार मौली बुरी नजर और संकट से रक्षा करती है।मौली कलाई पर उस स्थान पर बांधी जाती है, जहां से नाड़ी की गति मापी जाती है और व्यक्ति के शरीर में रोग का पता किया जाता हैं। इस जगह पर मौली बांधने से नाड़ी की गति पर दबाव बना रहता है, इसी स्थान से शरीर का नियंत्रण रहता है। मौली से दबाव बने रहने से कफ, वात और पित्त में सामंजस्य स्थापित होता है, जिससे हम कब,वात और पित्त से संबंधित रोगों से बचे रहते हैं।मौली का अर्थ :'मौली' का शाब्दिक अर्थ है 'सबसे ऊपर'। मौली का तात्पर्य सिर से भी है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।कहां-कहां बांधते हैं मौली?मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता है।मौली करती है रक्षामौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।